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समन्तभद्र-विचार-दीपिका प्रथम पक्षको मदोष ठहराते हुए स्वामीजी लिखते है :पापं ध्रुवं परे दुःखात्पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ १२ ॥ 'यदि परमे दुःखोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका होना निश्चित है-ऐसा कान्त माना जाय तो फिर अचंतन पदार्थ और अकपायी (वीतरागी) जीव भी पुण्य-पापस बधन चाहिये; क्योकि वे भी दूसरोमे गुग्व-दुखकी उत्पत्तिके निमित्तकारण होते है। ___ भावार्थ-जब परमं मुख-दुखका उत्पादन ही पुण्य-पापका एक मात्र कारण है तो फिर दृध-मलाई तथा विष-कण्टकादिक अचंतन पदार्थ, जो दूसरोके नुख-दुखक कारण बनते है, पुण्यपापके बन्धका क्यो नही? परन्तु इन्हें कोई भी पुण्य-पापके बन्धकर्ता नहीं मानता ---कोटा पैरमे चुभकर दूसरेको दुख उत्पन्न करता है, इतने मात्रस उसे कोई पापी नहीं कहता और न पापफलदायक कर्मपरमाणु ही उससे पाकर चिपटते अथवा बन्धका प्राप्त होते है। इसी तरह दव-मलाई बहुतोको आनन्द प्रदान करते है, परन्तु उनके इस आनन्दसे दृध-मलाई पुण्यात्मा नहीं कहे जाते और न उनमे पुण्य-फलदायक कर्म-परमाणुओका ऐसा कोई प्रवेश अथवा सयोग ही होता है जिसका फल उन्हे (दूधमलाईको) वाटको मांगना पड़े। इससे उक्त रकान्त सिद्धान्त स्पष्ट मदोप जान पड़ता है। ___ यदि ग्रह का जाय कि चेतन ही बन्धके योग्य होते है अचेतन नहीं, तो फिर कपाग-रहित वीतरागियोके विपयमे आपत्तिको कैसे टाला जागा? व भी अनेक प्रकारसे दूसरोके दुख-सुखके कारण बनते है। उदाहरण के तौर पर किसी मुनुक्षुको मुनिदीक्षा देते है तो उसके अनेक सम्बन्धियोको दुख पहुँचता है। शिष्यों