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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ?
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अब दूसरे पक्षको दूषित ठहराते हुए आचार्य महोदय लिखते है
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां य ज्यानिमित्ततः ॥ ६३॥ 'यदि अपने दुखोत्पादनसे पुण्यका और सुखोत्पादनसे पापका बन्ध ध्रुव हे - निश्चितरूपसे होता है ऐसा एकान्त माना जाय, तो फिर वीतराग (कपायरहित ) और किद्वान मुनिजन भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये, क्योकि ये भी अपने सुख-दुखकी उत्पत्ति के निमित्तकारण होते है ।'
भावार्थ- वीतराग और विद्वान मुनिक त्रिकाल - योगादिके अनुष्ठान द्वारा कायक्लेशादिरूप दु.खकी और तत्त्वज्ञानजन्य संतोपलक्षणरूप सुखकी उत्पत्ति होती है । जब अपनमे 'दुख-सुख के उत्पादनसे ही पुण्य-पाप बँधता है तो फिर ये अकषाय जीव पुण्य-पापके बन्धनसे कैसे मुक्त रह सकत है? यदि इनके भी पुण्यपापका ध्रुव बन्ध होता है तो फिर पुण्य-पापके अभावको कभी अवसर नही मिल सकता, और न कोई मुक्त होनेके योग्य हो सकता है - पुण्य-पापरूप दोनो बन्धो के अभाव के बिना मुक्ति होती ही नहीं । और मुक्ति के बिना पन्धनादिककी भी कोई व्यवस्था स्थिर नही रह सकती, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है। यदि पुण्य-पापके अभाव बिना भी मुक्ति मानी जायगी तो ससृतिके—– ससार अथवा सांसारिक जीवन के — अभावका प्रसंग आएगा, जो पुण्य-पापकी व्यवस्था माननेवालों में से किसीको भी इष्ट नहीं है । ऐसी हालत में आत्म-सुख-दुख के द्वारा पाप-पुण्यक वन्धनका यह एकान्त सिद्धान्त भी सदोष है ।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अपने दुख मुखकी उत्पत्ति होने पर भी तत्त्वज्ञानी वीतरागियोंके पुण्य-पापका बन्ध इस लिये