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जिनभाषित
10 रुपये
वीर नि. सं. 2528
श्रुत पंचमी
गोरक्षा का सवत्य प्रयास
मई 2001
ज्येष्ठ शुक्ल 5, वि. सं. 2059
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जिबभाषित
मई 2001
पृष्ठ
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. फोन 0755-776666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल वैनाडा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन डॉ. वृषभ प्रसाद जैन
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर
अन्तस्तत्त्व 1. विशेष समाचार : गोरक्षा का स्तुत्य प्रयास
रवीन्द्र जैन 2. शान्ति का मार्ग : लोभ से मुक्ति आचार्य श्री विद्यासागर 3. आपके पत्र : धन्यवाद 4. उर्दू शायरी में भक्ति और अध्यात्म शीलचन्द्र जैन 5. नवनीत : भगवती आराधना में
मनोविज्ञान 6. बोधकथा : यमराज को भी डर डॉ. जगदीशचन्द्र जैन 7. सम्पादकीय : श्रुतपञ्चमी : श्रुत की
निश्चयपूजा आवश्यक 8. प्रवचन : ज्ञान और अनुभूति आचार्य श्री विद्यासागर 9. लेख : सम्यक् श्रुत
सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री
12 10. प्राचीनकथा : ऋद्धि और सिद्धि आचार्य श्री अभिनन्दनसागर 14 11.लेख : कषायों की प्रशमता और
परिणामों की समता का नाम सल्लेखना मुनिश्री अजितसागर 12.शोध आलेख : जैन आचार में इन्द्रियदमन का मनोविज्ञान
प्रो. रतनचन्द्र जैन 13.गीत : तुम बजाय इसके
अशोक शर्मा 14.संस्मरण : छोटे मियाँ सुभान अल्लाह पं. मूलचन्द लुहाड़िया 15.शोध आलेख : 'मूकमाटी' में
प्रशासनिक एवं न्यायिक दृष्टि सुरेश जैन आई.ए.एस. 16.शंकासमाधान
पं. रतनलाल वैनाडा 17. ग्रन्थ समीक्षा : सदलगा के सन्त डॉ. भागचन्द भागेन्दु 18.लेख : तीर्थंकर महावीर के उपदेशों की प्रासंगिकता
डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया 24 19.व्यंग्यकथा : सफेद शेर की नस्ल शिखरचन्द्र जैन 20. नारीलोक : हमारा पहनावा हमारी पहचान
डॉ. ज्योति जैन 21. गजल : भूल और सुधार
ऋषभ समैया 'जलज' 22. बालवार्ता : बुद्धिचातुर्य की कथाएँ श्रीमती चमेलीदेवी जैन 30 23.समाचार 24.कविता : स्व. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य : श्रद्धा सुमनाञ्जलि पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश'
आवरण पृष्ठ 3
द्रव्य-औदार्य
श्री अशोक पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.)
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428,352278|
25
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मुद्रक एकलव्य आफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित,
महाराणा प्रताप नगर, भोपाल फोन-0755-579183,98270-62272| शब्द संयोजन- मीडिया ग्राफिक्स
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मूल्य : दस रुपये
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विशेष समाचार
गोरक्षा का स्तुत्य प्रयास • बूचड़खाने ले जाये जा रहे 1200 मवेशी पकड़े
• कसाइयों के गिरोह का पर्दाफाश
1 ध्यप्रदेश में चारा और पानी की | निश्चय सागर जी महाराज को बीना के एक | 'आचार्य विद्यासागर गौ संवर्द्धन केन्द्र' को
| किल्लत होने से कसाइयों तथा मांस- युवक ने पशुओं की तस्करी की जानकारी दी | सौंप दिया। हजारों लोग इन पशुओं की व्यापारियों का एक बड़ा गिरोह बीना, तथा बताया कि आज शाम को एक ट्रेन की तीमारदारी में लग गए, उन्हें चारा, पानी दिया वदिशा, गुना, ललितपुर, झाँसी आदि जिलों | 40 बोगियाँ भरकर जानवर सागर रेलवे | गया तथा बीमार पशुओं का पशु चिकित्सक में सक्रिय है तथा वह स्वयं को पशु व्यापारी स्टेशन से गुजरेंगे। मुनि संघ ने यह जानकारी बुलाकर उपचार कराया गया। पुलिस ने इस बताकर गाँव-गाँव घूमकर कृषि के नाम पर सागर शहर के संभ्रांत लोगों तक पहुँचाई। 2 प्रकरण में फरियादी का नाम पूछा तो सागर कसानों से उनके जानवर खरीद रहा है तथा मई को देखते ही देखते सागर रेलवे स्टेशन के सांसद, महापौर, विधायक, भाजपा एवं उन्हें भारी तादाद में बूचड़खाने भेज रहा है। पर पूरा शहर उमड़ पड़ा। शाम 4 बजे सागर कांग्रेस के पदाधिकारियों ने स्वयं का नाम ये कसाई ऐसे गाँवों में पहुंच रहे हैं जहाँ पशुओं की महापौर मनोरमा गौर, जिला कांग्रेस | फरियादी में लिखाया तथा कसाइयों के दलाल के लिये पानी और चारे का अभाव है तथा अध्यक्ष बृजकिशोर रूसिया, पूर्वमंत्री बिट्ठ- के बयानों के आधार पर इन पशुओं को कसान अपने जानवरों को चारा पानी लभाई पटेल, विधायक श्रीमती सुधा जैन, बूचड़खाने ले जाने का प्रकरण भी कायम उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। कसाई मात्र 200 सांसद वीरेन्द्रसिंह सहित जैन समाज के किया। से 300 रुपये में बछड़े तथा पाड़े एवं 700 युवक, शिवसेना के कार्यकर्ता तथा आम
अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ से 800 रुपये में गायें खरीद रहे हैं। चूंकि नागरिक जिस रेलवे ट्रेक्स से जानवरों से भरी वर्धा के कर्मचारी अध्यक्ष उदय लाल जारोली किसान के लिए बछड़े तथा पाड़े फिलहाल मालगाड़ी गुजरने वाली थी उसे घेरकर खड़े
वर्धा से सागर पहुँचे तथा उन्होंने पुलिस और उपयोगी नहीं है तथा कसाई उन्हें झाँसा देते हो गए। लगभग तीन चार हजार लोगों के
न्यायालय को पशु संरक्षण अधिनियम की है कि वे जानवरों को कृषि कार्यों के लिये ही हुजूम को देखकर रेल अधिकारी तथा रेल्वे
प्रतियाँ उपलब्ध कराकर इस घटना को जघन्य बेचेंगे। ऐसे में किसान अपने जानवर इन पुलिस हरकत में आई तथा बीना की ओर से
अपराध तथा भारत से गोवंश समाप्त करने कसाइयों को बेच देते हैं। आनेवाली जानवरों की ट्रेन को वहाँ रोका
की साजिश बताया। श्री जारौली ने कहा कि बीना रेलवे स्टेशन एक ऐसा स्टेशन गया। सभी लोग यह देखकर दंग रह गए कि
रेलवे विभाग को बिना कलेक्टर की अनुमति है जहाँ ये कसाई उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश एक एक बोगी में 40 से अधिक पशु भरे के पशुओं के परिवहन के लिये बोगियाँ राजस्थान तथा गुजरात तक से खरीदे गए गए थे तथा इन पशुओं के लिए इस भरी गर्मी
उपलब्ध नहीं कराना चाहिए, ऐसा नियम है। जानवरों को एकत्रित करते हैं। इस रेल्वे | में न तो चारा पानी की व्यवस्था थी और न
इसके अलावा पशुओं के परिवहन के समय स्टेशन पर कोई बड़ा अधिकारी पदस्थ नहीं ही उपचार का कोई साधन था। पशुओं की बोगी में पर्याप्त चारा, पानी तथा पशु है। छोटे कर्मचारियों से कसाइयों की | आँखों के आँसू उनके चेहरों पर साफ दिखाई
चिकित्सक होना चाहिए। यह देखने का काम मिलीभगत है जिससे सारे नियमों को ताक | दे रहे थे। प्रत्येक बोगी में कसाइयों के दो
भी रेल विभाग का है। लेकिन कसाइयों की पर रखकर रेल कर्मचारी इन कसाइयों को दो दलाल भी बैठे थे जो हथियारों से लैस
मिलीभगत के कारण रेल कर्मचारियों ने मालगाड़ी उपलब्ध कराते हैं, इन गाड़ियों में | थे। ट्रेन के रुकते ही उन्होंने पहले तो
इसका ध्यान नहीं रखा। जारौली ने इस जानवरों को भरकर ये कसाई पहले करगी रोड | कार्यकर्ताओं पर हमला करना चाहा लेकिन
जानवरगाड़ी से जो कागजात पकड़े है उनका रेलवे स्टेशन ले जाते हैं वहाँ से सड़क मार्ग | भारी भीड़ ने 44 लोगों को पकड़ लिया तथा
अध्ययन करके उन्हें फर्जी बताया है। उदाहरण द्वारा असम तथा पश्चिम बंगाल होते हुए इन | उन्हें रेलवे पुलिस के सुपुर्द कर दिया।
के लिये कुरवाई के एक पशु चिकित्सक का जानवरों की तस्करी बंगला देश तक हो रही खबर मिलते ही सागर शहर के अनेक | प्रमाण पत्र है कि उसने इन पशुओं का है। इन कसाइयों के गिरोह की कुरवाई लोग इन जानवरों की प्राण रक्षा के लिये
चिकित्सकीय परीक्षण किया तथा उन्हें (विदिशा) के एक पशु चिकित्सक तथा स्टेशन पहुँचने लगे। पहले तो बीना के रेल
परिवहन के योग्य माना है। कुरवाई में यह तहसीलदार से भी मिलीभगत है जो इन कर्मचारियों ने सागर रेलवे पुलिस पर दबाव
परीक्षण 2 मई को होने का प्रमाण पत्र है, पशुओं के परिवहन के लिये कसाइयों को | डलवाया कि वे इस ट्रेन को करगी रोड जाने
जबकि 2 मई को ही सुबह बीना में जानवरों फर्जी प्रमाण पत्र बना कर देते हैं। दें, किन्तु आम जनता का आक्रोश देखकर
की ट्रेन भरी गई। तो क्या ये जानवर अपना इस माह की 2 तारीख को सागर में | पुलिस ने 44 लोगों पर पशुक्रूरता अधिनियम
परीक्षण कराकर उसी दिन कुरवाई से बीना विराजमान पूज्य मुनि श्री समतासागर जी, | की धाराएँ लगाकर उन्हें हिरासत में ले लिया
रेलवे स्टेशन पहुँच गए? कलेक्टर के बजाय पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी तथा ऐलक श्री | तथा पशुओं को चारा, पानी एवं उपचार हेतु
एक तहसीलदार का प्रमाण पत्र है कि स्थानीय
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विधायक की अनुशंसा पर वह इन पशुओं के | शान्ति का मार्ग : लोभ से मुक्ति परिवहन की अनुमति देता है, जबकि तहसीलदार को ऐसी अनुमति जारी करने का
बहोरीबंद में आचार्य श्री विद्यासागर जी अधिकार ही नहीं है।
के प्रवचन का अंश यह भी पता लगा है कि सागर में जानवरों की ट्रेन पकड़े जाने से पहले बीना संसारी प्राणी सारी दुनिया को अपने | गरमी को विशेष रूप से पाता है। हमारे जेब से कई ट्रेनें भरकर जानवर बूचड़खाने भेजे अण्डर में रखना चाहता है। जो दूसरे को | की ही गरमी इसमें कारण होती है। मन की गए थे। सागर में आम नागरिकों की अण्डर में रखने की चाह रखता है, उसके | गरमी के कारण भीषण गरमी भोगने को जागरूकता के कारण कसाइयों में भय व्याप्त
परिणाम ऐसे होते हैं कि उसके लिए विशेष | मिलती है। इस मन की गरमी के कारण बहुत है। सागर के कार्यकर्ता बीना-सागर रेल मार्ग रूप से अण्डरग्राउण्ड की व्यवस्था होती है। । बड़ा विस्फोट हो सकता है, जो सारी दुनिया
| में कुछ समय में हाहाकार मचा सकता है। नीचे के नरक रूपी अण्डर ग्राउण्ड की पर बाकायदा निगरानी कर रहे हैं। 'आचार्य
व्यवस्था वह करता है। यह व्यवस्था किस | लोभ व्यक्ति के लिये भटकाता है। विद्यासागर गोसंवर्धन केन्द्र' के उपाध्यक्ष
कारण से होती है? तो लोभ के कारण होती आप जैसा लोभ करोगे तो वैसा ही फल महेश जैन बिलहरा, सुरेन्द्र जैन मालथौन तथा
है। एक विषयों का लोभ होता है, दूसरा आत्म पाओगे। धर्म का लोभ होता, दूसरा धन का ऋषभ जैन मड़ावरा ने कहा कि आचार्य श्री
संपदा को पाने का लोभ होता है। आत्मसंपदा लोभ होता है। जैसे पुलिस होती है वह आपको विद्यासागर जी ने हमें जीवरक्षा का संदेश
का लोभ हमारे लिये ऊपरी स्वर्गरूपी जेल भी ले जाती है, तो आपकी सुरक्षा भी दिया है इसलिये हम कोई भी कुर्बानी देकर
व्ही.आई.पी. व्यवस्था देता है। लेकिन करती है। हमें जितनी आवश्यकता है, हम इन जानवरों की रक्षा करेंगे। उन्होंने कहा कि विषयों का लोभ हमें नीचे की व्ही.आई.पी. उतना ही अपने पास रखें। आवश्यकता से सागर के आम नागरिकों के सहयोग से हम व्यवस्था का देनेवाला होता है। अपने जीवन अधिक हम रखेंगे तो वह हमारे लिये अशांति इन जानवरों के लिये चारा पानी की व्यवस्था में जड़ का संग्रह तो है, और हीरे, जवाहरात का कारण ही बनेगा। लोभ एक सीमा तक हो कर रहे हैं। यदि इस तरह अन्य जानवर भी आदि का संग्रह करते हैं, इससे आत्मिक तो ठीक है। लेकिन महाराजजी! जब ये आ बूचड़खाने जाने से रोके जाते हैं तो हम उनकी शांति की प्राप्ति नहीं होती है। आत्मिक शांति जाता है तो उस समय महाराज भी याद नहीं भी सुरक्षा अपने केन्द्र में करेंगे। उन्होंने बताया तो रत्न त्रय रूपी रत्नों को ग्रहण करने से ही रहते हैं। महाराज की तो बात अलग हैं कि केन्द्र की 90 गौशालाएँ अलग अलग प्राप्ति होती है। जड़ वस्तु के संग्रह से रागद्वेष, भगवान भी नहीं दिखते हैं। इस लोभ के शहरों में संचालित हो रही है, जहाँ इन
मोह लाभ, कषाय आदि होते हैं जो हमारी कारण ही सारी दुनिया हैरान है। लोग आक जानवरों को भेजे जाने की योजना है।
अशांति के कारण है। और रत्नत्रय रूपी कहते हैं, महाराज घर में सब कुछ है धन है,
संकल्प के माध्यम से राग द्वेष, मोह, माया धान्य है, नौकर, चाकर, बेटा, बेटी सब है, सागर जिला पंचायत के पूर्व अध्यक्ष आदि समाप्त होते हैं।
लेकिन शांति नहीं है। पहले सब कुछ था स्वदेश जैन गुड्डु एवं एडव्होकेट श्री विरधीचंद
व्यक्ति का लोभ ही व्यक्ति के लिये लेकिन जब से लक्ष्मी देवी घर में आई है तब जैन ने राज्य सरकार से बीना में पशुतस्करी
अशान्ति का कारण होता है। यह जड़ वस्तु से ही अशांति हुई है। आप ऐसा आशीर्वाद रोकने के लिये एक निगरानी दस्ता तैनात को ऐसे जकड़ रखता है जैसे एक बंदर लोभ दे दो जिससे हमें शान्ति प्राप्त हो जाये। आज करने की माँग की है।
के कारण अपनी प्रिय वस्तु चने का लोभ कर अमेरिका जैसा राष्ट्र सबसे बड़ा है। वहाँ पर भोपाल में श्री दिगम्बर जैन मुन संघ एक घर की छत पर गया। देखा एक घड़े में यदि सबसे महंगी वस्तु है तो वह नींद है। सेवा समिति ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर
चने रखे थे। प्रिय वस्तु के लोभ में आकर नींद के लिये वहाँ के लोग नींद की गोलियों पशुतस्करी की उच्चस्तरीय जाँच कराने,
हाथ डाल देता है। इधर-उधर देखता है कोई की फाकी लेते हैं। उन्हें नींद नहीं आती, मूर्छा कुरवाई के पशु चिकित्सक तथा तहसीलदार
पकड़ न ले, देख न ले, और बहुत से चनों आती है। जहाँ पर सबसे अधिक धन होगा, को निलम्बित करने तथा तस्करी में सहयोग
को मुट्ठी में बांध लेता है। हाथ फंस जाता है वहाँ पर ऐसा ही होता है। वहाँ सबसे अधिक
व समझता है कि किसी ने पकड़ लिया है। अशान्ति रहेगी। इस धन के कारण एक दूसरे देने वाले बीना के रेलवे कर्मचारियों पर
घड़े में कौन बैठा है मुझे किसी ने पकड़ लिया के प्रति कृतज्ञता भी नहीं रखते हैं। बेटा भी आपराधिक प्रकरण कायम करने की माँग की ।
है। वह बंदरों की टीम को आवाज देता है। बाप को भूल जाता है। कृतज्ञता ऐसा गुण है
आकर कुछ बंदर उसे अपनी प्रिय वस्तु को - जिसे आचार्यों ने कहा - रेत के ढेर में जैसे मुनिसंघ-सेवासमिति ने भोपाल रेल छोड़ने को कहते है। छोड़ता तो हाथ बाहर आ हीरे की कणिका मिलना दुर्लभ है वैसे ही ये मंडल प्रबंधक को भी पत्र लिखकर कहा है जाता है। उसे किसी ने पकड़ा नहीं था स्वयं कृतज्ञता रूपी गुण दुर्लभ होता है। जो धन कि पशुतस्करी में रेल का उपयोग प्रतिबंधित के लोभ ने उसे पकड़ था। उसके पास जेब के कारण व्यक्ति के अंदर से समाप्त हो जाता करें, पशुपरिवहन के लिये नियमानुसार ही रेल तो नहीं थी लेकिन आप सभी लोग जेबवाले | है। आप लोग अपनी बुद्धि को ठीक करें, उपलब्ध करायें, साथ ही बीना के जिन रेल हैं। इसलिये आप लोगों के समाने बोलयाँ अपनी शान्ति के लिये जड़ के लोभ का त्याग कर्मचारियों ने स्वार्थ में अंधे होकर कसाइयों ।
लगाते हैं। क्योंकि जेब से बाहर कैसे निकाला | करें, हम भगवान शान्ति नाथ से यही प्रार्थना की मदद की है उन्हें दंडित करें।
जाये। क्योंकि जिसको अपने जेब की गरमी | करते हैं। आप लोग लोभ की पकड़ से मुक्त रवीन्द्र जैन
अधिक होती है, वह व्यक्ति नरक रूपी शुद्ध | रहें, तो निश्चित रूप से शांति को पायेंगे। मई 2001 जिनभाषित 2 -
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आपके पत्र : धन्यवाद
'जिनभाषित' का अप्रैल
कि आध्यात्मिक व्यक्तित्व जिनभाषित का अप्रैल 2001 अंक देखकर तबीयत खुश हो गई। लाह का 'भगवान महावीर
के निर्माण में यह पत्रिका का 2600वाँ जन्मकल्यामैंने नहीं सोचा था कि कोई धार्मिक पत्रिका इतनी लुभावनी हो सकती है।
अपना प्रायोगिक योगदान णक महोत्सव' विशेषांक पत्रिका का आकार, रंगरूप, सज्जा और संयोजन बहुत आकर्षक है।
करेगी। आध्यात्मिकता एवं मिला। आपके श्रेष्ठ सम्पादप्रकाशित सामग्री रुचिकर होने के साथ-साथ उच्च स्तर की है। आप अपने
भौतिकता में सन्तुलन स्थापित कत्व से प्रकट यह पत्रिका मकसद में कामयाब हैं। निःसंदेह 'जिनभाषित' पत्रिका मौजूदा जैन पत्रिकाओं
करेगी। अपराधचेतना से युक्त वस्तुतः पाठक को निजभामें शीर्षस्थान पायेगी। आपकी पूरी टीम बधाई की हकदार है। इतनी अच्छी
व्यक्तित्व का रूपान्तरण पत्रिका देने के लिए धन्यवाद स्वीकार करें। षित से जिनभाषित तत्त्वज्ञान ।
करेगी। भाव, विचार, रुचि, की ओर अवश्यमेव अग्रसर
शीलचन्द्र जैन,
ज्ञान और चारित्र की भिन्न
वाणिज्यिककर अधिकारी (सेवा निवृत्त) करने में समर्थ होगी। विष
13, आनन्द नगर, जबलपुर
ताओं से संपृक्त प्रत्येक यचयन एवं प्रस्तुतीकरण
पाठक को आध्यात्मिक विकास अतिश्लाध्य है। इस अंक में श्रद्धेय पं. | 'जिनभाषित' का अप्रैल अंक करगत | के पथ पर अग्रसर करेगी। जिनभाषितपन्नालाल जी साहित्याचार्य का स्मरणप्रतीक | हुआ। कृतज्ञ हूँ। अनेक अभिनव उद्घोषों के रश्मियाँ हमारे मंगल पथ को आलोकित समाहित करने से गरिमा वृद्धिंगत हो गई है। साथ 'जिनभाषित' का अभ्युदय हुआ है।
करेंगी। मुद्रण, कागज, गेटअप आदि सभी प.पू.108 इसके माध्यम से जिनवाणी के प्रसार-प्रचार जैन समाज को अपने अहिंसक आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के आशीर्वाद में नये नये वैचारिक वातायन खुलेंगे। यह आचरण से अनेक आर्थिक, सामाजिक एवं के अनुरूप ही हैं। आपको व समस्त प्रकाशन फूले और खूब फले, मेरे अनन्त | राजनीतिक लाभ प्राप्त होतेहैं। यह आवश्यक सहयोगियों को बधाई। लेखकों को भी आशीष स्वीकारिये। आप समाज के प्रबुद्ध है कि इस पत्रिका के माध्यम से हम अहिंसक धन्यवाद।
पुरुष हैं। आप जैसे महानुभाव जमकर खूब आचरण के लाभों को प्रभावी ढंग से समाज पं. शिवचरणलाल शास्त्री, काम करें। आपका मार्ग सदा निरापद रहे, यही | के नवयुवकों के समक्ष प्रस्तुत करें। मैनपुरी उ.प्र. कामना और भावना है।
सुरेश जैन, आई.ए.एस. डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया
___30, निशात कालोनी, आपने मुझे 'जिनभाषित' का (अप्रैल मंगलकलश, सर्वोदय नगर, आगरा रोड,
भोपाल-462003 म.प्र. 2001) अंक भेजने की कृपा की है। आभार।
__ अलीगढ़ उ.प्र. 'स्वर्णयुग के प्रतिनिधि का महाप्रयाण' शीर्षक
अप्रैल 2001 का जिनभाषित हृदयासे आपने पूज्य साहित्याचार्य पं. पन्नालाल . 'जिनभाषित' का अप्रैल 2001 अंक | ह्लादक है। विविध विषयों का सम्पादन पत्रिका जी पर सम्पादकीय लिखकर शुभ कार्य किया प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। प्रसन्नता का | की चुम्बकीय विशेषता है। शलाकापुरुष पूज्य है। पंडितजी के महाप्रयाण का उनके अवदान विशेष कारण यह है कि इस अंक में मेरे परम पं. गणेशप्रसाद जी वर्णी के व्यक्तित्व एवं के अनुरूप नोटिस नहीं लिया गया है। श्रद्धेय गुरुवर डॉ. पन्नालाल जी पर विशिष्ट साहित्यसेवा पर परम विद्वान स्व. डॉ. पंडित 'Unwept,unsung' वे चले गये। उनका सामग्री है। मैं सन् 1940 से 1946 तक पन्नालाल जी साहित्याचार्य का संक्षिप्त लेख ठीक से मूल्यांकन अपनी इस पत्रिका में जरूर | उनके अधीन ही सागर में अध्ययन करता रहा। वर्णीजी के आकाश से विस्तारवाले उज्ज्वल करवाइयेगा।
वे मेरे परम हितैषी, उद्भट विद्वान, श्रेष्ठ आध्यात्मिक जीवन की झाँकी है। सम्पादकीय जिनभाषित को आपने सुरुचिसम्पन्न लेखक, अनन्वय अध्यापक और परम में विगत पीढ़ी के धुरन्धर जैन पंडित स्व. प्रकाशित किया है। जैन शासन की ऐसी चारित्रवान व्यक्ति थे। पंडित जी पर आपका डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य के व्यक्तित्व पत्रिका, निश्चित ही जैनों को जैन बनाने की लेख और आपकी उनमें श्रद्धा ही इस पत्र के एवं कर्तृत्व को विषय बनाकर विद्वान दृष्टि से अपनी भूमिका निभायेगी। उत्सवों, । | प्रेरक कारण हैं।
सम्पादक ने सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है। महोत्सवों, हल्लों-गुल्लों की अनुगूंज ही
डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन बोधकथाएँ देकर पत्रिका की प्रभावअनुगूंज से भरी अधिकांश पत्रिकाओं के बीच
प्रोफेसर (से.नि.) कता में चार चाँद लगाये हैं। अध्यात्म और जैन शासन की समृद्धि एवं प्रासंगिकता को
13, शक्तिनगर, पल्लवरम, चेन्नई-600043 आगम के बीच 'नमस्कार सुख' का व्यंग्य 'जिनभाषित' गहरे से रेखांकित कर सके,
मन को गुदगुदाते हुए मस्का लगाने की प्रवृत्ति यही मनोकामना है।
'जिनभाषित' देखकर अत्यधिक प्रस- पर चोट करता है। प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार |मता हुई। पत्रिका का नाम सहज, सरल एवं आवरण-सज्जा 'जिनभाषित' के अनुमनोरम, 37 पत्रकार कालोनी, | लालित्यपूर्ण है। लेखों का चयन एवं | कूल है एवं निर्दोष, स्वच्छ, सुन्दर मुद्रण
इंदौर-452001 म.प्र. प्रस्तुतीकरण सराहनीय है। मुझे विश्वास है पत्रिका के सौन्दर्य में वृद्धि कर रहा है। स्तरीय
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विषय सामग्री ने पत्रिका को गरिमा प्रदान की है। आपको कोटिशः बधाई।
श्रीपाल जैन 'दिवा' शाकाहार सदन, एल-75, केशरकुंज, हर्षवर्धन नगर, भोपाल-3
'जिनभाषित' का अप्रैल 2001 का अंक प्राप्त हुआ। हार्दिक धन्यवाद । अंक में दी गई सामग्री न केवल पठनीय है, वरन् संग्रहणीय एवं अनुकरणीय भी है। भगवान महावीर के 2600 वें जन्मकल्याणक महोत्सव के वर्ष में उनके सन्देशों का व्यापक प्रचार- प्रसार आवश्यक ही नहीं, अतिआवश्यक है, विशेषकर आज के इस आपाधापी वाले युग में तो वे अतिप्रासंगिक हैं। उनके अनेकान्तवाद और अपरिग्रहवाद आज विश्व की समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हैं। केवल आवश्यकता उनको खुले मस्तिष्क से समझने की है।
इसके अतिरिक्त यह महोत्सव महानगरों तक सीमित न रहकर भारत के गाँवगाँव तक मनाया जावे और देश के प्रत्येक जैन मंदिर एवं शास्त्र भण्डार में संगृहीत हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीकरण होना चाहिए। मूर्तिलेखों का भी संग्रह आवश्यक है। विश्वास है "जिनभाषित' इसदिशा में आवश्यक पहल करेगा। इस कार्य में मैं अपनी सेवाऐं जितनी भी जरूरी हों देने के लिये तत्पर हूँ।
डॉ. तेजसिंह गौड़, एल-45, कालिदास नगर, पटेल कालोनी, उज्जैन-456006
'जिनभाषित' का अप्रैल 2001 का अंक देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। इसके आकर्षक सचित्र आवरणपृष्ठ ने भी मन मोह लिया। सम्पादकीय एवं 'महावीर प्रणीत जीवनपद्धति की प्रासंगिकता पूर्णरूपेण सामयिक आलेख हैं। चारों अनुयोगों का सार इस पत्रिका में समाहित है। आबाल-वृद्ध, पुरुष-महिला सभी के लिए उपयोगी एवं वर्तमान स्थितियों से अवगत कराने वाली यह पत्रिका उन्नति के शिखर का स्पर्श करे, ऐसी शुभकामना है।
डॉ. आराधना जैन, मील रोड, गंज बासोदा (विदिशा) म.प्र.
