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________________ २२ समन्तभद्र-विचार-दीपिका न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान भी अपने सेवक पर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते है। प्रसन्नतापूर्वक सेवन-आराधनके कारण ही दोनोंमे रसायन और वीतरागदेवमे--प्रसन्नताका आरोप किया जाता है और यह अलंकृत भापाका कथन है। अन्यथा दोनोंका कार्य वस्तुस्वभावके वशवर्ती, संयोगोकी अनुकूलताको लिये हुए, स्वतः होता है-उममें किमीकी इच्छा अथवा प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं है। यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिस एक बात और प्रकट कर देने की है और वह यह कि, ससारी जीव मनसे, वचनसे व कायसे जो क्रिया करता है उससे आत्मामे कम्पन ( हलन-चलन ) होकर द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुओका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'आस्रव' कहते है । मन-वचन-कायकी यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उसमे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कर्मका आस्रव होता है । तदनुसार ही बन्ध होता है। इस तरह कर्म शुभ-अशुभके भेदसे दो भागोंमे बॅटा रहता है। शुभ कार्य करनेकी जिसमे प्रकृति ( स्वभाव-शीलता) होती है उसे शुभकर्म अथवा पुण्यप्रकृति और अशुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे अशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते है। शुभाऽशुभ भावोकी तरतमता और कषायादि परिमारणाकी तीव्रता-मन्दतादिके कारण इन कमप्रकृतियोमे बराबर परिवर्तन ( उलटफेर ) अथवा सक्रमण हुआ करता है । जिस समय जिस प्रकारकी कर्मप्रकृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्रायः उन्हींके अनुरूप निष्पन्न होता है। वीतरागदेवकी उपासनाके समय उनके पुण्यगुणोका प्रेम पूर्वक स्मरण एव चिन्तन करने और उनमे अनुराग बढ़ानेस शुभ भावो (कुशलपरिणामों) की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्य
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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