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________________ पान 157 xi. 130 SSSSSCRIBEEDSEISIS Serving Jin Shasan O 049391 // श्रीजिनाय नमः / / " (श्रीमेरुतुङसूरिविरचितं) ॥श्रीनाभाकराजचरित्रम् / / (गूर्जरभाषांतरोपेतं) छपावी प्रसिद्ध करनार पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज भा.बी कन्टाममाण सुरिक्षान दिद श्री मया जैन आराधना कन्द्रकोषा वीर संवत् 2459 किंमत रु.१-४-.. विक्रम संवत् 1989 seeeeeeeite P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. . . Jun Sun Aaradhiak Trus!
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________________ पान. 156 // 1 // रतन.3८ // श्रीआर्यरक्षितगुरुभ्यो नमः // नाभाक // श्रीविधिपक्षगच्छाचार्य-श्रीमेरुतुगसूरिविरचितम् गूर्जरभाषानुवादसमलंकृतम् // , // श्रीनाभाकराजचरित्रम् // सौभाग्यारोग्यभाग्योत्तममहिममहिख्यातिकान्तिप्रतिष्ठा-तेजःशौर्योर्जसम्पद्विनयनययशःसन्ततिप्रीतिमुख्याः B भावा यस्य प्रभावात् प्रतिपद उदयं यान्ति सर्वे स्वभावात् श्रीजीरापल्लिराजः स भवतु भगवान पार्श्वदेवो मुदेवः भावार्थ-जे प्रभुना माहात्म्यथी सौभाग्य, आरोग्य, भाग्य, उत्तम महिमा, सद्बुद्धि, प्रसिद्धि, कांति, सुकीर्ति, तेज शौर्य, बळ, * संपत्ति, विनय, सुनीति, यश पुत्र पुत्रादि परिवार, प्रीति विगेरे सर्वे पदार्थो निरन्तर स्वाभाविक उदय आवे छे, ते श्रीमान् जीरापल्लि अधिराज पार्श्वनाथ भगवान् तमारा हर्षने माटे थाओ // 1 // श्रीवीरजिनमानम्य, सम्यग नाभाकभूपतेः / देवद्रव्याधिकारेऽद-श्चरितं कीर्तियिष्यते // 2 // अर्थः-प्रभु श्रीमहावीरने सम्यक्प्रकारे नमस्कार करीने, देवद्रव्यना अधिकार उपर श्रीनामाकराजानुं चरित्र कहीश. // 2 // श्रीनामाकनरेन्द्रस्य, कथा श्रुतिपथागता / विद्येव जांगुली लोभ-विषं हन्ति विवेकिनाम् // 3 // FELESECRUS365 ॐHRSHISHES SS यो केचममागर सरि ज्ञान मंदिर भी महापार जेन आराधनाद्र,कोबा Gunratnasuri MS Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभा चरित्रं // 2 // // 2 // RAGHAAR अर्थ जेम जांगुली मंत्र सर्पना विषनो विनाश करे छे. जांगुली मंत्रथी सर्प विष उतरी जाय छे, तेम श्रवणपथमां आवेली देवद्रव्य परत्वेनी आ नामाकनरेन्द्रनी कथा विवेकी पुरुषोना लोभरूपी विषनो विनाश करे छे. // 3 // .... श्रीनाभाकनृपाख्यान-पानप्रीतमनाः पुमान् // सदा सन्तोषसंतुष्टः, सर्वसम्पचिभाग्भवेत् // 4 // 7. अर्थः-जे पुरुष श्रीनाभाकराजानी कथान पान करवामां हर्षित चित्तवाळो छे, ते निरन्तर संतोषवडे संतुष्ट थइ सर्व प्रकारनी समृद्धिने भजवावाळो थाय छे-ते पुरुषने सर्व प्रकारनी समृद्धि अनायासे प्राप्त थाय छे.॥४॥ पुरातनमनिप्रोक्तं, पुण्यं पुण्यार्थिनां प्रियम् / नाभाकचरितं चित्री-यते केषां न चेतसि // 5 // अर्थः-भाचीन महर्षिओए कहेलं, अने पुण्यना अर्थी भव्य प्राणीओने अतीव प्रियकर एवं श्रीनाभाकराजानं पवित्र चरित्र कोना चित्तमां आश्चर्य नथी करतुं ? अर्थात् पवित्र महापुरुष श्रीनाभाकराजानुं चरित्र असाधारण अने निर्दोष होवाथी दरेक पुरुषोना चित्तने विषे आश्चर्य उत्पन्न करनारुं छे. // 5 // ____ जब्बूद्वीपाभिधे द्वोपे, क्षेत्रे भरतनामके / श्रीपार्श्वनाथश्रीनेमि-नाथयोरन्तरेऽभवत् // 6 // __ अनेकश्रीपतिब्रह्म-जिष्णुश्रीदविभूषितम् / क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, पुरं स्वपुरजित्वरम् // 7 // अर्थ-जंबद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रमा श्रीपार्श्वनाथ अने श्रीनेमिनाथ जिनेश्वरने आंतरे क्षितिप्रतिष्ठित नामनं नगर हतं, ॐॐॐॐकनर MACGunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ जे नगर अनेक श्रीपति, अनेक ब्रह्म, अनेक जिष्णु, अने अनेक-श्रीद वडे शोभायमान होवाथी तेणे स्वर्गपरने पण जीती लीधु हतुं। नाभाक | स्वर्ग पुरनी अंदर श्रीपति एटले कृष्ण एकज छे, ज्यारे क्षितिमतिष्ठितनगरमां श्रीपति एटले साहुकारो तथा राजाओ अनेक हता। स्वर्ग पुरनी अंदर ब्रह्म एटले ब्रह्मा एकज छे, ज्यारे आ नगरमां ब्रह्म एटले ब्राह्मणो अनेक रहेता इता / स्वर्ग पुरनी अंदर जिष्णु // 3 // 5 एटले इन्द्र एकज छे, ज्यारे आ नगरनी अंदर जिष्णु-जयनशील एटले विजेता मोटा मोटा सामंतो तथा योद्धाओ अनेक इता। स्वर्गपुरमां श्रीद एटले कुबेर एकज छे, ज्यारे आ नगरनी अंदर श्रीद एटले लक्ष्मीनुं दान करनारा दानवीर पुरुषो अनेक हता। IP आ प्रमाणे दरेक रीते स्वर्ग पुरथी सितिमितिष्ठितनगर चडियातुं हतुं // 6-7 // सर्वाङ्गरत्नाभरणाभिभूषितै-र्यदीयभोगीशशतैस्तिरस्कृता। शीर्षस्फुरद्रत्नवरेकमण्डिता, भोगावती युक्तमगाद्रसातलम् // 8 // अर्थ-जे क्षितिप्रतिष्ठित नगरीमां वसता सर्वांगे रत्नोना आभूषणोथी सेंकडो भोगीशो वडे तिरस्कार पामेली भोगावती नगरी & रसातलमां चाली गइ ते युक्तज थयुं छे. कारण के-ते भोगावती नगरी, मस्तकने विषे स्फुरायमान उत्तम शेषमणिवाळा एकज भो गीश वडे शोभती छे, ज्यारे आ नगरीमां अनेक भोगीशो एटले समर्थ भोगीओ रहे छे / वळी भोगावती नगरीमा रहेता भोगीश 13 एटले शेषनागना मस्तकने विषेज रत्न-मणि छे, ज्यारे आ नगरीमां बसता सेंकडो भोगीशोने सर्वांगे रत्नोनां आभूषणो छ / आम & प्रमाणे क्षितिमतिष्ठित नगरीथी दरेक रीते उतरती भोगावती नगरी लज्जा पामीने रसातलमा चाली गइ छ / // 8 // aun Aaradhak ROCECESSASS 1565555ऊर A SAR
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________________ 15 // 4 // तत्र श्रीमान् महारूप-निरूपितपुरन्दरः। राजा नाभाकनामाऽभूद, अभूमिः पापतापयोः // 9 // नाभाक अर्थ ते नगरने विषे समृद्धिमान, पोतानां अलौकिक सौंदर्य वडे दृष्टान्तभूत करेलो छे इन्द्रने जेणे एवो, तथा पाप अने संतापर्नु अस्थान नाभाक नामनो राजा हतो // 9 // | पुरा कलाकेलिरनङ्गभावं, वधूद्वयेनापि जगाम दिव्यन् / वधूसहस्रैरपि सैष खेलन्, अवाप सर्वाङ्गमनोहरत्वम् अर्थ-पुरातन समयमां, कामदेव वे स्त्रीओ साथे खेलतो छतो पण अनंगपणाने पाम्यो हतो, परंतु आ नामाकराजा तो हजारो स्त्रीओनी साथे क्रीडा करतो छतो पण सर्वांगे मनोहरपणाने पाम्यो हतो / कामदेव रति अने प्रीति नामनी बेज स्त्रीओ साथे क्रीडा करवा छतां अनंगपणाने एटले अंगरहितपणाने पाम्यो हतो, पण आ राजा तो हजारो स्त्रीओनी साथे खेलतो हतो छतां पण सर्वांगे मनोहरपणाने पाम्यो हतो // 10 // तमन्यदा मदालीनं, सभायामेत्य भूपतिम् / सत्प्राभृतं पुरस्कृत्य, श्रेष्ठी कश्चिन्नमोऽकरोत // 11 // अर्थ-एक दिवसे ते राजा पोतानी सभामां हर्षित चित्ते बेठो हतो, ते अवसरे कोइक श्रेष्ठीए आवीने राजानी सन्मुख सुंदर है भेटणुं मूकी नमस्कार कर्यो // 11 // कस्त्वं कुतः समायातः कुत्र यासीति. भून उता / पृष्टे स्पष्टमथाचष्ट, श्रेष्ठीराचन्निशम्यताम् // 12 // अर्थ-त्यारे सजाए ते शेठने पूछयु के, तमे कोण छो? क्याथी आव्या छो? अने क्यां जाओ छो ? / तेना प्रत्युत्तरमा श्रेष्ठीए LESSOASIS JECTROCESSF SANSASSABAS RAccunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak 1
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________________ S चरित्रं स्पष्ट रीते कई के, हे राजन् ! मारुं समस्त वृत्तान्त सांभळो // 12 / / भािंक श्रेष्ठी धनाढ्यनामाऽहं, श्रीवसन्तपुरे वसन् / श्रीशत्रुजययात्रार्थ, चलितोऽत्र समागमम् // 13 // IPL अर्थ-हुँ वसंतपुर नगरमां निवास करुं छु. मारुं नाम धनाढ्य शेठ छे, अने श्रीशजय तीर्थनी यात्रार्थे जतां अहीं मारु आवq थयुं छे. 18| कः श्री शत्रुञ्जयस्तत्र, यात्रया किं फलं नृपे। पृच्छतीति भाग्यलभ्याः, सभ्याः पौराणिका जगुः // 14 // अर्थ-त्यारे, भाग्यथी जेमनी माप्ति थइ शके एवा महा धुरंधर सभामां बेठेला पौराणिक पुरुषोने राजाए पूछयु के, 'श्री शत्रु-18... जयतीर्थ कयुं ? तथा तेनी यात्राथी शुं फळ थाय?'। ए प्रश्ननो उत्तर पौगणिक पुरुषोए राजाने स्पष्टतापूर्वक समजावतां कयु के-॥ इक्ष्वाकुभूमौ भरतेऽत्र पूर्व, श्रीनाभिनामा कुलकृद् बभूव।। सद्वल्लभाऽभूद् मरुदेवी तस्याः, कुक्षौ जिनः श्रीवृषभोऽवतीर्णः // 15 // अर्थ-पहेलां आ भरतक्षेत्रमा इक्ष्वाकुभूमिने विषे श्रीनामि नामनां कुलकर थया, तेमने मरुदेवी नामनी श्रेष्ठ पत्नी हती. तेमनी कुक्षिमा श्रीऋषभदेव जिनेन्द्रनो जन्म थयो // 15 // असंख्यवर्षाणि न धर्मकर्मा-ऽभिज्ञो जनोऽभूत् समयानुभावात् / प्रकाश्य तन्मार्गयुगं तदत्रा-ऽवतीर्य सोऽनीतिपथं लुलोप // 16 // .. June ASIS P YRIGunratnasun M.S. सर
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________________ नाभाक अर्थ-काळना प्रभावथी असंख्यवर्षोथी जनसमुदाय धर्म अने कृषि-वाणिज्यादि कर्मथी अजाण इतो. ते सर्वेने प्रभुए आ भरतक्षेत्रमा अवतरीने धार्मिक अनुष्ठान तथा कृषि-वाणिज्य विगेरे व्यवहारिक क्रियाओ बतावी. आ प्रमाणे धर्म अने कर्म ए बन्ने पका| रना मार्ग समजावी अनीति मार्ग नो तद्दन लोप कर्योः // 16 // . आदौ स पाणिग्रहणं विधाय, शतं सुतानां च विभज्य राज्यम् / भुक्त्वा सुखं नीतिपथं विधाय, तप्त्वा तपो ज्ञानमनन्तमाप // 17 // . | अर्थ-पहेलां तेमणे सुनंदा अने सुमंगला नामनी चे कन्याओ साथे विवाह करी, सांसारिक सुख भोगवी, नीतिमार्ग प्रवर्तावी, भरत बाहुबलि विगेरे पोताना सो पुत्रोने जुदुं जुईं राज्य वहेंची आपी दीक्षा ग्रहण करी. त्यार पछी अनेक प्रकारना दुस्सह तप तपी केवलज्ञान प्राप्त कर्यु // 17 // ततः स धर्म दशधोपदिश्य, प्रबोधयन् भारतभव्यसत्त्वान् / शैले सुराष्ट्राभरणेऽधिरुह्य, क्वचित प्रियालुद्रुतलं सिषेव // 18 // . __ अर्थ-त्यार बाद प्रभु श्रीआदीश्वर क्षमादिक दस प्रकारना धर्म नो उपदेश करीने भारतवर्षना सर्व प्राणीवर्गने प्रतिबोध करता है यका सौराष्ट्र (सोरठ) देशना आभूषणतुल्य श्रीशत्रुजय पर्वतपर चडीने रायणवृक्षनी नीचे ध्यानारूढ थया // 18 // श्रीपुण्डरीकं गणनायकं श्री-प्रभुः पुरस्कृत्य तदेत्यवादीत। इदं महातीर्थमनाद्यनन्तं,कालेन सङ्कोचविकोचधर्मि Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ LAGLAGASCARGUS ॐ5555 अर्थ-प्रभुए ते समये श्रीपुंडरीक गणधरनी समक्ष आ प्रमाणे कधु के, 'आ महातीर्थ शत्रुजयगिरि.अनादि अनंत छे, पण ते कानाभाका लक्रमे संकोच अने विस्तारने पामेछे // 19 // . चरित्रं मूले पृथुः सम्प्रति योजनानि, पञ्चाशदूर्ध्व दश योजनानि / उच्चस्तथाऽष्टावथ सप्तहस्तो, भूत्वा पुनः प्राप्स्यति वृद्धिमेवम् // 20 8 अर्थहालमां आ गिरि मूळमां पचास योजन विस्तारवाळो, उपर दस योजन विस्तारवाळो, अने उंचाइमां आठ योजनप्रमाण छे. & अने आ अवसर्पिणीमां घटतो घटतो छठ्ठा आरामां छेवटे सात हाथप्रमाण थइ पाछो उत्सर्पिणीमा विस्तारने पामशे // 20 // शत्रञ्जयश्रीविमलाद्रिसिद्ध-क्षेत्रेतिनामत्रितयं सदाऽस्य / श्रीपुण्डरीकेत्यभिधा चतुर्थी, भविन् ! स्थितेस्तेऽथ भविष्यतीह // 21 // अर्थ-हे भव्य पुण्डरीक ! आ गिरिनां शत्रंजय, विमलाचल अने सिद्धक्षेत्र ए प्रमाणे त्रण नाम शाश्वता छे, अने अत्रे तारो निवासी | थवाथी श्रीपुंडरीक नामर्नु चोथु नाम प्रसिद्ध थशे // 21 // "सेव्य शत्रुञ्जयशैलमेन-मनेनसः स्युर्ननु पापिनोऽपि / भुवोऽनुभावात् किल मृत्तिकापि, प्राप्नोति सर्वोत्तमरत्नभावम् // 22 //
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________________ // 8 // AESA 3 अर्थ-आ शत्रुजयगिरिनुं सेवन करवाथी पापी पुरुषो पण पाप रहित थाय छे, खरेखर आ पवित्र तीर्थभूमिना प्रभावी माटी / पण सर्वोत्तम रत्नपणाने प्राप्त करे छे // 22 // ये शुद्धभावेन निभालयन्ति, भव्या महातीर्थमिदं कदाचित् / किं श्वभ्रतियग्भवसंभवः स्याद् !, न शेषगत्योरपि जन्म तेषाम् // 23 // अर्थ-जे भव्यप्राणीओ आ तीर्थन कोइ पण समये निर्मळभावपूर्वक नेत्रथी दर्शन मात्र करे छे, तेओने देवगति तथा मनुष्यग-1 तिमां पण जन्म लेवो पडतो नथी, तो पछी नरक अने तिर्यंचगतिनो तो संभवज क्याथी होय ? / अर्थात् आ पवित्र तीर्थर्नु भानपूर्वक दर्शन करनारा भाग्यशाली भव्य भाणीओने चार गतिमां जन्म-मरणनी विडंबना भोगववी पडती नथी, तेओ अनंत सुखमय मोक्षमा जाय छे श्रीमयुगादीशमुखाद् मुनीन्द्रा-स्तत् तन्महातीर्थफलं निशम्य / श्रीपुण्डरीकप्रमुखा निषेव्य, तत्तीर्थमापुः समयेऽपवर्गम // 24 // अर्थ-आ प्रमाणे श्रीमान् युगादि प्रभुना मुखथी पुंडरीक गणधर विगेरे मुनीन्द्रोए ते महातीर्थनो प्रभाव तथा तेनी सेवाथी म8ळता फळने सांभळी, ते शत्रंजय तीर्थ नु सेवन करी, पोतपोताने समये मोक्ष पाम्या // 24 // प्राप्त शिवं श्रीऋषभे सुतोऽस्य, शत्रुञ्जये श्रीभरताख्यचक्री। SARALA कर A Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ चरित्रं अतिष्ठिपद् रत्नमयिं सुवर्ण-प्रासादमध्ये प्रतिमा तदीयाम् // 25 // नाभाक अर्थ-श्रीऋषभदेवप्रभु मोक्ष गया बाद तेमना पुत्र श्रीभरतचक्रवतीए शत्रुजय तीर्थ उपर सुवर्णप्रासादमां ते प्रभुनी रत्नमय प्रतिमा स्थापन करी // 25 // .. योऽस्य नाम हृदि साधु वावदिः, क्लेशलेशमपि नो स सासहिः। योऽस्य वर्त्मनि मुदैव चाचलिः, संमृतौ न स कदापि पापतिः // 26 // 18 अर्थ-जे पुरुष पोताना हृदयां सम्यक् प्रकारे श्रीशत्रुजय तीर्थ नुं स्मरण करे छे, तेने लेशमात्र पण दुःख सहन करवू पडतुं नथी, 2 तेमज जे पुरुष आ तीर्थ ना मार्ग मां प्रफुल्लित चित्तयुक्त थइ गमन करे छे, ते कदापि संसारमा पडतो नथी-तेने संसारमा भ्रमण | करवू पडतुं नथी. // 26 // नाऽतः परं तीर्थमिहास्ति किञ्चिद्, नातः परं वन्द्यमिहास्ति किञ्चित् / नातः परं पूज्यमिहास्ति किञ्चिद्, नातः परं ध्येयमिहास्ति किंचित् // 27 // अर्थ-आ तीर्थथी बीजु कोइ महान् तीर्थ नथी, आ तीर्थथी बीजं कोइ पण अधिक वन्दनीय नथी, आ तीर्थ थी बीजु कोइ पण विशेष पूजनीय नथी, अने आ तीर्थ थी बीजु कोइ पण उत्कृष्ट ध्येय-ध्यान करवा योग्य नथी. // 27 // SHRSSऊन का Gunratnasuri M.S. Jun,Gun AaradhakA
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________________ नाभाक पञ्चाशदादौ किल मूलभूमे-र्दशोर्श्वभुमेरपि विस्तरोऽस्य / उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि, मानं वदन्तोह जिनेश्वराद्रेः // 28 // अर्थ-(पवित्रतीर्थ श्रीश–जयना परिमाण विषयमा अन्यग्रन्थोने विषे पण आ प्रमाणे उल्लेख छे)-श्रीऋषभदेव प्रभुना निवासालय आ गिरिनो आदिनाथ प्रभुनी वखते मूलभूमिनो विस्तार पचास योजन, ऊर्श्वभूमिनो विस्तार दस योजन, अने आ गिरिनी उंचाइ आठ योजन हती. दृष्ट्वा शत्रुञ्जय तीर्थ, स्पृष्ट्वा रैवतकाचलम् / स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते // 29 // अर्थ-भागवतमां पण कधु छे के-जे मनुष्य श्रीशत्रुजयगिरिनुं दर्शन करे छे, गिरनार पर्वतनो स्पर्श करे छे, अने गजपद कुंडमां | स्नान करे छे तेने फरीथी जन्म लेवो पडतो नथी // 29 // ___ अष्टपष्टिषु तीर्थेषु, यात्राया यत् फलं भवेत्। श्रीशत्रुजयतीर्थेश-दर्शनादपि तत्फलम् // 30 // अर्थ-(नागपुराणमा कयु छे के) अडसठ तीर्थोने विषे यात्रा करवायी जे फळ प्राप्त थाय, तेटलुं फळ मात्र एक तीर्थाधिपति 13 श्रीशत्रुजयतीर्थनां दर्शन करवाथी प्राप्त थाय छे. // 30 // ___ अतो धराधीश्वर ! भारती भुवं, तथाऽधिगम्योत्तममानुषं भवम् / HARSANSAR SecGunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभाक चरित्रं SCHICHO // 11 // . युगादिदेवस्य विशिष्टयात्रया, विवेकिना ग्राह्यमिदं फलं श्रियाः // 31 // . अर्थ-(तीर्थ माला स्तवमां पण का छे के) माटे हे भूपति ! आ भारतभूमि तेमज उत्तम मनुष्यजन्म पामीने, युगादिदेव श्रीआदिनाथनी विशिष्ट प्रकारनी यात्रा करीने विवेकी पुरुषोए पोताने प्राप्त थयेली लक्ष्मीन फळ ग्रहण करवं.॥३१॥ एवं श्रुत्वा नरेशोऽपि, तीर्थमाहात्म्यमदभुतम् / विसृज्य श्रेष्ठिनं यात्रा-निमित्तं लग्नमग्रहीत् // 3 // अर्थ-आ प्रमाणे श्री शत्रुजय तीर्थ नो अद्भुत प्रभाव सांभळीने नाभाक राजाए ते धनाढ्य शेठने विसर्जन करो, श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्राने माटे उत्तम लग्न-मूहुर्त जोवडाव्युं // 32 // लग्नक्षणे व्यतिक्रान्ते, ब्रह्मद्वारव्यथावशात् / पश्चात्तापं दधद भूपो, द्वितीयं लग्नमग्रहीत // 33 // 4 अर्थ—पण ज्यारे मुहूर्तनों दिवस आव्यो त्यारे कर्मयोगे मस्तकमां ब्रह्मद्वारने विषे असह्य पीडा थवाथी तेनाथी जइ शकायुं नहीं, तेथी पश्चात्ताप करता राजाए ज्योतिषी पासे बीजुं मुहूर्त कढाव्यु.॥ 33 // - आकस्मिकसमुद्भुत-ज्येष्ठपुत्रव्यथावशात् / तस्मिन्नपि गते लग्ने, तृतीयं लग्नमाददे // 34 // अर्थ-ते बीजी वखते जोवडावेला मुहूर्तनो दिवस आवतां पोताना मोटा पुत्रने अकस्मात् व्यथा उत्पन्न थवाथी ते बीजुं मुहूर्त / श्री पण गयु. त्यारे राजाए ज्योतिषीओ पासे त्रीजु मुहूर्त कढाव्यु. // 34 // पट्टदेवीमहाकष्टा-जातस्तस्याऽप्यतिक्रमः। स्वचक्रशङ्कया लग्न-मत्यगात तुर्यमप्यथ // 35 // PIC Gunratnasuri M.S. 55-554555 30 % Jun Gun Aaradhak PA - --