मई 2001 जिनभाषित 4
'जिनभाषित' का अप्रैल 2001 का अंक प्राप्त हुआ। यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आपके ज्ञानगाम्भीर्य का लाभ हमें पत्रिका के माध्यम से भी सुलभ होता रहेगा। पत्रिका के इस अंक में आपके वैदृष्य की झलक स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही है। सभी आलेख, नवनीत, बोधकथा, शलाकापुरुष, नारीलोक, अल्पसंख्यक मान्यता से जैनसमाजको लाभ एवं कुण्डलपुर पर विशेष सामग्री सभी प्रेरणादायी एवं ज्ञानवर्धक हैं। मैं पत्रिका के अनवरत प्रकाशन की कामना करती हूँ ।
डॉ. श्रीमती कृष्णा जैन सहा. प्राध्यापक-संस्कृत विभाग, शा. महारानी लक्ष्मीबाई कला वाणिज्य महा. लश्कर, ग्वालियर 474009
"जिनभाषित" का महावीरजयन्ती विशेषांक प्राप्त हुआ। सामग्री का चयन पठनीय है, छपाई सफाई भी सुन्दर है। श्री निहालचन्द जी के सुझाव अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। मेरा अपना विचार यह है कि सरकार पर निर्भरता या धन से कोई आयोजन असरकारी नहीं होता। असरकारी स्तर पर किया गया काम ही असरकारी होता है।
जमनालाल जैन अभय कुटीर, सारनाथ (वाराणसी) 221007
'जिनभाषित' का अप्रैल अंक प्राप्त हुआ। धन्यवाद वर्तमान समय में पत्रिकाओं का बाहुल्य हो रहा है। अगर पत्रिका अपनी कोई पहचान बना सके तो उपयोगी होगी। पत्रिका के लिये निष्पक्षता भी आवश्यक है। पत्रिका के सम्पादक मंडल में माने हुए विद्वान् हैं अतः अपेक्षा यह है कि पत्रिका का स्वरूप भविष्य में भी ठीक रहेगा।
श्रद्धेय पू. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा रचित 'विद्याष्टक' को काफी समय से खोज रहा था, मिल नहीं पा रहा था। आपने पत्रिका के माध्यमसे उपलब्ध करा दिया. इस हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद। पत्रिका के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। आप बहुत-बहुत बधाई |
डॉ. हरिश्चन्द्र शास्त्री सहा. प्राचार्य श्री गोपाल दि. जैन सिद्धान्त संस्कृत महाविद्यालय, मुरैना (म.प्र.)
'जिनभाषित' पत्रिका का अवलोकन कर अत्यंत प्रसन्नता हुई सामग्री स्तरीय तथा पठनीय है। बधाई स्वीकार करें। समाज सुधार हो या न हो, लेकिन एक लेख अवश्य ऐसा प्रकाशित करें तो ठीक रहेगा।
डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती सनावद (म.प्र.)
'जिनभाषित' अप्रैल 2001 प्राप्त हुआ। भगवान महावीर के 2600 वें जन्मकल्याणक महोत्सव के लिए समर्पित इस अंक को चाँदनपुर (श्री महावीर जी) में विराजित भ. महावीर के मनोज्ञ प्रतिमा-चित्र से मण्डित किया गया है, जो अत्यंत प्रासंगिक है। पत्रिका को पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ आद्योपान्त पढ़ा। विषयसामग्री का चयन और संयोजन स्तरीय एवं गरिमामय है। स्वर्णयुग के प्रतिनिधि पं पन्नालाल जी साहित्याचार्य के महाप्रयाण पर लिखा गया सम्पादकीय श्रद्धासुमनों के सौरभ से ओतप्रोत है 'कुण्डलपुर की भूवैज्ञानिक परिस्थितियों का विवेचन पढ़कर नवीन मंदिर के निर्माण की आवश्यकता सबकी समझ में आ जायेगी। संक्षेपेण अंक सुन्दर 2 संग्रहणीय पठनीय एवं ज्ञानवर्धक है।
धर्मदिवाकर पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश' नेहरू चौक, गली नं. 4, गंज बासोदा (विदिशा) म.प्र.
'जिनभाषित' अप्रैल 2001 का अंक पहली बार मुझे प्राप्त हुआ और इसे देखने-पढ़ने का मौका मिला। यूँ तो पत्रिकाएँ और जर्नल्स निकलती हो रहती है. पर जिनभाषित सब से कुछ अलग सा लगा। इसमें सब कुछ है और सबों के लिए है। मध्यप्रदेश से और भी जैन पत्रिकाएं निकलती होंगी, पर आप अपनी पत्रिका के माध्यम से जैन समाज और बुद्धिजीवी वर्ग की जो सेवा कर रहे हैं, वह प्रशंसनीय है। सभी लेख, कविता और संस्मरण पढने योग्य है जिनसे हम कुछ न कुछ सीख सकते हैं।
डॉ. विनोद कुमार तिवारी रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग यू. आर. कालेज, रोसड़ा- 848210 (समस्तीपुर) बिहार
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माननीय सम्पादक जी,
विद्यालय में एक प्रति 'जिनभाषित' की प्राचार्य महोदय के नाम आयी ज्ञात कर उसे लेकर खोला तो मुखपृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक देखता चला गया। अन्तर जो हार्दिक आह्लाद हुआ उसे समीक्षाष्टक के रूप में प्रस्तुत किया है
| उर्दू शायरी में भक्ति और अध्यात्म
. शीलचन्द्र जैन
अनन्य भक्ति
तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत। 1. हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं।
नवाब झाँसवी
अरहतप्रभु दिव्यदेशना, विविध विधाओं से बही धार। जिनभाषित अप्रैल अंक पर, महावीर को लो उर धार॥ बायें पृष्ठ पर सुन्दर अन्तस्तत्त्व, दाँयें पृष्ठ पर सम्पादकीय लेख। विद्ववर्य पं. श्री पन्नालालजी, महाप्रयाण का हुआ उल्लेख॥
2 भगवती आराधना का नवनीत प्राप्त कर, बोध कथा से सुन्दर सार। महावीर की पावन वाणी, आचार्य श्री जी रहे उचार॥ नरतन निन्दनीय या प्रसंशनीय है, बोधकथा से अनुपम ज्ञान। जीवनपद्धति महावीर से, रतनचन्द्र जी करें बखान।
3 कविता द्वारा गुरुस्तवन, कार्ययोजना सुन्दर प्रारूप। उर्दू शायरी से अध्यात्म प्रस्तुति, हुआ प्रफुल्लित मनवच रूह॥ पुण्यपुरुष श्री गणेश प्रसाद जी, साहित्य सपर्या सुन्दर आयाम। कुन्द कुन्द का शुभोपयोग ही, परम्परा से शिव सोपान॥
मिथ्यात्व हटते ही, यथार्थ के दर्शन हो जाते हैं।
उठा सके आदमी तो पहले नज़र से अपनी नकाब उठाये। जमाने भर की तजल्लियों से नकाब उल्टी हुई मिलेगी।
नवाब झाँसवी
दुनिया परस्पर विरुद्ध धर्मों से समन्वित है
रंज-ओ-राहत,वस्ल-ओ-फुरकत-,होश-ओ-वहशत क्या नहीं, कौन कहता है कि रहने की जगह दुनिया नहीं।
गालिब
नारीलोक में गर्भपात पढ़, हृदयतंत्र हो गया है छार। वाणी की शक्ति अपरिमित है लघुकविता द्वय पढ़ मन से, हास्यव्यंग्य सुख नमस्कार।। जख्म तलवार के गहरे भी हों मिट जाते हैं। बालवार्ता बुद्धि चतुरता, बोधगम्य जो कथा प्रसंग।
लफ्ज तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह। मिल्पसंख्यक यदि जैन बनें तो, लाभपूर्ण है बड़ा प्रसंग।।।
सागर पालनपुरी 5 बड़े बाबा की शरण सलौनी. छोटे बाबा करे बखान। रतनचन्द्र जी के अभिनन्दन का, अनुकरणीय है प्रसंग महान॥|| पुरुषार्थसिद्धि के प्रयत्न से ही जीवन सार्थक होता है जैन कुम्भ जो कुण्डलपुर का, रवीन्द्र जैन की एक रिपोर्ट।। किसी की चार दिन की जिन्दगी सौ काम करती है, प्रथम दिवस से अन्तिम दिन तक, पढ़ बड़े बाबा को दो धोक। किसी की सौ बरस की जिन्दगी से कुछ नहीं होता।
ताहिरा भू-वैज्ञानिक परिस्थितियों का, तथ्यपूर्ण है चिन्तन सार। लख निस्पृहता मात-चिरोंजा, गुरुकृपा का पा प्रसाद॥
मृत्यु संसरण का अन्त नहीं तीर्थ सुरक्षा लक्ष्य बना है, सार्थक पहल की, जैन समाज। विद्यासागर अष्टक लिखकर, पज्य पं. जी गये सिधार॥
मरके टूटा है कहीं सिलसिला-ए-कैदे-हयात,
फ़क़त इतना है कि जंजीर बदल जाती है। कवर पृष्ठ पर प्रवेश शिविर है, जैन श्रवण संस्कृति संस्थान। सांगानेर व अशोक नगर में, जिनभाषित समीक्षा आद्योपान्त॥
जीव अनादि से अज्ञानान्धकार में भटक रहा है जन-जन तक पहुंचे जिनभाषित, जन-जन का हो नितकल्यान। ना इब्तिदा की खबर है ना इंतिहा" मालूम, जन-जन का हो नित मंगल, जन-जन बने जिनवर भगवान॥ | रहा ये वहम कि हम है सो भी क्या मालूम।
हसरत मोहानी जिन भाषित परिवारसम्पादक श्री रतनचंद्र जी, विद्वद्वर श्री जनभाषित परिवार। सहयोगी सम्पादक पंचशीलसम पंच शारदासुत रहे सँवार। 1. चकाचौंध, 2. संयोग-वियोग, 3. समझदारी और सर्वोदय जैन विद्यापीठ प्रकाशक, नगर आगरा उत्तर प्रान्त। पागलपन, 4. जीवन के बन्धन में बंधे रहने का क्रम, 5. आदि, पढ़कर जो आह्लाद हृदय में, दी शब्दावलो 'पवनदीवान'। 6. अन्त पं. पवनकुमार शास्त्री 'दीवान'
13, आनन्द नगर, आधारताल, प्राध्यापक श्री गोपाल दि. जैन सि. सं. महा. मुरैना (म.प्र.)474001 |
जबलपुर-482004 (म.प्र.)
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नवनीत
भगवती आराधना में मनोविज्ञान
भारक्कंतो पुरिसो भारं ऊरुहिय णिव्वुदो हो । जह तह पहिय गंथे णिस्संगो णिव्वुदो होड़ ||1172 ||
जैसे भार से लदा हुआ मनुष्य भार के उत्तर जाने पर सुखी होता है वैसे ही परिग्रह से मुक्त हो जाने पर अपरिग्रही भी सुखी होता है।
महुलित्तं असिधारं तिक्खं लेहिज्ज जध णरो कोई । तथ विसयसुहं सेवदि दुहावहं इह हि परलोगे ।।1346।।
जैसे कोई मनुष्य मधु से लिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार को चाटने पर दुःखी होता है वैसे ही मनुष्य विषयसुख का सेवन करने पर इस लोक और परलोक दोनों में दुःखी होता है।
सहेण मओ रुवेण पदंगो वणगओ वि फरिसेण । मच्छो रमेण भमरो गंधेण व पाविदो दोसं ।।1347
शब्द (मधुरगीत) में आसक्त होकर मृग, रूप (दीपक के प्रकाश) में आसक्त होकर पतंगा, स्पर्श (हथिनी के शरीर के स्पर्श) में आसक्त होकर हाथी, रस (स्वाद) में आसक्त होकर मछली और सुगंध में आसक्त होकर भ्रमर मृत्यु को प्राप्त हो जाता
है।
जह कोइ तत्तलोहं गहाय रुट्ठो परं हणामित्ति | पुव्वदरं सो उज्झदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो ।।1356 || तथ रोसेण सयं पुष्यमेव उज्झदि हुकलकलेणेव अणस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्ज || 1357 ||
जैसे कोई क्रुद्ध मनुष्य दूसरे को मारने के लये तपे हुए लोहे को उठाता है उससे दूसरा जले या न जले, स्वयं अवश्य जलता है, वैसे ही दूसरे पर किये गये क्रोध से दूसरा सन्तप्त हो या न हो, क्रोधी मनुष्य स्वयं अवश्य सन्तप्त होता है।
दट्ठूण अप्पणादो हीणे मुक्खाउ विंति माणकलिं । दडुण अप्पणादो अथिए माणं णयंति बुधा ।।1370।।
अज्ञानी अपने से हीन मनुष्यों को देखकर मान करते हैं, किन्तु ज्ञानी अपने से बड़ों को देखकर मान दूर करते हैं।
मई 2001 जिनभाषित 6
बोधकथा
यमराज को भी डर
● डॉ. जगदीश चन्द्र जैन प्राचीन काल में वाराणसी में महापि गल नाम का राजा राज्य करता था। वह बड़ा अन्यायी था और दण्ड आदि द्वारा लोगों से रुपया ऐंठ, कोल्हू में पेले जाने वाले गन्ने की तरह प्रजा का शोषण करता था।
महापिंगल बहुत रौद्र, कठोर और दुस्साहसी था, उसके हृदय में रंचमात्र भी दया न थी वह अपनी रानियों, पुत्र, पुत्री, मन्त्री, ब्राह्मण और गृहपति सभी को अप्रिय था। लोगों को वह हमेशा आँख की किरकिरी, के समान, और एड़ी में घुसे हुए काँटे के
समान खटकता था।
संयोगवश कुछ समय बाद राजा मर गया। वाराणसी के लोग बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने सहस्रों गाड़ी लकड़ियों से राजा का दाह संस्कार किया, और सहस्रों घड़ों जल द्वारा आग को शान्त किया।
नगर के लोगों ने बड़ी सजधज के साथ राजकुमार को सिंहासन पर अभिषिक्त किया। उत्सव की भेरियाँ बजने लगीं, ध्वजाएँ फहरायी गयीं, प्रत्येक द्वार पर मण्डप बनवाये गये, खील फूल बिखेरे गये और लोग मण्डपों में बैठकर आनन्द मनाने लगे। वस्त्राभूषणों से सज्जित राजकुमार, श्वेत छत्र से अलंकृत हो, सुन्दर आसन पर विराजमान हुए।
मन्त्री, ब्राह्मण, गृहपति, राष्ट्रपाल, द्वारपाल आदि अनेक नौकर-चाकर राजा को घेरे खड़े थे।
राजा ने देखा कि द्वारपाल सिसकियाँ भर कर रो रहा है। राजा ने पूछा- 'द्वारपाल ! पिताजी के मरने पर सब लोग प्रसन्न हो उत्सव मना रहे हैं। क्या तुझे उनके मरने की प्रसन्नता नहीं है?'
द्वारपाल बोला- महाराज में इसलिए नहीं रो रहा है कि राजा महापिंगल अब इस संसार में नहीं रहे हैं। उनके मरने से तो मुझे आनन्द ही हुआ, क्योंकि जब कभी राजा महल के अन्दर प्रवेश करते या महल से बाहर जाते तो वे मेरे सिर पर जोर-जोर से आठ ठोसे लगाते थे। लेकिन अब हर इस बात का है कि परलोक में यमराज के साथ भी वे ऐसा ही बर्ताव करेंगे। कहीं ऐसा न हो कि यमराज घबराकर उन्हें फिर से यहाँ वापस भेज दे।
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सम्पादकीय
श्रुतपञ्चमी : श्रुत की निश्चयपूजा आवश्यक
श्रुतपञ्चमी श्रुत की पूजा का दिन है। इस दिन श्रुत का अवतार | और अभ्यन्तर तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है और न होगा।" हुआ था। जब सम्पूर्ण श्रुत के धारी आचार्यों का धीरे-धीरे अभाव होने आचार्य कुन्दकुन्द स्वाध्याय के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लगा, तब आचार्य-परम्परा से चला आता हुआ अंगों और पूर्वो के | प्रवचनसार में कहते हैंएकदेश का ज्ञान (एकदेशश्रुत) आचार्य धरसेन (प्रथम शताब्दी ई.)
जिणसत्थादो अद्वे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। को प्राप्त हुआ। वे जिस समय सोरठ देश के गिरिनगर पर्वत की
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदव्वं ॥86॥ चन्द्रगुफा में स्थित थे उस समय उन्हें स्वयं को प्राप्त श्रुत के
"जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत आगम से प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा मरणोपरान्त लुप्त हो जाने का भय हुआ। अतः उन्होंने दक्षिणापथ की |
| जीवादि पदार्थों के स्वरूप को जानने से मिथ्यात्व का विनाश होता महिमानगरी में सम्मिलित हुए आचार्यों को पत्र लिखकर दो योग्य
है। इसलिये जिनागम का अध्ययन विधिपूर्वक करना चाहिए।" मुनियों को भेजने का आग्रह किया। वहाँ से दो प्रतिभाशाली युवा मुनि
इस आर्षवचन को ध्यान में रखते हुए हमारा यह मानना उनके पास भेजे गये, जिनके नाम पुष्पदन्त और भूतबलि रखे गये।
स्वाभाविक है कि द्रव्यश्रुत के अभ्यास से श्रावकों को भावश्रुत की आचार्य धरसेन ने उन्हें महाकम्मपयडिपाहुड (महाकर्मप्रकृतिप्रामृत)
प्राप्ति हो रही होगी, उनके मिथ्यात्व का विलय हो रहा होगा। किन्तु का अध्ययन कराया और बिदा कर दिया। उन्होंने प्राप्त ज्ञान को सूत्रबद्ध
दृश्य उलटा ही दिखाई देता है। श्रुताभ्यास करते हुए भी श्रावकों का केया और उसे षट्खण्डागम नाम दिया। पश्चात् आचार्य भूतबलि ने
एक वर्ग शासन देवी-देवताओं के नाम पर यक्ष-यक्षणियों की पूजा, उसे पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी के दिन चतुर्विध संघ के
नवग्रहपूजा, तन्त्रमन्त्र, झाड़फूंक, गण्डाताबीज एवं नीलम पन्ना आदि साथ उसकी पूजा की। इसी कारण यह दिन श्रुत पञ्चमी के नाम से
के प्रयोग द्वारा विघ्नों के विनाश और इष्टफलप्राप्ति की मान्यता के प्रसिद्ध हो गया। इस दिन दिगम्बर जैन प्रति वर्ष शास्त्रों की पूजा करते
मिथ्यात्व में फंसा हुआ है। सज्जातित्व के नाम पर जैनधर्मावलम्बियों है, उनकी साफ-सफाई और जीर्णोद्धार करते हैं तथा नये वेष्टनों में
में भी अवैज्ञानिक उपजातियों के भिन्न होने पर परस्पर विवाहसम्बन्ध बाँधकर सुरक्षित करते हैं।
को धर्मविरुद्ध मानता है और उनसे उत्पन्न सन्तान को वर्णसंकर घोषित ___ यह श्रुत की व्यवहारपूजा है। निश्चयपूजा है श्रुत के अर्थ को
करता है, जबकि मिथ्यादृष्टि के साथ उपजाति के समान होने पर किये आत्मसात् करना, भावश्रुत को हृदयंगम करना, जिसका फल होता
जाने वाले विवाह को धर्मानुकूल बतलाता है। यह भी मिथ्यात्व में । मिथ्यात्व से मुक्ति। यह शुभ लक्षण है कि वर्तमान युग में श्रुत
ही विचरण करने का सबूत है। का अभ्यास बड़े पैमाने पर हो रहा है। श्रावकों में तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड
द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव सूरि ने साफ कहा है कि पावकाचार, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार, समयसार, प्रवचनसार आदि
मंत्रसाधित देवता कुछ भी नहीं कर सकते, न विघ्न उत्पन्न कर सकते पन्थों के स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है। साधुसन्तों और पण्डितों के
हैं, न विघ्नों का विनाश। जो कुछ भी भला-बुरा होता है स्वयं के प्रवचनों में उमड़ती हुई भीड़ देखी जाती है। शास्त्रों का प्रकाशन व्यापक
साता-असाता कर्म के उदय से होता है। वे दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते स्तर पर हो रहा है। पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा शास्त्रों के रहस्य खोले जा
हैं कि 'क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित, अनन्तज्ञानादि गुणों हे हैं, शंकाओं का समाधान किया जा रहा है, शोधग्रन्थ लिखे जा
से सहित जो वीतराग सर्वज्ञ देव हैं उनके स्वरूप को न जानने के हे हैं, संगोष्ठियों में शोध-आलेख पढ़े जा रहे हैं। गोया हर तरह से
कारण मनुष्य ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, पुत के अर्थ को हृदयंगम करने और कराने की कोशिश की जा रही
स्त्री और राज्यादि सम्पदा की प्राप्ति के लिए जो रागद्वेषयुक्त और
आर्त्तरौद्रपरिणाम के धारक क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्यादेवीभारतीय मोक्षमार्गों में स्वाध्याय को परम तप माना गया है
देवताओं की आराधना करता है उसे देवमूढ़ता कहते हैं। ये देवी-देवता . 'स्वाध्यायः परमं तपः।' गुरुकुलों में दीक्षान्त समारोह के अवसर
कुछ भी फल नहीं देते। इसका प्रमाण यह है कि रावण ने रामचन्द्र पर 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' (स्वाध्याय में प्रमाद मत करना) यह
जी और लक्ष्मण जी को मारने के लिए बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की उपदेश देने का नियम था। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में कहा है
थी, कौरवों ने पाण्डवों के उन्मूलन के लिए कात्यायनी विद्या को साधा बारसविधझि वि तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदितु। | था और कंस ने श्रीकृष्ण के विनाश के लिए अनेक विद्याओं की आराधना ण वि आत्थि णवि य होही सज्झायसमं तवो कम्मं॥4091 की थी, किन्तु ये विद्याएँ उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकीं। इसके "सर्वज्ञ एवं गणधरादि के द्वारा प्रतिपादित बारह प्रकार के बाह्य
विपरीत राम, पाण्डव और कृष्ण ने किसी देवी-देवता की आराधना
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नहीं की थी, तथापि निर्मल सम्यग्दर्शन द्वारा उपार्जित पूर्व पुण्य से | वस्तुएँ ही जुगाड़ना चाहते हैं। उनकी दृष्टि के सम्यक्त्व या मिथ्यात्व उनके सभी विघ्न दूर हो गये (द्रव्यसंग्रह, गाथा 41)। श्रुत में ऐसा | का पता इस बात से चलता है कि वे धन कमाने के लिए किन तरीकों उपदेश होने पर भी श्रावकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उक्त मिथ्यात्व | का इस्तेमाल करते हैं और हम देखते हैं कि उनके तरीके अपवित्र का शिकार है, जिससे स्पष्ट होता है कि हम श्रुत की केवल व्यवहारपूजा | हैं, समाजविरोधी और धर्मविरोधी हैं। अतः उनकी दृष्टि विषयों को करके कर्त्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं, उसकी निश्चयपूजा से हम कोसों | ही सारभूत मानने के तीसरे प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त है। इससे
जाहिर है कि वे द्रव्यश्रुत की आराधना करते हुए भी भाक्श्रुत से वंचित किन्तु यह नहीं समझ लेना चाहिए कि श्रावकों का जो समुदाय | हैं अर्थात् वे श्रुत की निश्चयपूजा नहीं कर रहे हैं। शासन देवी-देवताओं की पूजा नहीं करता, नवग्रहों को नहीं पूजता, | इसके अतिरिक्त यह वर्ग यद्यपि सज्जातित्व के नाम पर मन्त्रतन्त्र के चक्कर में नहीं पड़ता और नीलम-पन्ना आदि रत्नों के | जैनधर्मानयायियों में उपजाति भिन्न होनेपर पारस्परिक विवाह को प्रयोग को विघ्नविनाशक नहीं मानता, वह मिथ्यात्व से मुक्त है। धर्मविरुद्ध नहीं मानता, तथापि उपजातियों में परस्पर उच्च-नीच, हकीकत यह है कि वह श्रुत का सघन स्वाध्याय करते हुए भी एक श्रेष्ठ-हीन का भेदभाव करता है। फलस्वरूप साधर्मी होने के नाते जहाँ दूसरे प्रकार के मिथ्यात्व में फँसा हुआ है। वह कुन्दकुन्द द्वारा प्रत्येक जैन के प्रति वात्सल्यभाव धारण करना चाहिए, वहाँ उपजाति हिंसारहिये धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे।
की भिन्नता के कारण तीव्र द्वेषभाव रखता है। इस मामले में श्रावकों णिग्गंथे पावयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं॥मोक्खपाहुड, 90॥
के ये तीनों वर्ग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। उपजातीय विद्वेष को इस गाथा में बतलाये गये गुरु के लक्षण को (कि निम्रन्थ ही |
ये इस सीमा तक ले आये हैं कि इन्होंने साधु-सन्तों को भी अपने-पराये गुरु होता है) ताक पर रखकर सग्रन्थ या असंयमी को गुरु मानता
में बाँट लिया है और उन पर भी अपने विद्वेष-विष का असर डालने है, उसे पूजता है, उसके आगमविरुद्ध एकान्तवादी उपदेश को, उसके
की कोशिश कर रहे हैं। इस घातक प्रवृत्ति से अल्पसंख्यक जैन समाज द्वारा रचित निश्चयाभासी ग्रन्थों को प्रमाण रूप में स्वीकार करता है,
को विघटन का खतरा है। यह उपजातीय विद्वेष श्रुताराधना करते हुए उन्हें आर्षवचनों की अपेक्षा भी प्रधानता देता है और जो सच्चे निर्ग्रन्थ
भी महामिथ्यात्व में फँसे होने का और निश्चय श्रुतपूजा से दूर रहने गुरु हैं, उन्हें द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि कहता है। श्रावकों का यह वर्ग मानता
का जबर्दस्त सबूत है। है कि आजकल भावलिंगी मुनि हो ही नहीं सकते। इसलिए इस नस्ल
| कुछ श्रावक व्रत ग्रहण कर लेते हैं, प्रतिमाएँ धारण कर लेते के श्रावक मुनियों को नमस्कार करने और आहार आदि देने को निगोद
हैं। फिर उन्हीं का उन्हें अभिमान हो जाता है। वे अकड़कर चलने लगते में जाने का कारण मानते हैं। यह वर्ग पुण्य को सर्वथा हेय मानता | हैं, आसमान की ओर नजरें कर लेते हैं, सब को तुच्छ समझने का है और निमित्त को अकिंचित्कर। यह व्रतादि को जड शरीर की क्रिया | भाव उनकी आँखों में झलकने लगता है, 'धर्मी सौं गोवच्छ प्रीति' कहता है। सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग या व्यवहारमोक्षमार्ग को
| और 'गुणिषु प्रमोदं' उन्हें आगम विरुद्ध प्रतीत होने लगते हैं। साधारण परम्परया भी मोक्ष का हेतु नहीं मानता, मात्र बन्ध का ही कारण मानता
| श्रावकों के बीच वे अपनी तुलना मुनियों से करते हैं। गोया व्रत धारण है। इस वर्ग के श्रावक मानते हैं कि जो कुछ होना है वह पूर्वनियत
करने से उनके मद का आलम्बन मात्र बदलता है। आगम का कथन है. जीव उसमें कछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता है। अर्थात वह नियत- | है कि आठ मदों में से एक भी मद की मौजूदगी हो तो मिथ्यात्व अनियत के अनेकान्त को भी अमान्य करता है। इस तरह यह वर्ग | का अभाव नहीं होता। यह दशा श्रावकवर्ग की श्रुताराधना करते हुए मात्र श्रुत के ही अभ्यास को मोक्ष का एकमात्र पौरुष मानते हए और | भी मिथ्यात्व ग्रस्त बने रहने की कहानी कहती है। स्पष्ट है कि इस रात दिन स्वाध्याय करते हुए भी भावश्रुत से शून्य है, अर्थात् मिथ्यात्व | प्रकार के श्रावक भी श्रुत की निश्चयपूजा में रुचि नहीं रखते। का शिकार है जिससे सिद्ध होता है कि श्रावकों का यह वर्ग भी श्रुत | श्रुताम्यासियों में इन चार प्रकार के मिथ्यात्वों की मौजूदगी श्रुत की निश्चयपूजा से परहेज करता है।
| की व्यवहारपूजा के साथ निश्चयपूजा की आवश्यकता प्रतिपादित और जो श्रावक इन दोनों प्रकार के मिथ्यात्वों से मुक्त हैं, उनके | करती है। श्रुतपञ्चमी के पर्व पर इस ओर ध्यान जाना चाहिए। सन्तोष बारे में यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि वे सभी सम्यग्दृष्टि हैं। | की बात है कि इन विभिन्न श्रावकवर्गों के बीच श्रावकों का उनमें से अधिकांश श्रावक तीसरे प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। उनकी | अल्पसंख्यक वर्ग श्रुत की निश्चयपूजा भी कर रहा है। वह उपर्युक्त दृष्टि में धन, सत्ता, भोग और ख्याति (money; power, | चारों प्रकार के मिथ्यात्वों से मुक्त है, क्योंकि वह श्रुत की निश्चयपूजा pleasure and popularity) ही जीवन के सारभूत तत्त्व हैं। वे | करने वाले सच्चे निर्ग्रन्थ गुरुओं के चरणों का निर्व्याज अनुगामी है। पूजा-भक्ति, तीर्थवन्दना, साधुसन्तों की सेवा करते हुए दिखाई देते | ऐसे सच्चे निर्ग्रन्थ गुरू इस युग में भी भारतभूमि को अलंकृत कर हैं तो यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह सब वे मोक्ष की आकांक्षा | रहे हैं। से करते हैं। वस्तुतः इससे अर्जित पुण्य के द्वारा वे उपर्युक्त चार
