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समन्तभद्र-विचार-दीपिका और पापोंसे बाँधता है, जिनका दुखदाई अशुभ फल उमे इमी जन्म अथवा अगले जन्ममें भागना पड़ता है।
इसी तरह के और भी बहुतम उदाहरण दिये जा सकते है । परन्तु स्वामी समन्तभद्र इस प्रश्न पर एक दूसरे ही ढगस विचार करते है और वह एमा व्यापक विचार है जिममं दृसरे सब विचार समा जात है। आपकी दृष्टिमं व सभी जन स्व-पर-वैरी है जो 'एकान्तग्रह रक्त' है (एकान्तग्रह रक्ता स्वपरवैरिण.)। अर्थात जो लोग एकान्तके ग्रहणम आसक्त हे सर्वथा एकान्तपक्षके पक्षपाती अथवा उपासक है-आर अनेकान्तको नहीं मानते-वस्तुमे अनेक गुग्ग-धर्मोक होते हुए भी उसे एक ही गुणधर्मरूप अंगीकार करते है वे अपन और परक बैरी है। आपका यह विचार देवागमकी निम्नकारिका ‘कान्तग्रहरपु' 'म्बपरवैरिषु' इन दो पदो परम उपलब्ध होता है -
कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित । एकान्त-ग्रह-रक्तपु नाथ ! स्व-पर-वरिपु ॥ ८ ॥ इस कारिकामे इतना आर भी बतलाया गया है कि एसी कान्त मान्यतावाले व्यक्तियोमम किमीके यहाँ भी-किमीक भी मतमे--शुभ-अशुभ-कर्मकी. अन्य जन्मकी और 'चकार में इस जन्मकी, कर्मफलकी तथा बन्ध-मोक्षादिककी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । और यह सब इम कारिकाका सामान्7 अर्थ है । विशेष अर्थकी दृष्टिसे इससे साकेतिक ने यह भी सनिहित है कि ऐसे पकान्त-पक्षपातीजन स्वपरवरी कैग है और क्योकर उन के शुभऽशुभकर्मों, लोक-परलोक तथा बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था नहीं बन सकती। इस अर्थको अष्टसहनी-जैसे टीका-ग्रन्थोमे कुछ विस्तारके साथ खोला गया है । बाकी एकान्तवादियोकी मुख्य मुख्य कोटियोका वर्णन करते हुए उनके सिद्धान्नाका दृषित