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________________ // 12 // अर्थ-ते त्रीजी वखत जोवडावेला मुहूर्तनो दिवस आवतां पोतानी पटराणीने अकस्मात् महाव्याधि उप्तन्न थवाथी ते दिवसे पण नाभाक राजा नीकळी शक्यो नहीं. त्यारे फरीथी चोथी वखत नाभाक राजाए मुहूर्त जोवडाव्यु, पण ते मुहूर्त आवतां पोताना सैन्यमां तथा न देशमां बखेडो जागवानी शंकाथी ते वखते पण राजा श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा करवा माटे नीकळी शक्यो नहीं, अने चोथु मुहूर्त है / 12 // पण व्यतीत थइ गयु // 35 // 18 अहो ! पापी ममात्मेपि, निन्दन् स्वं पञ्चमं नृपः। मुहूर्तमाददे तच्च, परचक्रभयाद् गतम् // 36 // अर्थ-आ प्रमाणे श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा निमित्ते जोवडावेला चारे मुहूर्तो निष्फळ जवाथी, 'अरे! मारो आत्मा महा पापी छे के Kजेथी पवित्रतीर्थ श्रीशत्रुजयनी यात्रा करवा जतां आवी रीते विघ्नो आव्याज करे छे' ए प्रमाणे पोताना आत्मानी निंदा करता थका | राजाए पांच मुहूर्त कढाव्यु. पण कर्मसंयोगे ते मुहूर्त पण पोताना देश उपर बीजा राजाओना सैन्यो चडी आववाना भयथी वीती गयुं. एवं भूपो व्यतिक्रान्ते, यात्राया लग्नपञ्चके / हेतुमस्य कथं ज्ञास्या-मीति चिन्तातुरोऽभवत // 37 // अर्थ-आ प्रमाणे श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा करवा माटे ज्योतिषीओ पासे कढावेला पांचे मुहूर्तो व्यतीत थवाथी 'आवी रीते विघ्नो आवधान कारण हुँ केवी रीते जाणीश?' ए प्रमाणे राजा चिंतातुर थयो. // 37 // तावतोद्यानमायाताः, श्रीयुगन्धरसूरयः। इति विज्ञपयामास, भूपालं वनपालकः // 38 // अर्थ-एम विचार करे छे, तेटलामां वनपालके आवी राजाने वधामणी आपी के-उद्यानमां श्रीयुगंधरसूरि समवसर्या छे.॥३८ Gunratnasur MS Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभाक // 13 // GAAAAAAककबाब ततो गतो वनं राजा, चतुर्ज्ञाननिधीन् गुरुन् / ज्ञात्वा नत्वाऽन्तरायाणां, हेतून् पप्रच्छ भक्तिभाक् // अर्थ-त्यार बाद राजा पोताना कुटुंब परिवार सहित अत्यंत भक्तिवडे उल्लसित चित्तवान् थइ उद्यानमां गयो, त्यां जइ गुरुमहा चरित्रं राजने विधिपूर्वक वंदन करी तेमने चार ज्ञानना निधि जाणी पोताना अंतरायर्नु कारण पूछयु. // 39 // गुरवो मनसा सीम-धरस्वामिजिनं ततः / नत्वाऽप्रक्षुरथ स्वाम्य-प्यूचे तन्मनसाऽखिलम् // 4 // अर्थ-त्यार पछी गुरुमहाराजे मन घडे श्रीसीमंधर जिनेन्द्रने नमीने पूछयुं, त्यारे श्रीसीमंधरस्वामीए मनथीज सर्व वृत्तान्त निवेदन कर्यो.11 __ मनःपर्यायतो ज्ञानात, श्रीयुगन्धरसूरयः। सम्यग् विज्ञाय वृत्तान्तं, तं जगुर्भूपति प्रति // 41 // अर्थ-श्रीयुगन्धराचार्य मनःपर्यायज्ञानथी सर्व वृत्तान्त सम्यक् प्रकारे जाणीने राजाने जणाव्यु के-॥४१॥ राजन् ! सुखेषु दुःखेषु, मुख्यं कर्मेव कारणम् / तच्चार्जितं त्वया पूर्व, यथा मूलात् तथा शृणु // 42 // अर्थ-हे राजन् ! सुख अने दुःख ए बन्ने प्रसंगोमां दरेक माणीने मुख्य कारण कर्मज छे. अने तेवू कर्म पूर्वभवमां तें जे उपार्जन 3. कर्यु छे ते बीना तुं अथथी इति पर्यंत सांभळ. // 42 // ___ नाभाकराजाना पूर्वभवनुं वृत्तान्त.. एकोनविंशत्यम्भोधि-कोटाकोटिप्रमाणतः। कालात् परमतीतायां, चतुःसंयुतविंशतौ // 43 // 55555IESSAGE Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak ANNA
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________________ चरित्रं जम्बूद्वीपस्य भरते, सम्प्रतिस्वामिवारके / उपाम्भोधि तामलिप्ती-नगयाँ भ्रातरावुभौ // 44 // नाभाक समुद्र-सिंहौ ज्येष्ठस्तु, निर्मलः पुण्यवानृजुः / विपर्यस्तः कनिष्ठश्च, बदरीकण्टकाविव // 45 // KI अर्थ-ओगणीश कोडाकोडी सागरोपम काल पहेलां, अतीतचोवीशीमां जम्बूद्वीपना भरतक्षेत्रने विषे संपतिस्वामी नामना तीर्थ॥१४॥ से करना वारामां, समुद्रतट समीपे तामलिप्ती नगरीमां समुद्र अने सिंह नामना बे भाइ रहेता हता. तेओमां मोटो भाइ समुद्र निर्मल | चारित्रवाळो पुण्यवान् अने सरलहृदयी हतो, पण नानो भाइ दुष्ट आचरणवाळो महापापी अने क्रूरहृदयी हतो. जेम बोरडीना कांटाओ | पैकी कोइ वक्र अने कोइ सीधी होयछे,तेम आ बन्ने भाइओमां मोटो भाइ सरल हतो, अने नानो भाइ वक्र हतो.॥४३-४४-४५॥131 भुवं खनभ्यां ताभ्यां स्व-गृहे स्थूणार्थ मन्यदा / चतुर्विंशतिदीनार-सहस्रनिधिराप्यत // . __ अर्थ-ते बन्नेए एक दिवस पोतानाघरनी अंदर थांभलो नाखवामाटे पृथ्वी खोदतां चोवीश हजार सोनामहोरथी भरेलो निधि प्राप्त कर्यो. | देवद्रव्यमिदं नाग-गोष्ठिकेन निधीकृतम् / इत्युक्तिगर्भ पत्रंच, ज्येष्ठो दृष्ट्वेत्यभाषत // 17 // RI अर्थ-तथा तेनी साथे एक पत्र नीकळ्यो. तेमां एवा भावार्थY लख्यु हतुं के–'आ देवद्रव्य नागनामना कुटुंबीए निधि तरीके बदायु छे' आ प्रमाणे लखेलो पत्र वांचीने ज्येष्ठ भ्राता समुद्रे पोतानो अभिप्राय जाहेर कयो के // 47 // गत्वा शत्रुञ्जये नाग-श्रेयसे दीयते ह्यदः श्रुत्वेति जायया नुन्नः, कनीयानित्यवोचत // 48 // .. अर्थ-'शत्रुजया जइने नागगोष्ठिकना पुण्यने माटे आ नीकळेल देवद्रव्य आपीए' / ए प्रमाणे मोटा भाइन वचन सांभळी BAO CAP Gunratrasuri MS Jun Gun Aaradhak
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________________ चरित्रं 4 पोतानी स्वीथी मेरायेलो नानो भाइ सिंह बोल्यो के॥४८॥ नाभाका कन्या वराहो जाताऽसौ, पर नोद्वाहिता पुरा / धनं विनाऽथ तत्प्राप्ती, सोत्सवेन विवाह्यते // 49 // है। अर्थ- आ कन्या वरने योग्य थइ छे, परंतु अत्यार सुधी धन विना तेनुं लग्न कर्यु नथी, पण हवे धननी प्राप्ति थवाथी तेनो महोत्सव पूर्वक विवाह करीए' // 49 // . दध्यौ समुद्रः श्रुत्वेति, स्वभावाद् दुष्टधीरसौ। भार्यया प्रेरितो जातो, वात्येरितकृशानुवत् // 50 // 6 अर्थ-आवं नाना भाइर्नु अयोग्य कथन सांभली समुद्रे विचार कर्यो के-आ स्वभावथीज दुष्ट बुद्धिवाळो छे, अने हमणां वळी स्त्रीनी प्रेरणाथी जेम पवनना सुसबाटथी अमिनी वृद्धि थाय तेम आनी पण दुष्टबुद्धि अधिक वृद्धि पामी छे. खरेखर दुनियामां स्त्रीओए महान् महर्षिओने पण पोताना मनोहर तीत्र कटाक्ष तेमज वाग्बाणोथी पोताने वश करी लीधा छे, तो पछी आना जेवो द एक सामान्य मनुष्य तेनी आगळ | करी शके? // 50 // A. सुवंशजोऽप्यकृत्यानि, कुरुते प्रेरितः स्त्रिया। स्नेहलं दधि मनाति, पश्य मन्थानको न किम?॥५१॥ BI अर्थ-उच्च कुळमां जन्म पामेल पुरुष पण स्त्री वडे परायेलो नहिं आचरवा योग्य अकृत्य आचरण करे छे, कारण के, सुवंशथी। .. थयेलो-सारा वांसथी बनेलो रवैयो स्त्री वडे प्रेरायेलो छतो शुं स्नेहवाळा-चिकाशदार दहींनुं मथन करतो नथी? अर्थात् करेज छे.. देवद्रव्योपभोगेन, घोरां यास्यति दुर्गतिम् / ततो बन्धुरयं बन्धु-रया बोध्यो गिरा मया // 52 // ESCISSORESGARRIAK FLM Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभाक 5555 GEORGESGLASSSSSSS अर्थ आ मारो भाइ जो स्त्रीना कथन मुजब देवद्व्यनो उपभोग करशे, तो अत्यंत भयंकर नरकादि दुर्गतिमा जशे, माटे आने मारे र मृदु अने श्रेष्ट वाणीथी प्रतिबोध करवो जोइए. चरित्रं निश्चित्येत्यवदद् भ्रातः!, पातकात् श्वभ्रपातुकात् / न कि बिभेषियद्देव-द्रव्यभोगमपीच्छसि?॥५३॥ अर्थ-एम निश्चय करीने नाना भाइने कयु के-बन्धु! नरकादि भयंकर गतिमां पाडनार पापथी शुतुं डरतो नथी? के जेथी देव-IM // 16 // द्रव्यना पण उपभोगनी इच्छा करे छे. // 53 / / देवद्रव्येण यत्सौख्यं, यत्सौख्यं परदारतः / अनन्तानन्तदुःखाय, तत्सौख्यं जायते ध्रुवम् // 54 // अर्थ-जे मनुष्य देवद्रव्यना उपभोग वडे तेमज परस्त्री सेवन द्वारा जे ममर्नु मानी लीधेल मुख मेळवे छे, ते सुख निःशंक अनं| तानंत दुःख प्राप्त करावनार थाय छे. // 54 // . (जैन सिद्धान्तमा पण का छे के "चेइयदव्वविणासे, रिसिघाए पवयणस्स उड्डाहे / संजइयचउत्थभंगे, मुलग्गी बोहिलाभस्स"॥५५॥ अर्थ-चैत्यना द्रव्यनो विनाश करवाथी, ऋषिनो घात करवाथी, शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करवाथी, तेमज संयतिना चतुर्थत्रतनो भंग | करवाथी, सम्यक्त्वना मूलमांज अग्नि पडे छे; अर्थात सम्यक्त्व नाश पामे छे. // 55 // वरं सेवा वरं दास्य, वरं भिक्षा वरं मृतिः / निदानं दीर्घदुःखाना, न तु देवस्वभक्षणम् // 56 // Gunratnasuri M.S . Jun Gun Aaradhak
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________________ चरित्रं अर्थ-कोइनी सेवा करी आजीविका चलाववी श्रेष्ठ छे, चाकर थइने रहेवू सारुं छे, भीक्षा मागी उदर पोषण कर, उत्तम छे, नाभाका अने छेवटे भूख्या मरी जवु पडे तो ते पण व्हेतरछे; पण सर्व प्रकारनां दुःखोनूकारण देवद्रव्यनुं भक्षण करते बीलकुल ठीक नथी.५६ भ्रातुरित्युपदेशेन, मौनी सिंहस्तदोत्थितः। एकान्ते भार्ययाऽभाणि, हा! मोग्ध्याद् वंच्यसे कथम् // कपोलकल्पितैयद्वा, को नाम न हि वंच्यते! / परं यथा तथा सर्व--मर्ध वाऽऽदत्स्व तन्निधिम् // 58 // अर्थ-आप्रमाणे भाइनो उपदेश सांभळी मौन रहेलो सिंह त्यांथी उठ्यो, तेने एकांतमां तेनी पत्नीए का के-"तमे भोळपणथी K केम ठगाओ छो? अथवा कपोलकल्पित वातोथी कयो पुरुष न ठगाय? परंतु जेम तेम करीने सर्व निधि आपणे ताबे करो, अथवा संपूर्ण निधि न आपे तो, छेवटे अरधुं धन पण तमे ग्रहण करो" // 57-58 // एवं भारितः सिंहो, लड्डनत्रितयं व्यधात् / अहं पृथग भविष्यामी-त्युवाच स्वजनानपि // 59 // अर्थ-एप्रमाणे भार्यांना समजाववाथी प्रेरायेला सिंहे त्रण दिवस लांघण करी, अने पोताना सगांसंबंधीओने कयु के, हुँ जुदो थइश तेषां बलेन वेश्मा, निधानाधे च सोऽग्रहीत / समुद्रस्तु ततः शत्र-जययत्राचिकीरभूत्॥६॥ अर्थ-सगां-संबंधीओनी लागवग पहोंचाडी तेओना वल वडे सिंहे समुद्र पासेथी घर अने निधाननो अरपो भाग ग्रहण कर्यो. त्यार पछी समुद्रे श्रीशत्रुजयतीर्थनी यात्रा करवानो अभिलाप कर्यो. निधानार्थ व्यये तीथे, नागपुण्यार्थमित्यसो / यावञ्चलति सिंहेन तावद्राज्ञे निवेदितम् // 61 // : 6*************** सा REACTRESEOCESS Jun Gun Aaradha ** M Ac:Gunratnasuri M.S
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________________ चरित्रं 18 // लेभे निधानं मद्भात्रा, यात्राव्याजादसौ ततः। तदादाय व्रजन्नस्ति, न दोषोऽथ मनाग् मम॥२॥ नाभाका ___ अर्थ-'श्री शत्रुजय तीर्थमां जइ, आ बाकी रहेला निधानमांना द्रव्यनो नाग श्रेष्ठीना पुण्यने माटे व्यय करवो छे' एम विचार करी समुद्र तीर्थयात्रा करवा माटे चालवानी तैयारी करतो हतो; तेवामां सिंहे ते नगरना राजानी आगळ जइने निवेदन कर्यु के'मारा मोटा भाइ समुद्रे दाटेलुं निधान मेळव्यु छे, ते निधानने लइने तीर्थयात्रानुं बहानुं करी अहींथी हमणांज जाय छे में मारी फरज समजी आपने जाहेर कयु छे, हवे कदाच निधान लइने चाल्यो जाय तो तेमां मारो दोष नथी॥ 61-62 // मुहर्तक्षण एवाऽथ, राज्ञाऽऽहृय नियन्त्रितः / समुद्रः कारणं ज्ञात्वा, निधानाधे पुरोऽमुचत् // 62 // | अर्थ-सिंहना भंभेरवाथी कुपित थयेला राजाए समुद्रने मुहूर्त क्षणमांज बोलावी नियंत्रित कर्यो। पोताने अकस्मात् नियंत्रित करIN वार्नु कारण जाणीने समुद्रे अर्धनिधान राजानी आगळ मूक्यु. सर्व स्वरूपं चावेद्य, निधिपत्रमदर्शयत् / यथावस्थितवक्तेति, समुद्रं मुमुचे नृपः // 64 // अर्थ-तेमज निधान नीकळवा बाबतनी सर्व वात राजाने कहीने भूमिमांथी निकळेल निधिपत्र बताव्यो / सत्यवादी समुद्रना वचन उपर राजाने संपूर्ण विश्वास बेठो, अने आ सत्य बोलनार छे एम धारीने छोडी मूक्यो // 64 // देवद्रव्यं च तज्ज्ञात्वा, प्रत्यर्थन्यायधर्मवित् / समुद्र बहु सत्कृत्य, यात्रार्थ व्यसृजन्नृपः // 65 // अर्थ-तथा 'आ देवद्रव्य छे' एम जाणी श्रेष्ठनीति पाळनार अने धर्मनो ज्ञाता एवा राजाए समुद्रनो घणोज सत्कार करीने तीर्थGunratnasurimis Jun Gun Aaradhak 10 // -%--
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________________ नाभाक REGULASIC 5595 6 यात्रा माटे विसर्जन कर्यो // 65 // ____अथ द्विगुणितोत्साहः, समुद्रः स्वकुटुम्बयुक् / मुहूर्तान्तरमादाय, यात्रार्थ प्रास्थित द्रुतम् // 66 // अर्थ-आ प्रमाणे राजानुं सन्मान पामवाथी बमणो उत्साहित थयेला समुद्रे निमित्तया पासे बीलु उत्तम मुहूर्त कढावी पोताना // 19 // कुटुंब सहित यात्राने माटे शीघ्र प्रयाण कयु // 66 // . चतुर्मियोंजनैरर्वाक्, श्रीशत्रुञ्जयतीर्थतः। यावद् भुङ्क्ते सरस्तीरे, श्रीकाञ्चनपुरे पुरे // 67 // ___तत्राऽपुत्रे मृते भूपे, तावद् मन्त्राऽधिवासितैः / आगत्य पञ्चभिर्दिव्य, राज्यं तस्मै ददे मुदा॥८॥ अर्थ-श्रीशत्रुजय तीर्थ थी चार योजन दूर श्रीकांचनपुर नामना नगरनी नजीकना सरोवरने कांठे जेवामां भोजन करे छे तेवामां में ते नगरमां पुत्र रहित राजा मरण पामवाथी मंत्र वडे अधिवासित थयेला पांच दिव्योए त्यां आवी तेने हर्षसहित राज्य अर्पण कयु.॥६७-६८ गजारूढः सितच्छत्र-शाली चामरवीजितः / अन्वीयमानः पूलोंकैः, स्तूयमानः कवीश्वरैः // 69 // 7 // चतुरङ्गचमूचार-विचित्राऽखिलसत्पथः / राज्यतूर्यध्यानपूर्य-माणब्रह्माण्डमण्डपः // 70 // विलसत्तोरणं प्रोच्चपताकं प्रेक्ष्यनाटकम् / वर्णाम्भःसिक्त पीठ-व्यक्तस्वस्तिकसङ्कुलम् // 71 // विचित्रोल्लोचसम्पूर्णा-ऽऽपणश्रेणिविराजितम् / समुद्रपालभूपालः, सोत्सवं प्राविशत् पुरम् // 72 // Ac Gunratnasur M.SI Jun Gun Aaradhak
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________________ अर्थ-तदनंतर श्रेष्ठ हस्तीपर आरुढ थयेल, श्वेत छत्रे करीने शोभायमान, चामरो वडे वीजाता, जेनी पाछळ नगरना प्रतिष्ठित नाभाक लोको चाली रहेला छे, कवीश्वरो वडे स्तुति करता, // 69 // चतुरंगी सेनानी मंद मंद मनोहर गतिथी विचित्र करेलो छे समग्र सुंदर मार्ग जेणे, अने राज्यना वाजींत्रोना मधुरा निर्घोषथी पूरी दीपो छे ब्रह्मांडरूपी मंडप जेणे एवा समुद्रपाल राजाए // 7 // // 20 // विविध रंगना तोरणोए करी रमणीय, गगन मंडलमा फरकी रहेली उच्चपताकाओ युक्त, दर्शनीय मनोहर नाटको सहित अनेक रं| गना सुगंधी जलथी सिंचाती पृथ्वीपीठीका उपर स्पष्ट जणाता साथीयाओथी व्याप्त // 71 // जेनी अंदर रंगबेरंगी विविध प्रकारना किंमती चंदरवा लगावी दीधा छे एवी मालथी भरपूर बनेली दुकानोनी पंक्तिथी शोभी रहेल श्रीकांचनपुर नगरमा प्रवेश कर्यो // 72 // राज्यकार्याणि कृत्वाऽह-स्त्रितयेन स सैन्ययुक् / ऋद्धया महत्याऽध्यारोहत् श्रीशत्रुञ्जयपर्वतम्॥७३॥ अर्थ-त्रण दिवसमां तमाम राज्यकार्य आटोपी, ते समुद्रपाल राजा पोताना सैन्ययुक्त मोटी ऋद्धी सहित तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय पर्वतपर चड्यो // 73 / / ___ स्नात्रादिसप्तदशमि-भेदैः सिद्धान्तभाषितैः / स तत्रा सूत्रयामास, पूजामादिजिनेशितुः // 74 // अर्थ-ते पर्वत उपर विराजमान प्रभुश्री आदीश्वर जिनेन्द्रनी सिद्धांतमा प्ररूपेलो स्नात्र विगेरे सत्तरभेदे पूजा करो // 74 // महापूजा ध्वजारोपा-दिसु कृत्येष्वसौ तथा / ददौ दानं यथा श्यामो जज्ञे मेघोऽपि लज्जया // 75 // 18 अर्थ-समुद्रपाल राजाए ते शत्रुजयगिरि उपर महापूजाओ ध्वजारोपण विगेरे पवित्र कार्योमा एटलं तो पुष्कळ दान आप्यु के जे Jun Gun Aaradh IM 9943RASGA-SCIPANG DIAC.Gunratnasuri M.S.