• रतनचंद्र जैन
मई 2001 जिनभाषित
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प्रवचन
ज्ञान और अनुभूति
आचार्य श्री विद्यासागर
Tक्षय तृतीया से जो यह श्रुत की वाचना | ही पर्याप्त नहीं है।
जका मंगल कार्य प्रारंभ हुआ था वह इस | शब्द सुनने के लिये कान पर्याप्त हैं मंगलमय श्रुतपंचमी के अवसर पर सानंद | लेकिन तविषयक जानकारी के लिए श्रुत के सम्पन्न हुआ। आत्मा के पास यही एक ऐसा | लिए मन आवश्यक है। श्रुत यह मन का विषय धन है जिसके माध्यम से धनी कहलाता है। है। मन लगाकार जब हम शब्दों को सुन लेते जब यह श्रुतरूपी धन जघन्य अवस्था को | हैं तब कहीं जाकर आचार्यों के भाव हमारी प्राप्त हो जाता है तो वह आत्मा दरिद्र हो जाता समझ में आते हैं। मन लगाने का पुरुषार्थ है। आगम ग्रंथों की वाचना के समय अनिवार्य है। केवल वक्ता अपनी बात को निगोदिया जीव का प्ररूपण करते समय जो रखता जाये और श्रोता मात्र सुनता जाये, मन बताया गया उसे सुनकर लग रहा था कि न लगाये तो कल्याण संभव नहीं है। आत्मा का यह पतन निगोद में अंतिम छोर यहाँ अभी-अभी कई लोगों ने कहा कि को छू रहा है। लेकिन दरिद्रता का
सकते। मात्र शब्द सुनने में आ अर्थ धन का अभाव होना नहीं उन्नति हम चाहते हैं, लेकिन उन्नति कैसे होगी यह जानना
जाते हैं। शब्द इस अनंत अर्थ है. बल्कि धन की न्यूनता या चाहिए। श्रुत को आधार बनाकर चलेंगे तभी श्रुत के द्वारा वहाँ पहुँच को अभिव्यक्त करने में सहाअत्यधिक कमी होना है। एक | जायेंगे जहाँ तक महावीर भगवान् पहुँचे हैं। कैवल्य होने से पूर्व यक बनते हैं। अनंत की पैसा भी पैसा है, वह रुपये
बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक श्रुत का आधार प्रत्येक अभिव्यक्ति श्रुत के द्वारा शब्दों का अंश है। रुपया वह भले साधक को लेना अनिवार्य है। मात्र उपदेश देने या सनने से ज्ञान
के माध्यम से की जाती है। हो न हो लेकिन रुपये की नहीं बढ़ता। ज्ञान को ऊर्ध्वगमन संयम के द्वारा मिलता है। हम
बहुत छोटी सी किताब प्राप्ति में सहयोगी है। इसी
है लेकिन इसके अर्थ की ओर प्रकार ज्ञान का पतन कितना श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में ढाल सकते हैं। लेकिन आज तक कोई
जब देखते हैं तो लोक और भी हो किन्तु जीव में कभी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने संयम के बिना ही श्रृतज्ञान को
| अलोक दोनों में जाकर भी ज्ञान का अभाव नहीं हो | केवलज्ञान रूप दिया हो।
हमारा ज्ञान छोर नहीं छू पाता। सकता। यदि वास्तव में ज्ञान | सन 1981 में आचार्यश्री के द्वारा दिया गया प्रवचन वह ज्ञेयरूपी महासागर जिसके को धन मानकर हम उसका श्रुतपञ्चमी के विशेष संदर्भ में प्रस्तुत है।
ज्ञान में अवतरित हो जाता है संरक्षण और संवर्धन करें तो
वह समाधिस्थ हो जाता है। उस आत्मा की ख्याति बढ़ती चली जायेगी। यह वाचना जो हुई है पंडित जी ने अच्छे ढंग ज्ञान की महिमा अपरम्पार है। उस अर्थ की आत्मा में प्रकाश आ जायेगा कि वह विश्व से इसे सुनाया है। यह सारा का सारा शब्द प्राप्ति के लिए जो परमार्थभूत है यह सब को भी प्रकाशित कर देगा।
ही तो है जो कानों से सुनने में आया है। शब्द संकेत दिये गये हैं। इन संकेतों को सचेत श्रुतपंचमी के दिन अपने चिंतन के पढ़ने में नहीं आ सकते, पढ़ने में जो जाते होकर यदि हम पकड़ लेते हैं तो ठीक है माध्यम से श्रुत के बारे में बात समझनी हैं वह केवल उन शब्दों के संकेत हैं और ये | अन्यथा कुछ नहीं है। जिसका मन मूर्छित है चाहिए। स्पर्शन इन्द्रिय का विषय आठ प्रकार संकेत सारे के सारे अर्थ को लेकर हैं। अर्थात् पंचेन्द्रिय के विषयों से प्रभावित है वह का स्पर्श है, रसना इन्द्रिय का विषय पाँच | श्रुतभक्ति में आया है- “अरिहंत भासियत्थं इन संकेतों को पकड़ कर भी भावों में प्रकार का रस है, घ्राण इन्द्रिय का विषय दो | गणधरदेवेहिं गंथियं सम्मं, पणमामि भत्ति- अवगाहित नहीं हो पाता। अंतर्महूर्त के भीतर प्रकार की गंध है, चक्षु इन्द्रिय का विषय पांच जत्तो सुदणाणमहोवयं सिरसा।" अर्थात् अरि- वह जो सर्वार्थसिद्धि के देव हैं उन्हें भी जिस प्रकार का रूप है और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय हंत परमेष्ठी के द्वारा अर्थ रूप श्रुत का | सुख का अनुभव नहीं हो सकता, उससे है शब्द। पांचों इन्द्रियाँ हमारे पास हैं, लेकिन व्याख्यान हुआ है और इसे गणधर देव ने | बढ़कर सुख का अनुभव एक संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये जब पंडित गंथकर ग्रंथ का रूप दिया है। ऐसे महान् श्रुत मनुष्य जो संयत है या संयंतासंयत है, वह जी (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धांत शास्त्री
को भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर हम प्रणाम | अनुभव कर रहा है। बनारस) वाचना कर रहे थे प्रातः काल, तब कते हैं। अर्थ हमेशा अनन्तात्मक होता है जैसे सूर्य प्रकाश देता है और प्रकाश जयधवलाकार ने बहत अच्छे ढंग से कहा कि और अनंत को ग्रहण करने की क्षमता हमारे | से कार्य होता है, किन्तु सूर्य के प्रकाश देने पाँच इन्द्रियों का होना आवश्यक है पर इतना पास नहीं है। उस अनंत को हम सुन नहीं | मात्र से हमारा कार्य पूरा नहीं होता। सूर्य का
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प्रकाश पाकर हमें स्वयं पुरुषार्थ करना होगा। | प्रकाश के साथ बाहर दिखने लगता है ऐसा । श्रुत का उपयोग भिन्न क्षेत्र में लेते हैं तो दूसरी बात, प्रातः कालीन सूर्य जब किरणे ही वह केवलज्ञान है। श्रुतज्ञानावरणी कर्म का | उसका कोई मूल्य नहीं है। यदि स्वक्षेत्र में काम फेंकता है तब हमारी छाया विपरीत दिशा में जब पूर्ण क्षय होगा तब आत्मा में एक नई लेते हैं तो केवलज्ञान की उत्पत्ति में देर नहीं पड़ती है और सायंकाल जब अस्ताचल में दशा उत्पन्न होगी। इसी दशा को प्राप्त करने लगती। अर्थात् कोई भी क्रिया करो विधि के जाता है तब भी हमारी छाया विपरीत दिशा के लिए यह श्रुत है।
अनुसार करो। दान इत्यादि क्रिया दाता और में पड़ती है लेकिन वही सूर्य जब मध्यान्ह में 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' मन का विषय श्रुत पात्र की विशेषता द्रव्य और विधि की तपता है तब हमारी छाया परपदार्थों की ओर | है। मन को अनंग भी बोलते हैं। वह भीतर विशेषता, से विशिष्ट हो जाती है। फलवती न जाकर हमारे चरणों में ही रह जाती है। यही रहता है उसके पास अंग नहीं है किन्तु वह हो जाती है। औषधि सेवन में जैसे वैद्य के स्थिति श्रुत की है। जब हमारा श्रुतज्ञान बाह्य अंग के भीतर अंतरंग होता है। इसी अंतरंग अनुसार खुराक और अनुपान का ध्यान रखा पदार्थों में न जाकर आत्मस्थ हो जाता है तभी | के द्वारा ही सब कार्य होता है। यदि अंतरंग | जाता है ऐसा ही प्रत्येक क्रिया के साथ ज्ञान की उपलब्धि मानी जाती है। हम मध्य विकृत हो जाए और बहिरंग साफ सुथरा रहे सावधानी आवश्यक है। में रहे और मध्यस्थ रहें तो यह मध्याह्न हमारे तो भी कार्य नहीं होगा। जिसका अंतरंग शुद्ध स्वाध्याय करने का कहने से प्रायः जीवन के लिए कल्याणकारी है।
होगा उसके लिए श्रुत अंतर्मुहूर्त में पूरा का ऐसा होता है कि जो समय स्वाध्याय के लिए जब तेज धूप पड़ती है और पंडित जी पूरा प्राप्त हो जाता है। अंतर्मुहूर्त में ही उसे निषिद्ध है उन समयों में भी स्वाध्याय करने (पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य सागर) बार- कैवल्य भी प्राप्त हो सकता है। वर्तमान में लगते हैं। सिद्धांतग्रंथों के पठन पाठन का बार कहते हैं कि महाराज बाहर बहुत ततूरी यह अवसर्पिणी काल होने से श्रुत निरंतर अष्टमी चतुर्दशी को निषेध किया है तो है। ततूरी का अर्थ बहुत अच्छा उन्होंने बताया घटता चला जा रहा है। वह समय भी आया सावधानी रखना चाहिए। शास्त्र के प्रति था। मुझे मालूम नहीं था कि ततूरी का अर्थ जब धरसेन आचार्य के जीवन काल में एक- बहुमान, उसके प्रति विनय, उनके लिए इतना गम्भीर है। तप्त+उर्वी = तप्तूर्वी एक अंग का अंश ज्ञान शेष रह गया और निश्चित काल आदि सभी आपेक्षित हैं। पढ़ना (ततूरी)। जिस समय उर्वी अर्थात् पृथ्वी तप आज उसका शतांश क्या सहस्रांश भी शेष उसे ग्रहण और धारण करना सभी हो सके जाती है उस समय बोलते हैं बहुत ततूरी है। नहीं रहा।
इसका ख्याल रखना चाहिए। एक वर्ष में जो इस ततूरी के समय मध्यान्ह में किसान लोग आज सुबह पढ़ लेते हैं शाम को पूछो शांति से स्वाध्याय करना चाहिए उसे एक गर्मी के दिनों में भी शान्ति का अनुभव करते तो उसमें से एक पंक्ति भी ज्यों की त्यों नहीं माह में कर ले तो क्या होगा मात्र पढ़ना होगा, हैं। शान्ति का अनुभव इसलिए करते हैं कि बता सकते। थोड़ा सा मन इधर उधर चला ग्रहण और धारण नहीं होगा। अब मृगशीतला आ गयी और कुछ दिन के गया, उपयोग फिसल गया तो कहीं के कहीं श्रुतज्ञान हमारे लिये बहुत बड़ा साधन उपरान्त वर्षा आयेगी, बीज बोयेंगे, फसल पहुँच जाते हैं। क्या विषय चल रहा था, पता है। श्रुतज्ञान के बिना आज तक किसी को भी लहलहायेगी। यदि अभी धरती नहीं तपेगी तो तक नहीं पड़ता। हमारे पूर्व में हुए आचार्यों मुक्ति नहीं मिली और न आगे मिलेगी। वर्षा नहीं आयेगी।
की उपयोग की स्थिरता, उनका श्रुत के प्रति अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान का मुक्ति इसी प्रकार जब तक श्रुत के साथ हम बहुमान आदि देखते हैं तो उसमें से हमारे में उतना महत्त्व नहीं है जितना श्रुतज्ञान का समाधिस्थ होकर अपने को नहीं तपायेंगे तब पास एक कण मात्र भी नहीं है, किन्तु भाव- है। केवल ज्ञान भी उसी का फल है। यदि इस तक अनंत केवलज्ञानरूपी फसल नहीं भक्ति और श्रद्धा ही एकमात्र हमारे पास महान् श्रुत का हम गलत उपयोग करते हैं तो आयेगी। जिस समय श्रुत आत्मस्थ हो जायेगा साधन है। यह श्रद्धा-विश्वास हमें नियम से अर्थ का अनर्थ हो सकता है। हमें श्रुत के तब आत्मा नियम से विश्रुत हो जायेगी। वहीं तक ले जाएगा जहाँ तक पूर्व आचार्य माध्यम से आजीविका नहीं चलानी चाहिए। विश्रुत का अर्थ है विख्यात होना। तब आत्मा गये हैं।
इसे व्यापार का साधन नहीं बनाना चाहिए। की तीन लोक में ख्याति फैल जायेगी। तीन आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में यह पवित्र जिनवाणी है। वीर भगवान के मुख लोक में उसी की ख्याति फैलती है जो संपूर्ण कहा है कि 'सद्दो णाणं ण हवदि जह्या सद्दो | से निकली है। जो श्रुत प्राप्त है उसके माध्यम श्रुत को पीकर के विश्रुत हो गया। विश्रुत का ण याणए किंचि, तह्मा अण्णं णाणं अण्णं सई | से स्व-पर कल्याण करना चाहिए। दूसरा अर्थ श्रुतभाव या श्रुत से ऊपर उठ जाना जिणा विंति। अर्थात् शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि श्रुत का फल बताते हुए परीक्षामुख सूत्र भी है। तो जो श्रुत से ऊपर उठे हुए हैं वे ही शब्द कुछ भी नहीं जानता इसलिए ज्ञान भिन्न | में आचार्य माणिक्यनंदी जी कहते हैं कि केवलज्ञानी भगवान तीन लोक में पूज्य है। | है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान का कथन है। यहाँ | 'अज्ञान निवृत्तिानोपानोपेक्षाश्च फलम्' अर्थात्
श्रुतज्ञान वास्तव में आत्मा का स्वभाव आशय यही है कि शब्द मात्र साधन है। उसके | श्रुत की सार्थकता तभी है जब हमारे अंदर नहीं है, किन्तु आत्म-स्वभाव पाने के लिए माध्यम से हम भीतरी ज्ञान को पहचान लें बैठा हुआ मोह रूपी अज्ञान अंधकार समाप्त श्रुतज्ञान है। उस श्रुतज्ञान के माध्यम से जो यही उसकी उपयोगिता है अन्यथा वह मात्र हो जाय और हेय उपादेय की जानकारी प्राप्त अपने आपको तपाता है वह केवल ज्ञान को कागज है। जैसे भारतीय मुद्रा है वह कागज | करके हेय से बचने का प्रयास किया जाये और उपलब्ध कर लेता है। श्रुतज्ञान तो आवरण में | की होकर भी भारत में मूल्यवान है, दूसरे उपादेय को ग्रहण किया जाय अर्थात् चारित्र से झाँकता हुआ प्रकाश है। जब मेघों का पूर्ण स्थान पर कार्यकारी नहीं है। वहाँ उसको की ओर कदम बढ़ना चाहिये। भले ही अल्प अभाव हो जाता है तब जो सूर्य अपने सम्पूर्ण कागज ही माना जायेगा। इसी प्रकार यदि हम | ज्ञान हो लेकिन उसके माध्यम से हमें संयमित
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होकर सदा गतिशील रहना चाहिये। यदि मत जाना, अन्यथा पेड़ की तरह दशा होगी।। चढ़ जाता है। आप भी चाहें तो संयमित होकर संयम की ओर गति होती रही तो हमारी प्रगति उन्नति हम चाहते हैं लेकिन उन्नति कैसे होगी एक-एक गुणस्थान ऊपर चढ़ सकते हैं। यही और उन्नति होने में देर नहीं है। हमारा यह जानना चाहिए। श्रुत को आधार बनाकर श्रुतज्ञानरूपी प्रवाह में संयम का बाँध बाँधकर अल्पज्ञान भी संयम के माध्यम से स्थिरता चलेंगे तभी श्रुत के द्वारा वहाँ पहुँच जायेंगे स्वयं को ऊँचा उठाने का उपाय है। संयम पाकर एक अंतर्मुहूर्त में अनंत ज्ञान में परिणत जहाँ तक महावीर भगवान पहुंचे हैं। कैवल्य रूपी बाँध में बँधे हुए श्रुत की यही महिमा हो सकता है।
होने से पूर्व बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय बंधुओ! आज यह पंचमकाल है इसमें तक श्रुत का आधार प्रत्येक साधक को लेना जैसे जल को तपाने पर वह वाष्प नियम से ज्ञान में, आयु में, शरीर और अन्य अनिवार्य है। थोड़ा सा श्रुत आने लगा तो
बनकर ऊपर चला जाता है, उसे किसी मोक्षमार्ग में सहयोगी अच्छी सामग्री में ह्रास अहंकार मत करो। अहंकार करना नादानी है।
आधार की आवश्यकता नहीं होती, इसी होता जायेगा, अतः अपने अल्प श्रुत श्रुत की विनय करना, आदर करना और जिस
प्रकार जब कोई साधक, साधना करते-करते (क्षयोपशम) की ओर ध्यान न देकर ध्येय की रूप में बताया है उसी रूप में करना
छद्मस्थ अवस्था की सीमा को पार कर जाताहै ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिये। जिस आवश्यक है।
तब अंतरिक्ष में ऊपर उठ जाता है। केवलज्ञान प्रकार नदी छोटी होकर भी एक दिन समुद्र ज्ञान का प्रयोजन ध्यान है और ध्यान
प्राप्त होते ही धरती से ऊपर उठ जाताहै और की दिशा में बढ़ने के कारण समुद्र में मिलकर का प्रयोजन केवलज्ञान है, अनंत सुख और
आत्मा की अनंत ऊँचाइयाँ छू लेता है। प्रत्येक समुद्र का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार शान्ति है। इसी को पाने का ध्येय बनाकर ज्ञान
सम्यग्दृष्टि का यही एकमात्र लक्ष्य होना जिसकी दृष्टि मुक्ति की ओर हो गयी है उसका का आदर हमें करना चाहिये। हमारे ज्ञान में
चाहिए कि मेरा जो श्रुतज्ञान उपलब्ध है, इसी भी एक दिन ऐसा आयेगा कि केवलज्ञान रूपी यदि अस्थिरता रहेगी तो हमारी यात्रा
में मुझे संतुष्ट होकर नहीं बैठ जाना है, किन्तु महान सागर में समा जायेगा। यही एक मात्र उर्ध्वगामी नहीं होगी। जैसे-जैसे ऊपर जायेंगे
इस ज्ञान के माध्यम से निरावरित केवलज्ञान उद्देश्य रहना चाहिये, सम्यक् श्रुतज्ञान से वैसे-वैसे देखने में आयेगा कि आसमान
को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना है। आपूरित हर आत्मा के इसी भाव को हमने | असीम है, ज्ञान का पार नहीं है। कैवल्यरूपी एक कविता में बांधा हैनिरावरण ज्ञान का आसमान असीम है। यही
मात्र उपदेश देने या सुनने से ज्ञान नहीं धरा से फूट रहा है/नवजात है/और हमारा साध्य है। इसी को पाने के लिए गणधर
बढ़ता। ज्ञान को उर्ध्वगमन संयम के द्वारा पौधा/धरती से पूछ रहा है/कि/यह आसमान स्वामी जैसे महान् आत्मा और कुन्दकुन्द जैसे
मिलता है। हम श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में ढाल को कब छूयेगा/ छू सकेगा क्या नहीं/तूने महान् आचार्य हमें निरन्तर ध्यान और
सकते हैं। लेकिन आज तक कोई व्यक्ति ऐसा मकड़ा है/गोद में ले रखा है इसे/छोड़ दे/ आत्मलीनता की ओर प्रेरित करते हैं।
नहीं हुआ जिसने संयम के बिना ही श्रुतज्ञान इसका विकास रुका है/ओ माँ/माँ की मुस्कान पानी को निम्नगा माना गया है। वह
को केवलज्ञान का रूप दिया हो। श्रुत को बोलती है/भावना फलीभूत हो बेटा/आस नीचे की ओर बहता है। जल का यह स्वभाव
केवल ज्ञान का साक्षात् कारण माना है। उसी पूरी हो/ किन्तु आसमान को छूना/आसान है। लेकिन जल का यदि कुछ उपयोग करना
श्रुत की आराधना आप लोगों ने एक डेढ़ माह नहीं है/मेरे अन्दर उतर कर/तब छूयेगा/गहन है, बिजली बनाना है या सिंचन के लिए नहरें
लगातार सिद्धांत ग्रंथों के माध्यम से की है। गहराइयाँ/तब कहीं संभव होगा/आसमान को बनाना हैं तो क्या करते हैं? बाँध बनाते हैं।
जिस जिनवाणी को गुफाओं में बैठकर छूना/ जल की यात्रा तब भी नहीं रुकती । वह अब
धरसेन, पुष्पदंत-भूतबली और वीरसेन आचार्य ऊँचाइयों की ओर यात्रा उस पौधे की | नीचे न जाकर ऊपर बढ़ने लगता है।
जैसे महान् श्रुत सम्पन्न आचार्यों ने सम्पादित तभी संभव है जब वह पौधा धरती की गहन | ज्ञानोपयोग की धारा भी निरन्तर बहती रहती |
किया है, उसे आज आप सभी सुख गहराइयों में उतरेगा। ध्यान रहे विकास दोनों | है। बहने वाले उपयोग का इतना महत्त्व नहीं
सुविधाओं के बीच रहकर सुन रहे हैं, तो कोई ओर चलता रहता है। भले ही वह पौधा आधा | है जितना कि जब वह उर्ध्वगमन कर रहा है
बात नहीं। इस प्रकार के ध्यान-अध्ययन की नीचे की ओर चला गया पर धरती माँ कहती तब महत्त्वपूर्ण होता है। श्रुतज्ञान होने पर ध्यान
साधना करते करते एक दिन आपको वह है कि आसमान में ऊँचे जाना तभी संभव है | रूपी बाँध के द्वारा उस ज्ञान को ऊपर की ओर
समय भी उपलब्ध हो सकता है जिस दिन जब धरती के भीतर जो कठोरता है उसको ले जाना ही उपलब्धि है। इसके लिये महान
संयमपूर्वक ज्ञान की आराधना के माध्यम से भी भेदकर भीतर जाने का साहस करेगा। | संयम की आवश्यकता है। श्रुतज्ञान का
कैवल्य की प्राप्ति होगी। पौधा जैसा आकाश में ऊपर हवा में हिलता सदुपयोग यही है कि उसको संयम का बाँध अंत में उन गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी रहता है, जड़ में भी ऐसा हिलने लग जाये | बाँधकर ऊपर उठा लेना।
महाराज का स्मरण कर रहा हूँ. जिनके परोक्ष जो धराशायी हो जायेगा। पेड़ धरती से संबंध कैसे ऊपर उठाना? तो ऐसे जैसे पंडित | आशीर्वाद से ही ये सारे कार्य निर्विघ्न सम्पन्न छोड़ दे तो जीवन बर्बाद हो जाता है। जी वाचना के समय लब्धि स्थानों के बारे में | हो रहे हैं। उन्हीं की स्मृति में अपनी भावना
इसी प्रकार जिन वाणी माँ से हमारा बता रहे थे कि श्रेणी कैसे चढ़ी जाती है। किसी | समर्पित करता हूँ। 'तरणि ज्ञानसागर गुरो, संबंध है। बंधुओ! जीवन जब तक रहे तब कर साधक अपनी साधना को ऊपर उठाता | तारो मुझे ऋषीश! करुणाकर करुणा करो, कर तक जिनवाणी माता को कभी मत भूलना | जात है। वह अल्प समय में ही भावों में | से दो आशीष।' और जिनवाणी माँ को भूलकर अन्यत्र कहीं विशुद्धता लाता है और देखते-देखते ऊपर
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सम्यक् श्रुत
स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री
गवाह की अपेक्षा श्रुत अनादि है। इसकी | चन्द्रगुफा में निवास करते हुए ध्यान अध्ययन | दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी विद्या की ममहिमा की व्याख्या करते हुए जीवकाण्ड में तल्लीन रहते थे। इनके गुणों का ख्यापन | अधिष्ठात्री देवी कानी है। यह देखकर उन्होंने में श्रुतज्ञान की मुख्यता से कहा है कि केवल करते हुए वीरसेन स्वामी ने (धवला पु.1) मंत्रों को शुद्ध कर पुनः दोनों विद्याओं को ज्ञान और श्रुतज्ञान में प्रत्यक्ष और परोक्ष का लिखा है कि वे परवादीरूपी हाथियों के समूह सिद्ध किया। इससे वे दोनों विद्यादेवियाँ अपने ही भेद है, अन्य कोई भेद नहीं। ऐसा नियम के मद का नाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के स्वभाव और अपने सुन्दर रूप में दृष्टिगोचर है कि केवलज्ञानविभूति से सम्पन्न भगवान समान थे और उनका मन सिद्धान्तरूपी हुईं। तदनन्तर उन दोनों साधुओं ने विद्या तीर्थकर परमदेव अपनी दिव्यध्वनि द्वारा अमृतसागर की तरंगों के समूह से धुल गया सिद्धि का सब वृत्तान्त आचार्य धरसेन के अर्थरूप से श्रुत की प्ररूपणा करते हैं और था। वे अष्टांग महानिमित्त शास्त्र में भी समक्ष निवेदन किया। इससे उन दोनों साधुओं मत्यादि चार ज्ञान के धारी गणधरदेव अपनी पारगामी थे। वर्तमान में उपलब्ध श्रुत की रक्षा पर अत्यन्त प्रसन्न हो, उन्होंने योग्य तिथि सातिशय प्रज्ञा के माहात्म्यवश अंगपूर्वरूप का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। अपने | आदि का विचार कर उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारंभ से अन्तर्मुहूर्त में उसका संकलन करते हैं। जीवन के अंतिम काल में यह भय होने पर । किया। आषाढ़ शुक्ला 11 के दिन पूर्वाह्नकाल अनादि काल से सम्यक् श्रुत और श्रुतधरों की | कि मेरे बाद श्रुत का विच्छेद होना संभव है, | में ग्रन्थ-अध्यापन समाप्त हआ। परम्परा का यह क्रम है।
इन्होंने प्रवचन वात्सल्यभाव से महिमानगरी जब इन दोनों साधुओं ने विनयपूर्वक ___ इस नियम के अनुसार वर्तमान में सम्मिलित हुए दक्षिणा पथ के आचार्यों के ग्रन्थ समाप्त किया तब भूतजाति के व्यन्तर अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के अंतिम भाग पास पत्र भेजा। उसे पढ़कर उन आचार्यों ने देवों ने उनकी पूजा की। यह देख आचार्य में अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर और ग्रहण और धारण करने में समर्थ नाना प्रकार धरसेन ने एक का नाम पुष्पदन्त और दूसरे उनके ग्यारह गणधरों में प्रमुख गणधर की उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित का नाम भूतबलि रखा। गौतमस्वामी हुए। भावश्रुत पर्याय से परिणत अंगवाले, शीलरूपी माला के धारक,देश- बाद में वे दोनों साधु गुरु की आज्ञा गौतमगणधर ने ग्यारह अंश और चौदह पूर्वो कुल-जाति से शुद्ध, समस्त कलाओं में से वहाँ से रवाना होकर अंकलेश्वर आये और की रचना कर उन्हें लोहाचार्य को दिया। पारंगत ऐसे दो साधुओं को आन्ध्रप्रदेश में वहाँ वर्षाकाल तक रहे। वर्षायोग समाप्त होने लोहाचार्य ने जम्बूस्वामी को दिया। इसके बाद बहनेवाली वेणा नदी के तट से भेजा। पर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देश को चले विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और जब ये दोनों साधु मार्ग में थे, आचार्य गये और भूतबलि आचार्य द्रविण देश को भद्रबाहु ये पाँचों आचार्य परिपाटी क्रम से | धरसेन ने अत्यन्त विनयवान् शुभ्र दो बैलों गये। चौदहपूर्व के धारी हुए। तदन्तर विशाखाचार्य, को स्वप्न में अपने चरणों में विनतभाव से बाद में पुष्पदन्त आचार्य ने जिनपाप्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, पड़ते हुए देखा। इससे सन्तुष्ट हो आचार्य लित को दीक्षा देकर तथा वीसदि सूत्रों की सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, धरसेन ने 'श्रुतदेवता जयवन्त हो' यह शब्द रचना कर और जिनपालित को पढ़ाकर गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य उच्चारण किया। साथ ही उन्होंने 'मुझे सम्यक् भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। परिपाटी क्रम से ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व श्रुत को धारण और ग्रहण करने में समर्थ ऐसे भूतबलि आचार्य ने जिनपालित के पास आदि दस पूर्वो के धारक तथा शेष चार पूर्वो दो शिष्यों का लाभ होने वाला है। यह जान वीसदि सूत्रों को देखकर और पुष्पदन्त के एकदेश धारक हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, | लिया।
