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________________ ३० समन्तभद्र - विचार - दीपिका बन्धकी कथा ही प्रलापमात्र हो जाती है । अतः चेतन प्राणियों की दृष्टिसे भी पुण्य-पापकी उक्त एकान्त-व्यवस्था सदोष है । यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि उन कपाय जीवोंके दूसरो को सुख-दुख पहुॅचाने का कोई संकल्प या अभिप्राय नहीं होता, उस प्रकार की कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषय मे उनकी कोई आमन्ति ही होती है, इसलिये दूसरोके सुख-दुखकी उत्पत्तिमे निमित्तकारण होनेसे वे बन्धको प्राप्त नहीं होते, तो फिर दूसरोंमे दुःखोत्पादन पापका और सुखोत्पादन पुण्यका हेतु है, यह कान्त सिद्धान्त कैसे बन सकता है ? - अभिप्रायाभावके कारण अन्यत्र भी दुखोत्पादन से पापका और सुखोत्पादन से पुण्यका बन्ध नहीं हो सकेगा, प्रत्युत इसके विरोधी अभिप्राय के कारण दुःखात्पत्तिम पुण्यका और सुखोत्पत्ति से पापका बन्ध भी होसकेगा । जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचाने के अभिप्राय से पूर्णसावधानीके साथ फोड़ेका ऑपरेशन करता है परन्तु फोड़ेको चीरते समय रोगीको कुछ अनिवार्य दुःख भी पहुँचाता है, इस दुःखके पहुँचनेसे डाक्टरको पापका वन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुःखविरोधनी भावनाके कारण यह दुःख भी पुण्य बन्धका कारण होगा । इसी तरह एक मनुष्य कषायभावके वशवर्ती होकर दुख पहुँचाने के अभिप्रायसे किमी कुबड़ेको लात मारता है, लातके लगते ही अचानक उसका कुबड़ापन मिट जाता है और वह सुखका अनुभव करने लगता है, कहावत भी हैं - "कुबड़े गुण लात लग गई" --तो कुबड़े के इस सुखानुभवसे लात मारने वालेको पुण्यफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती - उसे तो अपनी सुखविरोधिनी भावनाके कारण पाप ही लगेगा । अत प्रथमपक्ष वालोका यह एकान्त सिद्धान्त कि 'परमं सुख-दुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है' पूर्णतया सदोप है, और इसलिये उसे किसी तरह भी वस्तुतत्त्व नहीं कह सकते ।
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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