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________________ नाभाका पोता // 21 // दान जोइने दृष्टिदान करतो मेघ पण लज्जा वडे श्याम थइ गयो, अर्थात् अखूट दृष्टिदान करतो मेघ पण आ राजाना दान आगळ नाभाक / पोताने तुच्छ मानतो थको लज्जा पामी श्याम थइ गयो // 75 // विधायाऽष्टाहिकां नाग-नामग्राहं जगत्पतेः। पूजाः दानादिसत्कृत्यैः, स निधानार्धमव्ययत् // 76 // // 21 // 18/अर्थ-नागश्रेष्ठीन नाम ग्रहण करी श्रीजिनेन्द्रनो आठ दिवस अट्ठाइ महोत्सव करी, पूजादान विगेरे सुकुत्यो करवामां ते नागश्रेमैं ठोना निधाननों बचेलो अडयो भाग समुद्रपाल राजाए वापर्यो / 76 // सिद्धक्षेत्रादथोत्तोर्य, स्वपुरं प्राविशन्नृपः / रुद्धो राज्याऽसहिष्णुत्वाद, वाणिजो दुष्टपार्थिवैः // 77 // अर्थ-हवे समुद्रपाल सिद्धक्षेत्रथी उतरीने जेवामां पोतानानगरमा प्रवेश करतो हतो, तेवामां ते वैश्य होवाथी तेने मळेला राज्यने सहन नहीं करनारा आसपासना ईर्ष्या दुष्टराजाओए घेरी लीधो // 77 // मिथः प्रवृत्ते युद्धेऽथ, भग्नां वोक्षध निजां चमूम् / श्रोसमुद्रनृपो यावत्, किंकर्तव्यजडोऽजनि // 78 // है अर्थ-परस्पर बन्ने सैन्यनुं युद्ध प्रवत्यु, पण छेवटमां दुश्मनोना पराक्रमथी पोतानी सेनाने वीखराइगयेली जोइ समुद्रपाल राजा / 'हवे शुं करवू ?' ए प्रमाणे जेटलामां विचारवमळमां गुंचवायो 78 4 तावन्निबिडबन्धेन, निबद्धान् योजिताञ्जलोन् / पादाग्रे लठतो वीक्ष्य, रक्ष रक्षेति जल्पतः // 79 // द्र अर्थ-तेटलामां मजबूत बन्धनोथी बन्याएलां अने वे हाथ जोडी पगमां आळोटता शत्रुराजाओने पोतानी सन्मुख ' रक्षण करो CARGOGICHES 3355SNEHRASE MAC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ चरित्रं // 22 // 15 रक्षण करो ' ए प्रमाणे बोलता जोइने // 79 // नाभाका विद्वेषिभूपतीन् सर्वान्, प्रोन्मुच्य निजपूरुषैः / अहो! किमिति साश्चों-ऽपृच्छत्तानेव भूपतीन् // 8 // अर्थ-पोताना उपर द्वेष करनार अने युद्ध करनार ते सर्व शत्रुराजाओने पोताना माणसो द्वारा छोडावीने 'अहो ! आशुं आश्चर्य // 22 // बन्यु ?' ए प्रमाणे ते राजाओने पूछयु // 8 // ते प्रोचुर्नाऽपरं विद्मो, विशेषं किन्तु सङ्गरे / अबध्यामहि दुबुध्या, युध्यमानाः स्वयं वयम् // 81 // 18 अर्थ-त्यारे सर्व राजाओए प्रत्युत्तर आप्यो के–अमे आम बनवानुं बीजं तो कांइ विशेष कारण जाणता नथी, परंतु दुष्टबुद्धिथी युद्ध करता अमे रणांगणमा स्वयमेव बन्धाइ गया छीए // 81 // पर भवत्प्रसादेन, च्छुटिता नात्र संशयः / अतः स्वसेवकान् यावजीवं स्वोकुरु नोऽधुना // 82 // अर्थ-परंतु हे राजन् ! आपनीज कृपादृष्टियी अमे छुच्या छीए एमां संशय नथी. माटे हवे आप अमो सर्वने जीवंत पर्यंत पोताना है. सेवकपणे स्वीकारो / / 82 // ___ इत्युक्त्वा सेवकीभूतै-स्तैरेवाऽसौ परिवृतः / स्वपुरं प्राविशत् प्राज्य-प्रवेशोत्सवपूर्वकम् // 83 // है अर्थ-आवीरीजे सेवकतरीके पोताने वश थयेल सर्व राजाओथी परिवरेल ते समुद्रपाल राजाए मोटा उत्सवयुक्त पोताना नगरमा प्रवेशकों सभ्यान सभायामाभाष्य, विसृज्य च नृपान सौ / सौधान्तः पूज्यन्, ददर्श व्यन्तरं पुरः // 84 // Jun Gun Aaradhak ONASAAEECIES. - C-66 Gunnatrasur MS
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________________ चरित्र 23 // | अर्थ-यारवाद कचेरीमा सभ्यो साथे केटलीक वातचीत करी, राजाओने सन्मान पूर्वक विसर्जन करी, पोताना गृहमंदिरमा देनाभाक | वोने पूजे छे तेवामां पोतानी सन्मुख एक व्यंतर जोयो / 84 // // 23 // पृष्टः कस्त्वमिति क्षोणि-भृता स व्यन्तरोऽवदत् / तामलिप्त्यामहं नाग-नामा प्रान गोष्ठिकोऽभवम्॥८५॥ अर्थ-समुद्रपाल राजाए पूज्यु के-'तुं कोण छे ?' त्यारे ते व्यंतरदेवे कह्यु के-हुंतामलिप्ति नगरीमा प्रथम नागनामनो गोष्ठिक हतो // 85 // . पूर्वजैः कारिते चैत्ये, सारां विदधतो मम / कुटुम्बं सकलं क्षीणं, देवस्वेनैव पोषितम् // 86 // 8 अर्थ--मारा पूर्वजोए बन्धावेला जिनमंदिरनी सार संभाळ करतां देवद्रव्यथीज पोषण पामेल मारुं सघळं कुटुंब नाश पाम्युं // 86 // 8 - देवद्रव्योपभोगेन, कुटुम्बस्य क्षयो भवेत् / नैमित्तिकादिति श्रुत्वा, भीतः कर्म तदत्यजम् // 87 // - अर्थ-हवे कोइक समये निमित्तियाना मुखथी सांभळ्युं के-'देवद्रव्यनो उपभोग करवाथी कुटुंबनो नाश थाय छे' आ प्रमाणे | सांभळी हुँ डर पाम्यो, अने तेथी में ते कार्य-देवद्रव्यनो उपभोग करवो छोडी दीधो. // 87 // चतुर्विंशतिदीनार-सहस्रो यान्तिकेऽभवत। देवसत्काऽवशिष्टा सा, क्षितौ क्षिप्ताऽथ पत्नयुक // 8 // . . . अर्थ-मारी पासे देवद्रव्य तरीकेनी चोवीश हजार सोनामहोरो जे बाकी रही हती, ते लेखिव पत्र सहित पृथ्वीमां दाटी. // 8 // K . कृत्यर्यथोचितेर्जीवन. प्रान्तेहं कष्टतो निशि / स्थविर्या प्रातिवेश्मिक्या, पव्यमानं मृदुस्वरम् // 89 // SASARA8%E MAc Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradha
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________________ श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं, शृण्वन्नेकाग्रमानसः / मृत्वा तद्धयानतोऽभृवं, व्यन्तरोऽत्रैव पर्वते // 90 // युग्मम्।। नाभाक अर्थ-त्यारपछी यथायोग्य कार्यों वडे धन मेळवी आजीविका चलावतो हुँ मरण समये दुःखपूर्वक रात्रिमा नजीकना पाडोशमा र- चरित्रं त हेती एक घरडी डोशीना मुखद्वारा कोमल स्वरथी कहेवाता श्रीशत्रुजय तीर्थ ना अद्भुत माहात्म्यने एकाग्रचित्ते सांभळतो छतो मृत्यु | // 24 // 1 पाम्यो, अने श्रीशत्रुजयना ध्यानथी आज पर्बतने विषे व्यंतरदेव थयो छु. // 89 थी 90 // P // 24 // तत्र प्रजाक्षणे स्वीयं, नाम श्रुत्वा भवन्मुखात / स्मृत्वा च प्रर्ववृत्तान्तं.प्रीतचेता व्यचिन्तयम // 11 // 4 अर्थ-आ पर्बतने विषे पूजा समये तमारा मुखथी मारूं नाम सांभळीने पूर्बभवनो वृत्तान्त स्मरण करी मारुं चित्त घणु प्रसन्न थयु, अनेरा त में विचायु के-॥ 91 // साध्विदं विदधे देव-द्रव्यं यद्देवपूजने / व्ययितं तत् किमप्यस्य, सान्निध्यं विदधेऽधुना // 92 // अर्थ-आ राजाए देवपूजामां देवद्रव्यनो व्यय कर्यो ते घणुंज सारुं कर्यु, माटे एने हवे. कांइक सहायकारी थाउं // 92 // अतः सहागतेनैव, यन्त्रितास्ते मयाऽरयः। अल्पशक्तिः परं नाह-मन्यत्र स्थातुमीश्वरः॥ 93 // व अर्थ-एम विचार करी श्रीशत्रुजय तिर्थथी साथे आवेला में तमारा शत्रुओने दृढ बन्धनोथी बांधीलीधा हता. परंतु हुं अल्पशक्तिवाळो छु, तेथी मारा स्थान सिवाय अन्य स्थाने रहेवा समर्थ नथी // 93 // अतो याताऽस्मि तत्रैव, परं यात्राद्वयस्य मे / प्रत्यब्दं सुकृतं देयं, प्रपेदे सोऽपि तद्वचः // 94 // 121 ACCORIES Gunratnasur MS Jun Gun Aaradhak
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________________ (द अर्थ-माटे हुँ मारा स्थानके जाउं छं. पण छेवटमां मारे तमोने एटलं जणाववान के, तमारे दर वर्षे मारा निमित्ते बे यात्रानुंपुण्य नाभाक देचुं. आ प्रमाणे ज्यारे व्यन्तरदेवे पोतानो समस्त व्यतिकर राजाने स्पष्ट कही बताव्यो, अने छेवटनी बे यात्राना पुण्यनी मागणी चरित्रं करी त्यारे राजाए. पण तेनु वचन मान्य कर्यु // 94 // // 25 // यतः-यद्वस्तु दीयते चेत्तत, सहस्रगुणमाप्यते / तद्दत्ते सकृते पुण्यं, पापे पापं च तदगुणम् // 15 // 1 // 25 // | अर्थ-जे वस्तु दान तरीके आपवामां आवे छे, तेथी हजारगणी प्राप्त थाय छे. वळी जे सुकृतने विषे अपाय छे ते पुण्य आपे छे, अने जे पाप आरंभकारी कार्यमा अपाय छे ते तेटला ज गणुं पाप आपे छे. // 95 // दीयमानं धनं किञ्च, धनिकस्याऽपचीयते / सुकृतं दीयमानं तु, धनिकस्योषचीयते // 16 // 18 अर्थ-वळी धनिकपुरुष दान करातुं धनतो ओर्छ थाय छे, पण दान करातुं सुकृत तो धनिकने वृद्धिज पामे ई-मुकृतनुं जेम | जेम दान करीए तेम तेम घटवाने बदले ते वधतुंज जाय छे // 96 // श्राव्यते सुकृतं यावद्, योऽन्तकालेऽपि तावतः / निजश्रद्धानुमानेन, स तदैवाऽश्नुते फलम् // 97 // 5 अर्थ-जे माणसने अंत वखते पण जेटलं सुकृत संभळाय छे ते मनुष्य पोतानी श्रद्धाना अनुमाने करीने तेटला मुकृतना फळने तेज वखते प्राप्त करे छे // 97 // - ततः श्रावयिता पश्चाद्, विधते मानितं यदि।तदा सोऽप्यनृणः पुण्य-भाग भवेदन्यथा न तु // 98 // BAERARIAGAR SASARS 1955 ARRESS Ac Sunratnasun MS
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________________ चरित्रं // 26 // | अर्थ-त्यार पछी सुकृत संभळावनार जो मानेलं सुकृत पाछळथी करतो ते माणस पोताना देवामांथी छुटे छे, अने पोते पण पुनाभाका ण्यनो भागी बने छे, पण जो न करे तो तेथी विपरीत फळ पामे छे // 98 // अश्रावितोऽपि श्रद्धत्ते, सुकृतं यः क्वचिद्गतौ। जानन् ज्ञानादिभावेन, सोऽपि तत्पलमाप्नुयात् // 19 // // 26 // अर्थ-जे प्राणीने सुकृत संभळाव्युं न होय, तो पण जो ते स्वयमेव सुकृतनी श्रद्धा करे, अने पछीकोइ पण गतिमां ज्ञानादि भा- 13 वथी जाणे तो ते पण ते मुकृतनुं फळ प्राप्त करे छे // 99 // अन्यथा सुकृतं तन्वन्, स्वजनः स्वजनाख्यया / व्यवहारप्रीतिभक्ति-रेव ज्ञापयति ध्रुवम् // 10 // है अर्थ-जे कुटुम्बीए. पोताना कुटुम्बीना अंतकाळे जे सुकृत संभळाव्यु न होय ते सुकृत पाछळ्थी पोताना कुटुम्बीना नामे करे तोट ID ते खरेखर व्यवहार साचवे छे, अने मरनार उपरनी पोतानी मीति अने भक्तिज जणावे छे // 10 // ." अथ तस्मिस्तिरोभृते, व्यन्तरे क्षोणिनायकः / साक्षात् पुण्यफलं दृष्ट्वा-ऽभवत्तत्रैव सादरः // 10 // अर्थ-हवे ते व्यन्तर देव अदृश्य थइ गया पछी, राजासमुद्रपाल पुण्यनुभत्यक्ष फळ देखी पुण्योपार्जन करवामांज आदरयुक्त थयो. // 10 // . बुद्धि बन्धोरपि श्रेयो-विषये काक्षताऽन्यदा। तामलिप्त्यां तदाहति-हेतोःप्रेशोन्निजोनरः // 10 // अर्थ-पोताना लघु बांधव सिंहे जो के पोतार्नु अनिष्ट करेलु हतुं, छतां 'कोइ पण रीते तेनुं श्रेय थायतो सारं' एम विचारी तेनु / कल्याण करवानी बुद्धिथी सज्जन स्वभावनी समुद्रपाले एक दिवस तामलिप्ती नगरीमांतेने बोलाववामाटे पोताना विश्वासुमाणसने मोकल्यो। R AC Gunratnasuri M.S. Jun Gun Auradha CASHTRASA
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________________ चरित्रं स तत्र गत्वाऽऽगत्याथ, प्रोचे सिंहोऽस्ति तत्र न।प्रपलाय्य गतः क्वापी-त्यापि शुद्धिः पुरे न तु // 103 // दि अर्थ-ते माणस तामलिप्ती नगरीमा जइने पाछो आव्यो, अने कछु के-'सिंह तामलिप्ती नगरीमां नथी, अने नासीने क्यां गयो छे तेनी पण तपास करवा छतां शोध मळी शकी नथी' // 103 // // 27 // न्यायेन पालयन राज्यं, प्रत्यब्दं स्वकुटुम्बयुक्। यात्रा अनेकशः कुवे-श्चिरं सौख्यममुक्त सः॥१०४॥ अर्थ-समुद्रपाल नीतिथी पोताना राज्यनुं पालन करवालाग्यो, अने प्रत्येक वर्षे शत्रुजयादि तीर्थोनी अनेक यात्राओ करतो छतो घणो काळ सुख भोगववा लाग्यो // 104 // अभूतपूर्व श्रुत्वा त-द्वैरनिर्यातनं नृपाः / कम्पमानाः साभिमाना, अप्यस्मै नेमिरे स्वयम् // 105 // अर्थ-भिन्न भिन्न देशना राजाओ अभिमानी अने पराक्रमी होवा छतां पण पूर्वे कदापि नहीं अनुभवेलो बैरनो बदलो सांभळी तेना पुण्य प्रतापथी कंपायमान थता पोतानी मेळेज नमवा लाग्या // 105 // राज्ये न्यस्य सुतं ज्येष्ठं, लक्ष्मी कृत्वाथ पुण्यसात्। समुद्रपालो वैराग्याद, ब्रतमादत्त सद्गुरोः // 106 // अर्थ-पवित्रात्मा ते समुद्रपाल राजाए नीतिपूर्वक घणा वर्ष राज्य कयु. छेवटे पोताने वैराग्य थवाथी मोटा पुत्रने राज्य उपर स्था-15 पन कों, अने पुण्यार्थे सारां कार्योमां लक्ष्मीनो व्यय करी सद्गुरु पासे दीक्षा ग्रहण करी // 10 // अथैकविंशतिघस्नान, साधिताऽनशनः शमो / जज्ञे सर्वार्थसिद्धाख्ये, विमानेऽनुत्तरे सुरः // 107 // VIAC Gunratnasuri M.S. LOCACROCEECTORSCIENC E Jun Gun Aaradhak
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________________ अर्थ-वैराग्यमां मग्न बनेला ते समुद्रपाल महामुनि शांतिपूर्वक एकवीश दिवस अणसण करी सर्वार्थसिद्ध नामना देवलोकने विषे अनुत्तर विमानमां देवपणे उत्पन्न थया // 107 // नाभाक ततश्च्युत्वा कुलं शुद्धं, लब्ध्वा संयमराज्यतः / आसाद्य केवलं ज्ञानं, मोक्षसौख्यमवाप सः॥१०॥ // 28 // अर्थ-त्यांथी च्यवीने पूर्व भवमां प्राप्त करेला श्रेष्ठ चारित्ररूप राज्यना बलथी उत्तम कुळ पामीने केवलज्ञान प्राप्त करी मोक्षे गया. 18 इतश्च तामलिप्त्यां स,सिंहःश्रुत्वा स्वबान्धवम् / राज्ञा विसृष्टं सत्कृत्य, यात्रार्थ सत्यभाषणात् // 109 // 4 निजाऽऽगःशया सर्व-मादाय सपरिच्छदः। जगाम सिंहलद्वीपं, पोतमारुह्यतत्क्षणात् ॥११०॥युग्मम्। अर्थ-हवे तामलिप्ती नगरीमा समुद्रपालनो नानो भाइ जे सिंह हृतो तेणे पोताना मोटा भाइने कष्टमां नाखवा माटे राजाने भंभेर्यो हतो, पण समुद्रपाले सत्य हकीकत जाहेर करवाथी छेवटे सत्यनो विजयथयो अने तेथी समुद्रपालनो दंड करवाने बदले तेनो उलटो 5 सत्कार करी राजाए शत्रुजयनी यात्रा माटे विसर्जन कर्यो. आ प्रमाणे बनेली हकीकत सांभळी पोते राजानो गुन्हेगार बनवानी : 6 शंकाथी सिंह परिवार सहित पोतानुं सर्व लइने तेज क्षणे वहाण उपर चडी समुद्र मार्गे सिंहलद्वीप गयो // 109 थी 110 // राजप्रसादं तत्राप्य, दन्तिदन्तजिघृक्षया ! घोरे स्वयमरण्येऽगा-दलाभादन्यवस्तुनः // 111 // P अर्थ-सिंहलद्वीपमां सिंहे त्यांना राजानी महेरबानी मेळवी. पछी अन्य वस्तुओनी खरीदोथी लाभ न थाय तेवू होवाथी हाथीदांत 18 ग्रहण करवानी इच्छाथी पोते घोर अरण्यमा गयो // 111 // . Jun Gun Aaradhak CAREAAAAA Gunratnasun MS