आचार्य अल्पायु हैं ऐसा जिनपालित से जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसा- जिस दिन आचार्य धरसेन ने यह स्वप्न जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का विच्छेद होने चार्य ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से देखा था उसी दिन वे दोनों साधु आचार्य के भय से द्रव्यप्रमाणानुगम से लेकर शेष सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के और चौदह पूर्वो के धरसेन को प्राप्त हुए। पादवन्दना आदि ग्रन्थ की रचना की। एकदेश धारक हुए। तदनन्तर सुभद्र, यशो- कृतिकर्म से निवृत्त हो और दो दिन विश्राम यह आचार्य धरसेन प्रभृति तीन प्रमुख भद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों आचार्य कर, तीसरे दिन वे दोनों साधु पुनः आचार्य आचार्यों का संक्षिप्त परिचय है। इस समय सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंगों धरसेन के पादमूल में उपस्थित हुए। इष्ट कार्य जैन परम्परा में पुस्तकारूढ़ जो भी श्रुत के तथा पूर्वो के एकदेश के धारक हुए। के विषय में जिज्ञासा प्रकट करने पर आचार्य उपलब्ध है उसमें षट्खण्डागम और कषायआचार्य धरसेन-पष्पदन्त-भतबलि | धरसेन ने आशीर्वादपूर्वक दोनों को सिद्ध | प्राभृत की रचना प्रथम है। षटखंडागम के मल
करने के लिए एक को अधिक अक्षरवाली और स्रोत के व्याख्याता हैं आचार्य धरसेन तथा तदनन्तर सभी अंग-पूर्वो का एकदेश
दूसरे को हीन अक्षरवाली दो विद्याएँ दी और रचयिता हैं आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि। ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन
कहा इन्हें उपवास धारण कर सिद्ध करो। आचार्य को प्राप्त हुआ। ये सौराष्ट्र देश के
आचार्य गुणधर-यतिवृषभ विद्याएँ सिद्ध होने पर उन दोनों साधुओं ने गिरिनगर पत्तन के समीप ऊर्जयन्त पर्वत की देखा कि एक विद्या की अधिष्ठात्री देवी के
जैन-परम्परा में षट्खण्डागम का जो मई 2001 जिनभाषित 12
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स्थान है वही स्थान कषायप्राभृत का भी है। | शिवकोटि, समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलं- | सम्यकश्रत-परिचय इन आगमग्रन्थों का मूल स्रोत क्या है यह तो | कदेव, विद्यानन्दि और योगीन्द्रदेव प्रभृति
इस समय इस भरतक्षेत्र में केवली, श्रुत-परिचय के समय बतलायेंगे। यहाँ तो सभी आचार्यों ने तथा राजमल, बनारसीदास
श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वियों का तो मात्र कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य गुणधर | जी आदि विद्वानों ने इनका अनुसरण किया
सर्वथा अभाव है ही, उत्तरकाल में विशिष्ट और उस पर वृत्तिसूत्रों की रचना करने वाले | है। आचार्य अमृतचन्द्र के विषय में तो इतना
श्रुतधर जो ज्ञानी आचार्य हो गये हैं उनका भी आचार्य यतिवृषभ के बारे में विचार करना | ही लिखना पर्याप्त है कि मानो आचार्य
अभाव है। फिर भी उन आचार्यों द्वारा है। कषायप्राभृत की प्रथम गाथा से सुस्पष्ट कुन्दकुन्द के पादमूल में बैठकर ही 'समय
लिपिबद्ध किया गया जो भी आगम साहित्य विदित होता है कि आचार्य धरसेन के समान | सार' आदि श्रुत की टीकायें लिखी हैं।
हमें विरासत में मिला है उसका पूरी तरह से आचार्य गुणधर भी अंग-पूर्वो के एक देश के चरणानुयोग को पुस्तकारूढ़ करने
मूल्यांकन करना हम अल्पज्ञों की शक्ति के ज्ञाता थे। उन्होंने कषायप्राभृत की रचना | वाले प्रथम आचार्य बट्टकेरस्वामी हैं। इनके
बाहर है। पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे प्राभृत | द्वारा निबद्ध 'मूलाचार' इतना सांगोपांग है कि
पूर्व काल में अरिहन्त परमेष्ठी की के आधार से की है। इससे विदित होता है आचार्य वीरसेन इसका आचारांग नाम द्वारा
वाणी के रूप में जिस श्रुत का गणधरदेव ने कि जिस समय पाँचवें पूर्व की अविछिन्न उल्लेख करते हैं। उत्तरकाल में जिन आचार्यों
संकलन किया था वह अंगबाह्य और परम्परा चल रही थी तब आचार्य गुणधर इस और विद्वानों ने मुनि-आचार पर जो भी श्रुत
अंगप्रविष्ट के भेद से दो भागों में विभक्त पृथ्वी-तल को अपने वास्तव्य से सुशोभित निबद्ध किया है उसका मूल स्रोत मूलाचार
किया गया था। अंगबाह्य ही, साथ ही आचार्य कर रहे थे। ये अपने काल के श्रुतधर आचार्यों ही है। आचार्य वसुनन्दि ने इस पर एक टीका
पुष्पदन्त और भूतबलि भी कम श्रेयोभागी में प्रमुख थे। लिखी है। भट्टारक सकलकीर्ति ने भी
नहीं, जिनकी विलक्षण प्रतिभा और प्रयास के आचार्य यतिवृषभ उनके बाद आचार्य मूलाचारप्रदीप नामक एक ग्रन्थ की रचना की
फलस्वरूप अंग-पूर्वश्रुत का यह अवशिष्ट नागहस्ती के काल में हुए हैं, क्योंकि आचार्य है। उसका मूल स्रोत भी मूलाचार ही है। इसी
भाग पुस्तकारूढ़ हुआ। भावविभोर होकर वीरसेन ने इन्हें आचार्य आर्य मंक्षु का शिष्य प्रकार चार आराधनाओं को लक्ष्य कर आचार्य
मनःपूर्वक हमारा उन भावप्रवण परम सन्त और आचार्य नागहस्ती का अन्तेवासी लिखा शिवकोटि ने आराधनासार नामक श्रुत की
आचार्यों को नो-आगमभाव नमस्कार है। है। ये प्रतिभाशाली महान आचार्य थे, यह रचना की है। श्रुत के क्षेत्र में मूल श्रुत के समान
सम्यक् श्रुत के प्रकाशक वे तो धन्य हैं ही, इनके कषायप्राभृत पर लिखे गये वृत्तिसूत्रों | इसकी भी प्रतिष्ठा है।।
उनकी षट्खण्डागमस्वरूप यह अनुपम कृति (चूर्णिसूत्रों) से ही ज्ञात होता है। वर्तमान में श्रावकाचार का प्रतिपादन करने वाला
भी धन्य है। उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति इनकी अविकल | प्रथम श्रुतग्रन्थ रत्नकरण्डश्रावकाचार है। यह 'रचना है यह कहना तो कठिन है, पर इतना आचार्य समन्तभद्र की कृति है, जिसका मूल
अनुपलब्ध चार टीकाएँ अवश्य है कि इसके सिवा एक त्रिलोकप्रज्ञप्ति आधार उपासकाध्ययनांग है। इसके बाद षट्खण्डागम का समस्त जैन वाङ्मय और होनी चाहिए। सम्भव है उसकी रचना अनेक अन्य आचार्यों और विद्वानों ने में जो महत्त्वपूर्ण स्थान है और उनमें इन्होंने की हो।
गृहस्थधर्म पर अनेक ग्रन्थों की रचनायें की | जीवसिद्धान्त तथा कर्मसिद्धान्त का जैसा ___यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि |
विस्तार से सांगोपांग विवेचन किया गयाहै सम्यक् श्रुत के अर्थकर्ता तीर्थकर केवली होते प्रथमानुयोग में महापुराण, पद्मपुराण उसे देखते हुए इतने महान् ग्रन्थ पर सबसे हैं और ग्रन्थकर्ता गणधरदेव होते हैं। इस तथ्य | और हरिवंशपुराण प्रसिद्ध हैं। इनकी रचना भी पूर्व आचार्य वीरसेन ने ही टीका लिखी होगी, को ध्यान में रखकर आनुपूर्वी क्रम से विचार | यथासम्भव परिपाटी क्रम से आये हुए अंग- यह बुद्धिग्राह्य प्रतीत नहीं होता। इन्द्रनन्दि के करने पर विदित होता है कि सिद्धान्त-ग्रन्थों पूर्वश्रुत के आधार से की गई है। जिन आचार्यों श्रुतावतार पर दृष्टिपात करने से विदित होता और तदनुवर्ती श्रुत के अतिरिक्त अन्य जो ने इस श्रुत को सम्यक् प्रकार से अवधारण है कि सर्व प्रथम षट्खण्डागम और कषायभी श्रुत वर्तमानकाल में उपलब्ध होता है | कर निबद्ध किया है उनमें आचार्य जिनसेन प्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरुपरिउसके रचयिता आचार्यों ने परिपाटी क्रम से (महापुराण के कर्ता), आचार्य रविषेण पाटी से कुण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दि मुनि को प्राप्त हुए श्रुत के आधार से ही उसकी रचना (पद्मपुराण के कर्ता) और आचार्य जिनसेन प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खकी है। इसलिए यहाँ पर कुछ प्रमुख श्रुतधर (हरिवंशपुराण के कर्ता) मुख्य हैं। ण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार आचार्यों का नाम-निर्देश कर देना भी इष्ट है इस तरह चारों अनुयोगों में विभक्त श्लोकप्रमाण परिकर्म नाम की एक टीका जिन्होंने अन्य अनुयोगों की रचना कर समग्र मूल श्रुत की रचना आनुपूर्वी से प्राप्त लिखी। यह तो स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दि ने प्रकृत सर्वप्रथम श्रुत के भंडार को भरा है। अंगपूर्वश्रुत के आधार से ही इन श्रुतधर में जिन पद्मनन्दि मुनि का उल्लेख किया है द्रव्यानुयोग को सर्वप्रथम पुस्तकारूढ़ करने आचार्यों ने की है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए। वे प्रातःस्मरणीय कुन्दकुन्द आचार्य ही होने वाले प्रमुख आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इनकी और जैन परम्परा में पूर्व-पूर्व श्रुत की अपेक्षा ही चाहिए। इनके द्वारा रचित श्रुत की महिमा इसी से जानी उत्त-उत्तर श्रुत को प्रमाणं माना गया है। अतः इन्द्रनन्दि ने दूसरी जिस टीका का जा सकती है कि भगवान् महावीर और गौतम | सव्व इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही श्रुत उल्लेख किया है वह शामकुण्ड आचार्यकृत गणधर के बाद इनको स्मरण किया जाता है। की प्रामाणिकता स्वीकार करनी चाहिए। थी। वह छठे खण्ड को छोड़कर शेष पाँच उत्तरकाल में आचार्य गृद्धपिच्छ, बट्टकेर,
खण्डों और कषायप्राभृत इस प्रकार दोनों
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सिद्धान्त ग्रन्थों पर लिखी गयी थी। इसका नाम पद्धति था। भाषा प्राकृत, संस्कृत तथा कानड़ी थी। प्रमाण बारह हजार श्लोक था।
इन्द्रनन्दि ने तीसरी जिस टीका का उल्लेख किया है वह तुम्बुलूर ग्रामनिवासी तुम्बुर आचार्य कृत थी। यह महाबन्ध नामक छठे खण्ड को छोड़कर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों की टीका के रूप में लिखी गयी थी । नाम चूड़ामणि और प्रमाण चौरासी हजार श्लोक था। भाषा कानड़ी थी।
इन्द्रनन्दि ने चौथी जिस टीका का उल्लेख किया है वह तार्किकार्क समन्तभद्र द्वारा अत्यन्त सुन्दर मृदुल संस्कृत भाषा में महाबन्ध को छोड़ कर शेष पाँच खण्डों पर लिखी गयी थी। उसका प्रमाण 48 हजार श्लोक था ।
वर्तमान समय में हमारे समक्ष षट्खण्डागम के प्रारम्भ के पाँच खण्डों पर लिखी गयी एकमात्र धवला टीका ही उपलब्ध है। इसकी रचना सिद्धान्तशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और प्रमाणशास्त्र के पारगामी तथा भट्टारक पद से समलंकृत वीरसेन आचार्य ने की है। यह प्राकृत संस्कृत भाषा में लिखी गयी है। यह तो धवला टीका से ज्ञात होता है कि षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान पर यह टीका 18 हजार श्लोकप्रमाण है और चौथे वेदनाखण्ड पर 16 हजार श्लोकप्रमाण है। किन्तु इसका पूरा प्रमाण 72 हजार श्लोक बतलाया है। इससे विदित होता है कि दूसरे,
ये चार टीकाएँ हैं जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में किया है। किन्तु धवला टीका लिखते समय वीरसेन स्वामी के समक्ष आचार्य कुन्दकुन्द रचित परिकर्म को छोड़कर अन्य तीन टीकाएँ
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प्राचीनकथा
ऋद्धि और सिद्धि
उपस्थित थीं, यह धवला टीका से ज्ञान नहीं होता । उत्तर काल में इनका क्या हुआ यह कहना बड़ा कठिन है। परिकर्म भी वही है जिसका इन्द्रनन्दि ने परिकर्म टीका के रूप में उल्लेख किया है यह कहना भी कठिन है। धवला टीका
भारत देश महापुरुषों का देश रहा है। यहाँ आर्यजनों के निवास से इस क्षेत्र को आर्यक्षेत्र भी कहते हैं। इस भू-तिलक पर आर्यसंयमियों ने परीषह एवं उपसर्गों को विजितकर उत्तम ध्यान साधना की उनकी दृष्टि में कंचन और कांच, वन और शहर झोपड़ी और महल सभी समान थे। भर्तृहरि और शुभचन्द्र दो भाई थे । संसार से विरक्त हो, जंगल की ओर चल दिये। कारणवश दोनों का मार्ग में विछोह हो गया। एक भाई तापस साधुओं के मठ में पहुंचा और तापसी बन गया। दूसरा भाई शुभचन्द्र दिगम्बराचार्य के चरणों में पहुँच, दिगम्बर साधु बन गया। छोटे भाई ने बारह वर्षों तक अनेकानेक रसायन बनाने की कला, स्वर्ण बनाने की कला आदि सीखी और बड़े ही आनन्द से रहने लगा।
एक दिन बड़े भाई की स्मृति आयी। सभी सेवकों को भाई की खोज में भेजा। सेवकों ने देखा एक विशाल चट्टान पर एक योगी ध्यानस्थ विराजमान हैं। पहचान लिया यही है शुभचन्द्र ! लेकिन तन पर कपड़ा नहीं, रहने को मकान नहीं, कैसी दीनावस्था इनकी है ! सभी सेवकों ने प्रार्थना की, "आपके भाई बहुत दुखी हैं। आप इतने दरिद्री क्यों बने हुए हैं? चलो, आपके भाई ने बुलाया है अन्यथा यह स्वर्ण बनाने का रसायन है इसे लेकर आप अपनी दरिद्रता दूर करें। "
योगीराज मुस्कराये सारा रसायन भूमि पर गिरा दिया।
मई 2001 जिनभाषित 14
तीसरे और पाँचवें खण्ड को मिलाकर तीन खण्डों तथा निबन्धन आदि 18 अनुयोगद्वारों
पर सब मिला कर इसका परिमाण 38 हजार श्लोक हैं। यहाँ यह निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि निबन्धन आदि 18 अनुयोगद्वारों पर आचार्य पुष्पदन्त भूतबलिकृत सूत्ररचना नहीं है। इसलिए वर्गणाखण्ड के अन्तिम सूत्र को देशामर्षक मानकर इन अठारह अनुयोगद्वारों का विवेचन आचार्य वीरसेन ने स्वतन्त्ररूप से किया है।
इसका 'धवला' यह नाम स्वयं आचार्य वीरसेन ने निर्दिष्ट किया नहीं जान पड़ता। यह टीका बहिग उपनामधारी अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्य के प्रारम्भकाल में समाप्त हुई थी और अमोघवर्ष की एक उपाधि 'अतिशय धवल' भी मिलती है। सम्भव है इसी को ध्यान में रखकर इसका नाम धवला रखा गया हो। यह धवल पक्ष में पूर्ण हुई थी, इस नामकरण का यह भी एक कारण हो सकता है।
● आचार्य श्री अभिनन्दनसागर सेवकों को बड़ा दुख हुआ। सारी घटना स्वामी भर्तृहरि को कह सुनायी। उन्होंने दो शीशा रसायन लिया और भाई के समीप पहुँचे। "भैया! यह क्या किया? देखो, मैंने बारह वर्ष में कितनी साधना की है. मैने सोना बनाने की कला सीख ली है। यह रसायन लीजिए और दरिद्रता को दूर कीजिए। "
वीर धीर महात्मा ने उत्तर दिया- "यदि तुम्हें सोना ही इकट्ठा करना था तो घर क्यों छोड़ा, वहाँ क्या कमी थी?" और रसायन की शीशियाँ उसी समय जमीन पर फेंक दीं। भर्तृहरि नाराज हुए"आपने मेरी बारह वर्ष की मेहनत मिट्टी में मिला दी आपने क्या किया है? केवल दरिद्री बन गये हैं। खाने पीने का भी ठिकाना नहीं है । बताओ, कोई सिद्धि की हो तो?"
मुनि शुभचन्द्र जी ने उसी समय अपने पैरों की धूलि उठायी और चट्टान पर फेंक दी सारी चट्टान स्वर्णमय हो गयी। भर्तृहरि आश्चर्यचकित हुए। धन्य है भाई आपकी साधना । मुनिराज ने कहा - 'ले लो कितना सोना चाहिए ?"
'मुझे सोना नहीं चाहिए। मुझे तो अपने समान ही बना लीजिए।' भर्तृहरि दिगम्बर साधु बन गये। आचार्य कहते हैं- जो आर्य पुरुष निश्छल साधना में तत्पर पर हो पंचेन्द्रिय विजय कर, विषय कषायरूपी घोड़े पर सवार हो, लगाम को पकड़, मन-वचनकार्य को नियंत्रित करते हैं, उन्हें नाना प्रकार की ऋद्धियाँ स्वतः ही मिलती है।
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कषायों की प्रशमता और परिणामों की
समता का नाम 'सल्लेखना'
मुनिश्री अजितसागर एक ऐसा नाम जिसके नाम के
साधना संयमी साधक के जीवन का शब्दों में प्रकाश की विराटता समाई आचार्यश्री ज्ञानसागर जी के 29वें समाधि
अंतिम लक्ष्य होता है जिसे पाने के लिए हुई है, तो उसके जीवन में अज्ञानरूपी दिवस 23 मई 2001 के संदर्भ में आचार्यश्री
काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया आदि अंधकार का समावेश कैसे हो सकता | विद्यासागर जी के सुशिष्य मुनिश्री अजितसागर जी
कषायों का त्याग कर समता की साधना है? जिसके अंदर संयम, शील का | का विशेष आलेख
वीतरागता की उपासना के साथ करता पावन सागर लहराया हो, ऐसा ज्ञान
- है। किसी की धारणा हो सकती है कि का आराधक, हरक्षण जिसके जीवन का लक्ष्य ज्ञानोदधि का मंथन | सल्लेखना की साधना आत्मघात है। यह सल्लेखनामरण आत्मघात चिन्तन करना था, ऐसा पावन नाम ज्ञानसागर था। जिसके अंदर मान | नहीं, यह तो आत्मसात् करने की बात है। आत्मघात तो निराशावादी नहीं, सम्मान की चाह नहीं, यदि कुछ चाह थी जीवन के प्रत्येक क्षण | लोग ही किया करते हैं, लेकिन सल्लेखना की साधना तो उत्साहपूर्वक पर, आत्मकल्याण की भावना एवं जिनवाणी की उपासना करने की | होती है। सल्लेखना के साधक जैन मुनि व श्रावक के लिए कहा हैथी। जिनकी प्रत्येक चर्या से ज्ञान की शिक्षा मिला करती, ऐसे | सर्व प्रथम तो कषायों को कृश करना बाद में काय को कृश करने महानात्मा से हजारों जीवों के कल्याण का स्रोत मिला, जिनकी का नाम सल्लेखना है। कषायों की प्रशमता और परिणामों में समता गंभीरमुद्रा, शांत छबि, वैराग्यमूर्ति, वीतरागता के महामहिम आचार्य | के साथ ही सल्लेखना की साधना होती है। संकल्प-विकल्प एवं श्री ज्ञान सागर जी महाराज का समाधि दिवस। कालजयी व्यक्तित्व | संवलेश परिणामों का त्याग करने के बाद अपनी देह को कृश करने के धनी का परिचय इन पंक्तियों के साथ देना चाहता हूँ
की बात होती है। सल्लेखना जाग्रत होकर ही की जाती है अतः यह कुछ लोग हैं की वक्त के साँचे में ढल गये।
आत्मघात नहीं है। कुछ लोग थे कि वक्त के साँचे बदल गये।
संक्षिप्त परिचय आचार्यश्री ज्ञानसागर जी का व्यक्तित्व वक्त के साँचे में रहते अपने मन में डूबकर पाले सुरागे जिन्दगी।। हुए, वक्त का साँचा बदलने वाला था। संसार में मृत्यु ऐसी वस्तु तु अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन॥ है जो किसी को क्षमा नहीं करती। लोकव्यवहार में कहा जाता है, 'मृत्यु | दुनिया को अपना न बनाकर, अपने आपको समझकर अपने
और ग्राहक का कोई भरोसा नहीं रहता है, कब आ जाये,' इसलिये | बने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का बाल्यकाल उदासीन सभी व्यक्ति मृत्यु से डरते हैं, लेकिन इस महानात्मा को मृत्यु से | वृत्तिमय था। पिता श्री चतुर्भुज जी एवं माता श्री घृतवरी देवी ने बालक भय नहीं था, निर्भय होकर मृत्यु को आमंत्रण दिया, उसे बुलाया और | का नाम भूरामल रखा, दूसरा नाम शांति कुमार भी था। जैन दर्शन प्रेम से गले लगाया था। ज्येष्ठ मास की भीषण तपन, वह भी राजस्थान | एवं अन्य दर्शनों के अध्ययन के प्रति विशेष लगन आपके अंदर थी। की उस मरुभूमि की तपन जहाँ पर उस समय तीन साल से अकाल | परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि आपको बनारस भेज का वातावरण बना था, जहाँ पर प्रत्येक 5-10 मिनिट पर व्यक्ति कर अध्ययन करा सके। लेकिन आप बनारस गये और गमछा आदि पानी-पानी चिल्लाता हो, ऐसी भीषण तपन में 3 दिन तक चारों प्रकार बेचकर जीविकोपार्जन करते हुए जैन दर्शन, न्याय एवं भारतीय दर्शनों के आहार का त्याग कर, आत्म ध्यान में लीन और आत्मचिन्तन का का अध्ययन उच्च कोटी के विद्वानों से बनारस में किया। संस्कृत नीर ही जिनके अंदर शीतलता उत्पन्न कर रहा था। और ऐसे समय व्याकरण का विशेष अध्ययन कर, जयोदय, वीरोदय, भाग्योदय में आपसे दीक्षित प्रथम शिष्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आदि जैसी महान कृतियाँ संस्कृत साहित्य को दी। आपने बालब्रह्मचारी अपने गुरु को सजग बनाये रखे हुए थे। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी रहकर संयम को धारण करके मोक्षमार्ग पर चलना प्रारंभ किया। आपने ने उस समय अपने समतारूपी निलय में बास करते हुए देह और | आचार्य श्री वीरसागर जी से सन् 1955 में क्षुल्लक दीक्षा ली, और आत्मा के चिन्तन में लीन रहते हुए, उस ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से आषाढ़ कृष्णा द्वितीय वि.सं. वि.सं. 2030 शुक्रवार 1 जून 1973 को प्रातः काल 10 बजकर 2016 में मुनि दीक्षा ली। ऐसे ज्ञानसागर जी महाराज ने जैन समाज 50 मिनिट पर नसीराबाद (राजस्थान) में अपनी देह का त्याग के लिये 24-25 जैन साहित्यकृतियाँ दी और आचार्य श्री विद्यासागर समाधिमरणपूर्वक किया था।
जी महाराज जैसी अनुपम चेतनकृति प्रदान की। ऐसे महान साधक जैन मुनि का जीवन अनोखा होता है। वह अपने शरीर को एक का पुण्यतिथि-महोत्सव हम सबके लिये देह से विदेही बनने की याद पड़ौसी की तरह मानता है और उसकी रक्षा-सुरक्षा करता है। जब तक दिलानेवाला एवं आत्मसाधना के साथ आत्मकल्याणरूपी समाधिमरण यह शरीर चर्या में सहयोग देता है, तब तक वह आवश्यकता के का रहस्य बताने वाला है। ऐसे अप्रतिम योगी के चरणों में नमन करता अनुसार उसे खिलाता-पिलाता है। जब कमजोर होने लगता है, तो | हूँ इन पंक्तियों से..... इसे छोड़ने का निश्चय करता है, और धीरे-धीरे काय को कृश करता
तरणि ज्ञानसागर गुरी तारो मुझे ऋषीश। हुआ सल्लेखना की साधना करता है। जैन दर्शन में सल्लेखना की
करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष।
-मई 2001 जिनभाषित 15
पर व्यक्ति
बेचकर जान उच्च कोल
' और ऐसे का कामाविकोपार्ज लकिन आप
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जैन आचार में इन्द्रियदमन का मनोविज्ञान
• प्रो. रतनचन्द्र जैन द्वारा सुझाई गई यह दवा रोग से भी भयंकर है।
न सिद्धान्त में वीत
जैन आचार शास्त्र में इच्छाओं से मुक्ति के दो उपाय बतलाये गये हैं: विषयों से वैराग्य और इंद्रियदमन । इन्द्रियदमन का अर्थ है इन्द्रियों को बलपूर्वक विषयभोग से दूर रखना। इसे इन्द्रियनिग्रह और इन्द्रियसंयम भी कहते हैं । किन्तु आधुनिक युग के प्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने दमन की कटु आलोचना की है। उसने इसे समस्त मानसिक और शारीरिक विकृतियों का कारण बतलाया है और उन्मुक्त भोग की सलाह दी है। किन्तु उसकी दवा रोग से भी भयंकर है। इच्छानिवृत्ति में इन्द्रियदमन की भी मनोवैज्ञानिक भूमिका है। उसका उद्घाटन करता है यह आलेख |
एकमात्र साधन माना गया है। वीतरागता का लक्षण है समस्त शुभाशुभ इच्छाओं की निवृत्ति । अतः मुक्ति की सारी साधना इच्छाओं के विसर्जन की साधना है। निराकुलतारूप सच्चे सुख की प्राप्ति भी इच्छाओं के अभाव से होती है । इच्छाएँ
जितनी कम होंगी, निराकुलता का अनुभव उतना ही अधिक होगा। जब इच्छाएँ पूर्णतः समाप्त हो जाती हैं तब पूर्ण निराकुलता का आविर्भाव होता है।
जैन आचार शास्त्र में इच्छाओं से मुक्ति के दो उपाय बतलाये गये हैं: विषयों से वैराग्य और इन्द्रियदमन । इन्द्रिय दमन का अर्थ है इन्द्रियों को बलपूर्वक विषयभोग से दूर रखना। इसे इन्द्रियनिग्रह और इन्द्रियसंयम भी कहते हैं। मनीषियों ने कहा है
जो पुण विसयविरत्तो अप्पणां सव्वदो वि संवरइ । मणहरविसहितो तस्स फुडं संवरो होदि ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा - 101 'शम दम तैं जो कर्म न आवैं सो संवर आदरिये।' छहढाला 3/9 (शम = राग का अभाव, दम = इन्द्रियदमन) दमन की आलोचना
किन्तु आधुनिक युग के प्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने दमन की कटु आलोचना की है। उसने इसे सभ्य समाज का सबसे बड़ा अभिशाप बतलाया है और कहा है कि सभ्य संसार की जितनी भी मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ है, जितनी हत्याएँ और आत्महत्याएँ होती हैं, जितने लोग पागल होते हैं, जितने पाखण्डी बनते हैं उनमें अधिकांश का कारण इच्छाओं का दमन है। इच्छाओं के दमन से व्यक्तित्व अंतर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है। प्राकृतिक मन और नैतिक मन में संघर्ष छिड़ जाता है। प्राकृतिक मन भोग की इच्छा उत्पन्न करता है, नैतिक मन उसे दबाने का प्रयत्न करता है। इस संघर्ष में इच्छाएँ दब जाती हैं, पर नष्ट नहीं होतीं। वे गूढ़ (अचेतन) मन की गहराइयों में चली जाती हैं और ग्रन्थि बनकर बैठ जाती हैं। ये ग्रन्थियाँ चरित्र में विकृति उत्पन्न करती हैं, मनुष्य को रुग्ण, विक्षिप्त, छद्मी या भ्रष्ट बना देती हैं। इच्छाओं के दमन का परिणाम हर हालत में विनाशकारी है। इसलिए फ्रायड ने दमन का पूरी तरह निषेध किया है और उन्मुक्त कामभोग की सलाह दी है। यद्यपि उसके
