________________ नाभाक पञ्चाशदादौ किल मूलभूमे-र्दशोर्श्वभुमेरपि विस्तरोऽस्य / उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि, मानं वदन्तोह जिनेश्वराद्रेः // 28 // अर्थ-(पवित्रतीर्थ श्रीश–जयना परिमाण विषयमा अन्यग्रन्थोने विषे पण आ प्रमाणे उल्लेख छे)-श्रीऋषभदेव प्रभुना निवासालय आ गिरिनो आदिनाथ प्रभुनी वखते मूलभूमिनो विस्तार पचास योजन, ऊर्श्वभूमिनो विस्तार दस योजन, अने आ गिरिनी उंचाइ आठ योजन हती. दृष्ट्वा शत्रुञ्जय तीर्थ, स्पृष्ट्वा रैवतकाचलम् / स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते // 29 // अर्थ-भागवतमां पण कधु छे के-जे मनुष्य श्रीशत्रुजयगिरिनुं दर्शन करे छे, गिरनार पर्वतनो स्पर्श करे छे, अने गजपद कुंडमां | स्नान करे छे तेने फरीथी जन्म लेवो पडतो नथी // 29 // ___ अष्टपष्टिषु तीर्थेषु, यात्राया यत् फलं भवेत्। श्रीशत्रुजयतीर्थेश-दर्शनादपि तत्फलम् // 30 // अर्थ-(नागपुराणमा कयु छे के) अडसठ तीर्थोने विषे यात्रा करवायी जे फळ प्राप्त थाय, तेटलुं फळ मात्र एक तीर्थाधिपति 13 श्रीशत्रुजयतीर्थनां दर्शन करवाथी प्राप्त थाय छे. // 30 // ___ अतो धराधीश्वर ! भारती भुवं, तथाऽधिगम्योत्तममानुषं भवम् / HARSANSAR SecGunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak