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वीतरागसे प्रार्थना क्यों ?
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होजानेसे उसका अस्तित्व ही नहीं बनता । और इसलिये देवमे बिना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है । इसी कर्तृत्वको लक्ष्यमे रखकर उन्हे 'शान्तिके विधाता' कहा गया हैइच्छा तथा प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टि से वे उसके विधाता नहीं हैं। और इस तरह कर्तृत्व- विषयमे अनेकान्त चलता है - सर्वथा एकान्तपक्ष जैनशासनमें ग्राह्य ही नहीं है ।
यहाॅ प्रसंगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पड़ता है कि उक्त पद्यके तृतीय चरण मे सांसारिक क्लेशो तथा भोकी शान्ति कारणीभूत होनेकी जो प्रार्थना कीगई है वह जैनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी स्पष्ट दर्शन नित्यकी प्रार्थनाम प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथामे पाया जाता हैदुक्ख-खो कम्म-खो ममाहिमरणं च बोहि - लाहो य । मम होउ तिजगबंधव ! तव जिणवर चरण- मरणेण ||
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इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि - 'हे त्रिजगत के ( निर्निमित्त) बन्धु जिनदेव | आपके चरण-शरण के प्रसादसे मेरे दुःखोका क्षय, कर्माका क्षय, समाधिपूर्वक मरण और सम्यग्दर्शनादिकका लाभ होवे । इससे यह प्रार्थना एक प्रकार से आत्मोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूचित करती है कि जिनदेवकी शरण प्राप्त होनेसे - प्रसन्नतापूर्वक जिनदेव के चरणों का आराधन करनेसे -- दु.खाका क्षय और कर्मोका तयादिक मुखसाध्य होता है । यही भाव समन्तभद्रकी उक्त प्रार्थनाका है । इसी भाव को लेकर "मतिप्रवकः स्तुवताऽस्तु नाथ (२५) “भवतु ममाऽपि भवोपशान्तये” (१९१५) जैसी दूसरी भी अनेक प्रार्थनाएँ कीगई है। परन्तु ये ही प्रार्थनाएँ जब जिनेन्द्रदेवको साक्षात् रूपमे कुछ करने - करानेके लिये प्रेरित करती हुई जान पड़ती है तो वे अलकृत रूपको धारण किये हुए होती
रूप
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