1 मई 2001 निभाषित 16
गीता में भी कहा गया है कि जो मूढात्मा इन्द्रियों को बलपूर्वक विषयभोग से वंचित रखता है वह मन ही मन विषयों का स्मरण करता रहता है। इस प्रकार वह मायाचारी बन जाता है
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
गीता 3/6
जैनाचार्य वट्टकेर ने भी मूलाचार में बतलाया है कि जिसका विषयों से राग समाप्त हो गया है वही वास्तव में संयमी है। जो बलपूर्वक इंद्रियों को विषयों से दूर रखता है वह संयमी नहीं है, क्योंकि उसका मनरूपी हाथी विषयों में रमण करता रहता है। इसलिए उसे सुगति प्राप्त नहीं होती
भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्य सुगई हो । विसयवणरमणसीलो धरियव्वो तेण मणहत्थी ॥ मूलाचार, 995
पं. टोडरमल जी ने भी क्षमता के अभाव में जो बलपूर्वक उपवासादि किया जाता है उसके पाँच दुष्परिणाम बतलायें है- ( 1 ) क्षुधादि की पीड़ा असह्य होने पर आर्तध्यान उत्पन्न होता हैं, (2) मनुष्य प्रकारान्तर से इच्छा तृप्ति की चेष्टा करता है, जैसे प्यास लगने पर पानी तो न पिये किन्तु शरीर पर जल की बूँदे छिड़के, (3) पीड़ा को भुलाने के लिए जुआ आदि व्यसनों में चित्त लगाता है, (4) प्रतिज्ञा से च्युत हो जाता है, (5) उपवासादि की प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर भोजनादि में अति आसक्ति पूर्वक प्रवृत्त होता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक 7/238240)
यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि इन्द्रियदमन इतना हानिकारक है तो जैन आचारसंहिता में उसे आवश्यक क्यों बतलाया गया है? और जब विषयों से वैराग्य होने पर इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं तब इन्द्रिय दमन का औचित्य क्या है? अथवा यदि इच्छाओं का विसर्जन केवल विषयविराग से संभव नहीं है, इसके लिए इन्द्रियदमन भी आवश्यक है तो इच्छाओं के विसर्जन में उसकी मनोवैज्ञानिक भूमिका क्या है? इसी की गवेषणा इस आलेख में की गयी है। इन्द्रियदमन की मनोवैज्ञानिकता
सामान्य धारणा यह है कि इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति सर्वथा मनोगत विषयवासना पर आश्रित है। मन की विषयासक्ति के कारण ही इच्छाएँ पैदा होती हैं और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त
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होती हैं। इसलिए मन के विषय-विरक्त हो जाने पर इच्छाएँ समाप्त | यही कारण है कि कई बार लोग बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि हो जाती हैं। अतः इन्द्रियों पर अलग से निग्रह आवश्यक नहीं है। की हानियों से सचेत होकर जब उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करते हैं तो इच्छाओं के दो स्रोत
बार-बार कोशिश करने पर भी नहीं छोड़ पाते। इसीलिए जहाँ यह
सत्य है कि इन्द्रियों के विषय-निवृत्त हो जाने पर भी मन का विषयपर यह धारणा तथ्य के विपरीत है। यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से
विरक्त होना अनिवार्य नहीं है, वहाँ यह भी सत्य है कि मन के विषयदेखें तो पायेंगे कि इच्छाओं से मुक्ति के लिए विषयों से विरक्ति
विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों का विषय-निवृत्त होना निश्चित नहीं ही प्रर्याप्त नहीं है। क्योंकि इच्छाएँ केवल विषयासक्ति से ही उत्पन्न
है। यद्यपि यह सुनने में कुछ विचित्र लगेगा, क्योंकि हमारे मन में नहीं होती, इन्द्रियों के व्यसन या भोगाभ्यास से भी उत्पन्न होती हैं।
यही धारणा है कि मन ही इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति का एकमात्र हेतु यह एक शुद्ध शारीरिक या स्नायुतन्त्रीय प्रक्रिया है। मूलरूप से इच्छाएँ
है और उसके विरक्त हो जाने पर इन्द्रियों का भी विषयनिवृत्त हो जाना विषयराग से ही उत्पन्न होती हैं, किन्तु तृप्ति के लिए जब इन्द्रियाँ
अनिवार्य है। पर अनुभव ऐसा नहीं कहता। मन के विषय-विरक्त हो विषयभोग करती हैं तब नाड़ीतन्त्र में भोग का एक संस्कार पड़ता
जाने पर भी इन्द्रियों के अभ्यास-वश विषयेच्छा उत्पन्न होती रह है। यह संस्कार जब बार-बार आवत्त होता है तब वह एक व्यसन
सकती है, जैसे कि चाय आदि की आदत पड़ जाने पर उनसे विरक्ति या लत में परिणत हो जाता है। तब इन्द्रियों में सम्बन्धित विषय के
होने के बावजूद उनके भोग की इच्छा उत्पन्न होती रहती है। इस तथ्य भोग की इच्छा अपने आप उत्पन्न होने लगती है। जिस समय, जिस
को देखते हुए गीता का यह कथन बिलकुल सत्य प्रतीत होता है कि वस्तु के भोग का अभ्यास इन्द्रियों को हो गया है उस समय उस
'काम' (इच्छा) का निवास मन, बुद्धि और इन्द्रिय तीनों में रहता वस्तु की प्राप्ति के लिए ऐन्द्रियक नाड़ी तन्त्र में उद्दीपन होता है। इससे शरीर और मन में व्याकुलता की अनुभूति होती है जिससे मुक्त होने
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। के लिए उस वस्तु का भोग आवश्यक हो जाता है। इस उद्दीपन को
एतैर्विमोहत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनाम्॥ गीता 3/40 'तलब' कहते हैं। उदाहरण के लिए जिन्हें बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू. चाय, शराब आदि की लत पड़ जाती है उनके एन्द्रियक तन्तुओं में
| व्यसननिवृत्ति अभ्यास से निर्धारित समय पर इन द्रव्यों के भोग की उत्तेजना पैदा होती है और इस प्रकार इच्छाओं के दो स्रोत हैं विषयराग तथा तब उन्हें बरबस इनका सेवन करना पड़ता है। इसी प्रकार जिन्हें अधिक | इन्द्रियव्यसन। विषयराग तो ज्ञान से नष्ट हो जाता है, इन्द्रिय-व्यसन भोजन करने की या अधिक कामसेवन की आदत पड़ जाती है उनकी | की निवृत्ति कैसे हो? इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। उनकी व्यवस्था पूर्णतः इन्द्रियाँ उतने ही भोजन और उतने ही कामसेवन की माँग करने लगती भौतिक या स्नायविक है। उनकी अभ्यासजन्य स्नायविक व्यवस्था हैं। इसे मनोवैज्ञानिक भाषा में प्रतिबद्धीकरण (Conditioning) | को ज्ञान से कैसे बदला जा सकता है? नाड़ीतन्त्र आध्यात्मिक सत्य कहते हैं।
और दार्शनिक तर्कों को कैसे समझे? तर्कों को चेतन तत्त्व ही समझ इन्द्रियों का एक अलग विधान
सकता है। जो विकार अज्ञानजन्य हो उसे ही ज्ञान से नष्ट किया जा
सकता है, किन्तु जो विकार अभ्यासजन्य हो उसे ज्ञान से समाप्त भोगाभ्यास हो जाने पर इन्द्रियों का अपना एक अलग विधान
करना कैसे सम्भव है? यदि मन की कोई धारणा गलत हो तो उसे बन जाता है। पहले वे मन के अनुसार चलती हैं, बाद में मन को
केवल समझ से बदला जा सकता है, लेकिन यदि तन की कोई आदत अपने अनुसार चलाने लगती हैं, और उनकी चालक शक्ति इतनी
गलत हो तो उसे केवल समझ से कैसे बदला जा सकता है? जिन्हें प्रबल हो जाती है कि न चाहते हुए भी वे मन को बलपूर्वक अपनी
बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि की लत पड़ गयी है उनके नाड़ीतन्त्र ओर खींच लेती हैं। यह तथ्य तो सर्वविदित है कि मन ही हमारे समस्त
में उत्पन्न होने वाली तलब (उत्तेजना) क्या इन पदार्थों को हानिकारक कार्यों का स्रोत हैं, मन ही इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त
समझ लेने मात्र से मिट सकती है? नहीं, समझ उत्पन्न होने के बाद करता है, पर इस तथ्य पर शायद सबका ध्यान न गया हो कि इन्द्रियाँ
जब इस 'तलब' के अवदमन (उपेक्षा) का अभ्यास किया जायेगा भी मन को बलात् अपने विषयों की ओर आकृष्ट कर लेती हैं। गीता
तभी मिट सकती है। अर्थात् जब-जब इन मादक द्रव्यों की इच्छा में यह तथ्य स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है
उत्पन्न हो तब-तब उस इच्छा को पूर्ण न करने का प्रयास किया जाए यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
तभी नाड़ीतन्त्र में विकसित 'तलब' के संस्कार धीरे-धीरे शिथिल इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ 2/60
होकर नष्ट हो सकते हैं। इसके लिए कोई प्रतिपक्षी उपाय भी अपनाया - हे अर्जुन! समझदार मनुष्य भी इन इन्द्रियों को वश में करने
जा सकता है, जैसे बीड़ी, तम्बाकू, आदि की तलब उत्पन्न होने पर का बार-बार प्रयत्न करे तो भी ये प्रचण्ड इन्द्रियाँ मन को जबर्दस्ती
किसी अहानिकर वस्तु का सेवन किया जाय या चित्त को किसी रुचिकर विषयों की ओर खींच ले जाती हैं।
कार्य में व्यस्त कर दिया जाय। पर व्यसनजन्य इच्छा को किसी भी । पंडित आशाधर जी ने भी अनगारधर्मामृत में इस मनोवैज्ञानिक |
दशा में सन्तुष्ट न किया जाए। इस कार्य में आरंभ में कष्ट तो बहुत सत्य को अनावृत किया है -
होगा, लेकिन हम पायेंगे कि धीरे-धीरे इन्द्रियों की व्यसनजन्य उत्तेजना इष्टमिष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भटीकृताः।
तृप्ति की सामग्री न मिलने से क्षीण होती जा रही है और नाड़ीतन्त्र यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयन्ति बहिर्मनः॥
की विकृत व्यवस्था में बदलाव आ रहा है। इस प्रकार वह व्यसन अर्थात् यदि इन्द्रियों को इष्ट, मिष्ट और स्वादिष्ट भोजन से
एक दिन पूर्णतः समाप्त हो जायेगा। समस्त इन्द्रियविषयों के अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया जाता है तो वे मन को बाह्य पदार्थों
अनावश्यक भोग की आदतें इसी प्रकार मिटायी जा सकती हैं और में भ्रमण कराती हैं।
-मई 2001 जिनभाषित 17
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'इसी प्रकार इंद्रियों को अनावश्यक विषयभोग के व्यसन से बचाया
जा सकता है। इसे ही जैन आचार में दम या इन्द्रियदमन कहा गया है और इसी कारण इन्द्रियदमन की आवश्यकता प्रतिपादित की गयी
गीत तुम बजाय इसके कि कोई सूर्य जनमते
• अशोक शर्मा
इन्द्रियदमन अपरिहार्य
फ्रायड के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रचार होने के बाद 'दमन' शब्द खतरनाक मालूम होने लगा है, पर इच्छाओं के विसर्जन में इसकी मनोवैज्ञानिकता सिद्ध है। रागजन्य इच्छाओं को ज्ञानजन्य वैराग्य से विसर्जित किया जा सकता है, किन्तु व्यसनजन्य और गृद्धिजन्य (इन्द्रियलोभजन्य) तथा अन्य दैहिक उत्तेजनाजन्य अनावश्यक
तुम बजाय इसके कि कोई सूर्य जनमते, इच्छाओं से मुक्ति पाने के लिए इन्द्रिय दमन अपरिहार्य है।
ड्योढ़ी की जलती कन्दीलें बुझा गये। हानिकारक नहीं इन्द्रियदमन अर्थात् शरीर में उत्पन्न होने वाली अस्वाभाविक
छत पर चढ़ते देखा हो जिसने सूरज को एवं अनावश्यक उत्तेजनाओं को नियंत्रित करना हानिकारक नहीं है,
वह पूरब की प्रसव-वेदना क्या जाने? बल्कि स्वास्थ्यप्रद एवं शान्तिप्रद है। अस्वाभाविक एवं अनावश्यक
जो कैद उजाले की मुट्ठी में रहता हो इच्छाएँ एक दैहिक विकृति है। विषयभोग द्वारा विकृति का पोषण
वह अँधियारों के शिविर भेदना क्या जाने? अस्वाभाविक इच्छाओं की उत्पत्ति द्वारा आर्त्तभाव को जन्म देता है और आर्तभाव (मानसिक पीड़ा) अनेक मनोरोगों और शारीरिक तुम बजाय इसके कि कोई दुर्ग जीतते. व्याधियों को प्रतिफलित करता है। अतः अस्वाभाविक एवं
उठी हुई सारी संगीनें झुका गये। अनावश्यक उत्तेजनाओं को निष्क्रिय कर देने से आर्त्तभाव की उत्पत्ति का महान कारण निरस्त हो जाता है जिससे स्वास्थ्य और शान्ति की उपलब्धि होती है।
सपनों के लुटने का दुःख तुम क्या जानो उत्तेजनाओं का नियन्त्रण क्रमशः हाँ, ऐन्द्रिय उत्तेजनाओं का नियंत्रण क्रमशः किया जाना चाहिए।
आँख तुम्हारी टूटे सपने कब ढो पाई? जितने अंश में रागभाव विगलित होने पर चारित्रिक क्षमता उत्पन्न
खिलती बगिया पर अपना भी हक जता रहे हुई है उतने ही अंश में ऐन्द्रिय उत्तेजनाओं का दमन करना युक्त है।
स्वेद बहाते किन पाँवों में पड़ी बिवाई? ऐसा होने पर चारित्रिक विकृति के लिए अवकाश न रहेगा।
तुम बजाय इसके कि कोई चित्र बनाते, उन्मुक्त भोग दमन का विकल्प नहीं
कैनवास पर खिंची लकीरें मिटा गये। वैराग्यविहीन अथवा क्षमताविहीन इन्द्रियदमन से चारित्रिकविकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। उनसे बचने के लिए फ्रायड ने जो उन्मुक्त भोग का उपाय बतलाया है वह भारतीय आचार संहिता में अंगीकृत नहीं किया गया, क्योंकि यह तो उस औषधि के समान
अमृतघट ही जिन ओठों की प्यास रही हो, है जो रोगी को एक साधारण रोग से बचाने के लिए उससे भी भयंकर
वे शिवकण्ठों का गरल पचाना क्या जानें? रोग से ग्रस्त कर देती है। इच्छाओं का वैराग्यविहीन दमन जितना हानिकारक है उससे भी कहीं ज्यादा घातक उन्मुक्त भोग है। इसके
घाट पराये नाव लगा बैठे जो अपनी लोमहर्षक परिणाम हम अमेरिका जैसे स्वच्छन्द भोगी देशों में दिनोंदिन
वे पतवारों का धरम निभाना क्या जानें? बढ़ती हुई विक्षिप्तता और आत्महत्याओं के रूप में देख सकते हैं।
तुम बजाय इसके कि खतरा मोल उठाते निष्कर्ष यह है कि ऐन्द्रिय उत्तेजनाओं के शक्त्यनुसार क्रमिक
संघर्षों को तहखानों की राहें दिखा गये। दमन से इच्छाओं का नाड़ीतन्त्रीय या स्नायविक स्रोत निष्क्रिय हो जाता है। अतः इच्छाओं के विसर्जन में इन्द्रियदमन उतना ही
अभ्युदय निवास, 36/बी, मैत्री बिहार, मनोवैज्ञानिक साधन है जितना विषयों से वैराग्य।
सुपेला, भिलाई, दुर्ग (छत्तीसगढ़) 137, आराधना नगर
भोपाल-462003 मई 2001 जिनभाषित 18
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संस्मरण
छोटे मियाँ सुभान अल्लाह
• पं. मूलचन्द लुहाड़िया बात तब की है जब सन् 1976 में परम | ने भी आचार्यश्री को तनिक भी विचलित नहीं | जीवित रहना कठिन है। इस समय इनको बापूजनीय आचार्य विद्यासागर महाराज | किया। उस समय मैं वहाँ ही बैठा था। मैंने
बेहोश हो जाना चाहिए। किन्तु इनके चेहरे पर बुदेलखण्ड में प्रथम बार प्रवेश कर कटनी | भी पत्र पढ़ा, आचार्यश्री मौन, चिंतनलीन बैठे
खिला स्मित हास्य एवं दिव्य तेज इनके पहुँचे थे। कटनी पहुँचने से पूर्व ही आचार्य | थे। मैं, वातावरण की स्तब्धता को भंग करते जीवित बने रहने की घोषणा कर रहे हैं। डाक्टर श्री स्वयं तो अस्वस्थ थे ही किन्तु उनके हुए बोला- आचार्यश्री! क्षुल्लक जी की
साहब ने कहा मैं तो आश्चर्य चकित हूँ, इन गृहस्थ अवस्था के सहोदर एवं प्रथम साधु समाधि की स्थिति में तो आपको कटनी
महात्मा जी के आगे तो मेडिकल विज्ञान के शिष्य क्षुल्लक समयसागर जी भी कटनी | पधारना ही चाहिए। ऐसे अवसर पर तो नियमों | सिद्धांत फेल होते लग रहे हैं। आकर तीव्र ज्वर से पीड़ित हो गए। ज्वर की उपेक्षा करने की भी आगम आज्ञा देता
पंडित जी ने आगे कहा किन्तु आज निरंतर बना रहने लगा और 105-106 | है। आचार्यश्री ने मौन तोड़ा। कहने लगे अब
| प्रातः काल से क्षुल्लक जी के स्वास्थ्य में डिगरी को छूने लगा। चातुर्मास स्थापना का मेरा कटनी जाना संभव नहीं है। यदि कदाचित् आश्चर्य जनक परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है। समय निकट आ रहा था। आचार्य श्री के मन क्षुल्लक जी की समाधि का अवसर आ भी
ज्वर भी कम हुआ है और इन्होंने आहार के में नगरीय क्षेत्र को छोड़कर तीर्थक्षेत्र कुंडलपुर जाए तो पंडित जी भली प्रकार समाधि कराने
समय औषधि, दूध आदि भी लिया है। दिन में चातुर्मास करने के भाव थे। किन्तु स्वयं में सक्षम हैं। उन्होंने मुझे कहा कि पंडित जी
में धीरे-धीरे स्थिति सुधरती सी लग रही है। की अस्वस्थता एवं क्षुल्लक जी का तीव्र ज्वर | को लिख दो कि समाधि का अवसर आने पर
हम अंदर कमरे में क्षुल्लक जी के दर्शन करने कुंडलपुर के लिये प्रस्थान करने में बाधक बन | आप आगमानुसार समाधि करा देवें। मैं
| पहुँचे। इच्छामि निवेदन कर बैठे। क्षुल्लक जी रहे थे। आचार्य श्री परिस्थितियों के द्वंद्व में जानता था कि आचार्य श्री प्रायः अपना निर्णय के भीतर का अध्यात्म आधारित दृढ़ आत्म निर्णय नहीं कर पा रहे थे। अंत में अंतर में नहीं बदलते हैं। अतः उनसे अधिक आग्रह विश्वास चेहरे पर खिली स्मित मुस्कान एवं बैठे सहज निस्पृही संत की विजय हुई और | करना सार्थक नहीं है। मैंने आचार्यश्री से कहा तेज के रूप में बाहर दिखाई दे रहा था। इस अध्यात्म के संबल से उत्पन्न साहस के बल यदि आपकी आज्ञा हो तो हम कटनी चले
अध्यात्म के आगे रोग घुटने टेक देता है। पर आचार्यश्री क्षुल्लक समय सागर जी को | जाएँ। आचार्यश्री ने सहज भाव से उत्तर दिया
असाता वेदनीय असहाय हो भाग खड़ा होता तीव्र अस्वस्थता की दशा में कटनी में ही जैसी तुम्हारी इच्छा।
है। हमें तो क्षुल्लक जी महाराज का अंग-अंग छोड़कर कुंडलपुर की ओर बिहार कर गए। हम दोनों कार में बैठकर सायंकाल
उनके स्वास्थ्य में सुधार के समाचार दे रहा भाई का मोह न सही, किन्तु अपने प्रथम युवा कटनी आ गए। कार कटनी में शिक्षा संस्थान
था। हमारे पूछने पर क्षुल्लक जी बोले मैं शिष्य का राग भी उस महान संत को अपने भवन के सामने रुकी, जहाँ क्षुल्लक जी
बिल्कुल ठीक हूँ। निश्चय से नहीं डिगा सका। विराज रहे थे। बाहर दालान में पंडित जी, जो
| पंडित जी अपने कहे हुए मुहावरे के आचार्यश्री के कुंडलपुर पहुँचने के 1-2 सामायिक से उठे ही थे, मिल गए। मैंने पूछा. | प्रसंग में बोले कि बड़े महाराज आचार्यश्री की दिन बाद ही मैं और मेरे साथी दीपचंद जी पंडित जी क्षुल्लक जी महाराज कैसे हैं?'
सहन शीलता तो हमने देखी कि वे अपनी चौधरी वहाँ पहुँच गए थे। आचार्यश्री के पंडित जी का दिया हुआ वह उत्तर आज भी
अस्वस्थ दशा में भी कटनी से बिहार कर प्रस्थान करने के बाद कटनी में क्षुल्लक जी | मेरे कानों में गूंजता रहता है। पंडित जी बोले
कुंडलपुर पहुँच गए, किन्तु इन छोटे महाराज का स्वास्थ्य अधिक खराब होने लगा। एक | 'बड़े मियाँ सो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभान
क्षुल्लक जी की सहनशीलता, धैर्य, समता दिन जब क्षुल्लक के स्वास्थ्य की स्थिति | अल्लाह'। उन्होंने आगे कहा कल क्षुल्लक जी देखकर तो हम सब आश्चर्य चकित थे। शरीर अत्यंत चिंता जनक बनी तो पं. जगन्मोहन | की स्थिति अत्यंत चिंता जनक हो गई थी। | में 106-107 डिग्री ज्वर और चेहरे पर लाल जी शास्त्री ने पत्र लेकर एक व्यक्ति को ज्वर ने 107 डिग्री को छू लिया था। कटनी
स्मित हास्य मानों कुछ हुआ ही न हो। ये छोटे कार से कुंडलपुर भेजा। पत्र में पंडितजी ने | में वर्धा से संत बिनोबा भावे के व्यक्तिगत
महाराज तो मौत के मुंह में पहुँच कर इस तरह आचार्य श्री से निवेदन किया था कि क्षुल्लक डाक्टर आए हुए थे। हमने उनको क्षुल्लक जी
मुस्कराते रहे कि मौत भी डर कर भाग गई। जी महाराज अत्यंत अस्वस्थ हैं, समाधि की महाराज को देखने बुलाया। डाक्टर साहब ने
इसीलिए मैंने कहा था 'बड़े मियाँ तो बड़े स्थिति बन गई है अतः वे तुरंत कटनी पधार क्षुल्लक जी की नाड़ी, हृदय, रक्त चाप आदि
मियाँ, छोटे मियाँ सुभान अल्लाह।' जावें। पंडित जी ने सलाह दी थी कि ऐसी | का परीक्षण किया और कुछसमय बाद बाहर मदनगंज-किशनगढ़- 305801 आपातकालीन परिस्थिति में आप कार का | आकर बोले भाई स्थिति तो बहुत गंभीर है।
(जिला- अजमेर) राजस्थान उपयोग कर लेवें। पत्र के इन गंभीर समाचारों | हमारे मेडिकल विज्ञान के अनुसार तो इनका |
-मई 2001 जिनभाषित 19
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'मूकमाटी' में प्रशासनिक एवं न्यायिक दृष्टि
• सुरेश जैन, आई.ए.एस.
आचार्य विद्यासा
रचनाकार ने अपेक्षा की आगर जी द्वारा विर_ 'मूकमाटी' आचार्य श्री विद्यासागर जी का युगान्तरकारी महाकाव्य |
है कि वे सिंहवृत्ति अपचित महाकाव्य मूकहै। महाकाव्य के साथ-साथ यह एक विश्वकोष भी है। 'महाभारत' के विषय
नायें। मानवीय हितों के माटी भारतीय संस्कृति में कहा गया है : 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से सम्बन्धित जो ज्ञान इसमें |
विपरीत सिद्धान्त विमुख की महत्त्वपर्ण धरोहर है।। है वही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं है।' ऐसा ही मकमाटी
होकर कोई समझौता न परमधाम नैनागिरि की के विषय में भी कहा जा सकता है। उसमें काव्यलक्षणभूत रसात्मकता तो | करें। मायाचार एवं आडंमाटी में मूकमाटी महा- है ही, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से संबंधित विभिन्न ज्ञातव्यों से भी बरों से स्वयं को अलग काव्य की पूर्णता की | परिपूर्ण है। प्रशासन और न्याय अर्थ और काम के अंग हैं। उन पर भी | रखते हुए सदैव विवेक जानकारी पूर्णता के कुछ समीचीन दिशानिर्देश मूकमाटी में उपलब्ध है। प्रस्तुत शोधपूर्ण आलेख में | पूर्ण निर्णय लेकर समाज ही क्षणों बाद प्राप्त कर | उन्हीं का अनुसंधान किया गया है।
में उच्च कोटि के प्रशाहमें हार्दिक प्रसन्नता
सनिक एवं न्यायिक मानहुई थी। इसके पूर्व वरिष्ठ विद्वानों, साहित्य- । स्थापित करना आवश्यक है जिससे ऊँचे पद | दण्ड स्थापित करें। यथाकारों एवंअपनी पत्नी विमला जैन, जिला एवं पर बैठकर उन्हें साधारण से साधारण व्यक्ति
पीछे से कभी किसी पर सत्र न्यायाधीश, के साथ बैठकर इस लेखक के साथ मानवीय व्यवहार करने में हीनता का धावा नहीं बोलता सिंह, ने नैनागिरि की सिद्धशिला पर विराजमान
अनुभव न हो। यदि राजनीतिज्ञ, न्यायविद गरज के बिना गरजता भी नहीं, आचार्य विद्यासागर जी के मधुर कण्ठ से इस और प्रशासक आचार्य श्री के संदेश का और/बिना गरजे/किसी पर बरसता महाकाव्य की अनेक पंक्तियाँ सुनने का शतांश भी अपने जीवन में उतार लें तो वे
भी नहीं अनुपम सौभाग्य प्राप्त किया था।
और हम लौकिक एवं आध्यात्मिक सम्पन्नता यानी मायाचार से दूर रहता है सिंह नैनागिरि में जनमी यह मूकमाटी | के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं। सिंह विवेक से काम लेता है, प्रत्येक मानव में शाश्वत जीवनमूल्यों की | मूकमाटी हमें ऐसे सूत्र उपलब्ध कराती
. सही कारण की ओर ही स्थापना कर संस्कृति के विकास में अपना | है जिनका अवलम्बन कर हम मानवता की
सदा दृष्टि जाती है सिंह की। महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। यह प्रत्येक
ऊँचाइयों का स्पर्श कर सकते हैं और अधिकांश न्यायिक एवं प्रशासनिक व्यक्ति को संजीवनी शक्ति प्रदान करती हुई राजनीति, न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकारी अपने शारीरिक सुख, पदोन्नति अपनी उत्कृष्ट वैचारिक क्रांति के द्वारा युगीन अंग बनकर राष्ट्र में सुख शान्ति का वातावरण
एवं वेतनवृद्धि के चिंतन में अहर्निश संलग्न जीवनादर्शों की स्थापना करती है। पिसनहारी निर्मित करने में अहम् भूमिका निभा सकते
रहते हैं। उनके लिये निम्नांकित पंक्तियाँ की मढ़िया में प्रारंभ हुई तथा पारसनाथ की
वास्तविक जीवन लक्ष्य निर्धारित करने की हैं। नीचे उन सूत्रों का उद्घाटन किया जा रहा समवशरण भूमि में पूरी हुई मूकमाटी विश्व | है।
प्रेरणा देती हैंके प्रत्येक प्राणी को विकास के समान एवं
भोग पड़े हैं यहीं/भोगी चला गया,
प्रशासकों के उत्थान के लिए अहंकारसमुचित अवसर उपलब्ध कराती है और
योग पड़े हैं यहीं/योगी चला गया, शून्यता एवं इंद्रिय संयम की सर्वप्रथम प्रकाश स्तंभ की भाँति उसके उत्कर्ष का पथ
कौन किसके लिए/धन जीवन के आवश्यकता हैप्रशस्त करती है।
लिए, विकास के क्रम तब उठते हैं, मानव धर्म के बिना राजनीति, न्याय
या जीवन धन के लिये?
जब मति साथ देती है, पालिका और कार्यपालिका पंगु होती हैं
मूल्य किसका/तन का या वेतन का,
जो मान से विमुख होती है, क्योंकि प्रत्येक व्यवस्था मानव को केन्द्र में
जड़ का या चेतन का?
