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समन्तभद्र - विचार - दीपिका
इस विषय में स्वामी समन्तभद्रका स्वयंभू स्तोत्रगत निम्न वाक्य खास तौर से ध्यान में लेने योग्य हैस्वदोष - शान्त्या विहितात्म- शान्तिः शान्तोबिंधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥
इसमे बतलाया है कि वे 'भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैमै उनकी शरण लेता हूँ- जिन्होने अपने दोपोकी - अज्ञान, मोह तथा राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विकारोकी शान्ति करके आत्मामे परमशान्ति स्थापित की हे पूर्ण सुख स्वरूप स्वाभाविकी स्थिति प्राप्त की है और इसलिये जो शरणागतोंको शान्तिके विधाता है - उनमे अपने आत्मप्रभाव से दोपोकी शान्ति करके शान्ति-मुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति सुखरूप परिणत करने में सहायक एव निमित्तभूत है । अत (इस शरणागति के फलस्वरूप ) शान्तिजिन मेरे संसार - परिभ्रमणका अन्त और सासारिक क्लेशी तथा भयोकी समाप्ति कारणभूत होवे ।'
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यहाॅ शान्ति - जिनको शरणागतो की शान्तिका जो विधाता (कर्ता) कहा है उसके लिये उनमें किसी इच्छा या तदनुकूल प्रयत्नके आरोप की जरूरत नहीं है, वह कार्य उनके 'विहितात्मशान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार होजाता है जिस प्रकार कि अग्निक पास जानेसे गर्मीका और हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुॅचनेसे सर्दीका संचार अथवा तद्रूप परिणमन स्वय हुआ करता है और उसमे उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिक-जैसा कोई कारण नहीं पड़ता । इच्छा तो स्वय एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वय स्वामीजीने उक्त स्तोत्रमे "अनन्तदोपाशयविग्रह " ( ६६ ) बतलाया है। दोषोकी शान्ति