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________________ चरित्र . स.तत्र दन्तिवधकै-दन्तवृन्दान्यथाऽऽनयत् / पापद्रव्येण यत् पापे-ज्वेव बुद्धिः प्रजायते :112 // नाभाक द अर्थ-ने जंगलमा हाथीना वध करनार माणसो द्वारा हाथीदांत मंगावीने खरीद कर्या. खरेखर शास्त्रकारोए सत्यज वचन कयुं छे के–'पापथी संचय करेल धनथी पापकारी अधम कृत्यो करवानीज बुद्धि उत्पन्न थाय छे.' आपणामां एक लौकिक सादी कहेणी छे // 29 // 5 के-'जेवो आहार तेवो ओडकार.' माटे सुज्ञ जनोए नीतियुक्त धन उपार्जन करवामांज प्रयत्नशील बनवु जोइए. श्रावकने प्रथम द्र मोक्षमार्ग तरफ दोरवनार मार्गानुसारीना पांत्रीशगुणो पैकी 'न्यायथी द्रव्य मेळवद् ' ए प्रथम गुण छे. अने ए गुण मेळववा माटे व दरेक मनुष्ये पोताना विचार मक्कम करवा जोइए के "मारा जीवननों सुखपूर्वक निर्वाह करवा माटे नीतिभागथी द्रव्य मेळवीश." | आ जीवनमूत्र दरेके पोताना हृदयपट्ट उपर सुवर्णाक्षरे कोतरी राखq जरुरतुं छे // 112 // भृत्वा चत्वारि यानानि, दन्तेर्वारिधिवर्त्मना / मुक्त्वा कुटुम्बं तत्रैव, सुराष्ट्रांप्रति सोऽचलत् // 113 // 18 | अर्थ- हवे ते सिंहे त्यां हाथीदांत खरीद करी चार वहाण भर्या, अने पोताना कुटुंबने त्यांज मूकी समुद्र मार्गे सोरठ देश तरफ ते चाल्यो 1134 ती समुद्रंक्षेमेण, सुराष्ट्रातटसंकटे / भग्नानि तानि यानानि, न हि श्रेयोऽतिपापिनाम् // 114 // अर्थ-समुद्रमार्गे जता जता ठेठ सुधी जलमार्ग कुशलतापूर्वक ओळंग्यो, पण सोरठ देशना किनारा नजीक आवतां अकस्मात् 5 कोइ खराबा साथे अथडावाथी चारे वहाण भांगी गयां; खरेखर पापकर्मथी आजीविका चलावनार अति पापी पुरुषोनु कदापि कनल्याण यतुं नथी॥ 114 // ..... Ac Cunratnasur M.S 5-5A525A5% समुदत खरीद करीरिधिवर्मन राख जरुरत Jun Gun Aaradh IM
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________________ ततः सिंहो विपद्याऽऽद्य-नरकं तत्र वेदनाः / विषयोध्धृत्य संजातः, सिंहो हिंसापरायणः // 115 // नाभाक 3 अर्थ-चारे वहाण भांगी जवायी सिंह समुद्रमां डूबी मरणने शरण थयो, अने पहेली नारकीमा उत्पन्न थयो. त्यां अत्यंत तीव्र वेद- चरित्रं नाओ सहन करी, आयुष्य पूर्ण थतां त्यांथी नीकळी तिर्यंचना भवमां हिंसाने विषे तत्पर एवो सिंह थयो // 115 // // 30 // व आद्य गत्वा पुनः श्वभ्रं , जज्ञे दुष्टसरीसृपः। द्वितीयनरकं भुक्त्वा , दुष्टदक्षी बभूव सः // 116 // अर्थ-सिंहना भवमां पण अनेक प्रकारनां हिंसादि कृत्यो करी फरी पहेली नारकीमा गयो. त्यांथी नीकळी दुष्ट सापपणे उत्पन्न | थयो. त्यांथी बीजी नारकीमां गयो, त्यां पण अपार दुःखो भोगवी दुष्ट पक्षी थयो. // 116 // 6 तृतीयनरकं प्राप्य, दुष्टसिंहोऽभवद् वने / चतुर्थनरकं गत्वा सर्पोऽजायत दृग्विषः // 117 // + अर्थ-त्यार बाद त्रीजी नारकीमा गयो. त्यांथी वनमां दुष्टसिंह थयो. सिंहनुं आयुष्य पूर्ण करी चोथी नारकोमा गयो, त्यां कष्टकारक दुःखो भोगवी दृष्टिविष सर्प थयो. // 117 // पञ्चमं नरकं लब्ध्वा, चण्डालस्त्री ततोऽजनि / अवाप्य नरकं षष्ठ-मजनिष्टाऽर्णवे तिमिः // 18 // 13/ अर्थ त्यांथी पांचमी नारकीमा गयो, त्यारबाद चंडालनी स्त्री थयो. तदनन्तर छठी नारकीमा गयो. त्यांथी समुद्रमा मत्स्य थयो.. [4] सप्तमं नरकं गत्वा मत्स्योऽजायत तन्दुलः। पुनः सप्तममेवाऽगा-नरकं दुःखसागरम् // 19 // EGOROSCARA-5 54 40- 4 R AC Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradh
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________________ चरित्रं // 31 // 8 अर्थ-मत्स्यर्नु आयुष्य पूर्ण करी सातमी नारकीमा गयो. त्यांची नीकळी तंदुलीयो मत्स्य थयो. त्यांथीवळी पाछो दुःखना सागर नाभाकात समान सातमीज नारकीमा गयो.॥११९॥ P विपर्यासेन चण्डाल-स्त्र्याजियोनिषु पूर्ववत् / क्रमेण सेहे कष्टानि, पष्ठादिनरकेषु च // 120 // अर्थ-वळी पाछो विपर्यासवडे (उलटी रीते) चंडालखी विगेरे योनिमां तथा क्रमसर छठ्ठी विगेरे नारकीमा पूर्वनी जेम उत्पन्न थइ असह्य कष्टो सहन कर्या // 120 // ततो निपतितो घोरे, संसारे दुःखसागरे। देवद्रध्यविनाशस्य, ज्ञेयं सर्वमिदं फलम् // 121 // P अर्थ-त्यार पछी दुःखसागर घोर संसारमा भिन्न भिन्न स्थळे उत्पन्न थइ अपार कष्टो सहन करतो छतो रझळ्यो. आ सर्व देवद्रव्य 8/ विनाशनुंज फळ जाणवू // 121 // ___अन्यायात् स्वल्पदेवस्व-भक्षणादपि यद्यभृत् / शैवःश्रेष्ठी सप्तकृत्वः, श्वाऽतो चै त्याज्यमेव तत् // 122 // है अर्थ-अन्यायथी जरा मात्र पण देवद्रव्यनुंभक्षण करवाथी शैव शेठ सातवार कूतराना भवमां उत्पन्न थयो, माटे खरेखर ते तजवा योग्य छे // अत्रान्तरे विभो! कोऽली, श्रेष्ठी जातश्च श्वा कथम्? / इति नाभाकभूपेन, पृष्टे गुरुरभाषत // 123 // 15/ अर्थ-आ वखते नाभाकरानाए महात्मा युगंधराचार्यने पूछयु के–'प्रभो ! आ शैव शेठ कोण ? अने तेने सात वखत कूतरानो अवतार केम ग्रहण करवो पड्यो ?' आ प्रमाणे नाभाक राजाए पूछ्वाथी सद्गुरु महाराजे पण ते चरित्रनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे क OCCALCCCCCA 15-1506-15C%ार AC Gunnatasun Jun Gun Aaradhak
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________________ 32 // 15 हेवानो आरंभ कर्यो // 123 // . नाभाक उत्सपिण्यवसर्पिण्यो-भरतैरवतक्षितौ / प्रत्येकं किल जायन्ते, शलाकाः पुरुषा अमी // 124 // चतुर्विंशतिरहन्त-स्तथा द्वादश चक्रिणः / विष्णुप्रतिविष्णुरामाः, प्रत्येकं नवसङ्ख्यया // 125 // र अर्थ-भरतक्षेत्र अने ऐरवतक्षेत्रमा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काळमां त्रेसठ त्रेसठ शलाकापुरुषो थाय छे, अने ते आ प्रमाणे चोवीश तीर्थकर, बार चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिबासुदेव अने नव राम (बलदेव) // 124 थी 125 // 8 एतेषु पूर्व श्रीरामो राज्यं न्यायेन पालयन् / कृपया निःस्वलोकानां, न्यायघण्टामवीवदत् // 126 // है अर्थ-एसठ पुरुषोमांपहेलांश्रीराम नीतिपूर्वक राज्यतुं पालन करतो हतो, अने गरीब मजा उपर दयादृष्टि राखी न्यायनो डंको वजडाव्यो हतो एकदा कुर्कुरः कश्चि-निविष्टो राजवर्त्मनि / केनचिद् विप्रपुत्रेण, कर्करेणाहतः श्रुतौ // 127 // | अर्थ-तेना राज्यमा एक दिवस जाहेर रस्ता उपर एक कूतरो बेठो हतो, ते कूतराने कान उपर कोइ ब्राह्मणना छोकराए कांकरो | 6 फेंकी घायल को // 127 // __श्वा निर्यद्रुधिरो न्याय-स्थानं गत्वा निविष्टवान् / भूपेनाहूय पृष्टोऽवग्, निरागाः किमहं हतः? // 128 // अर्थ-बडेता लोहीथी खरडायेल ते कूतरो राजाना न्यायमंदिरमा जइ बेठो. राजाए तेने बोलावीने राजसभामां आववान कारण पूच्यु, त्यारे तेणे कधु के-'हुँ निरपराधी छतां मने ब्राह्मणना छोकराए केम मार मार्यो ? ||128 // SAARCANEARSA RWAD.Gunratnasun M.S. Jun.Gun Aaradha
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________________ 1567CCI चरित्रं // 33 // तद्घातक विप्रपुत्र, तंत्रानाय्य नृपोऽब्रवीत् / असौ त्वद्घातको बहि, कोऽस्य दण्डो विधीयते? // 129 // नाभाका अर्थ-राजाए तेने मारनार ब्राह्मणना छोकरानी तपास करावी सभामा बोलाव्यो , अने कूतराने कर्दा के-आ तने मारनार छे, ते माटे बोल, आने शुं शिक्षा करवी ?' // 129 // // 33 // - श्वाऽवोचदथ रुदस्य, मठेऽयं हि नियोज्यताम् / क एष दण्डो राक्षेति, पृष्टः श्वा च पुनर्जगो // 130 // अर्थ-कूतराए कछु के-'तेने मात्र एटलीज शिक्षा करो के अहींना शिवना देवालयमां तेनी पूजारी तरीके नीमणुक करो'। आ | प्रमाणे कूतराए कहेलु अयोग्य वचन सांभळी राजाए विस्मित थइ पूछ्यु के-'आ शुं दंड कहेवाय ?' / त्यारे कूतराए पोतानो सर्व सविस्तर वृत्तान्त जणाव्यो के-॥१३० // प्रागहं सप्तजन्मभ्यः, पूजयित्वा सदा शिवम् / देवस्वभीत्या प्रक्षाल्य, पाणी भोजनमाचरम् // 131 अर्थ-हुं मारा आ कूतराना जन्मथी सात भव पहेलां मनुष्य हतो, अने हमेशा शिवनी पूजा करी देवद्रव्य भक्षण करवाना दोषथी 15 डर पामी मारा बन्ने हाथ धोइने जमवा बेसतो हतो // 131 // स्त्यानाज्यमन्यदा लिङ्ग-पूरणे लोकढीकितम् / विकरणेऽस्य काठिन्याद,नखान्तःप्राविशन्मम // 132 / / अर्थ-एक दिवसे लोकोए शिवलिंग पूरवा माटे थीजेलं घी मूक्यु. कठिन होत्राथी ते घी छूटुं पाडतां मार नखमां भराइ गयु // 132 // TEASEACHECRECRUARLATEGORSit 345555 Gunratnasur M.S un Gun Aaradhak
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________________ विलीनमुष्णभक्तना-जानता तन्मयाहृतम् / तेन दुष्कर्मणा सप्त-कृत्वोजातोऽस्मि मण्डनः // 133 // नाभाक & अर्थ-त्यार बाद शिवना मंदिरमाथी नीकळी घेर आवी भोजन करवा बेठो. उष्ण भोजनथी ते नखमांनुं घी ओगळी गयुं, अने चरित्रं द जमतां जमतां अजाणतां ते घी पण भोजन साथे खवाइ गयु. फक्त एटलाज देवद्रव्यर्नु भक्षण करवा रूप दुष्कर्मथी हुं सातवार कू॥३४॥ तराना जन्ममा अवतर्यो / 133 / / // 34 // 12 सप्तमेऽस्मिन् भवे राजन् !, जाता जातिस्मृतिर्मम / अधुना तत्प्रभावेणो-त्पन्ना वाग्मानुषी पुनः // 13 // 4 अर्थ-हे राजन् ! आ सातमा भवमां मने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयु छे, अने हमणां तेना प्रभावथी मने मानुषी वाचा उत्पन्न दथवाथी आ बीना तमारी समक्ष यथार्थ निवेदन करी छे // 144 // अत्रान्तरे गुरुं नत्वा, जगौ नाभाकभूपतिः / श्रुत्वतिह्यमदो बाढं, कम्पते हृदयं मम // 135 // अर्थ-आ प्रमाणे गुरुमहाराजना मुखथी पूर्वोक्त दृष्टान्त सांभळी नाभाकराजाए गुरुमहाराजने नमस्कार करी कयु के–'प्रभो ! आ कथानक सांभळी म्हारुं हृदय घणुंज कपायमान थाय छे' // 135 // गुरुरूचेऽथ यद्येवं, तत्कथामग्रतः शृणु। यथा सम्यक् फलं वेरिस, देवद्रव्यविनाशिनाम् // 136 // अर्थ-त्यारे गुरुमहाराजे कयु के–'जो एम छे तो हवे आगळ नागश्रेष्ठोनी कथा सांभळ, के जेथी देवद्रव्य विनाश करनारने / 15/ केबुं फळ प्राप्त थाय छे तेनुं तने सम्यक् प्रकारे जाणपणुं थाय, अने तेथी तुं सदाने माटे अलग रहे // 136 // ॐAR Jun Gun Aaradhak Gunratnasun M.S
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________________ चरित्र षष्टिवर्षसहस्राणि, श्रीशत्रुजयपर्वते / आयुर्भुक्त्वा नागजीवो, व्यन्तरश्च्युतवानथ // 137 // नाभाक है अर्थ-व्यंतर देवपणे उत्पन्न थयेल नागश्रेष्ठीनो जीव श्रीशत्रुजय पर्वत उपर साठ हजार वर्षनुं आयुष्य भोगवी त्यांथी च्यव्यो।१३७ कान्तिपुर्या रुद्रदत्त-कोम्बिकसुतोऽभवत् / सोमाभिधानस्तन्माता, पञ्चमेऽन्देऽहिना मृता // 13 // अर्थ-श्रीशनंजय पर्वत उपर व्यंतरपणे उत्पन्न थयेल नागश्रेष्ठीनो जीव साठहजार वर्षतुं आयुष्य भोगवी च्यवीने कांतिपुरी नगरीमा रुद्रदत्त | नामना कुटुंबीनो सोम नामनो दीकरो थयो. ते पुत्र ज्यारे पांच वर्वनी उमरनो थयो त्यारे तेनी माता सर्पदंश थवाथी मरण पामी।१३८। तत्रास्ति नास्तिकः प्राति-वेश्मिको देवपूजकः / सोमोऽपि सह तत्पुत्राति देवनिकेतने // 139 // है अर्थ ते नगरीमां तेना घरनी नजीक नास्तिक नामनो देवनो पूजारी पाडोशी रहेतो हतो ते पूजारीना पुत्रो साथे सोम पण दै देवमंदिरमा जवा लाग्यो / 139 / / देवद्रव्यमयैः पूजा-ऽवशिष्टैश्चन्दनैर्वपुः / विलिप्याकण्ठमाच्छाद्य, वाससा पर्यटत्यसौ // 140 // 8 अर्थ-पूजा करतां बाकी रहेल देवद्रव्य रूप चंदनथी पोताना आखा शरीरे विलेपन करी, कोइना देखावमां न आवे माटे गळा सुधी वस्त्र ढांकीने सोम हमेशां पूजारीना छोकराओ साथे रझळवा लाग्यो // 14 // वयःस्थः सोऽन्यदा देव-कोषं हत्वा पलायितः। स्तेना मुषित्वा तं पार-सीकदेशे विचिक्रियुः // 14 // A uranasihins ' . 6425ASHASKAR Jun Gun Aaradha
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________________ SSESSAGE -29-54 15 अर्थ-हवे ज्यारे सोम योग्य उम्मरनो थयो त्यारे एक दिवस ते शिवना मंदिरमाथी देवनो भंडार चोरीने नासी गयो, तेनुं चोर | लोकोए हरण करी पारसीक देशमा वेच्यो // 141 // / तत्र वस्त्राणि रज्यन्ते, तस्य रक्तैस्ततोऽसकौ। पलाय्याऽम्भोधिमुत्तीर्य, व्रजन्नध्वनि कुत्रचित् // 142 // | ग्रामप्रवेशेऽभ्यायान्तं, मनिं मासोपवासिनम / निहत्य यष्टया लीन् वारान्, पापः पृथ्व्यामपातयत् // 14 // | अर्थ-पारसीक देशमां तेना लोही वडे वस्त्रो रंगावा लाग्या. आवी रीते आपत्तिमां आवी पडेलो ते सोम लाग जोइ त्यांथी नाठो, समुद्र उतरीने रस्तामा जतां कोइ एक गाम आव्यु. गाममा पेस्तां तेनी सन्मुख आवता मास उपवासवाला एक मुनीने ते पापीए | लाकडी वडे त्रण वार प्रहार करी जमीन उपर पाडी दीधा. // 142 थी 143 // चरित्रं 36 // 9 18 अर्थ- लाकडीना अतिशय प्रहारथी मुनिराज त्यांज मरण पाम्या. मुनिने मारो सोम त्यांथी नासतो हतो तेवामा रस्तामां कोटवाळोए र पकड्यो, पण त्यांना दयाल श्रावकोए करुणा लावी छोडाव्यो. त्यारवाद सोम त्यांथी पलायन करो जंगलमा चाल्यो गयो // 144 // मृत्वा दावाग्निनाऽरण्ये, सप्तमं नरकं गतः ! ऋषिहत्यामहापापं, तत्कालं स्यात् फलप्रदम् // 145 // अर्थ-अरण्यमां दावानळथी मरण पामीने सातमी नारकोमा गयो, कारण के मुनिहत्यानुं महापाप तत्काल फळ आपे छे // 145 // ____ सागराणि त्रयस्त्रिंश-तत्र भुक्त्वा महाव्यथाः / उद्धृतो घोरसंसारं,भ्रमित्वा हालिकोऽभवत् // 146 // EPSR24-7- -SASAR REGunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Te!
