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समन्तभद्र-विचार-दीपिका धारिणी प्रार्थनाओंके स्वयम्भूस्तोत्रगत कुछ नमूने इस प्रकार है
१. पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (५) २. जिन-श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् (१०) ३. ममार्य ! देयाः शिवतातिमुच्चैः (१५) ४. पूयात्पवित्रो भगवान् मनो मे (४०) ५. श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः (७५) ये सब प्रार्थना चित्त को पवित्र करने, जिनश्री तथा शिवसन्ततिको देने और कल्याण करनेकी याचनाका लिये हुए है, आत्मोत्कर्प एवं आत्मविकासको लक्ष्य करके की गई है,इनमे असंगतता तथा असंभाव्य जैसी कोई बात नहीं है-सभी जिनेन्द्रदेवके सम्पर्क प्रभाव तथा शरणम आनेसे स्वयं सफल होनेवाली अथवा भक्ति-उपासनाके द्वारा सहज-साध्य है-और इसलिये अलंकारकी भाषामं की गई एक प्रकारकी भावना ही है।
वास्तवमे परमवीतरागदेवसं विवेकीजनकी प्रार्थनाका अर्थ देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है अथवा यो कहिये कि अलंकारकी भापामे मनःकामनाको व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि 'वह आपके चरण-शरण एवं प्रभावमे रहकर और उससे कुछ पदार्थ पाठ लंकर आत्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छा कामना या भावनाको पूरा करनेमे समथ होना चाहता है। उसका यह प्राशय कदापि नहीं होता कि वीतरागदेव भक्तकी प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशक्ति एवं प्रयत्नाटिको काममे लाते हुए स्वय उसका कोई काम कर देगे, अथवा दूसरोसे प्रेरणादिकं द्वारा करा देगे। ऐसा आशय असंभाव्यको संभाव्य बनाने जैसा है और देवके स्वरूपस अनभिज्ञता व्यक्त करता है।