और रखकर ही निर्मित की जाती है। व्यवस्था का
प्रत्येक अधिकारी को पुरुषार्थ एवं यह त्रिकोण समाज का आधारभूत एवं
विनाश के क्रम तब जुटते हैं, परिश्रम की प्रेरणा देते हुए पुरुषार्थ एवं परिश्रम महत्त्वपूर्ण अंग है। आज राजनीतिक, न्याय
जब रति साथ देती है,
के जीवंत शीर्ष पुरुष कहते हैं - एवं प्रशासकीय पंगुता अपने शिखर पर है।
जो मान से प्रमुख होती है।
बाहुबल मिला है तुम्हें, करो पुरुषार्थ हमें अपने राजनीतिज्ञों, न्यायविदों एवं उत्थान-पतन का यही आमुख है।
सही, प्रशासकों में मानवता के शाश्वत मूल्य | प्रशासकों एवं न्यायिक अधिकारियों से |
पुरुष की पहचान करो सही,
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परिश्रम के बिना तुम, नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह, प्रत्युत जीवन को खतरा है।
न्यायिक-प्रशासनिक अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह सही व्यक्ति पर अनुग्रह करे एवं समाज विरोधी आचरण को नियंत्रित
करे
शिष्टों पर अनुग्रह करना, सहज प्राप्त शक्ति का, सदुपयोग करना ही धर्म है।
और दुष्टों का निग्रह नहीं करना, शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म
राज्य शासन द्वारा अपने अधीनस्थ अल्प वेतनभोगी कर्मचारियों को पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ दी जावें और उन्हें विकास के अवसर उपलब्ध कराये जावें। इन सिद्धान्तों का चित्रण निम्नांकित पंक्तियों में उत्कृष्ट ढंग से किया गया है
थोड़ी सी/तन की भी चिन्ता होनी चाहिए, तन के अनुरूप वेतन अनिवार्य है, मन के अनुरूप विश्राम भी। मात्र दमन की प्रक्रिया से, कोई भी क्रिया, फलवती नहीं होती
जो कि महा अज्ञानता है,
प्राणदण्ड से औरों को तो शिक्षा दूरदर्शिता का अभाव,
मिलती है, पर के लिए नहीं,
परन्तु, जिसे दण्ड दिया जा रहा है, अपने लिए भी घातका
उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त। नहीं-नहीं-नहीं/अभी लौटना नहीं। दण्ड संहिता इसको माने या न माने अभी नहीं-कभी भी नहीं,
क्रूर अपराधी को, क्योंकि अभी/आतंकवाद गया नहीं, क्रूरता से दण्डित करना भी उससे संघर्ष करना है अभी
एक अपराध है, यह कृत संकल्प है अपने धृव पर दृढ़। न्याय मार्ग से स्खलित होना है। जब तक जीवित है आतंकवाद
न्याय शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धान्त शक्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती | है कि चोरी करने वाला तथा चोरी की प्रेरणा
देने वाला दोनों समान रूप से दोषी हैं। यह, ये आँखे अब/आतंकवाद को देख नहीं
आचार्य श्री इस सिद्धान्त से भी आगे बढ़कर सकती
उद्घोष करते हैंकि चोर को चोरी की प्रेरणा ये कान अब/आतंकवाद का नाम सुन
देने वाला चोर से अधिक दोषी हैनहीं सकते,
चोर इतने पापी नहीं होते, यह जीवन की कृत संकल्पित है कि
जितने की चोरों को पैदा करने वाले। उसका रहे या इसका
__राजनीति, प्रशासन और न्यायपालिका यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा।
राज्यशक्ति के महत्वपूर्ण स्तंभ है। मनुष्य को
इन शक्तिस्तंभों के विभिन्न पदों पर सदैव __अधिकारियों के लिए सन्त समागम
बने रहने की तृष्णा घेर लेती है। यह तृष्णा जीवन में संतोष के आविर्भाव का अमोध
अत्यधिक कष्ट दायक होती है। पद लिप्सा के उपाय है
दुष्परिणामों को कवि ने निम्न पंक्तियों में संत समागम की यही तो सार्थकता
रेखांकित किया है और उससे दूर रहने की
प्रेरणा दी हैसंसार का अन्त दिखने लगता है,
जितने भी पद हैं, समागम करने वाला भले ही,
वे विपदाओं के आस्पद हैं, तुरन्त संत संयत/बने या न बने
पद लिप्सा का विषधर वह इसमें कोई नियम नहीं है/किन्तु वह
भविष्य में भी हमें न सँघे, संतोषी अवश्य बनता है।
बस यही कामना है, विभो। सही दिशा का प्रसाद ही
अधिकारियों के लिए सन्त को यह सही दशा का प्रासाद है।
सीख माननीय है__ दण्डसंहिता का प्रमुख लक्ष्य अपराधी
धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, की उद्दण्डता को दूर करना है, उसे क्रूरतापूर्वक
और पीड़ित करना नहीं। आचार्यश्री कांटो को काटने
हम सबकी, की नहीं बल्कि उनके घावों को सहलाने की शिक्षा देते हैं। वे पापी से नहीं पाप से, पंकज
धरती में निष्ठा घनी रहे बस। से नहीं पंक से घृणा करने की सीख देते हैं
30, निशात कालोनी, भोपाल (म.प्र.)-462003
शासन का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है अल्प बचत के लिये प्रोत्साहन। आचार्य श्री ने यह तथ्य इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है
धन का मितव्यय करो, अति व्यय नहीं, अपव्यय तो कभी नहीं, भूलकर स्वप्न में भी नहीं।
देश तथा प्रदेश में फैलता हुआ आतंक सामान्य जन की सतत उपेक्षा, उपहास, शोषण और अपमान का परिणाम है। यह स्थापित करते हुए आचार्य श्री नीति-निर्धारकों को महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन देते हैंमान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है। अतिपोषण और अतिशोषण का भी यही परिणाम होता है तब जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं, बदले का भाव प्रतिशोध।
कोऽन्धो योऽङ्कार्यरतः को वधिरो यः श्रृणोति न हितानि। को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति।।
- अन्धा कौन है? जो अनुचित कार्य में लगा है। बहरा कौन है? जो हित की बात नहीं सुनता। गूंगा कौन है? जो समय पर प्रिय बोलना नहीं जानता।
--मई 2001 जिनभाषित 21
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शंका क्या तीन कम नौ करोड़ मुनिराज हमेशा मध्य लोक में विद्यमान रहते हैं ?
समाधान छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के मुनिराजों की संख्या आगम में इस प्रकार वर्णित है- प्रमत्तसंयत 59398206 + अप्रमत्त संयत 29699103 + तीनों उपशमक 897 + उपशांत मोह 299 + तीनों क्षपक 1794 + क्षीण मोह 598 + सयोगकेवली 898502 + अयोग केवली 598 = 89999997
शंका समाधान
अब प्रश्न यह है कि यह संख्या शाश्वत मुनिराजों की है या उत्कृष्टतया है। इस संबंध में सर्वार्थसिद्धि के अन्त में दिये गये आचार्य प्रभाचन्द्र विरचित वृत्तिपद, पृष्ठ 395 पंक्ति 19 में लिखा है 'सर्वेऽप्येते प्रमत्ताद्ययोगकेवल्यन्ताः समुदिता उत्कर्षेण यदि कदाचिदेकस्मिन् संभवन्ति तदा त्रिहीननवकोटिसंख्या एव भवन्ति ।' अर्थप्रमत्त संयत से लेकर अयोग केवली पर्यन्त ये सभी संयत उत्कृष्टरूप से यदि एक समय में एकत्र होते हैं तो उनकी संख्या तीन कम नौ करोड़ होती है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि तीन कम नौ करोड़ संख्या शाश्वत नहीं है बल्कि उत्कृष्टता की अपेक्षा है। लेकिन आचार्य प्रभाचन्द्र जी ने जो 'एक समय में एकत्र होते हैं लिखा हैं' उसका तात्पर्य इस प्रकार समझना चाहिए 'संयतों की यह संख्या कभी भी एक समय में न जानकर विवक्षा भेद से कही जानी चाहिए। कारण कि न तो उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने- अपने गुणस्थान की संख्या प्राप्त होना संभव है और न क्षपक श्रेणी के चारों गुणस्थानों में से प्रत्येक में एक ही समय में अपने अपने गुणस्थान की उत्कृष्ट संख्या प्राप्त होना संभव है। हाँ, उपशम श्रेणी और क्षपकश्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में, क्रम से अपने अपने गुणस्थान की संख्या का काल-भेद से अवश्य प्राप्त होना संभव है। कारण कि जो जीव 8 समयों में इन श्रेणियों के आठवें गुणस्थान में चढ़ें, वे ही तो अन्तमुहूर्त बाद नौवें गुणस्थान में पहुँचते हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए और इस प्रकार समय भेद से अन्तर्मुहूर्त के भीतर सब संयतों की उक्त संख्या बन जाती है, यहाँ ऐसा अभिप्राय समझना चाहिए।
(सर्वार्थसिद्धि ज्ञानपीठ प्रकाशन का संपादकीय पू. 5-6 पंडित फूलचंद जी सिद्धांताचार्य) इससे यह स्पष्ट होता है कि एक समय में, कभी भी न तो तीन कम नौ करोड़ मुनि हुए हैं और न हो ही सकते हैं। सामान्य बुद्धि से भी विचारणीय है कि यदि अयोगकेवली गुणस्थान में 598 मुनियों की संख्या शाश्वत मान ली जाए, तो अयोगकेवली गुणस्थान का काल 5 लघु अक्षर प्रमाण होने से, 5 लघु अक्षर काल में 598 जीवों को सिद्ध पद प्राप्त हो जाएगा अर्थात् 6 महीने 8 समय में असंख्यात् जीव सिद्ध बन जाएँगे जो स्पष्ट रूप से आगम बाधित है।
शंका जन्मकल्याणक के समय जिन रत्नों की वर्षा होती है वे क्या वास्तविक होते हैं?
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मई 2001 जिनभाषित 22
पं. रतनलाल वैनाडा
समाधान तीर्थंकर भगवान के जन्म कल्याणक या आहार चर्या के समय जो रत्न वर्षा होती है, वे रत्न सच्चे ही होते हैं, साथ में अनमोल भी उत्तरपुराण पृष्ठ 378 पर इस प्रकार कहा है - मगधदेश के कितने ही वैश्यपुत्र द्वारावती नगरी पहुँचे। वहाँ उन्होंने बहुत से श्रेष्ठ रत्न खरीदे, जो भगवान नेमिनाथ के गर्भ एवं जन्म कल्याणक के समय देवों द्वारा बरसाये गये थे और राजगृही जाकर उन रत्नों को भेंट देकर अर्धचक्री जरासंध के दर्शन किये। जरासंध उन रत्नों को देखकर चौंक उठा और उसने उन वैश्यपुत्रों से उनकी प्राप्ति का रहस्य पूछा। उत्तर में वैश्यपुत्रों ने कहा कि भगवान नेमिनाथ की उत्पत्ति का कारण होने से जो सब नगरियों में उत्तम है तथा याचकों से रहित है ऐसी द्वारावती नगरी में बहुत से रत्न विद्यमान हैं। हमने ये रत्न वहीं से प्राप्त किए हैं। इन वचनों को सुनकर और द्वारावती के वैभव का अनुमान कर जरासंध क्रोध से अंधा हो गया और यादवों का नाश करने के लिये निकल पड़ा।
वीरवर्धमानचरित्र ( ज्ञानपीठ प्रकाशन पृष्ठ-125-26) में इस प्रकार लिखा है- तीर्थंकर वर्धमान की राजा कूल के यहाँ प्रथमपारणा होने पर राजा के आंगन में अंधकारनाशक अनमोल करोड़ों मणियों की स्थूल, अखण्ड, सघन धारासमूहों से फूलों की सुगंधी से मिश्रित जल वर्षा के साथ आकाश से भारी रत्न वर्षा हुई, जिसके द्वारा सारे राजांगण को पूरित देखकर सभी आश्चर्यचकित हो रहे थे।
इसेस यह स्पष्ट है कि ये रत्न अनमोल होते हैं. वास्तविक होते हैं तथा नगरी में अर्थाभाव को समाप्त कर धन से पूरित करने के लिये देवों द्वारा बरसाये जाते हैं।
शंका- चार आयु को अप्रतिपक्षी तथा चार गति को प्रतिपक्षी क्यों कहा गया है ?
समाधान जो प्रकृतियां अप्रतिपक्षी होती हैं उन प्रकृतियों का जिस समय बंध होता है, उस समय उनका अपना ही बंध होता है, और जब बंध नहीं होता तब नहीं होता है । परन्तु जो प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षी होती है, उनके समस्त भेदों में से किसी भी एक भेद का बंध प्रति समय होता ही है (बंध व्युच्छित्ति काल तक ) । इस परिभाषा के अनुसार चार आयु अप्रतिपक्षी है क्योंकि जिन समयों में इनका बंध होता है, उन्हीं समयों में इनका बंध होता है, अन्य समयों में इनका बंध नहीं होता तथा चार गतियाँ प्रतिपक्षी कही गई हैं, क्योंकि इनमें से किसी एक गति का बंध प्रतिसमय होता ही रहता है। शंका- आलू में कितने जीव पाये जाते हैं और वे बादर हैं
या सूक्ष्म ?
समाधान- आलू (साधारण) सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति का स्कन्ध है। एक आलू में असंख्यात साधारण शरीर होते हैं और प्रत्येक साधारण शरीर में अनन्तानन्त निगोदिया जीवों का निवास होता है। ये सभी निगोदिया बादर तथा सूक्ष्म दोनों होते हैं। कहा भी हैबादर सुहम णिगोदा, बद्धा पुट्ठा य एयमेएण। ते हु अणंता जीवा, मूलयथूहल्लयादीहिं ॥ (श्रीधवल पु. 14 पृ.231)
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अर्थ - बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव ये परस्पर बद्ध और स्पष्ट होकर रहते हैं। तथा वे अनंत जीव हैं जो मूली, थूअर तथा अदरख आदि के निमित्त से होते हैं। पं. रतनचंद जी मुख्तार, जीवकांड की टीका पृष्ठ 270 पर लिखते हैं- मूली, थूहर आईक आदि तथा मनुष्य आदि के शरीरों में असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर होते हैं। वहाँ एक-एक निगोद शरीर में अनंतानंत बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं। ये एक शरीर में बद्ध स्पृष्ट होकर रहते हैं। आलू में रहने वाले ये जीव, आँखों से दिखाई नहीं पड़ते। इनके शरीर की अवगाहना मनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है अतः ये दूरबीन आदि यंत्रों के द्वारा भी दिखने में नहीं आते हैं। इस प्रकार आलू के या अन्य किसी भी कन्दमूल के एक कण का भक्षण करने में भी अनन्तानन्त निगोदिया जीवों की हिंसा होती है।
शंका- ऐसा सुनते हैं कि तीर्थंकर अपनी गृहस्थ अवस्था में णमोकार मन्त्र का उच्चारण नहीं करते। जबकि भगवान पार्श्वनाथ ने सर्प के जोड़े को णमोकार मन्त्र सुनाया था। स्पष्ट करें।
समाधान चौबीस तीर्थंकरों के चरित्र का वर्णन करने वाला सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थ उत्तरपुराण ( रचयिता आचार्य गुणभद्र) है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ के चरित्र में इस प्रकार लिखा है- 'नागी नागह संप्राप्तशमभावी कुमारत (77/118) बभूवतुरहीन्द्रश्च तत्पत्नी च पृथुश्रियो ( 77/119)। अर्थ- सर्प और और सर्पणी कुमार के उपदेश से शान्तिभाव कोप्राप्त हुए और मरकर बहुत भारी लक्ष्मी को धारण करने वाले धरणेन्द्र और पद्मावती हुए । भावार्थभगवान पार्श्वनाथ जब क्रीड़ा करने के लिय नगर से बाहर गये थे तब उनके साथ एक सुभौम कुमार भी थे। वे जब तपस्वी के पास पहुँचे तब उसके अहंकार को देखकर सुभौमकुमार ने उस तपस्वी को उपदेश दिया। उस उपदेश को सुनकर सर्प और सर्पणी शान्तिभाव को प्राप्त हुए और मरकर धरणेन्द्र और पद्मावती हुए । इन वचनों के अनुसार
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ग्रन्थसमीक्षा
सदलगा के संत
कवि श्री लालचन्द्र जैन राकेश प्रकाशक ज्ञानोदय विद्यापीठ वल्लभ नगर, बी. एच.ई.एल. भोपाल, म.प्र. एवं दिगम्बर जैन मुनि संघ सेवा समिति, महावीर विहार, गंज बासोदा
. (म.प्र.)
मूल्य- 50 रुपये, पृष्ठ 204
कवि ने सहज, सुबोध प्रसादगुणमयी विशिष्ट शैली में एक ऐसे महान् सन्त परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की जीवनी अपनी काव्य धारा से निःस्यूत की है, जिनसे सम्पूर्ण भारत वर्ष
भगवान पार्श्वनाथ ने सर्प के जोड़े को णमोकार मन्त्र नहीं सुनाया था, यह स्पष्ट होता है।
शंका- क्या आयु कर्म का बन्ध जीव को एक पर्याय में एक बार ही होता है या अधिक बार भी होता है ?
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समाधान- एक जीव के एक भव में आयु बन्ध के योग्य आठ अपकर्ष होते हैं। इन आठ अपकर्षो में आयु कर्म का बन्ध अधिक से अधिक आठों बार भी हो सकता है जैसा कि श्री धवल पु. 10 पृष्ठ 233 पर कहा है 'कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यच अपनी भुज्यमान आयुस्थिति के दो विभाग बीत जाने पर वहाँ से लेकर असंक्षेपाद्धा काल तक परभव संबंधी आयु को बाँधने के योग्य होते हैं। उनमें आयुबन्ध के योग्य काल के भीतर कितने ही जीव आठ बार कितने ही सातबार, कितने ही छहबार कितने ही पांचबार, कितने ही चार बार कितने ही तीनबार कितने ही दो बार कितने ही एकबार आयु बन्ध के योग्य परिणामों से परिणत होते हैं, शेष निरुपक्रमायुष्क जीव अपनी भुज्यमान आयु में छह माह शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्षों को कहना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि चारों ही गतियों के जीव अधिक से अधिक आठ बार और कम से कम एक बार आयुबन्ध अवश्य करते हैं । इतना अवश्य है कि एक जीव एक भव में एक ही आयु का बन्ध करता है (देखें कर्मकाण्ड गाथा 642) अर्थात् यदि कोई जीव एक भव में आठ बार आयु कर्म बन्ध करता है तो उसने प्रथम बार में जिस आयु का बन्ध किया होगा अन्य बारों में उसी आयु का बन्ध होगा । अर्थात् यदि प्रथम अपकर्ष में देवआयु का बन्ध किया है तो अन्य अपकर्षो में आयु बन्ध होता है तो देव आयु का ही होगा अन्य आयु का नहीं। यदि आठों अपकर्ष कालों में आयु बंध न हो तो अंतिम असंक्षेपाद्धा काल में तो आयु बंध हो ही जाता है।
'सद लगा के
के सन्त'
1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.)
के आबालवृद्ध सभी सुपरिचित हैं। रचनाकार ने इस कृति के द्वारा अनेक अपरिचित या अल्पज्ञात प्रसंगों का ज्ञान कराकर जन सामान्य के शान में वृद्धि की है। हिन्दी भाषी क्षेत्र के पाठकों को तो रचना सुवोध है ही, दक्षिणभारत में भी लोकप्रिय हो सकेगी। इस उपयोगी काव्यकृति के रचयिता और प्रकाशक दोनों साधुवाद के पात्र हैं।
रचना कथ्य और अभिव्यंजना- शिल्प की दृष्टि से प्रभावो त्पादक है। देशज शब्द और मुहावरे नगीने की भाँति जड़े हुए हैं। 'राकेश' जी की प्रतिभा और वैदुष्य की ज्ञापक इस कृति का सर्वत्र स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है।
डॉ. भागचन्द जैन 'भागेन्दु'
मई 2001 जिनभाषित 23
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तीर्थंकर महावीर के उपदेशों उपदेशों की प्रासंगिकता
विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, डी.लिट्.
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पड़ा हुआ था । परदे को हटाये बिना एक का भी उदय-उत्थान सम्भव नहीं था, फिर सर्वोदय की बात तो बहुत दूर थी ।
भगवान् महावीर ने संन्यास लेकर द्वादशी तपश्चर्या के ब्याज से अपने उर- अन्तर में वीतरागता को जाग्रत किया । चतुर्विध संघ की स्थापना कर श्रमण श्रमणी और श्रावक-श्राविका समान रूप से सभी के लिए आत्मोद्धार के द्वार खोल दिये।
जीवन और जगत के संचालन में कालचक्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। उसका नित्य और निरन्तर ह्रास और विकास जीवन और जगत की अवनति और उन्नति का प्रतीक है। कालचक्र के चंक्रमण में जैनधर्म के पुरस्कर्त्ता तथा प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव कर्मकला का प्रवर्तन करते हैं। तीर्थंकरी परम्परा में भगवान् महावीर अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर थे।
जैनधर्म वस्तुतः प्राकृत धर्म है, कोई मत विशेष नहीं मत किसी न किसी महान आत्मा द्वारा प्रवर्तित होता है। जैन धर्म का समयसमय पर तीर्थंकर तथा महामनीषी मुनिवृन्द द्वारा प्रचार और प्रसार होता रहा है। कालचक्र के प्रारंभ में भोग- भूमि की सुविधा उपलब्ध थी। इसके उपरान्त तीर्थंकर ऋषभदेव कर्मभूमि का प्रवर्तन करते हैं। विश्व के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर इनका उल्लेख उपलब्ध है। यजुर्वेद में भगवान ऋषभदेव मुक्तिदाता के रूप में समादृत हैं। अथर्ववेद में उन्हें आत्मिक बलशाली तथा प्रेम का आलोक पुरुष माना गया है। वैदिक वाङ्मय में ऋषभदेव अग्निदेव परमेश्वर रुद्र, केशव, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा, विष्णु तथा सूर्यदेव के रूप में पूजित हैं।
भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर इस विशाल देश का नाम भारतवर्ष पड़ा और विद्यावैविध्य, कला तथा लिपि (ब्राह्मी लिपि) का सूत्रपात करने वाले भगवान् ऋषभदेव की परम्परा के अन्तिम तीर्थंकर तथा सत्य-अहिंसा के मसीहा भगवान महावीर लोक में समादत रहे हैं।
भगवान महावीर विश्वात्मा के प्रतिनिधि थे। आज से 26 सौ वर्ष पूर्व वे वैशाली के राज घराने में उत्पन्न हुए। उस समय समाज में अधर्म ही धर्म था। संस्कृति के स्थान पर विकृति का बोलवाला था। तत्कालीन समाज में नारी निरी निरादृत और असहाय थी । दास प्रथा का प्रचलन था। धर्म के नाम पर घोर हिंसा (बलिप्रथा) व्याप्त थी। कैसा भयावह वातावरण महावीर के युग में प्रचलित था। राजा और प्रजा दोनों की आँखों के सामने मोह और मिथ्यात्व का परदा
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किं जीवितमनवद्यं किं जाइयं पाटवेऽप्यनभ्यासः । को जागर्ति विवेकी का निद्रा मूढता जन्तोः ॥ जीवन क्या है? पाप न करना मूर्खता क्या है? बुद्धिमान् भी शास्त्राभ्यास न करना। जागता कौन है ? विवेकी । निद्रा क्या है? प्राणियों की मूढ़ता
होते
हुए
नलिनी दलगत जललव - तरलं किं, यौवनं धनमथायुः । के शशधरनिकरानुकारिणः एव ।।
सज्जना
कमलपत्र पर पड़ी हुई बूँदों के समान चंचल कौन है? यौवन, धन और आयु चन्द्रमा की किरणों का अनुकरण करने वाले कौन है ? सज्जन ।
मई 2001 जिनभाषित 24
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह जैसे जघन्य पापों से पीड़ित समाज के त्राण के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील (ब्रह्मचर्य) तथा अपरिग्रह जैसे आत्मस्वभावी शुभ संकल्पों का प्रवर्तन किया। इन आत्म स्वभावों को यदि कोई भी सुधी साधक अपने अंतरंग में जाग्रत कर ले तो उसका और सबका इन तमाम मैली और मलीन मनोवृत्तियों से पिण्ड छूट सकता है। भगवान महावीर ने व्यक्ति अथवा वर्गोंदय की नहीं अपितु संर्वोदय की कल्याणकारी देशना दी थी।
इतना ही नहीं राग और रोष से अनुप्राणित समाज में व्याप्त बौद्धिक प्रदूषण को शान्त और शमन करने के लिये भगवान महावीर की अनुपम देन है- अनेकान्त अनेकान्त और स्याद्वाद् अर्थात् कथन की सप्तभंग-पद्धति के द्वारा वैचारिक द्वन्द्व का पूर्णतः समापन हो जाता है, जिसकी आज महती आवश्यकता है।
बड़े हर्ष का प्रसंग है कि आज देश-देशान्तर में बड़े उत्साह और उल्लास पूर्वक भगवान् महावीर की छब्बीस सौ वीं जन्म जयन्ती 6 अप्रैल 2001 को 'अहिंसा दिवस' तथा पूरे वर्ष को जयन्ती वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। ऐसे पुनीत और पवित्र अवसर पर हम - सब मिलकर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट दिव्य देशनाओं का शक्तिभर अनुपालन करें, स्वयं जियें और समस्त जीवों को जीने का सुअवसर प्रदान करें, तभी भगवान् महावीर के प्रति हमारा स्मरण और हमारी वन्दना वस्तुतः सार्थक मानी जायेगी।
'मंगल कलश' 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001
को नरकः परवशता किं सौख्यं सर्वसङ्गविरतिर्या । किं सत्यं भूतहितं किं प्रेयः प्राणिनामसवः ।। नरक क्या है? पराधीनता। सुख क्या है? समस्त परद्रव्यों से विरक्ति । सत्य क्या है? प्राणियों का हित करना । प्राणियों को सर्वाधिक प्रिय क्या है? प्राण ।
किं दानमनाकाइक्ष कि मित्रं यन्निवर्तयति पापात् । कोऽलङ्कारः शीलं किं वाचां मण्डनं सत्यम् ।। दान क्या है ? इच्छा का अभाव। मित्र कौन है? जो पाप से बचाता है। अलंकार क्या है? शील। वाणी का आभूषण क्या है ? सत्य ।
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व्यंग्यकथा
___सफेद शेर की नस्ल
.शिखरचन्द्र जैन
किसी नगर में एक सेठ र
सेवा-सुश्रूषा की प्रधानता होती सरकार सफेद शेर की विलुप्त होती प्रजाति को लेकर ] पिरहता था। उसके पास
है, वहाँ बुढ़ापे की बीमारी में काफी धन था। बंगले थे, कारें चिन्तित रहती है। उसकी नस्ल को बचाने के लिए काफी धन खर्च
इनकी मात्रा कम, धर्म की थी। कारखाने थे, दुकानें थीं। करती है। लेकिन ईमानदारों की विलुप्त होती प्रजाति को बचाने चर्चा अधिक होती है। रोगी को नौकर थे, नौकरानियाँ थीं। | के लिए कुछ नहीं करती। आज की भ्रष्ट राजनीतिक, प्रशासनिक | धार्मिक कथाएँ सुनाना चालू हो गोया वो सभी ताम-झाम थे | और सामाजिक व्यवस्था में ईमानदार रहकर जीना कितना दूभर जाता है। और कुल मिलाकर जो उसे सेठ कहलाने का हो गया है, इस सत्य को अनावृत करती है हृदय को वेध देनेवाली
एक ऐसा वातावरण निर्मित अधिकारी बनाते थे। इसके
किया जाता है जिससे उसे यह व्यंग्यकथा और कोंचती है समाज के श्रीमन्तों, नेताओं और अलावा उसका एक भरा-पूरा
संसार असार नजर आए।अगले परिवार था, पत्नी थी। बेटे थे, प्रबुद्धों को इस बात के लिए कि वे अपनी सम्पत्ति और सामर्थ्य
भव से प्रेम बढ़े। परलोक बेटियाँ थीं। दामाद थे, बहुएँ का उपयोग भ्रष्ट होते हुए सार्वजनिक चरित्र को रसातल में जाने
सुधरे। थी। गर्ज ये कि सेठ का जीवन से रोकने के लिए करें।
कुछ इसी तरह के माहौल सुख, सुविधा वा सम्पन्नता
में जब सेठ जी बिस्तर पर से भर-पूर था। | पुनर्निवेश किया और कम से कम में घर का ।
पड़े-पड़े कराह रहे थे तब पैताने से आवाज यों किसी नगर में एक सेठ का होना खर्च चलाया। जिसे उधार दिया, उससे
| आयी- 'दान बोलो, दान।' और उसके पास काफी धन होना, अपने आप सख्ती से वसूल किया और जिससे लिया
सेठ का कराहना बंद हो गया। उन्होंने में कोई उल्लेखनीय बात नहीं है। क्योंकि उसका बड़ी ईमानदारी से समय पर भुगतान
साश्चर्य तीनों ओर अपनी आँखें घुमाई, फिर प्राचीन काल से ही, सेठों का निवास, बहुधा किया। धीरे-धीरे सेठ की मेहनत रंग लाई। पैसे
बोले- क्यों? नगरों में ही होता पाया गया है तथा विपुल धन ने पैसे को खींचा और धनराशि में समुचित
‘ऐसे समय में मोह ममता का त्याग ही राशि का होना सेठ कहलाने हेतु प्राथमिक वृद्धि होने लगी। इस सारी प्रक्रिया में ईमान
कल्याणकारी होता है। किसी ने कहा! आवश्यकता मानी जाती रही है। लेकिन जिस दारी ने कब प्राथमिकता अर्जित कर ली, यह
'कैसे समय में?' सेठ ने जिज्ञासा की! सेठ की चर्चा मैं यहाँ कर रहा हूँ, उसके संदर्भ सेठ को खुद भी पता नहीं लगा। लेकिन
जो बात सेठ को समझ लेना चाहिए में विशिष्टता यह रही कि उसने सारा का सारा
व्यापार के क्षेत्र में सेठ की ईमानदारी एक | थी वो समझ नहीं रहे थे। सच ही कहा है कि धन निहायत ही ईमानदारी से कमाया था। और मिसाल बन गई। सेठ की साख और इज्जत
बुढ़ापे में मति मारी जाती है। और साथ में यदि ईमानदारी भी कैसी? ग्वाले के द्वारा घर की तूती बोलने लगी। सेठ को सेठ जी कहा
बीमारी हो तो फिर भ्रष्ट ही समझना चाहिए!तिसभिजवाए गए दूध की तरह शुद्ध नहीं, बल्कि जाने लगा! अब इस बात को मद्देनजर रखते
पर भी, परिजन, दान वाली बात को भूलने सामने दुही गयी भैंस के दूध की तरह हए आगे मैं भी सेठ को यथोचित आदर पूर्वक
नहीं देना चाहते थे। अतः बात को कुछ और खालिस। संबोधित करूँगा।
स्पष्ट करते हुए एक ने कहा - 'परलोक की यहाँ, यदि आप आवश्यकता समझें
जीवन जब अनुकूल परिस्थियों में
सोचिए सेठजी, परलोक की। यह जीवन तो तो थोड़ा विराम ले लें। मैंने जो ऊपर कहा, व्यतीत हो रहा हो, तब समय के गुजरने का
भगवत्कृपा से आपका, बड़ा ही सुखमय उस पर विचार कर लें। मनन कर लें। पर यह आभास भी नहीं होता। सेठ जी कब युवा हुए,
बीता। निश्चय ही पूर्वोपार्जित पुण्य कर्मों का बात तो मेरी आप मान कर ही चलें कि धन कब उनकी शादी हुई, कब बच्चे हुए, कब
प्रतिफल रहा। लेकिन अब अगले जन्म पर भी जो है सो ईमानदारी से भी कमाया जा सकता बच्चों की शादी हुई, कब नाती-पोते हुए कुछ
तो ध्यान देना होगा न! दान-पुण्य का, कहते है और निर्धारित टैक्स अदा करने के बावजूद पता ही नहीं लगा कि एक रोज सेठ जी गंभीर
हैं, बड़ा प्रताप होता है।' बचाया भी जा सकता है। खास कर उस रूप से बीमार पड़ गए। उन्होंने खटिया पकड़
सेठ जी को कुछ न सूझा तो वो पुनः परिस्थिति में जबकि कई व्यक्ति पागलपन ली। फौरन डाक्टर-वैद्य-हकीम तलब हुए।
कराहने लगे। की हद तक ईमानदार बने रहने की ठान ही लें सेठ की जाँच हुई और सभी ने एक स्वर में
दान की बात विस्मृत न हो पाये इस और धन बढ़ाने की जल्दी में न हों। घोषित किया कि सेठ वृद्धावस्था को प्राप्त हो
उद्देश्य से बातचीत का सूत्र एक अन्य परिजन कहते हैं कि सेठ का बचपन घोर
चुके हैं और जिस बीमारी से ग्रसित हैं, उसका
तह, उसका ने हथियाते हुए कहा- "वैसे आपने तो सेठ जी विपन्नता में व्यतीत हुआ। अतः जब उसने | नाम है बुढ़ापा।
इस जन्म में भी पुण्य ही पुण्य किए हैं। आप धनोपार्जन प्रारम्भ किया तो उसने एक-एक
जवानी और बुढ़ापे की बीमारी में फर्क
जैसे महापुरुष बिरले ही पैदा होते हैं। फिर भी पैसे को दाँत से पकड़ कर रखा। जो कमाया होता है। उसके इलाज में भी फर्क होता है।
परलोक तो परलोक ही होता है। जाने कब उसका ज्यादा से ज्यादा भाग व्यवसाय में | जवाना का बीमारी में जहाँ दवा-दारू और I । में | जवानी का बामारा म जहा दवा-दारू आर | कैसी जरूरत पड़ जाये। दान का महात्म्य सेठ
-मई 2001 जिनभाषित 25
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जी! इहलोक और परलोक दोनों में माना जाता | लेकिन ऐसा हुआ नहीं। खाँसी रुकी। | आयाम जुड़े हैं। पहले जहाँ दान का संबंध
और फिर आश्वस्त होकर सेठ ने कहा- 'यदि | प्रायः धार्मिक स्थलों, अनाथ आश्रमों, धार्मिक सेठ ने सुनकर भी अनसुनी करते हुए | मैं स्वस्थ हो गया तो दस लाख रुपये की यह | पाठशालाओं और गरीबों-याचकों तक सीमित कराहने की गति में वृद्धि कर दी।
राशि मैं अपनी मर्जी से दान दूंगा।' था वहाँ आज दान की पैठ पब्लिक स्कूलों, तकरीबन सभी ने महसूस किया कि । 'हाँ, क्यों नहीं, क्यों नहीं?' प्रसन्नता प्राइवेट इंजीनियरिंग-मेडिकल कालेजों और सेठ की तबीयत बद से बदतर होती जा रही । की लहर उठी।
इसी तरह की अनेक संस्थाओं में गहराई तक है। वरना इतने महत्वपूर्ण विषय पर क्या इस 'स्वस्थ तो सेठ जी आप हो ही रहे हैं। हो चुकी है। प्राकृतिक विपदाओं से निपटने का कदर चुप्पी साध लेते?