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________________ नाभांक चरित्रं // 37 // अर्थ-हवे ते सोम सातमी नारकीमां तेत्रीश सागरोपम सुधी महाव्यथाओ भोगवी,त्यांथीनीकळी दुःखमय संसारमा भटकी भटकी खेडुत थयो % | कौशिकाख्योऽम्बरग्रामे, ग्रामेशस्य गृहे च सः। कर्माणि कुर्वन् सर्वेषां हालिकानां कृतेऽन्यदा // 147 // आदाय भक्तं प्राचालीद, मागें मासोपवासिनम् / वीक्ष्य सन्मुखयान्तं, मुनिं भक्त्या न्यमन्त्रयत् // 148 // अर्थ-खेडुतनाभवमां जन्म लीधेल सोमनु नाम कौशिक हतुं ते कौशिक अंबर नामना गाममां ते गामना स्वामीने घेर काम करतो, अने पोतनो निर्वाह चलावतो. एक दिवशे कौशिक सर्व खेडुतोने माटे भात लइ खेतर जवाने नीकळ्यो. रस्तामा मास उपवासवाळा एक मुनिराजने सामा आवता जोइ अत्यन्त भक्तिपूर्वक पोतानी पासे रहेल भात बहोराववा विनति करी // 147 थी 148 // यात्रायफलं पूर्व, प्रत्यब्दं यत् समुद्रतः। तेन प्राप्तं ततः पुण्यात, तस्यैषा वासनाऽजनि // 149 // अर्थ-तेने आ खेडुतना भवमा मुनिने अन्न वहोराववा रूम शुभ अध्यवसाय उत्पन्न थयो तेनुं कारण एज के, तेणे पूर्वभवमा समुद्रपाल राजा पासेथी दर वर्षे वे यात्रानुं फळ मेळव्युं हतुं, अने ते पुण्यना प्रभावथीज तेने आवा प्रकारनी शुभ वासना उत्पन्न थइ. स्यादेतद्भक्तभोक्तृणा-मन्तरायस्ततो न मे / कल्पतेऽन्नमिदं साधु-नेत्युक्ते च सको जगी // 150 // अर्थ-कौशिके भात ग्रहण करवानी विनति करी त्यारे मुनिराजे कयु के-' आ भोजन तुं खेतरमां भोजन करनाराओ माटे लइ जाय छे, ते अन्न जो हुँ ग्रहण करंतो तेओने अंतराय थाय, तेथी आ भात मारे वहोर, कल्पे नहीं. आ प्रमाणे मुनिराजे ज्यारे भात वहोरवानी अनिच्छा दर्शाची त्यारे तेणे कायु के-॥ 15 // Jun Gun Aaradhak Gunratrasuri MS
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________________ नाभाक चरित्रं 38 // कृत्वोपवासमप्यद्य, दास्ये भक्तं निजं ध्रुवम् / सद्यः प्रसय गृह्णीते-त्याग्रहादग्रही मुनिः // 15 // 18 अर्थ-हुं आजे उपवास करीने पण मारा भागर्नु भोजन आपने वहोराबीशज, माटे मारा उपर कृपा करी जलदी आ भात ग्रहण करो'। आ प्रमाणे तेना अतिशय आग्रहथी मुनिराजे ते अन्न वहोर्यु // 151 // ततः कृत्वोपवासं स निषेधं चाऽसुमद्वधे / साधोः पार्थात् प्राप्तराज्य-मिवात्मानममन्यत // 152 // अर्थ-त्यारबाद ते खेडुते मुनिराज पासेथी उपवासर्नु तथा प्राणिवधनुं पञ्चक्खाण करी खरेखर आजे में महात्मा मुनिराजने अन्नदान आपी राज्य मेळव्युं छे, ए प्रमाणे पोताना आत्माने मानवा लाग्यो // 152 // एवमर्जितसत्कर्मा, कौशिको भद्रकाशयः / विपद्य चित्रकूटाद्रौ, चित्रपुर्या नृपोऽभवत् // 153 // / अर्थ-आवी रीते भद्रक परिणामी ते कौशिक पुण्य उपार्जन करी, आयुष्य पूर्ण थतां मरण पामी, चित्रकूट पर्वत उपर रहेल चित्र8 पुरी नगरीमा राजा थयो / 153 // चन्द्रादित्याभिधः शुद्ध-दयापुण्यविभावितः। निरामयो महारूपा-ऽनङ्गीकृतमनोभवः // 15 // से अर्थ-तेनुं नाम चन्द्रादित्य राखवामां आव्यु हतुं. चन्द्रादित्यतुं हृदय शुद्धदया अने पुण्यना संस्कारवाळु हतुं, शरीरे निरोगी हतो, है तेनुं शारीरिक सौंदर्य अने लावण्य एटलुं बधुं सुशोभित हतुं के जाणे रूपमा कामदेव पण तेनाथी पराभव पामे // 154 // तस्याऽऽकण्ठवपुर्दष्ट-कुष्ठेनाश्लिष्टमन्यदा / तेनाऽऽकण्ठपटोच्छन्न-देह एव स तिष्ठति // 155 // CCASIRSAGAR %25A5% HIAC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ ॐASTERS RAA अर्थ-पूर्व भवमां करेला कर्मना उदयथी कोइ दिवस तेने पगथी मांडीने गळा सुधी शरीरे दृष्ट कोढ रोग उद्भव पाम्यो, तेथी ते नाभाका सदैव गळा सुधी वस्त्रथी आच्छादित थइनेज रहे छे / 155 // चरित्रं कदाचित प्राढपापर्धि-रपि पापड़िहेतवे / तत्सामग्रीयुतः प्राप, श्वापदानां पदं वनम् // 156 // अर्थ-चन्द्रादित्य कर्मना उदयथी पूर्व करेला अतिशय पापर्नु फळ भोगवी रह्यो हतो, छतां हजु सुधी तेनी बुद्धि ठेकाणे न आवी, 4 अने दुष्ट मतिथी विवेकहीनबनेलो ते राजा शिकार करवा माटे शिकारी पशुओथीव्याप्त बनेलावनमां शिकारनी सामग्रीयुक्त थइने गयो। तत्र रङ्गन्तुरड्रेण, कुरङ्गवधरङ्गतः। धावमानो मुनि कायो-सर्गस्थं वोक्ष्य पृष्टवान् // 157 // / अर्थ-चनमां पूर वेगथी दोडता घोडा बड़े हरणीयाओनो वध करवाने आशक्त बनेला अने तेओनी पाछळ पडेला ते राजाए का18/ उसग्गमा रहेला एक मुनिने देखी पूच्यु के-॥१५७॥ कस्यां दिशि मृगा जग्मु-स्त्रिः प्रोक्ते नाऽवदन्मुनिः / राजा जिघांसुर्बाणेन, तमपिस्तम्भितोऽभितः // 15 // अर्थ-'मृगलाओ कइ दिशामां गया छे ?' आ प्रमाणे त्रण वखत चन्द्रादित्ये पूछवा छतां मुनिराज कांइ बोल्या नहीं, त्यारे ते मु-है। जिने पण बाण वडे हणवानी इच्छावाळो चन्द्रादित्य तैयार थयो / 158 / / 18...कायोत्सर्ग पारयित्वा, मुनिस्तारस्वरं जगी। प्राच्याच्छटसि नाऽयापि, नव्यं च कथमर्जसे? // 159 // अर्थ-मुनिए काउसग्ग पारीने अतीच गंभिर स्वरे का के–'हजु सुधी पूर्वना बांधेला कर्मथी तो छूटतो नथी, अने नवां कर्मो केम बांधे छे?' 8 ke Gunratnasuri M.S . ..1 Jun Gun Aaradhak
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________________ RREKO मुनेन्सिया सद्यो, मुत्कलागौत्थ भूपतिः / प्राच्य-नव्यादिवृत्तान्तं, पप्रच्छ प्रणिपत्य तम् // 160 // नाभाक 8 अर्थ-मुनिराजनी आवा प्रकारनी गूढ अर्थवळी वाणी सांभळी तेमने बंदन करवानी इच्छाथी राजाएं जलंदी पोताना शरीर उपरथी तहथियार विगेरे उतारी नाखी, मुनिराजने वंदन करी, पाच्य कर्म अने नवीन कर्म विगेरे सर्व बीना पूछी // 16 // // 40 // प्रोचे मुनिरथोऽयोध्या-प्राप्तकेवलिनो मुखात् / देवद्रव्यविनाशस्या-ऽधिकारप्रौढवर्षदि // 161 // त्वत्पूर्वभवसम्बन्धं, त्वबोधं चाऽथभाविनम्। ज्ञात्वाऽऽगत्य वनेऽत्राहं, कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥१६२॥युग्ममा | अर्थ-मुनिराज बोल्या के-" अयोध्या नगरीमा प्राप्त थयेल केवली भगवानना मुखथी प्रौढ पर्षदामा 'देवद्रव्यनो विनाश करवाथी पाणीने केवी विडंबना भोगववी पडे छे' तेनो अधिकार चालतो हतो, नेमां में तारा पूर्वभवतुं संपूर्ण वृत्तान्त सांभब्यु; अने तुंमाराथीज प्रतिबोध पामीश ए प्रमाणे जाणीने हुं आ वनमां काउसग्ग ध्याने रह्यो हतो / / 161 थी 162 // अर्थ-नृपतिए पूछ्यु के-'स्वामीन् ! मारा पूर्वभवनो शो वृत्तान्त छे ते कृपाकरी जणावो.' त्यारे शांत मुद्राधारी तेमज परोपकारमांज निरंतर परायण मुनिराजे नागगोष्ठिकना भवथी आरंभी अंत सुधी सर्व वृत्तान्त जणाव्यो // 163 // प्राज्यं राज्यं शुद्धदानाद्, दयातो रूपमुत्तमम / दुष्टं कुष्ठं भवद्देहे-ऽभवदेवविलेपनात् // 16 // 8 अर्थ-परोपकार रसिक ते मुनिराजे विशेषमा जणान्यु के-"तें पूर्वे खेडुतना भवमा मुनिने शुद्ध दानथी प्रतिलाभ्या हता, तेना Gunratnasur MS Jun Gun Aaradhak
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________________ चरित्र 496 // 41 // प्रभावथी आ भवमां तने श्रेष्ठ राज्य प्राप्त थयुं छे, अने दयागुणथी उत्तम रूप मळ्युं छे. पण पूर्वे तुं कांतिपुरी नगरीमां रुद्रदत्तनो सोम नाभाकाला ना मनोपुत्र थयो हता, ते भवमां तें देवद्रव्यरूप चंदननुं शरीरे विलेपन कर्यु हतुं, तेथी आभवमा तारा शरीरे दुष्ट कोढ रोग थयो छे" // 164 // | श्रुत्वेति भूपतिर्भीतः, प्रणिपत्य यतेः पदौ / बभाषेऽस्मान्महापापादू, मुने! मोचय मोचय // 165 // 18 अर्थ-आ प्रमाणे मुनिना मुखथी पोताना पूर्वभवनो संबंध सांभळीने राजा पापथी भय पाम्यो, अने मुनिना चरणकमळमां पडी गद् 6 गद स्वरे बोल्यो के-'हे कृपासिंधो ! मने आ महान् पापथी छोडावो छोडावो // 135 // . परमेष्ठिमहामन्त्रं, नृपायोपादिशन्मुनिः / तस्यार्थं च प्रभावं. च, विधिं च स्मरणेऽखिलम् // 166 // अर्थ-मुनिए राजाने पंचपरमेष्ठीरूप महामंत्रनो उपदेश कर्यो, तथा पंचपरमेष्ठीनुं ध्यान करतां तेनो अर्थ प्रभाव अने विधि सर्व सारीरीते समजाव्या // 166 // देवस्वपातकाद देव-प्रासादस्य विधापनात् / मुच्यते जन्तुरित्याख्यत्, प्रायश्चितं च शास्त्रवित् // 167 // अर्थ-तथा शास्त्रना जाणकार ते मुनिराजे देवद्रव्य विनाशनुं प्रायश्चित्त पण जणाव्यु के-'देवदव्यनो विनाश करनार पाणी देवमंदिर करवाथी ते पापथी छूटे छे // 167 // . .. अथ राजा पुरे स्वोये, स्थापयित्वाऽऽग्रहाद् यतिम् / यथोपदेशमारेभे, महामन्त्रस्मृति ततः // 16 // अर्थ-त्यारबाद राजाए मुनिराजने अत्यन्त आग्रह करी पोताना नगरमा राख्या, अने तेओश्रीए जेवी विधिए उपदेश आष्यो ते AAAAAEECCA % RAC Gunratnasuri M
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________________ H // 42 // प्रमाणे पंचपरमेष्ठी महामंत्रनुं निरंतर ध्यान करवानो आरंभ कर्यो // 16 // नाभाक षड्भिर्मासैनॅपस्याऽभूत्, कायः काञ्चनकान्तरुक् / राज्यं गजाश्वकोशादि-वृद्धया भेजे विशालताम् // 169 // चरित्र अर्थ-पंचपरमेष्ठीनं ध्यान करतां छ मासमां चन्द्रादित्यनुं शरीर सुवर्ण सदृश मनोहर कांतिवाडं थइ गयु, अने हाथी घोडा तथा / // 42 // | भंडार विगेरेनी वृद्धि थवाथी राज्य पण विशाल थइ गयु // 169 // शीर्षेऽथ चित्रकूटस्य, प्रासादं परमेशितुः / सुपर्वपर्वतोत्तुङ्ग-शृङ्गं प्रारभयन्नृपः // 170 // अर्थ-त्यारबाद चन्द्रादित्य राजाए चित्रकूट पर्बतना शिखर उपर परमात्मा जिनेन्द्रप्रभुनु मेरु पर्वत समान उंचा शिखरवाळ दे रासर बंधाववानी शरुआत करी // 17 // IN मुनिपावे निविष्टस्य, मापतेः पुरतोऽन्यदा / प्रदर्शयन् खरं कश्चित्, कुम्भकारो जगाविति // 17 // 15 18 अर्थ-एकदिवस मुनिराज पासे राजा बेठो हतो, तेवामां तेनी आगळ एक गधेडाने बतावता कोइ कुंभारे आवीने का के-॥१७१।। राजन्नित्यं वहन् वारी, स्वयं शेले चटत्यसौ / को हेतुरिति भूपोऽपि, श्रुत्वा पप्रच्छ तं मुनिम् // 17 // II अर्थ राजन ! आ गधेडो हमेशां पाणीने वहन करतो आ पर्वत उपर पोतानी मेळे चढे छे तेनुं शुं कारण हशे ?. राजाए पण आ वृत्तान्त सांभळी आश्चर्यचकित थइ मुनिराजने पूछयु // 172 // स एव केवली तावत्, तत्रागाद् मुनि भूपती / तेन कुम्भकृता युक्ती, नन्तुं तमथ जग्मतुः // 173 // SEAceca Gunratrasuri M.SI Jun Gun Aaradhak
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________________ चरित्रं // 43 // " अर्थ-ते दरम्यान तेज केवली भगवान् के जेमणे अयोध्या नगरीमा पर्षदामां कहेलो चन्द्रादित्यना पूर्वभवनो वृत्तान्त मुनिराजे नाभाक सांभळ्यो हतो, तेओ चित्रपुरी नगरीमां पधार्या. केवली भगवाननुं आगमन सांभळी राजा अने मुनिराज ते कुंभार सहित केवली " भगवानने वंदन करवा माटे गया / / 173 // // 43 // खरस्वरूपं भूपेन, पृष्टः केवल्यथाऽखिलम् / समुद्रसिंहवृत्तान्त-मुक्त्वा मूलात् पुनर्जगौ // 174 : दि. अर्थ-ते केवली भगवानने वंदन करी राजाए गधेडानुं स्वरूप पूछ्यु, त्यारे केवली भगवाने समुद्रपाल अने सिंहगें समस्त वृत्तान्त / | आदिथी अंत सुधी का, अने जणाव्यु के-॥१७४॥ सिंहजीवः सको भुक्त्वा, संसारे घोरवेदनाः / पुरेऽत्रैवाल्पकर्मत्वात्, षट्कृत्वोऽथ खरोऽजनि // 175 // अर्थ-ते सिंहनो जीव संसारमा तीव्र वेदनाओ भोगवी, आज नगरमां अल्पकर्मपणाथी छ वार गधेडो थयो // 175 // भवे सप्तमके भूत्वा, त्रीन्द्रियोऽसौ ततः पुनः / खरोऽवशिष्टकर्मत्वात, षटकृत्वोऽत्र पुरेभवत // 17 // अर्थ-त्यार बाद सातमा भवमां ते द्रिय थइ, अवशेष रहेला कर्मथी पाछो छ वार आज नगरमां गधेडो थयो // 176 // - सहस्रा द्वादशाऽनेन, देवद्रव्यं विनाशितम् / तत्कर्मशेषतस्तावत्, कृत्वाऽसावीदृशोऽजनि // 177 // अर्थ-आ सिंहना जीवे बारहजार सोनया देवद्रव्यनो विनाश कर्यो हैनो, ते कर्मना शेषथी ते तेटलीवार नीच भवमां उत्पन्न थयो छे / 177 / प्रतिजन्माऽद्रिशृङ्गेऽस्मिन्, कर्मकार्यकृते सदा / चटनाभ्यासतोऽत्राद्री, स्वयमेव चटत्यसौ // 17 // Jun Gun Aaradhak Gunratnasun M.S
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________________ अर्थ-दरेक जन्ममां आ पर्वतना शिखर उपर वैतरुं करवा माटे हमेशां चडवाना अभ्यासथी आ भवमां पण आ गधेडो पर्वत उपर नाभाक पोतानी मेळे चडी जाय छे॥ 178 // चरित्रं न श्रुत्वेति भूपतिस्तस्य, सारार्थ कृपया ददौ ! शिक्षां कुम्भकृते सोऽपि, यत्नात्तं पर्यपालयत् // 179 // // 44 // अर्थ-आ प्रपाणे राजाए गधेडानुं वृत्तांत श्रवण करी दया आववाथी तेनी सारवार माटे' कुंभारने शिखामण आपी, त्यारथी कुं-12॥४४॥ भार पण तेनुं सारी रीते पालन करवा लाग्यो // 179 // .. .. अथासौ भद्रकस्वान्तो, मृत्वा ग्रामे मुरस्थले / ग्रामणीर्भानुनामाऽमृद्, राज्ञा निर्वासितोऽन्यदा // 180 // * अर्थ-तदनन्तर भद्रक मनवाळो गधेडो मरण पामीने सुरस्थल गाममा भानु नामनो गामनो मुखी थयो, त्यां कोइपण कारणसर राजानो अपराधी बनवाथी एक दिवसे राजाए गाममाथी काढी मूक्यो / / 180 // . गडावतें स्थितः सोऽथ, वृत्तिलोपमसासहिः क्रूरकर्माऽजितेरेव, द्रव्यैः स्वं निरवीवहत् // 18 // अर्थ-राजाए गाममांथी काढी मृकेलो भानु गंगाने कांठे रहेवा लाग्यो, अने पोतानी. चालु अजीविकानो नाश नहीं सहन थवाथी पापी भरपूर क्रूर कार्योथी पैसा उपार्जन करी ते वडे पोतानो निर्वाह चलाववा लाग्यो // 18 // M. श्रोशजययात्रातो, निवृत्तः कोऽपि बाडवः / पत्नी-पुत्रयुतस्तत्र, रात्रौ ग्रामे समेतवान // 12 // 6 अर्थ-एक दिवसे श्रीशनंजय तीर्थनी यात्रा करी पाछो फरेलो कोइ ब्राह्मण पोतानी स्त्री अने पुत्र सहित ते मुरस्थल गाममांरात्रे आव्यो 1824 4G Jun Gun Aaradhal Gunratnasun M.S.
