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समन्तभद्र-विचार-दीपिका
नहीं होता कि उनके दुख-सुखके उत्पादनका अभिप्राय नहीं होता, वैसी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषयमे आसक्ति ही होती है, तो फिर इससे तो अनेकान्त सिद्धान्तकी ही सिद्धि होती हैउक्त एकान्तकी नहीं । अर्थात् यह नतीजा निकलता है कि अभिप्रायको लिये हुए दुख-सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है, अभिप्रायविहीन दुख सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु नहीं हैं ।
अत उक्त दोनो एकान्त सिद्धान्त प्रमाण से बाधित है, इष्टके भी विरुद्ध पड़ते है, और इसलिये ठीक नही कहे जा सकते ।
इन आपत्तियो से बचने आदिके कारण जो लोग दोनो एकान्तोको अंगीकार करते है, परन्तु स्याद्वाद के सिद्धान्तको नहीं मानते - अपेक्षा अनपेक्षाको स्वीकार नहीं करते - अथवा अवाच्यतैकान्तका अवलम्बन लेकर पुण्य-पापकी व्यवस्थाको 'अवक्तव्य' बतलाते है उनकी मान्यता मे
“विरोधानोभयैकात्म्यं स्याद्वाद - न्याय - विद्विषाम् । श्रवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ।। "
इस कारिका (नं० ६४) के द्वारा विरोधादि दूषण देनेके अनन्तर, स्वामी समन्तभद्रने स्व- परस्थ सुख - दुःखादिकी दृष्टिसे पुण्य-पापकी जो सम्यक् व्यवस्था श्रर्हन्मतानुसार बतलाई है उसकी प्रतिपादक कारिका इस प्रकार है।
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विशुद्धि-संक्लेशाङ्ग ं चेत् स्व- परस्थं सुखाऽसुखम् । पुण्य-पापास्रवौ युक्तौ न चेद् व्यर्थस्तवाऽर्हतः ॥६५॥
इसमें बतलाया है कि -- 'अर्हन्तके मत में सुख-दुख आत्मस्थ हो या परस्थ - अपनेको हो या दूसरेको - वह यदि विशुद्धिका अंग है तो उस पुण्यास्रवका, संक्लेशका अंग है तो उस पापास्रवका हेतु है, जो युक्त है— सार्थक अथवा बन्धकर है - और यदि