अभी आपकी उम्र ही क्या है? साठा सो कार्य भी अब मुख्यतः दान पर निर्भर होता 'दान किए बिना देह त्यागने पर अशुभ | पाठा।' किसी ने कहा।
जा रहा है। देश में सूखे की स्थिति हो या बाढ़ गति प्राप्त होती है, ऐसा शास्त्र कहते हैं।' एक सेठ जी ने राहत की साँस ली और की अथवा भूकंप से तबाही हो, इनका ने धीरे से सेठानी के कानों में कहा- 'आप ही | इतमीनान से लेट गए।
मुकाबला करने में देश-विदेश से प्राप्त दान कुछ कहिए! क्या आप चाहती हैं कि...... | अब दान का प्रताप कहिए, दवा का का बड़ा महत्त्व होता है। देश की सरकार
'नहीं! नहीं!' कहते हुए सेठानी ने पति असर कहिए, परिजनों की सेवा कहिए या चलाने का जिम्मा जिन राजनीतिक पार्टियों पर के पैर पकड़ लिए और फूट-फूट कर रोने महज संयोग, सेठ जी कछ ही दिनों में स्वस्थ है उनकी गतिविधियाँ तो पूर्णतः दान के सहारे लगी। रोते रोते ही उन्होंने नाक सुड़की। शेष हो गए। चलने फिरने लगे।
ही संचालित है। इसका नमूना तो दुनिया भर बची हुई को साड़ी के कोने से पोंछते हुए और फिर यहीं से आरम्भ हुई सेठ की ने अभी अभी स्पष्ट रूप से देखा-सुना है। दान बोलीं- 'अंतिम समय मेरी बात न रखोगे परेशानी! दान दें तो किसे दें? कब दें? किस के उद्देश्य में भी अब विविधता आती जा रही क्या?'
हेतु दें? ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जिनके उत्तर सहज है। ज्यादातर लोग तो होली-दीवाली के समय सेठ ने सहसा कराहना बंद कर दिया। ही नजर नहीं आ रहे थे। इस समस्या पर सेठ भी जो चंदा देते हैं उसके पीछे लोक-कल्याण बोले- 'अंतिम समय? ये क्या कह रही हो जितना विचार करते उतना ही और उलझ की भावना कम और उपद्रवी तत्त्वों को शांत भागवान।'
जाते! शारीरिक रूप से सेठ स्वस्थ तो हो गए रखने की भावना ज्यादा मानते हैं। कई एक 'हाय! होनी को कौन रोक पाया है।' | थे पर मानसिक तनाव से ग्रस्त हो गए। मामलों में, दान देने के पीछे, संभावित कहते हुए सेठानी ने एक दुहत्तड़ अपनी छाती | यहाँ दान के संदर्भ में अपनी परम्परा परेशानियों से वर्तमान और भविष्य में बचे पर दे मारा और बाकायदा मूर्छित हो गई। | को समझ लेना समीचीन होगा। हमारा इति- रहने का उद्देश्य होता पाया गया है। और यह
सेवकों ने उन्हें सम्हाला। पानी के छींटे हास दानवीरों के आख्यानों से पटा पड़ा है। उद्देश्य जब कुछ ज्यादा प्रभावी होता है तो दिए। सेठानी ने होश में आते ही पतिचरणों पर जहाँ एक ओर शूरवीर कर्ण, राजा बलि और दान देकर कुछ लाभ उठा लेने की ओर मुड़ जकड़न बढ़ा दी। बोली- दान बोलो दान। इस हरिश्चन्द्र जैसे दान दाता हमारे पूर्वज रहे हैं जाता है। मुई दौलत में धरा क्या है। इसे कौन साथ वहीं दूसरी ओर दान लेने वालों में स्वयं अतः सेठ की द्विविधा को यदि उपलाया है और कौन साथ ले जायेगा? हाय! भगवान बावन अवतारी सर्वोपरि हैं। दान देना र्युक्त पृष्ठभूमि में देखा जाये तो सेठ का दान समय रहते बोल क्यों नहीं जाते कुछ?' इतना एक पुण्य-कार्य है। धन्य हैं वो लोग जो कि | राशि के सार्थक उपयोग को लेकर आशंकित कह वह पुनः मूर्छित हो गई।
दान दे देते हैं। अपनी कमाई का एक भारी होना, सर्वथा तर्कसंगत लगता है। कुपात्र को सेठ जी ने परिस्थिति की गंभीरता को अंश, बिना किसी प्रत्यक्ष लाभ के, अपने से दान देने से पाप का बंध होता है, ऐसा शास्त्रों भाँपा। दान बोले बिना कोई उपाय नजर नहीं अलग करने का हौसला दिखाते हैं। निश्चय ही में कहा गया है। इसलिए सेठ की यह चिंता कि आ रहा था। यों सेठ जी कभी किसी के दबाव यह एक जीवट का कार्य है जो कि केवल उनके दान दें तो किसे दें, किस हेतु दें, पूर्णतः में नहीं आए पर पत्नी की हालत पर उन्हें द्वारा किया जा सकना संभव है जिनमें मोह उचित समझी जानी चाहिए। काफी तरस आ रहा था। मजबूरी में ही सही, त्याग की भावना कूट-कूट कर भरी जा चुकी बहुत सोच विचार करने के बाद भी बोले- 'सुनो भागवान, तुमने कही और हमने हो। अतः दानवीरों का सम्मान किया जाना जब सेठ को इस समस्या का हल नहीं सूझा मानी। दान हम बोल देते हैं, पर एक शर्त है।' उचित ही माना जाना चाहिए। वैसे कहते हैं कि तो उन्होंने अपने विश्वस्त मुनीम से सलाह ली।
सो क्या?' दो-चार बेसब्र स्वर इकट्ठे दान दाता उपकार नहीं करता बल्कि पुण्य- मुनीम ने तत्काल समाचार पत्रों में विज्ञापन उभरे। सेठानी को भी होश आ गया। कार्य करने का अवसर प्राप्त कर उपकृत होता देने का सुझाव दिया और तनुसार अनेक
'यदि मैं चल बसा तो दस लाख रुपये | है। और जो दान प्राप्त करता है वह उपकृत समाचार पत्रों में लोगों ने निम्नांकित विज्ञापन या इसके ऊपर जो तुम चाहो, जहाँ देना हो, | नहीं होता बल्कि दान दाता को पुण्य कमाने का पढ़ादान में दे देना। लेकिन...' कहते कहते सेठ अवसर प्रदान कर उपकार कर रहा होता है। दान देना है दस लाख रुपये की राशि। ने भयंकर रूप से खाँसना प्रारंभ कर दिया। यह उपकृत होने - करने की परम्परा, जो व्यक्ति या संस्था इस राशि का सार्थक नर्स ने फौरन सहारा देकर उन्हें अधलेटा किया समय के साथ, अपने मूल उद्देश्य से कहीं उपयोग कर सके वह दानदाता से सम्पर्क कर पर खाँसी थी कि रुकती ही नहीं थी। परिजनों बहुत आगे निकलकर अब काफी व्यापकता अपनी योजना से अवगत करावे। योजना में के मन में 'लेकिन' गड़ रहा था। कहीं ऐसा न प्राप्त कर चुकी है। दान लेने-देने की प्रथा में दान दाता के संतुष्ट होने पर ही दान दिया हो कि अब और कुछ कह ही न पायें। अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं। नए नए क्षेत्र और | जाएगा।'
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सुबह के अखबारों में विज्ञापन प्रका- | 'करना चाहेंगे?' अभ्यागत ने प्रति- | होकर कहा- 'ऐसा भी होता है?' शित हुआ और दोपहर तक सेठ के दरवाजे प्रश्न कर स्वयं उत्तर देते हुए कहा- 'करते ही ‘ऐसा बहुधा होता है।' आगन्तुक ने पर लोगों की लाइन लग गई। स्थानीय जनता
कहा- 'जो लोग सरकारी विभागों की कार्य के अलावा आस-पास के गाँवों-नगरों से भी फिर तो इससे झगड़े की नौबत आ | प्रणाली से परिचित हैं, उन्हें इस पर कोई लोगों के आने का सिलसिला आरम्भ हो गया। सकती है। वैमनस्य पैदा हो सकता है।' आश्चर्य नहीं होगा। दर असल, बेईमानी और लाइन की लम्बाई बढ़ने लगी और बढ़ते बढ़ते 'धार्मिक स्थान पर निर्माण को लेकर भ्रष्टाचार सरकारी कामों में, इस कदर घर कर जब नगर के चौराहे पर यातायात के लिए झगड़े की नौबत आना कौन सी नई बात होगी गए हैं कि ईमानदार कर्मचारी का संतुलन समस्या बनने लगी तो ट्रैफिक पुलिस हरकत हमारे लिए? यह तो होता ही है। अभ्यागत बनाए रखना असंभव होता जा रहा है। और में आई। उसने सेठजी को शीघ्र ही स्थिति ने इत्मीनान से कहा।
फिर सरकारी कामों में ही क्यों? राजनीतिक सम्हालने को कहा। सेठ ने भी तत्काल लोगों इस अकाट्य तर्क से सेठ जी निरुत्तर क्षेत्र में, सामाजिक कार्यों में, हर जगह को आदर पूर्वक बैठाने का इंतजाम किया और हो गए। उन्होंने तत्काल अभ्यागत को धन्य- | बेईमानी का बोल-बाला है। अब तो, सेठजी! एक एक कर आगन्तुकों से मिलना प्रारंभ कर | वाद दे भेंट-समाप्ति का संकेत दिया। लोगों को विश्वास ही नहीं होता कि कोई दिया।
इस तरह एक-एक कर अतिथियों से | ईमानदार भी हो सकता है। विश्वास का संकट प्रथम अभ्यागत का विस्तृत परिचय | भेंट का सिलसिला कई दिनों तक चला। सुबह | पैदा हो गया है। एक ईमानदार व्यक्ति को यह प्राप्त कर, सीधे विषय पर आते हुए सेठ जी से शाम तक सेठ रोज अभ्यागतों से मिलते। | सिद्ध कर पाना कि वह ईमानदार है, मुश्किल ने पूछा - 'कहिए आपकी योजना क्या है?' उनकी योजनाएँ जानते। किसी से दस मिनिट | है, बहुत मुश्किल।' इतना कह आगंतुक ने
'मैं एक मंदिर बनवाना चाहता हूँ।' चर्चा होती तो किसी से दो मिनिट। पर कोई | एक गहरी साँस लेकर विराम लिया। अभ्यागत ने कहा।
भी योजना उन्हें संतुष्ट न कर सकी। कुछ ही । 'तो इस मामले में आप मुझसे क्या 'कहाँ?'
दिनों में भीड़ छंटने लगी। लोगों की समझ में | चाहते हैं। सेठ ने पूछा। 'इसी शहर में।'
यह आने लगा कि सेठ की अंटी से दान की | . होता यों है सेठ जी कि जब किसी 'इस शहर में?' सेठ जी ने साश्चर्य राशि ढीली करवाना किसी के वश की बात | ईमानदार कर्मचारी को झूठे मामले में फँसा कहा- 'यहाँ तो अनेक मंदिर हैं।'
नहीं है। फिर भी कौतूहलवश कुछ लोग आते | कर निलंबित कर दिया जाता है तब कुछ 'जहाँ मैं बनाना चाहता हूँ, वहाँ नहीं है।' और लाइन में लग जाते। पर यह भी ज्यादा समय बाद आर्थिक तंगी के कारण उसका आप कहाँ बनवाना चाहते हैं?' दिन नहीं चला।
मनोबल टूटने लगता है। ऐसे समय यदि उसे 'उस जगह जहाँ तीन नई कालोनियाँ सेठ का धैर्य जवाब देने लगा तो | कहीं से मदद मिल सके तो वह टूटने से बच प्रस्तावित हैं।'
उन्होंने फिर मुनीम को बुलाया। मुनीम ने सकता है। जब मैंने आपका विज्ञापन पढ़ा तो हाँ!'..... कहते हुए सेठ जी ने थोड़ा | | निहायत ही शांति से स्थिति का जायजा मुझे लगा कि इस दान-राशि से एक ट्रस्ट विराम लिया फिर पूछा- 'जमीन? मंदिर के | लिया। उसे पता लगा कि आगंतुकों में एक बनाकर मदद की जा सकतीहै। पर आप तक लिए जमीन क्या सहज ही मिल जायेगी व्यक्ति ऐसा भी था जो पहले दिन से ही रोज पहुँचने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।' इतना वहाँ?'
यहाँ आता रहा है पर सेठ जी से भेंट करने हेतु कह आगंतुक ने दो घूट पानी पिया फिर कुछ कब्जा करना होगा। कर लिया जाएगा।' कभी पंक्तिबद्ध नहीं हुआ। मुनीम ने तत्काल भावुक होकर कहा, 'सुनते हैं सेठ जी कि अभ्यागत ने उत्तर दिया।
उस व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित किया और सरकार सफेद शेर की विलुप्त होती प्रजाति यह क्या अनुचित कार्य नहीं होगा?' पूछा- 'क्या आपके पास भी कोई योजना है?' | को लेकर चिंतित रहती है। सफेद शेर की सेठ ने जिज्ञासा की।
है तो सही। पर मुझे नहीं लगता कि | नस्ल बचाने के लिये काफी धन खर्च करती 'धार्मिक स्थल के लिए जमीन प्राप्त | सेठ जी को पसंद आएगी।' ।।
है। पर ईमानदारों की विलुप्त होती प्रजाति को करने का यही तरीका प्रचलन में है आजकल! ‘ऐसा आप क्यों सोचते हैं? कृपया बचाने के लिये कुछ नहीं करती। सेठ जी, यदि इस हेतु सरकारी जमीन सर्वथा उपयुक्त मानी | एक बार सेठ जी से मिल तो लीजिए।' कहते | आप चाहें तो दान राशि देकर ईमानदारों की जाती है। रात के अंधेरे में, वांछित भूमि पर, | हुए मुनीम उसे सेठ जी के पास ले गया। | नस्ल बचाने की दिशा में पहला कदम उठा थोड़ा सा निर्माण कार्य कर लिया जाए तो फिर सेठ ने आगंतुक को सादर बैठा कर | सकते हैं। आपने मुझे शांति से सुना, उसे हटाने की हिम्मत कोई नहीं करता। कुछ उसका परिचय पूछा।
धन्यवाद! जाने के लिए आज्ञा चाहूँगा।' रोज हो-हल्ला होता है फिर स्थिति सामान्य हो 'मैं एक सरकारी कर्मचारी हूँ जो पिछले सेठ आश्वस्त हो गया। उसने अनुभव जाती है।'
एक वर्ष से सेवा से निलंबित हूँ।' आगंतुक ने किया कि उसे दस लाख के दान के लिये . पर यह तो जोर-जबरदस्ती हुई।' सेठ कहा।
सार्थक उद्देश्य प्राप्त हो गया है। उसने
'किस कारण से? कोई घपला किया था निलम्बित कर्मचारी को इस उद्देश्य को पूर्ण 'धर्म की प्रभावना के लिए इतना तो । क्या?' सेठ ने पूछा।
करने के लिये आवश्यक योजना बनाने का करना ही पड़ता है।' अभ्यागत ने स्पष्ट किया! 'जी नहीं! घपला करने में साथ नहीं | काम सौंप दिया।
'तब, ऐसा तो सभी धर्मावलम्बी | दिया था इसलिए।' आगंतुक ने उत्तर दिया। 56, ए मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम) करना चाहेंगे।'
'अच्छा!' सेठ जी ने आश्चर्य चकित भिलाई - 490020 (दुर्ग) छत्तीसगढ़
ने कहा।
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नारीलोक
हमारा पहनावा : हमारी पहचान
डॉ. ज्योति जैन भारतीय संस्कृति विशे
यापन नहीं है? फैशन की इस नाषकर जैन संस्कृति ने वेशभूषा न केवल हमारी शारीरिक और सामाजिक
भूलभुलैया में व्यक्ति कपड़ों 'सादा जीवन उच्च विचार' आवश्यकताओं का निर्वाह करती है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक
पर ज्यादा धन खर्च करने वाली उक्ति को आदर्श मान- | मनोभूमि का भी परिचय देती है। उससे हमारे जीवन के लक्ष्य लगा है। 'जितनी चादर उतने कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में | और आदर्श प्रतिध्वनित होते हैं। स्पृहणीय आदर्शों के अनुरूप | पैर फैलाओ' की जगह चादर सादगी को महत्त्व दिया है। वेशभूषा का प्रयोग तदनुरूप संस्कारों की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण से ज्यादा पैर फैलाने की हमारे आचार्य, मुनिवर, संत,
भूमिका निभाता है। प्रस्तुत आलेख इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य पर | प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पहिले महात्मा भी सादगी को जीवन प्रकाश डालता है।
दो-चार जोड़ी कपड़ों से काम में उतारने की प्रेरणा देते हैं।
चल जाता था पर आज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे कि हमें अपने
आलमारियाँ कपड़ों से अटी पड़ी हैं। शायद दरवाजे, खिड़कियाँ खुली रखनी हैं ताकि कारण ही विभिन्न वेषभूषाओं का जन्म होता |
कुछ कपड़ों के पहनने का तो नम्बर ही नहीं बाहर की स्वच्छ ताजा हवा आ सके तथा है। ठीक है, व्यक्तित्व की पहचान कपड़ों से
आता है। भीतर की गंदगी बाहर निकल सके। हवा चाहे होती है पर 'सादा जीवन उच्च विचार' वाली
आज संस्कृति की बात हो या संस्कृति में सादगी से परिपूर्ण वस्त्र ही व्यक्ति पश्चिम की हो या पूरब की, उत्तर की हो या
धार्मिकता की, सामाजिक परिवेश की हो या दक्षिण की, हर हवा में एक ताजगी होती है को गरिमा प्रदान करते हैं। वस्त्र ऐसे सादे
पहनावे की, महिलाओं का उत्तरदायित्व और जब कभी प्रदूषित हवा का झोंका आये स्वच्छ एवं शालीन हों जिन्हें देखकर मन में
समाज के प्रति बढ़ा हुआ ही दिखाई देता है। तो खिड़की दरवाजे बंद कर लेना चाहिए। पर किसी प्रकार का विकार पैदा न हो, चलने
समाज निर्माण में योगदान हो या उसकी आज हम आँख मूंद कर अपने सारे दरवाजे फिरने या काम करने में बाधा न हो, किसी
विकृतियों को दूर करने की पहल हो, खोले बैठे हैं और पश्चिम की विकृत सभ्यता तरह का शारीरिक कष्ट उत्पन्न न हो और
दारोमदार अंततः महिलाओं पर ही होता है। एवं संस्कृति को बेलगाम होकर अपनाये जा सबसे प्रमुख बात यह कि व्यक्ति की गरिमा
क्योंकि माँ ही पहली शिक्षिका होती है। अतः व मर्यादा बनी रहे।
नारी ही संपूर्ण परिवेश को प्रभावित कर भारत लम्बे समय तक विदेशियों का
आज हम विदेशी पहनावे से अधिक प्रभावित हो रहे हैं, अधिकांश पहनावा फूहड़
समाज को सही दिशा प्रदान कर सकती है। गुलाम रहा। इससे हमारी संस्कृति सर्वाधिक
बदलते समय और बदलते परिवेश में और भड़कीला होता जा रहा है। जन सामान्य प्रभावित हुई है। ब्रिटिश शासन के दौरान
आधुनिक पहनावे के प्रभाव से महिलाएँ भी हमारा एक वर्ग उनके खुलेपन से इतना में भी खत्म न होने वाली एक फैशन की होड़
अछूती नहीं रही हैं। वे भी वस्त्रों की चकाचौंध अधिक प्रभावित हुआ कि उनकी संस्कृति, शुरू हो गयी है। याद कीजिए, गाँधी जी ने
और आकर्षण का शिकार हो रही हैं। वस्त्रों और एक धोती से ही विश्व में भारत का लोहा मनवा खानपान, पहनावा सभी अपनाने में गर्व सा
उनकी डिजाइनों के माध्यम से स्त्री-पुरुषमहसूस करने लगा। इस वर्ग ने हमारी
लिया था, चाहे वह इंग्लैंड का राज दरबार हो या भारत में वाइसराय की मीटिंग। लेकिन
बच्चे, सभी को एक सुन्दर वस्तु के रूप में संस्कृति को ठेस पहुँचायी जो हमारी अपनी
प्रस्तुत किया जा रहा है। आधुनिकता की इस पहचान थी। भारत एक विशाल देश है। यहाँ आज हम अपनी संस्कृति को छोड़ पाश्चात्य
होड़ में आधुनिक दिखने की लिप्सा पैदा होती विभिन्न धर्मों, जातियों एवं संस्कृति के लोग संस्कृति को अपनाने में आगे बढ़ रहे हैं।
जा रही है। भू-मंडलीकरण के नाम पर बढ़ती रहते हैं, जलवायु की भिन्नता भी है। प्रत्येक विशेषकर युवा पीढ़ी तो बेलगाम होती जा
हुई बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ क्या हमारी क्षेत्र का अलग-अलग पहनावा है। भारत को रही है। पहनावे के नाम पर जो परोसा जा रहा
बाजार व्यवस्था के चिन्तन और चरित्र पर ही लें तो व्यक्ति का पहनावा उसके है उसे हमारी युवा पीढ़ी हाथों हाथ ले रही है।
प्रहार नहीं कर रही हैं? क्या आधुनिक ड्रेसों व्यक्तित्व का परिचय देता है। विश्व की किसी
विभिन्न स्त्री-पुरुषों के मॉडलों के माध्यम से पहनावे के उत्तेजित रूप रोज ही सामने आ
का पहनना हाई सोसाइटी का प्रतीक नहीं भी देश में साड़ी पहने महिला दिख जाये तो निश्चित ही उसे भारत का समझा जायेगा। रहे हैं, ये आकर्षक वस्त्र उत्तेजना बढ़ाने वाले
बनता जा रहा है? क्या हम भोगवादी संस्कृति
को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? पगड़ी पहने हो तो उसे सिक्ख समझा होते हैं। इनका व्यापक प्रचार-प्रसार कर जो
विकृत पोशाकों और शारीरिक प्रदर्शन जायेगा। हमारे देश के पहनावे की अलग ही मायाजाल फैलाया जा रहा है उसमें ग्राहक
के माध्यम से नारी की छवि को विकृत किया विशेषता एवं उपयोगिता है। स्वयं निर्णय नहीं कर पाता कि उसे क्या
जा रहा है। नारी छवि को आज बाजार का समूह से अलग दिखने की प्रवृत्ति के खरीदना है? क्या नहीं? क्या फैशनके नाम
केन्द्र-बिन्दु माना जा रहा है। सिनेमा, टी.वी., पर कुछ भी पहनना हमारा दिमागी दिवालि
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इंटरनेट, मॉडलिंग के माध्यम से नित नये | की गरिमा बढ़ती है। लेकिन सिर्फ फैशन या | बच्चों में कपड़ों के नित नये-फैशन अपनाने फैशनेबल कपड़े दिखाये जाते हैं। गाँव-गाँव, | दिखावे के नाम पर कुछ भी पहनना हमारे | की होड़ लगी रहती है। शहर-शहर और देश-विदेश में बढ़ती सौंदर्य मापदण्डों पर सही नहीं उतरता। यदि आप धार्मिक कार्यों में भी हमें पहनावे में प्रतियोगिताएँ और उनमें शामिल फैशन- एयरहोस्टेस या ऐसी ही कोई सर्विस में हैं तो | शालीनता बरतनी चाहिए। मंदिर सादे वस्त्र परिधान एक व्यामोह सा पैदा कर रहे हैं।। आधुनिक ड्रेस आपकी पर्सनालिटी का हिस्सा पहनकर ही आना चाहिए। हमारे यहाँ धोती आधे-अधूरे वस्त्र पहिनने में संकोच का | है। पर यदि एक हाउस वाइफ सब्जी का थैला दुपट्टा, साड़ी धार्मिक पोशाक हैं। पर कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा है। आज फूहड़ और | लिये आधुनिक ड्रेस पहनकर बाजार जाये या पहनने की छूट से हमारी धार्मिक मर्यादा को भड़कीली अश्लील पोशाकों से नारी की | कॉलेज की छात्रा आधुनिक ड्रेस पहनकर | ठेस पहुंची है। धार्मिक उत्सव, समारोहों में अस्मिता ही खतरे में पड़ गयी है। बढ़ती हुई | कॉलेज जाये तो विसंगति दिखाई देगी ही। | पेंट शर्ट, जीन्स पहने पूजन करते देख थोड़ाबलात्कार छेड़छाड़ की घटनाएँ और आंकड़े पहनावे का जिक्र हो तो आधुनिक ड्रेस | बहुत क्षोभ तो होता ही है। पूछते हैं कि क्या नारी सुरक्षित है? पहनावे जीन्स का चर्चा होना सहज है। एक रिक्शा | आज पूरा विश्व संस्कृति को बचाने की का अमर्यादित रूप हमारे नैतिक मापदण्डों | चालक से लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के उच्च | मुहीम में लगा है, विकसित देशों विशेषकर पर सही नहीं उतर पा रहा है अतः हम अपने अफसर तक जीन्स के दीवाने नजर आते हैं। दक्षिण पूर्वी एशिया, अफ्रीका आदि देशों में विवेक का प्रयोग करें और अपने आपको यूं तो जीन्स की अनेक खूबियों ने छोटे-बड़े| उनकी संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है। भोग्या के रूप में पेश न करें।
सभी के बीच इसे लोकप्रिय ड्रेस बना दिया कृत्रिम और भोगवादी पाश्चात्य जीवन शैली हम 21वीं सदी में आ गये हैं। हरक्षेत्र है पर मौके-बेमौके और फूहड़ तरीके से इस | को अपनाकर हम सुख समृद्धि नहीं अपितु में मानो चमत्कार हो रहे हैं क्या आर्थिक, क्या | पोशाक के प्रदर्शन ने इसे आलोचना का केन्द्र विनाश को गले लगा रहे हैं, हम पहनावे के राजनैतिक, क्या सामाजिक, क्या शैक्षणिक | भी बनाया है। इसके प्रदर्शन को देखते हुए। माध्यम से अपनी संस्कृति को गरिमामय पर सबसे अधिक चमत्कार हुए हैं तो वह है | अनेक बार स्कूल-कॉलेजों के प्रिसिंपल, बनाएँ और बदलती हुई परिस्थितियों में अपने हमारे पहनावे में, हमारी ड्रेस में। अपनी रुचि | स्वयंसेवी संस्थाओं ने इसके विरोध में जीवन मूल्यों को बचाएँ और संयमित जीवन के अनुसार वस्त्र पहनना प्रत्येक व्यक्ति का आवाज उठायी है। पर कौन किसकी सुन रहा शैली अपनायें। अधिकार है। समय के साथ वेशभूषा में | है। शुरूआत तो हम सबको स्वयं करनी हम भ. महावीर की 2600वीं जन्म परिवर्तन आया है आज की पीढ़ी अपने | पड़ेगी और इस धारणा को भी बल देना पड़ेगा जयन्ती मना रहे हैं। उनका प्रमुख सिद्धांत पहनावे के प्रति सजग है, व्यक्तित्व के कि 'कपड़े कपड़ों की तरह पहनो शो पीस अपरिग्रह है। हम सब नियम लें कि कपड़ों/ 'निर्धारण में पहनावे की उपयोगिता दिख रही | की तरह नहीं।'
ड्रेसों की एक सीमा निश्चित करेंगे। कपड़ों से है। अपनी कद-काठी रूप रंग और अपने काम इस फैशनेबिल प्रवृत्ति के दोषी माता- भरी अलमारियों में से कुछ कपड़े जरूरत मंद काज के हिसाब से वस्त्रों को चुनना उचित पिता भी हैं। बचपन से ही बच्चों को एक से लोगों में वितरित कर देंगे। समय रहते चेतें है। व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने में एक आधुनिक टिपटॉप ड्रेस पहनाकर शो और आने वाली पीढ़ी को सुसंस्कारित करें। पहनावे का योगदान महत्त्वपूर्ण है। यहाँ तक | बाजी करते हैं। मेरा बच्चा सबसे अलग
6, शिक्षक आवास कि कम्प्यूटर के माध्यम से ड्रेस सेट होने लगी | दिखे, सोसाइटी में हमारा रौब रहे ऐसी ड्रेस
श्री कुन्दकुन्द (पीजी) है। ड्रेस का चयन उचित ढंग से हो तो व्यक्ति | किसी के पास न हो। ऐसे माहौल में बड़े हुए