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________________ भक्तदत्तां गृहीत्वा गां, सोऽन्त्ययामेचलंस्ततः।गो-पत्नो-पुत्रयुक्तेन, दुष्टेनाऽघाति भानुना // 18 // नाभाका चरित्रं कयु, तेवामां ते दुष्ट भानुए आवीने गाय, पत्नी अने पुत्र सहित मारीनाख्यो // 183 // ततः पापो पलाय्याऽगाद, गडावर्ते यदा तदा / शीतता सायमद्राक्षीत, कायोत्सर्गस्थितं मुनिम् // 18 // // 45 // 6 अर्थ-त्यांथी महारौद्र अध्यवसायी भानु नासीने गंगाने कांठे पोताने स्थाने चाल्यो गयो, गंगाने कांठे सायंकाले शियाळानी ठंडी ऋतुमां एक मुनिराजने काउसग्ग ध्याने उभा रहेला जोया // 184 / / अहो! कियच्चिरं कष्ट-मसावत्र सहिष्यते? / इति विस्मयवांस्तस्थी, तत्र यामचतुष्टयम् // 185 // 8 अर्थ-शियाळानी कडकडती ठंडीमां सायंकाले काउसग्ग ध्याने उभा रहेला महात्माने जोइ भानु विचार करवा लाग्यो के-'अहो! आ मुनिराज केटलो वखत आवा प्रकारचें कष्ट सहन करशे ?' एम आश्चर्ययुक्त बन्यो छतो त्यांज रात्रिना चार पहोर रह्यो / / 185 / / प्रातः स पारितोत्सर्गः, प्रणम्याऽप्रच्छि भानुना / किं कार्य प्राज्यराज्येन, यदेवं तपसे तपः?:१८६॥ अर्थ-पातः समये मुनिए काउसग्ग पार्यो, त्यारे भानुए नमस्कार करीने पूछयु के-महाराज ! शुं तमारे कोइ मोटुं राज्य मेळ- II वq छे के जेथी आवी घोर अने असह्य तपश्चर्या करो छो?' // 186 / / मुनिः प्रोचे न राज्येन, कार्य नरकहेतुना / किन्तु मोक्षकृते सर्व-साधुभिस्तप्यते तपः // 187 // MAD.Gunratnasun M.S. ECEOकाका SSSSS Jun Gun Aaradha
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________________ RAPHRSS चरित्रं // 46 // अर्थ-मुनिए जवाब आप्यो के–' नरक गति प्राप्त थवाना कारणभूत राज्य मारे काइ पण काम नथी, परंतु सर्वे साधुओ मोक्ष मेळववा माटे तपश्चर्या करे छे' // 187 // नाभाका को भोक्ष इति तेनाऽपि, पृष्टः साधुरभाषत / संसार-मोक्षयोळक्तं, स्वरूपं बहुयुक्तिभिः // 188 // // 46 // अर्थ-भानुए पच्यु के-'मोक्ष एटले शृं? त्यारे मुनिराजे तेने संसार अने मोक्षनुं स्पष्ट स्वरूप घणीज युक्तिपूर्वक समजाव्यु॥१८॥ असौ जन्मजरामृत्यु-मुख्यक्लेशसहस्रभूः / चतुर्गतिकसंसारः, कस्य स्यान्न विरक्कये? // 189 // & अर्थ-वळी जणाव्यु के जन्म जरा अने मृत्यु विगेरे हजारो दुःखथी गहन बनेला चार गतिरूप आ संसारथी कोने वैराग्य न थाय? शाश्वताऽनन्तसोख्यश्री-निवासं वासवा अपि / स्वर्गसौख्यमनादृत्य, याचन्ते मोक्षेमृत्तसम // 190 // अथ -शाश्वता अने अनंता सुखरूप लक्ष्मीनुं निवास स्थान मोक्ष छे, आ मोक्षसुख पासे स्वर्ग सुख पण तुच्छ छे अने तेथीज इन्द्रो पण स्वर्ग सुखनो अनादर करी आवा अनुपम मोक्षने माटे याचना करी रह्या छे // 19 // .... परंस प्राप्यते प्रायः, कृतेः सुकृतकर्मभिः / मुख्यं तेष्वपि सर्वज्ञः, सर्वसत्त्वकृपोच्यते // 191 // ... * अर्थ-इन्द्रो पण जेनी पासे पोतानुं स्वर्गसुख तुच्छ समजी जेने माटे तलसी रह्या छे एवो उत्तमोत्तम मोक्ष प्रायः सुकृत कर्मो वडे जीवो प्राप्त करे छे. ते सुकृतकर्मोमां पण सर्व जीवो उपर करुणाभाव राखवो ए मुख्य सुकृतकर्म सर्वज्ञोए कयु छे // 19 // पाधिकारे जीवानां, हिंसाऽहिंसाफलं तथा / उपादिष्टं यथा भानु-श्चकम्पे निजफापकैः // 592 // CASE REPRO C.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ C नाभाक चरित्रं // 47 // // 47 // अर्थ-आ प्रमाणे जीवदयाना अधिकारमा प्राणीओने हिंसा करवायी केवां माठां फळ भोगवां पडे छे, अने दया राखवाथी केवां & अनुपम सुख भोगवे छे ते सर्वनुं एबुं स्पष्ट स्वरूप ते मुनिराजे समजाव्युं के जेथी भानु पोताना करेला पापथी कंपवा लाग्यो 192 M. यावज्जीवमथादाय, हिंसानियममुत्तमम् / साधुं स्वाऽवसथे नीत्वा, शुद्धान्नैः प्रत्यलाभयत् // 19 // अर्थ-हवे ते मुनिराज पासे जींदगी पर्यंत हिंसाना उत्तम नियमने ग्रहण करी, साधु महाराजने पोताने घेर लइ जइ शुद्ध अन्नथी पतिलाभ्या // 5 एवं तेनाऽर्जितं भोग-फलं कर्म ततोऽनिशम् / कृपावान् पूज्यते लोका-दाप्तस्वो जीविका व्यधात् // 194 // 4 5 अर्थ-आ प्रमाणे तेणे अहिंसावत ग्रहण करवाथी अने मुनिराजने भावपूर्वक वहोराववाथी भोगरूपी फळ आपनाएं शुभ कर्म उहै. पार्जन कयु. त्यार पछी निरंतर दयावाळो ते लोकोमा माननीय थयो, अने लोको पासेथी शुद्ध नीतिपूर्वक द्रव्य मेळवी पोतानी आ जीविका चलाववा लाग्यो / .194 // प्रान्ते मृत्वा दानपुण्याद्, राजन्! राजा भवानभूत् / शुद्धजीवदयापुण्याद्, रूपनिर्जितमन्मथः // 195 // द अर्थ-हे राजन् ! आयुष्य पूर्ण थतां भानु मरण पामी, मुनिराजने दान आपबाना मुण्यर्थी नाभक नामनो तुं राजा थयो छे, अने शुद्ध जीवदया पाळी उपार्जन करेला पुण्यथी कामदेव करतां पण तने अधिक रूप प्राप्त थयुं छे // 195 / / 81. चन्द्रादित्योऽपि सम्पूर्ण-निर्मापितजिनालयः / प्रायश्चित्तेन शुद्धात्मा, सौधमें त्रिदशोऽभवत् // 196 // अर्थ-पूर्वभवमा देवद्रव्यनो विनाश करवाथी कोढियो थयेलो चित्रपुरी नगरीनो राजा चन्द्रादित्य के जे मुनिराजना उपदेशथी परH e Gunratnasuri M.S. 5-5-%A5 SCIUGACAPELA Sun Aaradnak
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________________ मेष्ठी महामंत्रन ध्यान करी छ मासमां कांचन जेवी कांतिकाळो थयो हतो, तेणे चित्रकूट पर्बतना शिखर उपर आरंभेल जिनालय में नाभाक 1. संपूर्ण कराव्युं. आवी रीते मायश्चित्त करो शुद्धात्मा थयेलो ते मरण पामी सौधर्म देवलोकमां देव थयो // 196 // चरित्रं त्वं तत्रैव भवे मूर्त-पुण्यवाजिनमन्दिरम / पातयित्वा पुरस्याऽस्य, परितो दुर्गमातनोः // 197 // // 48 // अर्थ हे नाभाकराजा! तुं भानुना भवमा मुरस्थल गाममां मुखी हतो तेज भवमां तें साक्षात् पुण्यस्वरूप जिनमंदिरने पाडी नाखी गामनी चारे बाजु किल्लो बनाव्यो हतो // 197 / / भूपैवं तत्र विप्रस्त्री-भ्रणगोतीर्थघातिनः / पञ्चहत्या इमाः सर्वाः, पुण्यविघ्ननिबन्धनम् // 198 // अर्थ-हे राजन्! आ प्रमाणे भानुना भवमां तें विपघात, स्त्रीघात, बालघात, गौघात, अने तीर्थघात, आवी रीते पांच मोटी हत्याओ है। IV करी हती, आ सर्व हत्याओ तने आ भवमां पुण्यतुं विघ्न थवानुं कारणभूत थयेली छे // 198 // 5 तत्रापि यात्राविघ्नस्य, तीर्थहत्यैव कारणम् ! अतस्तदपनोदाय, प्रायश्चित्तमिदं शृणु // 199 // 15' अर्थ-तेओमां पण तने शत्रुजयनी यात्रामां आवी पडेला विघ्ननुं कारण तो तीर्थहत्याज छे तेथी तेने दूर करवा माटे आ मकारे की प्रायश्चित सांभळ // 199 // तपोऽभूद वार्षिक मूल-मादिदेवस्य वारके / अष्टमास्यधुना भावि-वारे पाण्मासिकं ततः // 20 // अर्थ-तीर्थकर श्रीआदीश्वर प्रभुना वारामा मूळ बार मासी तप हतो, अत्यारे आठ मासीतपछे, अने भाविकाळमांछ मासी तप थशे॥२०॥ 4%A5-%ERONOCODAI RACGunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradnak
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________________ SECSAGE चरित्र // 49 // . सर्वोत्कृष्टं तपः प्राय-श्चित्तमेतदुदीरितम् / विशेषस्तु तीर्थहत्या-कृतां तीर्थविधापनम् // 201 // 141 नाभाक है। विशिष्टाभिग्रहाः प्रोक्तं, प्रायश्चितं चरन्ति ये / शत्रुजयादितीर्थेषु, ते मुच्यन्तेऽखिलैनसा // 202 // . | अर्थ-जेओ उपर कहेलं प्रायश्चित विशिष्ट प्रकारना अभिग्रहो लइ शत्रुजयादि तीर्थोमां जइ आचरे छे, तेओ समग्र पापथी मुक्त थाय छे / / इति श्रुत्वा नृपो दुर्ग-प्रवेशनियम ललौ / आकार्य सर्वलोकं च, तत्रैवाऽतिष्ठिपत् पुरम् // 2034 . 18 अर्थ-आ प्रमाणे श्रीयुगंधरसूरिनो उपदेश सांभळी तेज वखते नामाकराजाए किल्लामा प्रवेश करवानो नियम ग्रहण कर्यो, अने 4 | सर्व प्रजावर्गने बोलावी त्यांज नगर वसाव्यु // 203 // स्थापयित्वा गुरुंस्तत्र, जग्राहोऽभिग्रहानिति / यावद्यानां विधायाऽत्रा-यामि तावत् क्षितौ शये // 20 // P अब्रह्म दधि-दुग्धे च, वर्जयामि क्रमादिदम / तीर्थ-ब्रह्मा-ऽपत्यहत्या-शुद्धय मेऽभिग्रहत्रिकम् // 205 // | परस्त्री मांस-मद्येच, यावजीवमतः परमात्यक्तानि नियमाएते, स्त्री-गोहत्याविमुक्तये // 206 // त्रिभिर्विशेषकं / अर्थ-गुरुमहाराजने पण त्यांज राखी तेओश्री पासे नामाकराजाए आ प्रमाणे अभिग्रहो ग्रहण कर्या-ज्यां सुधीमां हुं श्रीशत्रुञ्जय तीर्थनी यात्रा करी पाछो अहीं आq त्यां सुधी पृथ्वी पर शयन करीश. तीर्थ हत्यानी शुद्धि माटे यात्रा करीने पालो आयूँ त्यो सु बछAAAAEECRECE
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________________ चरित्रं // 50 // 8% धीमां मैथुननोत्याग करुं छु, ब्राह्मणहत्यानी शुद्धि माटे दहींनो त्याग करुं छु, अने बाल हत्यानी शुद्धि माटे धनो त्याग करुं छु, नाभाक व स्त्रीहत्या अने गौहत्यानी शुद्धि माटे यावज्जीव परस्त्री मांस अने मद्यनो त्याग करूं छु, // 204-205-206 // नियोज्य स्वजनान्नव्य-प्रासादाथै गुरोगिरा / एकान्तरोपवासैःसो-ऽष्टमासीतप आददे // 107 // // 50 // अर्थ-त्यार पछी गुरुमहाराजना उपदेशथी नवीन देरासर बंधाववा माटे पोताना माणसोने आज्ञा करी एकांतरे उपवास करवा पूर्वक तेणे अष्टमासी तप शरु कर्यो / 207 // सिहिं गतेऽथ प्रासादे-ऽष्टभिर्मासैः स काञ्चनाम् / श्रीआदिदेवप्रतिमां, स्थापयामास सोत्सवम् // 108 // | अर्थ-आठ महिने देरासर पूर्ण थयुं त्यारे नाभाकराजाए ते देरासरमां म्होटा उत्सव पूर्वक श्रीऋषभदेव प्रभुनी सुवर्णमय प्रतिमा प्रतिष्ठित करावी // 208 // तत्र त्रिकालं सर्वज्ञ-मर्चयन् विधिवन्नृपः / मासाष्टकेन सम्पूर्णी-चके शेषतपोऽखिलम् // 209 // अर्थ-पोते बंधावेला नवीन देरासरमा प्रतिष्ठित करावेली श्रीऋषभदेव सर्वज्ञनी प्रतिमानी हमेशां त्रण काल विधियुक्त पूजा करतां IM नाभाकराजाए आठ महिने बाकीनो तप पूरो कर्यो / 209 // तीर्थहत्याविनिर्मक्तः, शुभेऽहि भरतेशवत / श्रीशनंजययात्रार्थ. चचाल ग्ररुभिः सह // 21 // 18 अर्थ-आ प्रमाणे अष्टमासी तप करवाथी अने नवीन देरासर बंधाववाथी तीर्थहत्याना पापथी मुक्त थयेल ते नामाकराजाए शुभ / AE25A 18 . Gunratnasuri M.s Jun Gun Aaradhal
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________________ चरित्र // 51 // हदिवसे चक्रवर्ती भरतेश्वर महाराजानी पेठे श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा निमित्ते गुरु महाराज साथे त्यांथी प्रयाण कर्यु // 21 // नाभाक चतुर्धाऽऽयप्रयाणेषु, मार्जारीषु, पदोपरि / समुत्तीर्णासु तछेतुं, पृष्टाः श्रीगुरवोऽवदन् // 211 // + अर्थ-श्रीशत्रुजयनी यात्रा माटे नाभाकराजा प्रयाण करतो हतो तेवामां शरुआतमांज चार बिलाडी तेना पग आगळ थइने चाली गइ. राजाए गुरुमहाराजने तेनुं कारण पूछ्युं, त्यारे गुरुमहाराजे कयु के-॥ 211 / / बालादिहत्याः स्वं भावं, पुण्यप्रत्यूहहेतवे ! दर्शयन्ति परं सिद्धि-ध्रुवं स्यादेकचेतसः // 212 // अर्थ-“हे राजन् ! तें जे पूर्व भानुना भवमा बालहत्यादि हत्याओ करी ते पापो पुण्यकार्यमां विघ्न करवा माटे पोतानो भाव भजवे द छे, पण पुण्यकार्यमा प्रवृत्त थयेल दृढ चित्तवाळो खरेखर पोताना कार्यमां फत्तेह मेळवे छे" // 212 // IPI मत्वैवमेकचित्तः स-नादिदेवस्मृतौ नृपः / उपशजयं प्रापा-ऽनवच्छिन्नप्रयाणकैः // 213 // अर्थ-आ प्रमाणे गुरु महाराजनुं वचन हृदयमां सद्दहीने श्रीमान् आदीश्वरप्रभुना ध्यानमां एकाग्र मनवाळो नामाकराजा अस्खलित मयाणथी श्रीशत्रुजय पर्वत पासे पहोंच्यो // 213 // दृग्विषयं तोर्थे प्राप्ते, निजसैन्यं निवेश्य सः / शुचिर्भूत्वाऽभितीर्थ च, पदानि कतिचिद्ददौ // 214 // सिंहासनेऽथ न्यस्याऽहंदू-बिम्बं सकलसङ्घयुक् / स्नपयित्वा ततः सर्व-पूजाभेदैरपूजयत् // 215 // ACCOCALCROSECRE-%AL SHESARI55ॐद्रमा Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभाक चरित्रं SRISHRA // 52 // अर्थ-श्रीशत्रुजय तीर्थ दृष्टिए पडयु के तुर्त पोताना सैन्यने त्यांज स्थापन करी, शरीरे पवित्र थइ, तीर्थ सन्मुख केटलाएक डगला आगळ जइ, सर्व संघ सहित सिंहासनपर अरिहंत प्रभुनी प्रतिमा पधरावीने ते प्रतिमानी पखाळ करी पूजानी सर्व सामग्री वडे वि घिपुरःसर पूजा करी // 214-215 // . // 52 // .. स्वर्णरूप्ययवै रत्न-स्थालेऽथो मङ्गलाष्टकम आलिख्याऽष्टोत्तरशत-वृतैः सानन्दमस्तवीत् // 216 // 18 अर्थ-त्यार बाद रत्नना थाळमां स्वर्ण अने रूपाना जवोथी आठ मंगळ आलेखीने हृदयना उल्लासथी एकसो आठ श्लोको वढे भावपूर्वक प्रभुनी स्तुति करी // 216 // शक्रस्तवेन वन्दित्वा; सिद्धादि चाऽथ सद्गुरून् / नत्वा स्वर्णमणिरत्न-मुक्ताभिस्तानवोवधत् // 217 // अर्थ- त्यार बाद नमुत्थुणं वडे सिद्धाचलने वांदी, गुरु महाराजने नमनकरी तेओने स्वर्ण, मणि, रत्न अने मोतीवडे वधाव्या।२१७॥ दत्त्वा यथेच्छमर्थिभ्यो, दानं मिष्टान्नभोजनैः / अतूतुषत् सर्वलोकान्, धार्मिकांश्च विशेषतः // 218 // 6 अर्थ-याचक जनोने इच्छित दान आप्यु, तेमज मिष्टान्न भोजन वडे सर्व लोकोने संतुष्ट कर्या, तेमां पण धार्मिक पुरुषोनी तो विशेष प्रकारे आदर सत्कार पूर्वक भक्ति करी तेओने संतोष उपजाव्यो / 218 // र ततोऽतिक्रान्त शेषाऽध्वा, पुरस्कृत्य गुरुं नृपः। रेजे चटन् गिरिं मुक्त्य, प्रस्थानं साधयन्निव // 19 // 18/अर्थ-त्यार पछी बाकीनो मार्ग उल्लंघन करी गुरुमहाराजने आगळ करी जाणे मुक्तिने माटे प्रस्थान साधनो होयनी! तेवी रीते AARE Cunanan MS Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभाकाला शजय उपर चडवो राजा शोभवा लाग्यो // 219 // .. प्रासाददर्शने पूर्व-मपूर्वोत्सवपूर्वकम् / याचकेभ्यो ददद्दानं, कल्पवृक्षायते स्म सः // 220 // चरित्र // 53 // IP दान आपतो ते नाभाक राजा साक्षात् कल्पवृक्ष समान देखावा लाग्यो / 220 // ___ स्नात्रपूजाध्वजारोपा-मारिस्नानाशनादिकम् / सर्व सङ्घपतेर्धर्म-कर्माऽष्टाहमपि व्यघात् // 221 // 13 संघपतिनां धर्म कार्यो कर्यां // 221 // / तीर्थसेवाचिकी मा-नापृच्छयाऽथ विधिं गुरुन् / धर्मध्यानैकलीनात्मा, त्रिकालं पूजयन् जिनम् // 222 // अहोरात्रं पवित्राङ्गो, महामन्त्रमसौ स्मरन् / साधून साधर्मिकांश्चाऽपि, प्रतिपारणकं स्वयम् // 223 // सत्कारयन् यथायोग्यं, भकपानेर्यथोचितैः। मासेन दश षष्ठानि, निरम्भांसि वितेनिवान्।२२४। त्रिभिर्विशेषकम् / अरिहंत प्रभुनी पूजा करतां, पवित्र अंगवाळो थइ रात्रि-दिवस परमेष्ठी महामंत्रनु स्मरण करता, दरेक पारणाना दिवसे साधुओने अने Junoun AaradhakLS Gunratnasun M.S.
