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________________ समन्तभद्र-विचार-दीपिका __वास्तवमें स्वामी समन्तभद्रकी जो कुछ भी वचन-प्रवृत्ति होती थी वह सब लोककी हितकामना-लोकमे विवेककी जागृति, शान्तिकी स्थापना और सुख-वृद्धिकी शुभभावनाको लिये हुए होती थी। यह व्याख्या भी उसी उह श्यका लेकर---लोकमे हित की, विवेककी और मुख-शान्तिकी एकमात्र वृद्धि के लिये-लिखी जाती है । अथवा यो कहिये कि जगतका स्वामीजीक विचारोका परिचय कराने और उनसे यथेष्ट लाभ उठानेका अवसर देनेक लिये ही यह सब कुछ प्रयत्न किया जाता है । मैं इस प्रयत्नम कहाँतक सफल हो सकेंगा, यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता । म्वामीजीका पवित्र ध्यान, चिन्तन और आराधन ही मेरे लिये एक आधार होगा---प्राय. व ही इस विषयमे मेरे मुख्य सहायकमददगार अथवा पथप्रदर्शक होग। यह मै जानता हूँ कि भगवान समन्तभद्रम्वामाके वचनोका परा रहस्य समझने और उनके विचारोका पूरा माहात्म्य प्रकट करनेके लिये व्यक्तित्वरूपसे मै असमर्थ है, फिर भी "अशेष माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय सस्पर्शमिवाऽमृताम्बुधे "- 'अमृत ममुद्रके अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है' म्वामीजीकी इम सूक्तिके अनुसार ही मैने यह सब प्रयत्न किया है । आशा हे दीपिकारूपमं मेरी यह व्याख्या आचार्य महादयके विचारो और उनके वचनोक पूरे माहात्म्यको प्रकट न करती हुइ भी लोकके लिये कल्याणरूप होगी और इस स्वामीजीके विचाररूप-अमृतसमुद्रका केवन संम्पर्श ही समझा जायगा ।
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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