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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? हैं। इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिकामें संपूर्ण शुभाऽशुभरूप पुण्यपाप-कर्मोके आस्त्रव-बन्धका कारण सूचित किया है। इससे पुण्यपापकी व्यवस्था बतलानेके लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है । ___सारांश इस सब कथनका इतना ही है कि सुख और दुख दोनों ही, चाहे स्वस्थ हो या परस्थ-अपनेको हों या दूसरोंकोकथंचित् पुण्यरूप प्रास्रव-बन्धके कारण है, विशुद्धिके अंग होनेसे; कथंचित् पापरूप आस्रव-बन्धके कारण है, संक्लेशके अंग होनेसे; कथंचित् पुण्य-पाप उभयरूप प्रास्रव-बन्धके कारण है, क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेशके अंग होनेसे; कथंचित् अवक्तव्यरूप है, सहार्पित-विशुद्धि-संक्लेशके अंग होनेसे। और विशुद्धि-संक्लेशका अग न होने पर दोनों ही बन्धके कारण नहीं है। इस प्रकार नय-विवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्गसे ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती है-सर्वथा एकान्तपक्षका आश्रय लेनेसे नहीं । एकान्त पक्ष सदोष है; जैसाकि ऊपर बतलाया जाचुका है और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नहीं हो सकता।
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