________________ चरित्रं 18 // लेभे निधानं मद्भात्रा, यात्राव्याजादसौ ततः। तदादाय व्रजन्नस्ति, न दोषोऽथ मनाग् मम॥२॥ नाभाका ___ अर्थ-'श्री शत्रुजय तीर्थमां जइ, आ बाकी रहेला निधानमांना द्रव्यनो नाग श्रेष्ठीना पुण्यने माटे व्यय करवो छे' एम विचार करी समुद्र तीर्थयात्रा करवा माटे चालवानी तैयारी करतो हतो; तेवामां सिंहे ते नगरना राजानी आगळ जइने निवेदन कर्यु के'मारा मोटा भाइ समुद्रे दाटेलुं निधान मेळव्यु छे, ते निधानने लइने तीर्थयात्रानुं बहानुं करी अहींथी हमणांज जाय छे में मारी फरज समजी आपने जाहेर कयु छे, हवे कदाच निधान लइने चाल्यो जाय तो तेमां मारो दोष नथी॥ 61-62 // मुहर्तक्षण एवाऽथ, राज्ञाऽऽहृय नियन्त्रितः / समुद्रः कारणं ज्ञात्वा, निधानाधे पुरोऽमुचत् // 62 // | अर्थ-सिंहना भंभेरवाथी कुपित थयेला राजाए समुद्रने मुहूर्त क्षणमांज बोलावी नियंत्रित कर्यो। पोताने अकस्मात् नियंत्रित करIN वार्नु कारण जाणीने समुद्रे अर्धनिधान राजानी आगळ मूक्यु. सर्व स्वरूपं चावेद्य, निधिपत्रमदर्शयत् / यथावस्थितवक्तेति, समुद्रं मुमुचे नृपः // 64 // अर्थ-तेमज निधान नीकळवा बाबतनी सर्व वात राजाने कहीने भूमिमांथी निकळेल निधिपत्र बताव्यो / सत्यवादी समुद्रना वचन उपर राजाने संपूर्ण विश्वास बेठो, अने आ सत्य बोलनार छे एम धारीने छोडी मूक्यो // 64 // देवद्रव्यं च तज्ज्ञात्वा, प्रत्यर्थन्यायधर्मवित् / समुद्र बहु सत्कृत्य, यात्रार्थ व्यसृजन्नृपः // 65 // अर्थ-तथा 'आ देवद्रव्य छे' एम जाणी श्रेष्ठनीति पाळनार अने धर्मनो ज्ञाता एवा राजाए समुद्रनो घणोज सत्कार करीने तीर्थGunratnasurimis Jun Gun Aaradhak 10 // -%--