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________________ चरित्र // 54 // साधर्मिक बंधुओने यथायोग्य उचित मोजन-पानथी सत्कार करता एक मासमां दसछठनी तपश्चर्या पाणी विना करी / 222-223-224 // नाभाक 8 दिने त्रिंशत्तमे ब्राह्म-मुहत्तें तेन वीक्षिताः। चतस्रः पदिकामात्रा, मार्जार्यः कर्बुराः पुरा // 225 // अर्थ-ते राजाए त्रीशमे दिवसे ब्राह्म मुहूर्तमां पोतानी आगळ पगला मात्र प्रमाणवाळी चार काबरा वर्णनी बिलाडि जोइ / / 225 // // 54 // है ब्रह्मादिहत्या एतास्ताः, क्षीयन्ते तपसो बलात् / अनुमीयेति स प्राग्वद्, विदधेऽथाष्टमाष्टकम् // 226 // अर्थ- में पूर्वे भानुना भवमां करेली ब्राह्मण विगेरे हत्याओ तपस्याना प्रभावथी क्षीण थती जाय छे" ए प्रमाणे पूर्वनी जेम अनुमान करी आठ अहम कर्या / / 226 // है तदन्ते कालमात्रास्ता, वीक्षिता धूसराः पुनः। मत्वा तथैव ताः प्राग्व-च्चकार दशमानि षट् // 227 // अर्थ-आठ अट्ठमने छेडे ब्राह्म मुहर्तमां कोयलना परिमाणवाळी धूसर वर्णनी चार बिलाडी जोइ, त्यारे पण पूर्वनी जेम 'ब्रह्महत्यादि हत्याओ क्षीण थती जायछे' ए प्रमाणे मानी नाभाकराजाए छ चारेउपवास कर्या // 227 // - तत्प्रान्ते मषिकामात्रा, दृष्टास्ता धवलाः पुनः। ततो विशेषतो हृष्ट-श्चके द्वादशपञ्चकम् // 228 // IN अर्थ-छ चारउपवासनी तपश्चर्याने छेडे उंदरना प्रमाण जेटली चार धोळी बिलाडी जोइ, तेथी विशेष हर्षित थयेला नाभाकराजाए पांच पांच उपवास कर्या / / 228 // / ईषन्निद्रान्तरेकोन-त्रिंशत्तमदिने ततः / नमस्कारान स्मरन्नेव, स्वप्नमेवमलोकत // 229 // ESGESCHICASSO 24TAX Gunratnasun M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ का - 8. अर्थ-त्यार बाद ओगणत्रीसमा दिवसे नमस्कारर्नु स्मरण करता करतांज थोडी निद्रा लीधी. निद्रामां एबुं स्वप्न जोयु के-॥२२९॥ क्विाऽपि स्फटिकशैलेऽहं, सोपाने प्रथमे स्थितः केनाप्यतीववृहेन, कृशेन लोठितः परम् // 230 // चरित्र प्राप्तो द्वितीयसोपान, तृतीयं च गतस्ततः। शैलशृङ्गमथारुह्य, मुक्तराशौ निविष्टवान् // 231 // युग्मम् / // 55 // अर्थ-"हुँ कोइ स्फटिक पर्वत उपर पहेले पगथीये चड्योहतो, तेवामां कोइ एक कृश अने अत्यंत वृद्ध पुरुषे धक्को मारी गबडाव्यो,परंतु नीचे जवाने बदले उलटो बीजेपगथीये प्राप्त ययो, त्यारपछीत्रीजे पगथीये चड्यो, क्रमसर पर्वतना शिखर उपर चडी छेवटे मुक्तिमांजइ बेठो" प्रभो! फलं किमस्येति, पृष्टः श्रीगुरवो जगुः। स्फटिकादिर्जनधर्मः, सोपानं मानुषो भवः // 232 // अर्थ-आ प्रमाणे आश्चर्यकारी स्वप्न जोइ जागृत थयेला नाभाक राजाए मातःकाले मुनिराजने पूछयु के-'प्रभो! आ स्वमनुं फळ शृं?'त्यारे || गुरुमहाराजे कत्यु के-"जे तुं स्फटिक पर्वत उपर चड्यो ते जिनधर्म जाणवो, ते पर्वतना पहेला पगथीया रूप मनुष्य जन्म समजवो।२३२। IPL अतो धर्माच्च यत्नेना-ऽन्तरायस्वल्पकर्मणा / पात्यमानोऽपि सत्त्वेना-ऽच्युतस्त्वं स्वर्गमिष्यसि // 233 : अर्थ-आ जिनधर्म रूपी स्फटिक पर्वतना पहेला पगथीयाथी अंतराय रूपी स्वल्प कर्म वडे गवडावातो छतां सत्त्व वडे रह रहेलो तुं पतित नहीं थयो छतो देवलोक रूपी बीजे पगथीये जइश // 233 // . ज्ञानं तृतीयसोपानं, नृभवेऽवाप्य केवलम् / सर्वकर्मविनिर्मुक्तो, मुक्तराशी निवेक्ष्यसि // 234 // DeGunrainastel M.S. - Jun Guf Aaradhiakant
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________________ चरिम 15 अर्थ-देवलोकमांथी च्यवी मनुष्यभवमां आवेलो तुं सर्व कर्मोथी रहित थयो छतोत्रीजा पगथीया रूप केवलज्ञान कामी मोक्षराशिमांप्रवेश करीश नाभा परं तत् प्राक्तनं कर्म, च्छद्मस्थत्वान्न बुध्यते। अतः पृच्छ विदेहेषु, श्रीमत्सीमन्धरं जिनम् // 235 // न अर्थ-परंतु हुं छद्मस्थ होवाथी तें पूर्वे करेलु ते अन्तराय कर्म जाणी शकतो नथी, माटे महाविदेह क्षेत्रमा विराजमान श्रीसीमंधर प्रभुने पूछ" // 56 // प्राप्नोमीहक्कथं राज्ञे-त्युक्ते श्रीगुरवोऽवदन् / भवत्पुण्यप्रभावेण, भवितेत्यचिरादपि // 236 // // 56 // अर्थ-नाभाकराजाए पूछयु के-'श्रसीमंधर स्वामी पासे केवीरीते जवाय?'. त्यारे गुरुमहाराज बोल्या के–'तमारा पुण्यना प्रभा वथी थोडाज वखतमा तमारे त्यां जवानुं थशे' // 236 // 6 एतद्विशेषलाभाया-दिदिशे गुरुणा तदा। अन्यथा केवलिप्रश्नात्, पूर्वविद् बुध्यतेऽखिलम // 237 // है IM अर्थ-ते वखते नाभाक राजाना विशेष लाभ माटे युगंधरमूरिए उपर प्रमाणे को, नहींतर चौद पूर्वना जाणकार तो केवली भग-1] 8 वानने पूख्वाथी सर्व वात जाणी शके छे // 237 // ___अथाऽन्तरायविच्छित्त्यै, पारणाहेऽप्युपोषितः। ईषन्निद्रां गतो याव-जागति स निशात्यये // 238 // 5 तावद्वीक्ष्य महारण्ये, पतितं स्वं व्यचिन्तयत्। हा हा! कथं स एवाऽय-मन्तरायः समापतत्॥२३९॥युग्मम् / अर्थ-त्यार बाद अंतराय कर्मनो विच्छेद करवा माटे राजाए पारणाने दिवसे पण उपवास कर्यो, अने धर्मध्यान पूर्वक रात्रे मुह गयो. 18| थोडी निद्रा करी रात्रिना छेल्ले पहोरे जेवामां जागे छे तेवामां पोताने एक मोटी विकट अटवीमां पडेलो जोइ विचारवा लाग्यो के कलकर Gunratrasuri MS Jun Gun Aaradhak
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________________ C KHAR154 ॐद चरित्र 57 // अरेरे! | मने गुरु महाराजे जे अंतराय कर्म कयु हतुं तेज उदयमां आवी पडयुं ? // 238-239 // नाभाक अथवाऽलं विषादेन, श्रीशत्रञ्जयनायकम। नत्वा श्रीऋषभदेव-मादास्ये भक्तपानकम् // 240 It अर्थ-अथवा विशेष खेद करवाथी | वळवार्नु छ?. श्रीशत्रुजय तीर्थना अधिराज भगवान् श्रीआदीश्वरप्रभुने वंदन कर्या बाद हुं 18 भोजन अने जल वापरीश // 240 // निश्चत्येत्यनुपानकः, क्षरद्रक्ताकुलक्रमः। तपःक्रान्तस्तृषाक्लान्तः, परिश्रान्तः क्षुधार्दितः॥ 241 // मध्याहातपसंतप्त-वालकाभिः पथि ज्वलन्। अनिर्विष्णमना देव-ध्यानादेव चचाल सः॥२४२॥ युग्मम् / अर्थ-आ प्रमाणे पोते दृढता पूर्वक नियम ग्रहण करी, पगरखा रहित होवाथी अटवीमां चालतां लोहीथी खरडायेला पगवाळो, तडकाथी आकुल बनेलो, तृषाथी शरीरे ग्लानि पामेलो, चालता चालतां थाकी गयेलो, भूखथी पीडायेलो, अने खरा बपोरना तडकाथी तपी गयेली रेती वडे पगे रस्तामां बळतो छतो पण चित्तमां जरा पण खेद नहीं लावतो ते धैर्यवान् नामाकराजा आदीश्वर प्रभुनु ध्यान धरतो थको आगळ चालवा लाग्यो / 249-242 // अपराहे पुरः क्वापि, कयाचिन्नवनिस्त्रिया। दौकितं न फलमादत, सत्वान्नाऽपि पयः पपौ॥ 243 // 4 अर्थ-राजा अगाडी चाल्यो जायछे तेवामां बपोर पछीना. समयमा कोइक नवीन स्त्रीए आवी तेनी सन्मुख सुंदर फळ तथा शीतल जळ मूक्यु, पण तेने श्रीआदीवरमभुनुं दर्शन कर्या सिवाय काइपण वस्तु खावानो तथा जल पीवानो दृढ नियम होगाथी सत्त्वशाळी 15ॐ . . भEOS DicGunranasuri M.S. LAM un Gun Aaradhak
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________________ चरित्रं ते महापुरुषे फळ खाधु नहीं तेम जळ पण पीई नहीं // 243 // नाभाक तया सह महःस्तोम-व्योमव्यापिनि मन्दिरे / आश्चर्यपरिपूर्णान्तः, स्वच्छेन मनसा ययौ // 25 // अर्थ-त्यारबाद अश्चर्यथी पूर्ण बनेला हृदयवाळो नामाक आकाशमां व्यापी रहेला तेमज झळहळाट वाळा एक महेलमां ते स्त्री // 54 // साथे स्वच्छ चित्ते गयो / 244 // स तत्र चित्रकृपाः, सारशृङ्गारहारिणीः। हरिणाक्षीनिरैक्षिष्ट, विलसन्तीः सहस्रशः // 245 // अर्थ-पोताने अपरिचित ते नूतन प्रासादमां नामाकराजाए आश्चर्य उत्पादक स्वरूपवाळी, उत्कट श्रृंगारथी चित्तने आकर्षण कर नारी, मनोहर विलास करती हजारो सुंदरीओने जोइ // 245 // 12 तासां मध्यादथोत्थाय, स्वामिनी हंसगामिनी। योजितांजलिरभ्येत्य, सानुरागमदोऽवदत // 246 // 18. अर्थ-ते मनहरणी सुंदरीओमांथी तेओनी स्वामिनी एक अग्रेसर स्त्री ऊठीने हंसनी जेवी मंद मंद गति करती नामाकराजा पासे आवी, अने बे हाथ जोडी प्रेमपूर्वक बोली के-॥ 246 // अस्मदीयेन भाग्येन, समेतोऽसि गुणोदधे?। स्त्रीणां राज्यमिदं विद्धि, योऽत्रैति पतिरेव नः // 247 // अर्थ-"हे गुणसमुद्र! तमे अमारा भाग्यथीज अहीं पधार्या छो,आ स्त्रीओर्नु राज्य छे,अने जे अहीं आवे छे तेने अमे पति तरीकेज मानीए छीए / - श्रुत्वेति नृपतिर्दध्यौ, सङ्कटान्तरमागतम् / मौनमेवाऽत्र मे श्रेयो, मौनं सर्वार्थसाधनम् // 248 // RELA Gunratnasuri MS Jun Gun Aaradhak
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________________ अर्थ-आ प्रमाणे स्नेह सहित प्रेमाळ वचनविलास सांभळी राजा विचारवा लाग्यो के-'आ बळी मारे माथे बीजं संकट आवी प-131 नाभाकाल | डयु!. 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' ए न्याय प्रमाणे हुँ पण अहीं सपडायो छ. हवे आवा प्रसंगे मारे मौन धारण करवू एज सर्वथा श्रेय- चरित्र M स्कर छे, कारण के-मौन ए इच्छित वस्तुनुं साधन छे” // 248 // इति तूष्णीं स्थिते भूपे, मुख्यादिष्टाः स्त्रियोऽपि ताः। स्नानभोजनसामग्री, सज्जोकृत्योपतस्थिरे // 249 // अर्थ-आ प्रमाणे ज्यारे राजाए मौन धारण करी काइपण उत्तर आप्यो नहीं त्यारे ते मुख्य स्वामिनीए हुकम कराएल बीजी सुंदरीओ स्नान अने भोजननी सामग्री तैयार करी राजानी समक्ष लावीने उपस्थित थइ. अने का के-॥ 249 / / प्रसद्य सद्यः प्राणेश!, स्नात्वा भुक्त्वा यथारुचि / यावज्जीवं सहाऽस्माभि-भॊगान भुक्ष्वाऽकतोभयः।२५०। अर्थ-“हे माणेश! अमारा उपर जसदी कृपादृष्टि करी, यथारुचि स्नान अने भोजन करी अमारी साथे जींदगी पर्यंत भोग भोगवो, अहीं तमारे कोइ पण तरफथी कांइ पण भय राखवो नहीं" // 250 / / एवं वदन्त्यः शीताम्भः, सिता-द्राक्षाम्भसी अपि। सिताघृतपुरस्निग्ध-पायसादि च तत्पुरः / 251 // प्रदय चाटुभिर्वाक्यै रुपसर्गाननेकशः। पूर्व कृत्वाऽनुकूलांस्ताः, प्रतिकूलानपि व्यधुः // 252 // युग्मम्। अर्थ-आ प्रमाणे बोलती छती ते मनहरणी सुंदरीओए नामाक राजा आगळ शीतळ अने सुवासित जल, साकर अने द्राक्षानुं पाणी, -CH **5555 Gunnas
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________________ चरित्रं घी अने साकर नाखी स्वादिष्ट बनावेला धपाक विगेरे मिष्टान्न देखाडी मीठा मीठां प्रीतिपूर्वक वचनो वडे पहेलां तो अनेक अनुकूळ नाभाक उपसर्गो कर्या, अने त्यार पछी अनेक प्रतिकूळ उपसर्गो करवा मांड्या // 251-252 // / तथाप्युक्षुब्धचेताः स, धर्मे यावदवस्थितः।श्रीशत्रुञ्जयभृङस्थं, तावदात्मानमैक्षत // 253 // 60 // अर्थ-ते स्त्रीओए अनेक अनुकूल अने प्रतिकूल उपसर्गो करवा छतां पण ज्यारे अस्खलित चित्तवाळो नाभाक जरा मात्र नहीं डगतां 8 धर्म ध्यानमांज लीन रह्यो, तेवामां पोताने श्रीशत्रुजय पर्वतना शिखर उपर रहेल जोयो / 253 / / / / अहो! किमेतदित्येवं, साश्चयें नृपपुङ्गवे। सौरभ्याकृष्टभृङ्गालिः, पुष्पवृष्टिर्दिवोऽपतत् // 254 // - अर्थ-'अहो! आ ते शुं स्वप्न छे के साचो बनाव छे?' ए प्रमाणे आश्चर्यमां गरकाव बनेलो नृपवर विचार करे छे तेवामां आका-12 शमांथी सुगंधीने लीधे खेंचाइ आवेला भमराओनी पंक्तिथी व्याप्त बनेला पुष्पोनी दृष्टि पडी // 254 // | पुरः सुरः स्फुरत्कान्तिः कश्चित् काञ्चनकुण्डलः। प्रादुर्भूयेत्यभाषिष्ट, कुर्वन् जयजयारवम् // 255 // 18 | अर्थ-तथा तेनी सन्मुख सुवर्णना कुंडल धारण करनार देदीप्यमान कांतिवाळा अने 'जय जय' शब्द करता कोइक देवे प्रगट थइने कह्यु के तव प्रशंसां सद्धर्मन!, सौधर्मस्वामिनिर्मितामा असासहिरहं सर्व-मकार्षमिदमीहशम् // 256 // अर्थ-"हे धार्मिक शिरोमणे! देवलोकमां सौधर्मेन्द्रे करेली तमारी प्रशंसा सहन नहीं थवाथी तमारी परीक्षामाटे में आq सर्व कार्य कयु छे॥ तत् क्षमस्व महाभाग!, यदेवं क्लेशितो भवान् / तुष्टोऽस्मि तव सत्वेन, वरं वृणु वरं वृणु // 257 // 97-%AGAR // 60 // . Gunratnasur M.S. suriM.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ E5% नाभाक 61 // भव CHASAKARSANSARGICA-ला 4 अर्थ-हे महाभाग्यशाली! जे में तमने दुःख आप्यु तेनी क्षमा करो, हुं तमारासत्त्वथी संतुष्ट थयो छु,माटे जे तमारे जोइए ते वरदान मागील्यो।। राजाऽवोचन्न याचेह-माप्तधर्मधनः परम् ! परं सीमन्धरस्वामि-निनंसा मम पूरय ::258. // ii चरित्रं अर्थ-राजाए कह्यु के-"में धर्मरूपी अखूट खजानो प्राप्त करेलो होवाथी मारे मागवान काइ रह्यं नथी, पण मारे श्रीसीमंधरस्वामीने वंदन करवानी इच्छा छे ते पूर्ण कराव / / 258 // अथो देव-गुरुन्नत्वा, सत्वाधिकशिरोमणिः। नाकिक्लुप्तविमानेन, विदेहेषु ययौ नृपः // 259 // A अर्थ-त्यार बाद देवे विमान बनाव्युं, तेनी अंदर सत्त्वशाळी पुरुषोमां शिरोमणि नाभाकराजा देव अने गुरुने नमस्कार करी बेठो, है अने देवनी सहायथी ते विमानवडे महाविदेहक्षेत्रमा ज्यां श्रीसीमंधरस्वामी बिराजेला हता त्यां गयो // 259 // / तत्राऽष्टप्रातिहार्यश्री-सेव्यं सीमन्धरं जिनम् / नत्वाऽपृच्छच्चिरत्नो मे-ऽन्तरायः कोऽयमित्यसौ // 26 // | अर्थ-त्यां आठ महापातिहार्यरुप लक्ष्मीवडे सेवाता श्रीसीमन्धर जिनेन्द्रने वंदन करी पूछयु के-'हे प्रभो! मने घणा लांबा काळथी शुं अंतराय कर्म लाग्युं छे?' // 260 // समुद्र-सिंहयो ग-गोष्ठिकस्य च सा कथा / यथा युगन्धराचार्यः, प्रोक्ता स्वामी तथादिशत् // 261 // अर्थ-आ प्रमाणे नाभाकराजानो प्रश्न सांभळी प्रभु श्रीसीमंधरस्वामीए जेवीरीते युगंधराचार्य समुद्रपालसिंह अने नागगोष्ठिकनी कथा कही हती तेवीरीते संपूर्ण कही // 261 // RAC Gunratrasun M. Jun Gun Aaradhak
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________________ % A / पुनः प्राहः प्रभुभूपं, न पूर्वकृतकर्मतः। विमुच्येत क्वचित् कोऽपि, त्वमेवाऽस्य निदर्शनम् // 262 // नाभाक 8 अर्थ-वळी प्रभुए. राजाने कधु के-पूर्वभवमा उपार्जन करेला कर्मों भोगव्या सिवाय कोइ पण पाणी कदापि छूटी शकतो नथी, ते चरित्रं संबंधमां तुज पोते दृष्टांवरूप छे // 262 // // 62 // त्वया सिंहभवे यात्रा-ऽन्तरायोऽकारि बान्धवम् / धारयित्वा स विज्ञेयो, वृद्धः सोपानलोठकः // 236 // अर्थ-तें सिंहना भवमा तारा भाइ समुद्रपालने यात्रा करतां अटकावी अंतराय को हतो, अने तेथी ते अंतराय कर्म उपार्जन कयु हतुं, ते अंतराय कर्मज तने पहेले पगधीयेथी गबडावनार वृद्ध पुरुष जाणवो // 263 // & असौ नागस्य जीवोऽपि, चन्द्रादित्यभवे पुरा / क्षालिताऽखिलसत्कर्मा, सौधर्मेऽजनि निर्जरः // 234 // 181 अर्थ-वळी जे आ तारीसाथे देव आवेलो छे ते नागश्रेष्ठीनो जीव छे, तेणे पहेलां चद्रादित्यना भवपां पुण्यकर्म कडे समग्र पाप प्र-5 दक्षालन करी अत्यारे सौधर्मदेवलोकमां देवता थयो छे // 234 // 2 इति सीमन्धरस्वामि-मुखातौ चरितं निजम। श्रुत्वा प्रीतो जिनं नत्वा, शत्रुञ्जयमगच्छताम् // 265 // अर्थ-आ प्रमाणे सीमंधरस्वामीना श्रीमुखथी ते देव अने नामाकराजा पोतपोतानुं चरित्र सांभळी घणा हर्षित थया, अने ते प्रभुने वंदन करी श्रीशत्रुजय पर्वत उपर गया // 265 // . ... र तमुद्रपालन यात्रा करतां अटकावी अंतराय को इनो AR Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak
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________________ तत्र श्रीआदिदेवस्य, स्नात्रपूजामहोत्सवम् / कृत्वाऽष्टाहत्रयं भक्त्या, तौ स्वं धन्यममन्यताम् // 266 // नाभाकद अर्थ-शत्रुजयपर्वत पर ते बन्ने जणाए त्रण अठवाडिया सुधी भक्तिपूर्वक श्रीआदीश्वर प्रभुनी स्नात्रपूजानो महोत्सव करी पोताना , चरित्रं आत्माने भाग्यशाली मानवा लाग्या // 266 // . अथ शाश्वतपूजार्थ, सर्वाङ्गाभरणानि तो। कारयित्वा महापूजा-क्षणेऽरोपयतां क्रमात् // 267 // // 63 // 8 अर्थ-त्यार पछी शाश्वत पूजा माटे सर्व अंगना आभूषणो करावी ते महापूजा वखते.आभूषणोने क्रमसर प्रभुना अंग उपर चडाव्या। माणिक्यरत्नखचितां, दत्त्वा हैमी महाध्वजाम / अभङ्गरङ्गसङ्गीत-भक्तिं दर्शयतश्च तौ // 268 // | अर्थ-त्यार पछी माणेक अने रत्नोथी जडेली सुवर्णनी महाध्वजा चडावी अने अखंडित भावोल्लास पूर्वक संगीत गान करी प्रभुना | उपर पोतानी अवर्णनीय भक्ति देखाडी आपी // 268 // . द एवं निर्माय निर्मायौ, प्राज्यप्रौढप्रभावनाः। सर्वज्ञशासनौन्नत्यं, तो व्यस्तारयतां चिरम् // 269 // है अर्थ-आ प्रमाणे कोइ पण प्रकारनी माया रहित पवित्र हृदये ते राजा अने देवे अत्यंत मोटी प्रभावना करी लांबा वखत सुधी सबज्ञ प्रभुना शासननी उन्नति विस्तारी // 269 // अथाऽनन्तगुणोत्साह-बद्धरोमाञ्चकञ्चुकः / नाभाकभूपतिर्धर्म-शालास्थानमशिश्रियत् // 270 // अर्थ-त्यार बाद अनंतगणा उत्साहथी प्रफुल्लित रोमांचवाळा नाभाकराजाए धर्मशालाना स्थाननो आश्रय लीधो // 27 // ASAR MAILLOR COOLICERIGE c.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ नाभाक // 64 // तत्र न्यकृतकल्पद्रु-र्डिण्डिमोद्घोषपूर्वकम् / स्वमर्थमार्थसात्तन्व-नदारियं जगद् व्यधात् // 271 // अर्थ-त्यां रही दान आपवा माटे पटहोद्घोषणा करावी, अने जेना दानगुण पासे कल्पवृक्षो पण हलका पडी गया एवा ते राजाए चरित्रं पोतानुं धन याचक जनोने आपतां सर्व जगत् अदारिद्य करी दीधुं / / 271 // अथ पुण्यपवित्रात्मा, क्षालिताऽखिलकश्मलः। गुरुभिः सह भूपालः, प्रतस्थे स्वपुरं प्रति // 272 // 81 अर्थ-इवे पुण्यबडे पवित्र आत्मावाळो ते नाभाकराजा पोताना समग्र पापनी शुद्धि करी गुरुमहाराज साथे पोताना नगर तरफ चाल्यो। KI अनुपानद गुरोर्बाम-भागेन पथि सञ्चरन् / दर्शयन्नुच्चनीचां च, भुवं भक्ताग्रणीरभृत् // 273 // 18 अर्थ-रस्तामां गुरुमहाराजने डावे पडखेउघाडे पगे चालतो अने उंचाण-नीचाणवाळी पृथ्वीने बतावतो तेनाभाकराजा गुरुभक्त शिरोमणिथयो / चन्द्रादित्यसरः सेना-मानं छत्रं वितानयन् / चामरांश्चालयन् पार्श्व-द्वये सदगुरुभूपयोः // 274 // संवर्तकाऽनिलेनाग्रे, कण्टकाद्यपसारयन् / गन्धोदकस्य वर्षेण, मार्गस्थं शमयन रंजः // 275 // सुगन्धिभिः पञ्चवर्ण-दिव्यपुष्पैर्भुवं स्तृणन् / संचारयन् पुरस्थं च, योजनोच्चमहाध्वजम् // 276 // एतयोरवमन्तारो, यास्यन्ति प्रलयं स्वयम् / एतत्पादाब्जनन्तारो, वर्डिष्यन्ते महाश्रिया // 277 // इत्यम्बरगिरा साकं,दुन्दुभिं दिवि ताडयन् / गुरूणां विदधे भक्तिं, सान्निभ्यं च महीपतेः।२७८ापञ्चभिःकुलकम् ) BEHAC.Gunratnasun M.S. Jun Gun Auradha
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________________ अर्थ-चन्द्रादित्य देव पण सेनाना परिमाण जेटलं छत्र विस्तारतो, सद्गुरुमहाराज अने राजाना बन्ने पडखे चामरो वींजतो-२७४। नाभाक ल संवर्तक वायरा वडे रस्तामा आगळ आगळ कांटा विगेरेने दूर करतो, सुगंधी पाणी वरसावी मार्गनी धूल शांत करतो // 275 // 3 | ববি गंधथीं बहेकी रहेला पांच वर्णना दिव्य पुष्पोथी पृथ्वीने आच्छादित करतो, आगळ एक योजन प्रमाण उंची मोटी ध्वजा फरकावतो, // 65 // 18 // 276 // “आ गुरुमहाराज अने राजानुं अपमान करनारा स्वयं नाश पामशे, अने एमना चरणकमलने नमस्कार करनार लोकोने रा // 65 // | महालक्ष्मीनी वृद्धि थशे" || 277 // एवी आकाशवाणी साथे गगनमां दुंदुमिनो नाद करतो छतो गुरुमहाराजनी भक्ति करतो हतो, | तेमज राजानुं सान्निध्य करतो हतो / / 278 // इत्थं प्रतिपदं नैक-भूपैः प्राभूतपाणिभिः। प्रवर्धमानभव्यश्री-नृपः प्रापन्निजं पुरम् // 279 // 8 अर्थ-आवीरीते मार्गमां चालतां पगले पगले अनेक राजाओ हाथमा भेटणां लइ नाभाकराजानुं सन्मान करवा लाग्या, अने तेथी। वृद्धि पामती मनोहर लक्ष्मीवाळो राजा पोताना नगरमां आवी पहोंच्यो // 279 / / P गुरवोऽपि ततो दत्त्वा, श्रीमन्नाभाकभूपतेः / सम्यक्त्वमूलश्राद्धाणु-व्रतानि व्यहरन् भुवि // 280 // . अर्थ-त्यार बाद गुरुमहाराजे नाभाकराजाने सम्यक्त्वमूल श्रावकना अणुव्रत उचरावी शुद्ध श्रावक कर्यो, पछी गुरुमहाराजे बीजे विहार कर्यो __ अथ देवस्य सान्निध्याद्, वासुदेव इव स्वयम् / भूपालो भरतार्थस्य, त्रीणि खण्डान्यसाधयत् / / 281 // | अर्थ-त्यार पछी चन्द्रादित्यदेवनी सहायथी नाभाकराजाए वसुदेवनी पेठे अर्ध भरतना त्रणे खंड साध्या // 281 / / GOOKGALOCALCHALKAROSAREE SSC1-61 RECCAN GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ / भूमिपतिसहस्राणां षोडशानां च मूर्धनि / आज्ञा संस्थाप्य राज्यं स्व-धर्म च समपालयत् // 282 // नाभाक, अर्थ-नाभाकराजाए सोळ हजार राजाओ उपर पोतानी आज्ञा भवर्तावीने सम्यक् प्रकारे पोताना राज्यनु अने धर्म पालन करवा लाग्यो॥ 4 चरित्रं - त्रिकालं देवमभ्यर्चन्, द्विसन्ध्यं सद्गुरुन्नमन्। षडावश्यककृत्यं च, तन्वन् राज्यफलं ययौ // 283 // अर्थ-राजाए त्रण काळ प्रभुनी पूजा,अने सांज सवार सद्गुरु महाराजने वंदन तथा छ आवश्यक कृत्य करतां राज्यनुं शुभ फळ मेळव्यु।२८३ प्रतिग्रामपुरं जैन-प्रासादास्तुङ्गतोरणाः। व्यधाप्यन्त नरेन्द्रेण, धर्मशालाः सहस्रशः // 284 // / 13 अथ-ते राजाए दरेक गाम अने शहेरोमां उंचा तोरणवाळा जिगमंदिरो बंधाव्या, तेमज हजारो धर्मशाला बंधावी // 284 // / साहिलोकपरद्रोह-पैशून्यकलिमत्सराः। निर्मूलं वारिताः सप्त-व्यसनानि विशेषतः // 285 // . अर्थ-वळी ते राजाए पोताना राज्यमां निंदा, परद्रोह, चाडी, कजीओ, ईर्ष्या विगेरे निर्मूल निवारण कर्यु, तथा सात व्यसनोनो है तो विशेष प्रकारे निषेध कर्यो / 285 // 8 मिथ्यात्वं पापमन्याय, विधत्ते मनसाऽपि यः / तस्य देवः स्वयं शिक्षा, दत्ते तत्क्षणमेव सः // 283 // अर्थ-तेना राज्यमा कोइपण माणस मिथ्यात्व पाप अने अनीति मनथी पण करतो तो तेने चन्द्रादित्य देव तेज क्षणे शिक्षा करतो॥ तद्देशवास्तव्यजना-स्ततः पुण्यैकबुद्धयः / राजवर्माऽनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजाः // 287 // %ASESAR SEARRASSAGAR Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhal
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________________ चरित्रं अर्थ-पुण्यमां लीन करेली बुद्धिवाला ते देशना लोको राजाने मार्गे धर्म अने नीतिने अनुसरवा लाग्या, कारण के जेवो राजा नाभाका थाय तेवी तेनी प्रजा होय छे // 287 // एवं यथा यथा पृथ्व्यां, पुण्यवृद्धिस्तथा तथा / काले वृष्टिर्धान्यपुष्टि-बहुपुष्पफला द्रुमाः // 288 // बहुक्षीरप्रदा गावो, बहुरत्नाश्च खानयः। व्यवसाया महालाभा, दूरदेशाः सुसञ्चराः // 289 // निरामया निरातङ्का, महासौख्याश्चिरायुषः। पुत्रपौत्रादिसन्तान-वृद्धिभाजोऽभवन जनाः।२९० त्रिभिर्विशेषकम् अर्थ-आवी रीते पृथ्वीमा जेम जेम पुण्यनी वृद्धि थवा लागी तेम तेम सारीरीते समयसर दृष्टि थवा लागी, घणुं धान्य नीपजवा लाग्यु, वृक्षो घणा पुष्पो अने फळ आपनारा थया // 288 / गायो अधिक दूध आपवा लागी, खाणो घणा रत्नोवाळी थइ, व्य18 पारमा अतिशय लाभ थवा लाग्यो, घणा दूरना देशो पण सुखरूप मुसाफरी थई शके तेवा थया / / 289 // तेमज लोको निरोगी, निर्भय, अत्यंत सुखी, लांबा आयुष्यवाळा अने पुत्र-पौत्रादि संततिनी वृद्धिवाळ थया // 29 // / एवं तदाज्यलोकानां, धर्मशर्म निरीक्षणात्। हियेव स्वर्गिणोऽभूव-नश्या धर्मवर्जिताः // 291 // अर्थ- आवीरीते ते राज्यना लोको धर्मना प्रभावथी एटला सुखी हता के जे सुखने जोइ धर्मवजित देवो पण पोताने सुखरहित मानवा लाग्या, अने तेथी जाणे लज्जा आववाथी पोते अदृश्य थइ गया होयनी ! // 291 // श्रीनाभाकनराधीशः, प्रपाल्येति चिरं स्थिरम / राज्यं प्राज्यं प्रान्तकाले, संसाध्याऽनशनं सुधीः // 292 // & 2 NAD.Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradha
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________________ अगाद द्वादशकल्पेऽथ, नृजन्माऽवाप्य सेत्स्यति / देवोऽपि प्राप्य मानुष्यं,शाश्वतं सौख्यमाप्स्यति।२९।युग्मम 18 अर्थ-आ प्रमाणे पुण्यशाली नाभाकराजाए पोताना विस्तृत राज्यने चिरकाल सुधी स्थिर रीते पालन कर्यु, अंतकाले ते बुद्धिमान् 4 चरित्रं राजा अणसण ग्रहण करी बारमा अच्युत देवलोकमां देव थयो, त्यांथी च्यवी मनुष्य जन्म प्राप्त करी सिद्ध थशे. चन्द्रादित्य देव पण देवलोकमांथी च्यवी मनुष्यपणुं प्राप्त करी मोक्षमा शाश्वतुं सुख पमशे // 293-293 // __ श्रीनाभाकनरेन्द्रस्य, निशम्येदं कथानकम् / देवद्रव्याच्च दूरेण, नित्यं स्थेयं मनीषिभिः // 294 // | अर्थ-आ प्रमाणे श्रीनामाकराजानी कथा सांभळीने बुद्धिमान् पुरुषोए देवद्रव्यथी तद्दन दूर रहे, उचित छ / 294 // श्रीमदञ्चलगच्छेश-श्रीमेरुतुङ्गसूरिभिः। युग युगभूसङ्ख्ये, वर्षे निर्मिता कथा // 295 // अर्थ-श्रीमान् अंचलगच्छाधिपति श्रीमरुतुंगमरिए चौदसेने चोसठनी सालमां आ कथा रची // 295 // आ ग्रंथ जामनगरनिवासी पंडित श्रावक हीरालाल हंसराजे स्वपरना श्रेयने माटे पोताना श्रीजैनभास्करोदय प्रेसमां छाप्यो. // इतिश्री श्रीनाभाकराजचरित्रं समाप्तम् // CARCIATICA Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak
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________________ PEDIENTISTERenereasenaTrenenereign OGESSES 35555 ॥इति श्रीनाभाकराजचरित्रं समाप्तम्॥ 9555555 OBOSS श्री जैनभास्करोदय मिटिंग प्रेसमां छाप्यु-जामनगर. P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradnak