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वीतरागसे प्रार्थना क्यों ?
२३ - की पापपरिणति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है । नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियोका रस (व्यनुभाग) सूखता और पुण्यप्रकृतियोंका रस बढ़ता है। पापप्रकृतियो का रस सूखने और पुण्यप्रकृतियोंमे रस बढ़नेसे 'अन्तरायकर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पापप्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ( शक्ति-बल ) में विघ्नरूप रहा करती है-उन्हे होने नहीं देती-वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्ट कार्यको बाधा पहुँचानेमें समर्थ नहीं रहती। तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध होजाते है, बिगडे हुए काम भी सुधर जाते हैं और उन सबका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है । इसीसे स्तुति-वन्दनादिको इष्टफलकी दाता कहा है; जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकादिमें उद्धृत एक प्राचार्य महोदयके निम्न वाक्यसे प्रकट है
नेष्ट विहन्तु शुभभाव-भग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः। तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकदाऽर्हदादेः॥
जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्ट फलको देनेवाले है और वीतरागदेवमे कर्तृत्व-विपयका आरोप सर्वथा अमंगत तथा व्यर्थ नहीं है, बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार मंगत और सुघटित है—वे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे कर्ता न होते हुए भी निमित्तादिकी दृष्टि से कर्ता ज़रूर है और इसलिये उनके विषयमे अकर्तापनका सर्वथा कान्तपक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विपयक अथवा ऐसी प्रार्थनाओंका किया जाना भी असगत नहीं कहा जा सकता जो उनके सम्पके तथा शरणमे आनेस स्वयं सफल होजाती है अथवा उपासना एवं भक्ति के द्वारा सहज-साध्य होती है।