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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? पुण्य-पापका उपार्जन कैसे होता है कैसे किसीको पुण्य लगता, पाप चढ़ता अथवा पाप-पुण्यका उसके साथ सम्बन्ध होता है, यह एक भारी समस्या है, जिसको हल करनेका बहुतोंने प्रयत्न किया है। अधिकांश विचारकजन इम निश्चय पर पहुँचे है और उनकी यह एकान्त धारणा है कि -'दूसरोको दुख देने, दुख पहुँचाने, दुखके साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी नरह दुखका कारण बननेसे नियमत पाप होता है -पापका आस्रव-बन्ध होता है; प्रत्युत इसके दूसरोको सुख देने, सुख पहुँचाने, सुख के साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह सुखका कारण बननेसे नियमतः पुण्य होता है-पुण्यका आस्रवबन्ध होता है। अपनेको दुख-गुख देने आदिसे पाप-पुण्यके बन्धका कोई सम्बन्ध नही है।
दूसरोका इस विषयमे यह निश्चय और यह एकान्त धारणा है कि-'अपनेको दुख देने-पहुँचान आदिम नियमत. पुण्योपाजन और सुग्व देने आदिसे नियमत पापोपार्जन होता है-इसरो के दुख-सुखका पुण्य-पापके बन्धसे कोई सम्बन्ध नहीं है।'
स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिम ये दोनो ही विचार ए पक्ष निरे एकान्तिक होनेसे वस्तुतत्त्व नहीं है, और इसलिये उन्होने इन दोनोको सदोप ठहराते हुए पुण्य-पापकी जो व्यवस्था सूत्ररूपसे अपने 'देवागम' मे (कारिका २ से १५ तक ) दी है वह बड़ी ही मार्मिक तथा रहस्यपूर्ण है । आज इस विचारदीपिकामें वह सब ही पाठकोके सामने रक्खी जाती है।