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वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? २१ को ही दिया गया है।
इन सब उदाहरणो परसे यह बात सहज ही समझमे श्रा जानी है कि किलो कायका कर्ता या कारण होनेके लिये यह लाजिमी ( अनिवार्य ) अथवा जरूरी नहीं है कि उसके साथमे इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हो, वह उसके बिना भी हो सकता है ओर हाता है। साथ हो, यह भी स्पष्ट होजाता है कि किमी वस्तुको अपने हाथ उठाकर देने या किसीको उसके देने की प्रेरणा करकं अथवा आदेश देकर दिला देनसे ही कोई मनुष्य दाता नहीं होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है; जब कि उमक निमित्तसं, प्रभावसे आश्रयमे रहनस, सम्पर्कमे आनसे, कारणका कारण बननस काई वस्तु किसीको प्राप्त होजाती है। ऐसी स्थितिम परमवीतराग श्रीअर्हन्तादिदेवोमे कर्तृत्वादि-विपयका आरोप व्यर्थ नहीं कहा जा सकताभले ही वे अपने हायस मीधा किसीका कोई कार्य न करने हो, माहनीय कमक अभावम उनमें इच्छाका अस्तित्व नक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या आज्ञा देना ही उनसे बनता हो, क्योंकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पृजन, भजन, कीर्तन, स्तवन और आराधनस जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि और आत्माकी विशुद्धि होती है जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है- तब फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय?* सभी काय मिद्धिको प्राप्त होते है, भक्तजनोकी मनोकामनाएं पूरी हाती है और इमलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि 'हे भगवन ! आपके प्रसादम मेरा यह कार्य सिद्ध होगया।', जैसे कि रसायन के प्रसाढस प्रारोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है। रसायन औषधि जिस प्रकार अपना मेवन करने वालेपर प्रसन्न नहीं होती और
* "पृण्यप्रभावात् कि कि न भवति".---'पृण्यके प्रभावमे क्या-क्या नही होता' ऐसी लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है।