___ कालेज, खतौली -251201 उ.प्र.
गजल
भूल और सुधार
भूल
जो नहीं अपने, उन्हें अपना बनाने निकले, खुद पे आती है हँसी, कैसे दीवाने निकले। जलके खुद खाक हुआ, अपनी विरासत का महल, जिन कषायों से, जमाने को जलाने निकले। नाव खूटे से बँधी, खूब चली पतवारें, पार तरने के शुभारंभ, बहाने निकले। काँच पत्थर से भरी झोलियाँ खनकती हैं हाथ से हाय! कोहनूर खजाने निकले।
• ऋषभ समैया 'जलज' सुधार
राग और द्वेष की काजल की कोठरी में जब, शुद्ध समभाव का सुखदीप जलाने निकले। शुद्ध का लक्ष्य लिए, शुभ की डगर पर चलकर, भेद-विज्ञान चरण, मंजिलें पाने निकले। पर में खोजा तो भटकने के सिवा कुछ न मिला, रत्नत्रय कीमती खुद अपने सिरहाने निकले। उनकी महिमा का कोई पार नहीं है साथी, तत्त्व की प्रीति से , निज आत्म सजाने निकले। निखार भवन, कटरा बाजार, सागर 470002 म.प्र.)
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बालवार्ता
बुद्धिचातुर्य की कथाएँ
मरणासन्न हाथी
उज्जयिनीनरेश की हस्तिशाला का एक हाथी रुग्ण हो गया। हस्ति-चिकित्सकों ने हाथी को देखा और कहा कि इसका रोग असाध्य है, यह बच नहीं पायेगा। यह कुछ ही दिनों का मेहमान है। राजा ने विचार किया इस मरणासन्न हाथी के माध्यम से रोहक के बुद्धि-कौशल की परीक्षा की जाए । यह सोचकर राजा ने वह मरणासन्न हाथी नट-ग्राम में भिजवा दिया। हाथी के साथ उसके खाने-पीने की काफी सामग्री भी भिजवा दी। साथ ही साथ राजा ने गाँव वालों को यह आदेश भिजवाया 'यह हाथी रुग्ण है। इसे पर्याप्त खाना पीना दें। इसकी सेवा करें तथा इसके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में नित्य प्रति समाचार भेजते रहें, किन्तु कभी भूलकर भी मुझे यह समाचार न दें कि हाथी की मृत्यु हो गई है। यदि किसी ने आकर यह समाचार दिया तो मैं उसे प्राण- दण्ड दूँगा ।'
नट बड़े भयभीत हुए हाथी की भलीभाँति देख-रेख सेवा परिचर्या करते हुए। आखिर एक दिन हाथी की मृत्यु हो गई। नट. बहुत दुःखित हुए, अब क्या करें। हाथी के स्वास्थ्य संबंधी समाचार नित्य प्रति भेजने के क्रम के अंतर्गत राजा को सूचित करना आवश्यक था। किन्तु, हाथी के मरने का समाचार कहना उनके लिए दुःशक्य था, क्योंकि वैसा कहने वाले के लिए राजा की ओर से 'मृत्यु दण्ड निर्धारित था। वे चिन्तित थे कि हाथी के स्वास्थ्य के संबंध में कुछ भी सूचना न देने से राजा क्रुद्ध होगा तथा हाथी के मरने की सूचना देने का उनको साहस हो नहीं रहा
था।
उन सबकी आशा का केन्द्र रोहक था। उन्होंने उसके समक्ष अपनी चिन्ता उपस्थित
अप्रैल 2001 के 'जिनभाषित' में आपने चतुर वालक रोहक के बुद्धिचातुर्य का प्रदर्शन करने वाली दो कथाएँ पढ़ी थीं। अब तीन कथाएँ और प्रस्तुत की जा रही हैं।
कि वे राजा को इसका क्या उत्तर दें। नट राजा के पास आये। उन्होंने राजा से कहा'महाराज ! आपका हाथी तो अपनी जगह से उठता तक नहीं है।'
दूसरा बोला 'हाथी का उठना तो दूर मई 2001 जिनभाषित 30
रहा, उसके तो कान तक नहीं हिलते उसके नेत्रों की पलकें तक नहीं झपकतीं, नेत्रों की पुतलियाँ भी स्थिर हैं। '
राजा ने कहा- 'क्या हाथी की मृत्यु हो
गई ?'
तीसरे ने कहा ऐसा नहीं बोल सकते घास खाता है और न
'अन्नदाता ! हम तो पर आपका हाथी न पानी ही पीता है।' चौथा नट बोला- 'राजन् और बातें तो दूर रहीं, आपका हाथी साँस तक नहीं लेता।'
राजा झुंझलाया और पूछने लगा'सच-सच कहो, क्या हाथी मर गया?'
नटों ने कहा- 'अन्नदाता! ऐसे शब्द हम कैसे कह सकते हैं? ऐसा कहने के तो आप ही अधिकारी हैं। हाथी के स्वास्थ्य सम्बन्धी समाचार आप तक पहुँचाना हमारा काम है। उसके स्वास्थ्य की जैसी स्थिति है, हमने आपको निवेदित कर दी है।'
नटों की बातचीत में रोहक की बुद्धिमत्ता बोल रही है, यह राजा ने मन-हीमन अनुभव किया। वह प्रसन्न हआ। उसने नटों को पारितोषिक दिया। नट वापस अपने गाँव को आ गये।
गाँव का कुआँ नगर में भेजो
राजा इतना होने पर भी कुछ और परीक्षा करना चाहता था। उसने एक दिन नटग्राम के नटों के पास अपना संदेश भेजा'तुम्हारे गाँव में एक कुआँ है। उसका जल बहुत मधुर और शीतल है। हमारे नगर में ऐसा
प्रस्तुति श्रीमती चमेलीदेवी जैन
रोहक ने राजा को कैसे उत्तर दिया जाए, यह युक्ति उनको बतला दी। तदनुसार खे नट राजा के पास आए और जैसा रोहक ने समझाया था, वे राजा से बोले 'महाराज हमारे गाँव
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का कुआँ हम गाँववासियों की तरह बड़ा भोला है। अकेले नगर में आने में उसे बड़ी झिझक है, संकोच है। वह कहता है कि मैं अपने जातीय जन उज्जयिनी के कुएँ के साथ वहाँ जा सकता हूँ। अकेला नहीं जा सकता। अकेले जाने में बहुत झिझकता हूँ।
की रोहक ने उन्हें अच्छी तरह समझा दिया कुआँ नहीं है। अपने गाँव के कुएँ की हमार हुई। राजा ने अब तक जितने भी प्रकार से
नगर में भेज दो। यदि ऐसा नहीं कर सके तो तुम कठोर दंड के भागी बनोगे।' ज्यों ही नटों को यह संदेश मिला, वे तो घबरा गए। वे रोहक से बोले- 'पहले की तरह हमको तुम ही इस संकट से बचा सकते हो।'
परीक्षा की, रोहक उन सब में उत्तीर्ण हुआ। अब राजा के मन में उसे अपने पास बुलाने की तीव्र उत्कंठा उत्पन्न हुई।
मुनिश्री नगराजकृत' आगम और त्रिपिटक' से साभार 137, आराधना नगर, भोपाल
'स्वामिन! आप से विनम्र निवेदन है, आप उज्जयिनी के किसी कुएँ को हमारे साथ हमारे गाँव भेज दें। वहाँ से दोनों कुएं आपके पास आ जायेंगे।'
उज्जयिनी नरेश मुस्कुराया, मन-हीमन समझ गया, यह रोहक की बुद्धि का चमत्कार है।
पूर्व के वन को पश्चिम में करो
राजा ने सोचा- रोहक की एक परीक्षा और ले लूँ वह इसमें सफल रहा तो उज्जयिनी बुला लूँगा ।
राजा ने नटों के पास सन्देश भेजा कि तुम्हारे नट- ग्राम की पूर्व दिशा में एक वन है, उसको तुम पश्चिम दिशा में कर दो।
गाँव के नट बड़ी उलझन में पड़े कि वन को पूर्व दिशा से उठाकर पश्चिम दिशा में कैसे लाया जा सकता है। रोहक ने उन्हें इस समस्या का समाधान देते हुए कहा- 'अपन लोगों को चाहिए कि वन के दूसरी ओर जाकर अपना गाँव बसा लें।' सबने अपनी घास-फूस की झोपड़ियाँ मिट्टी के कच्चे घर वन की दूसरी ओर बना लिए। वहीं बस गए। फलतः वह वन स्वयं ही नटों के गाँव की पश्चिमी दिशा में हो गया।
राजा को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता
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श्रीमती विमला जैन प्रो. रतनचन्द्र जैन का सम्मान जिला न्यायाधीश का सम्मान विराजमान परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुयोग्य शिष्य
दिनांक 2 मई 2001, गंजबासोदा (विदिशा) म.प्र.। यहाँ
पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी एवं पूज्य मुनिश्री भव्यसागर जी के शुभ सान्निध्य में श्री गीताज्ञान-आराधना-स्वतंत्र पारमार्थिक न्यास गंजबासौदा की ओर से 'जिनभाषित' के सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जी जैन के सम्मान का भव्य समारोह आयोजित किया गया। न्यास की स्थापना 'जैनमित्र' के भूतपूर्व सम्पादक स्व. पं. ज्ञानचन्द्र जी 'स्वतंत्र' की स्मृति में उनकी ज्येष्ठ पुत्री डॉ. आराधना जैन ने की
| सम्मानविधि का प्रस्तुतीकरण अभिनव शैली में किया गया
जो अत्यंत मनोहर था। इसके शिल्पी पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी थे। उनकी सन्निधि में सम्पन्न किया जाने वाला प्रत्येक समारोह, चाहे वह विद्वत्संगोष्ठी हो या विद्वत्सम्मान, उनकी चारुत्वदर्शी, वैज्ञानिक सुबुद्धि का स्पर्श पाकर रमणीय और स्मरणीय बन जाता है। उनकी कार्यशैली के विशिष्ट गुण है : आत्मानुशासन,
समयानुशासन, वचनानुशासन और आचरणानुशासन। उनके सम्पर्क ड़े बाबा के महामस्तकाभिषेक समारोह के अवसर पर 23 | मात्र से सम्पूर्ण समाज का हृदय इन गुणों में परिनिष्ठित हो जाता है। सफरवरी 2001 को कुण्डलपुर में परम पूज्य आचार्य श्री | वह एक सूत्र में आबद्ध होकर अपने गुरु की बतलाई हुई रूपरेखा विद्यासागर जी, उनके संघस्थ सभी साधुओं एवं आर्यिकाओं के | को कार्यान्वित करने के लिय यंत्रचालित सा सक्रिय दिखाई देने सान्निध्य में श्रीमती विमला जैन, जिला एवं सत्र न्यायाधीश को भारत लगता है। मुनिश्री की कार्यशैली में भावसौन्दर्य, वाक्सौन्दर्य, सरकार के कपड़ामंत्री श्री धनंजय कुमार जी द्वारा ब्राह्मी-सुन्दरी- आचरणसौन्दर्य, वेशसौन्दर्य, वस्तुसौन्दर्य, दृश्यसौन्दर्य, संस्कृतिसौन्दर्य अलंकरण, 2001 से सम्मानित किया गया। डॉ. सुधा मलैया द्वारा
और प्रस्तुतिसौन्दर्य इन बहुविध सौन्दर्यों का संगम होता है। इन सन् 2001 में बाह्मी एवं सुन्दरी के नाम पर यह अलंकरण स्थापित समस्त अनुशासनों और सौंदर्यों से मण्डित था यह सम्मान-समारोह। किया गया है।
वह भारतीय संस्कृति और जैनसंस्कृति की सुगन्ध बिखरते हुए. ___ संविधानज्ञाता, चिंतक, लेखिका और कुशल गृहिणी, जिला | सम्मानभावना को अपनी चरम गरिमा के साथ अभिव्यक्ति देते एवं सत्र न्यायाधीश, न्यायिक सेवा क्षेत्र में सुविख्यात श्रीमती विमला हुए तथा दर्शकों के हृदय में वात्सल्यरस, प्रमोदभाव एवं गुणज्ञता जैन ने महाविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण करने से लेकर न्यायिक शिक्षा की का संस्कार उबुद्ध करते हुए यथाभिलषित परिणति को प्राप्त हुआ। कठिन चुनौतियों तक का मुकाबला जिस लगन और आत्मसाधना | गंजबासौदा के सम्पूर्ण दिगम्बर, श्वेताम्बर और तारणतरण से किया है, वह प्रत्येक महिला के लिए अनुकरणीय है।
समाज ने एक हृदय हो मुनिश्री के प्रति एवं विद्वद्गुणों के प्रति समर्पण विधि-विधायी कार्यों के साथ श्रीमती विमला जैन अनेक भाव से सम्मान समारोह में योगदान किया। तीनों समाजों के सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से भी सरोकार रखती हैं। उन्होंने प्रतिनिधियों ने एक-एक कर आकर्षक प्रशस्तिपत्र एवं अनेक उपयोगी पर्यावरण, न्यायिक एवं ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर विभिन्न पत्र- | उपहारों से प्रो. रतनचन्द्र जी के प्रति अपनी आदरभावना प्रकट की। पत्रिकाओं में लेखन किया है। भारत में पर्यावरण विधि' (अंग्रेजी) उपहारों का प्रकार एक विद्वान् और श्रावक के ही अनुरूप था, जैसे तथा 'म.प्र. नगर विकास संहिता' (हिन्दी) इन दोनों पुस्तकों से उनके | जिनपूजा के रजतपात्र, पूजापरिधानः धोती-दुपट्टा, घड़ी, पेन आदि। बहुआयामी चिंतन तथा विषय पर पकड़ की झलक मिलती है। नकद राशि भी थी जो प्रो. रतनचन्द्र जी ने न्यास को ही दान कर न्यायपालिका, महिला कल्याण, धार्मिक तथा सामाजिक जागृति के क्षेत्र में रचनात्मक भूमिका के लिए उन्हें सरकारी-गैर सरकारी संगठनों समारोह की गरिमा में वृद्धि की आमंत्रित विद्वानों और श्रीमानों द्वारा पुरस्कृत किया गया है। अपने कार्य के सिलसिले में श्रीमती जैन | ने जिनमें शीर्षस्थ थे : प्रो. (डॉ.) भागचन्द जी 'भागेन्दु' श्री सुरेश ने विश्व के अनेक देशों में भ्रमण किया है तथा अपने व्यापक अनुभवों | जेन आई.ए.एस. एवं स्व. पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य के सुपुत्र का उपयोग जनसेवा तथा न्यायिक कार्यों में कर रही हैं।
श्री विभवकुमार जी कोठिया, बीना। स्थानीय विद्वान् प्रो. पी.सी. श्रीमती जैन के पति श्री सुरेश जैन, मध्यप्रदेश सरकार के वरिष्ठ | जैन, श्रीनन्दन जी दिवाकीर्ति एवं पं. लालचन्द्र जी राकेश ने समारोह अधिकारी हैं और उनके सतत प्रयासों से भोपाल में आचार्य | को सफल बनाने में सक्रिय योगदान किया। विद्यासागर इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट स्थापित की गई है। । अन्त में अपने प्रवचनामृत की वर्षा करते हुए पूज्य मुनिश्री 'जिनभाषित' परिवार की ओर से श्रीमती विमला जैन को हार्दिक | क्षमासागर जी ने प्रो. रतनचन्द्र जी को शुभाशीष प्रदान किया कि बधाई।
वे जिनवाणी एवं 'जिनभाषित' की सेवा करते हुए अणुव्रतों से ऊपर सम्पादक | उठने की भावना रखें एवं प्रयत्न करें।
-मई 2001 जिनभाषित 31
| दी।
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सन्त-समागम
गायों की रक्षा हेतु सम्पर्क करें आचार्य श्री विद्यासागर जी सन्तशिरोमणि परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
संतशिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर 40 दिगम्बर मुनिराजों के साथ अतिशय क्षेत्र बहोरीबन्द (कटनी,
जी महाराज की प्रेरणा तथा आशीर्वाद से हम गायों म.प्र.) में विराजमान हैं। यहाँ षट्खण्डागम की 13वीं पुस्तक की
की रक्षा के कार्य में लगे हुए हैं। हमने दिल्ली की
विभिन्न गोशालाओं में गायों की देख-रेख (चारे वाचना चल रही है। यहाँ भगवान् शांतिनाथ की 16 फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है।
आदि की व्यवस्था) कर रखी है। 6 अप्रैल को बहोरीबंद में आयोजित महावीर जयंती में जैन
ऐसा देखने व सुनने में आया है कि कई लोग अजैनों ने भारी तादाद में हिस्सा लिया। सुबह 11 बजे अचानक
गायों की रक्षा करने के लए कार्य तो करना चाहते मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी हेलीकाप्टर से वहाँ पहुँचे तथा उन्होंने
हैं लेकिन साधन व रखने की जगह न होने केकारण आचार्यश्री के चरणों में अपना मस्तक रखते हुए कहा कि 'आप अहिंसा
वे इस कार्य को कर नहीं पा रहे हैं। जो भी व्यक्ति का संदेश देते हैं, मैं आपके पास अहिंसा के लिये संकल्पित होने
इस पुनीत कार्य को करना चाहते हों वे हमसे सम्पर्क आया हूँ। मुख्यमंत्री ने आचार्यश्री से आशीर्वाद माँगा कि मध्यप्रदेश
कर सकते हैं। हम यथाशक्ति उनकी मदद करेंगे। अहिंसक राज्य बने, सर्वत्र सुख शांति हो। उन्होंने कहा कि राज्य
सम्पर्क के लिये हमारा पता . सरकार प्रदेश में कोई भी नया बूचड़खाना नहीं खुलने देगी तथा मांस
मुकेश कुमार जैन, निर्यात के लिये एक भी जानवर प्रदेश में नहीं कटने दिया जायेगा।
5911/8, स्वदेशी मार्केट, इस अवसर पर आचार्यश्री ने कहा कि संत उन सभी व्यक्तियों
सदर बाजार, दिल्ली-110006 को मंगल आशीर्वाद देते हैं जो शुभ कार्यों में संलग्न रहते हैं।
मुनिश्री क्षमासागर जी परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सुयोग्य शिष्य पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी मुनि श्री भव्यसागर जी के साथ श्री सुरेन्द्रकुमार जी का गंजबासोदा (जिला विदिशा) में विराजमान हैं। प्रातः 8.30 से प्रतिदिन मुनिद्वय के मार्मिक प्रवचन होते हैं और आहार के बाद तथा
असामयिक निधन सायंकाल मुनि श्री क्षमासागर जी द्वारा शंका समाधान किया जाता है, जिसमें जिज्ञासुओं और श्रोताओं की अपार भीड़ रहती है।
दिनांक 8 मई को ईटानगर की विशेष हैलीकाप्टर
उड़ान के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से केन्द्रीय मानव संसाधन मुनिश्री समतासागर जी एवं श्री प्रमाणसागर जी
मंत्रालय के उप सचिव श्री सुरेन्द्र कुमार जी के असामयिक पूज्य मुनि श्री समतासागर जी एवं पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर दुःखद निधन पर दिगम्बर जैन महासमिति कोटा संभाग जी पूज्य ऐलक श्री निश्चयसागर जी सहित सागर (म.प्र.) में विराजमान हार्दिक दुःख प्रकट करती है। हैं। मुनि संघ सागर की वर्णी कालोनी स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में
__ श्री सुरेन्द्र कुमार जी कई वर्षों तक अखिल भारतीय ठहरा हुआ है। यहाँ अभूतपूर्व धर्मप्रभावना हो रही है।
दिगम्बर जैन महासमिति के केन्द्रीय समिति के मंत्री रहे हैं। मुनि श्री नियमसागर जी
वे वर्तमान में विभिन्न जैन संस्थाओं जैसे अ.भा. तीर्थ क्षेत्र पूज्य मुनि श्री नियमसागर जी कोपरगाँव (महाराष्ट्र) में
रक्षा कमेटी, अ.भा. दिगम्बर जैन परिषद्, शीर्ष जैन विराजमान हैं। इस माह उनके सान्निध्य में श्री जिनबिम्बप्रतिष्ठा तथा
संस्थाओं की समन्वय समिति आदि के सक्रिय पदाधिकारी पंचकल्याणक महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया।
थे। वे महावीर इन्टरनेशनल के उपाध्यक्ष भी थे। आर्यिका दृढ़मतीजी
टाइम्स आफ इंडिया के साहू अशोक कुमार जैन के
आप काफी नजदीक थे और उनके द्वारा संचालित काफी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की विदुषी शिष्या आर्यिका
संस्थाओं का वह मार्गदर्शन करते थे। श्री दृढ़मती जी आर्यिका संघ के साथ विदिशा के स्टेशन मंदिर में
दिगम्बर जैन महासमिति इस अवसर पर भगवान से विराजमान हैं। यहाँ आचार्यश्री द्वारा रचित मूकमाटी महाकाव्य की
प्रार्थना करती है कि उन्हें सद्गति प्राप्त हो एवं उनके पारिवारिक वाचना हो रही है। विदिशा में माताजी के प्रवचन सुनने भारी तादाद में जैन-अजैन एकत्रित हो रहे हैं।
जनों को इस दुःख को सहने की शक्ति प्राप्त हो। आर्यिका आदर्शमती जी
अकलंक विद्यालय एसोसिएशन कोटा तथा भगवान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की योग्य शिष्या आर्यिका
महावीर 2600वाँ जन्मोत्सव राजस्थान राज्य दि. जैन आदर्शमती जी ससंघ सागर जिले की खरई तहसील में
समिति कोटा संभाग ने भी हार्दिक दुःख प्रकट किया है। विराजमान हैं।
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स्व. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य : श्रद्धासुमनाञ्जलि
.धर्मदिवाकर पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश
कोसा नहीं भाग्य को जिसने, ललकारा पुरुषार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को।।
5
भारतीय गौरव-गरिमा को, तुम उत्कर्ष प्रदाता। सादा जीवन उच्च विचारों, के सच्चे उद्भाता॥ राजनीति से दूर, नीति पथ के अनन्य अनुयायी। पर-निन्दा, मात्सर्य किसी से, तुम को तनिक न भायी। हाथ पकड़ सन्मार्ग दिखाया, अपनाया लोकार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित है, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को।
जब भारत माँ के हाथों में, थीं हथकड़ियाँ भारी। पैरों में थीं पड़ी बेड़ियाँ, शासक अत्याचारी॥ तब सागर के 'पारगुवाँ' में, थी बज उठी बधाई। 'गल्लीलाल' - 'जानकी' के घर, थी बसंत ऋतु आई।। पुत्र-रत्न पा सबने समझा, जीवन के चरितार्थ को। श्रद्धा सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को॥
2 काल और दुर्भाग्य ने मिलकर, जीवन में विष घोला। केवल सात कदम चल पाये, साथ पिता ने छोड़ा। पर, बोलो सूरज-प्रकाश को, रोक सकी क्या निशा अँधेरी। घिस ‘पन्ना' बन ‘लाल' चमकता, यद्यपि हो सकती है देरी॥ ऊष्मा में तपकर ही पाता, जीवन अपने सार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को।
3 जन्म ग्राम तज सागर आये, माँ-आँचल की छाया। गणेश प्रसाद वर्णी का तुमने, शुभाशीष तब पाया। लौकिक शिक्षा रुची न किंचित्, धार्मिक पथ अपनाया। 'अ' से 'ज्ञ' तक आत्मसात कर, सब जिह्वाग्र बसाया।। पढ़-लिख कर गुरु का पद पाया, लक्ष्य किया धर्मार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को॥
जिनवाणी माँ के चरणों में, अगणित पुष्प चढ़ाये। लेखन-सम्पादन-अनुवादन, के सुकार्य अपनाये।। अगम बने ग्रन्थों को तुमने, सबको सुगम बनाया। आर्षमार्ग पर खुद चलकर, सबको सन्मार्ग दिखाया। तुम जीवन भर रहे समर्पित, सरस्वती - सेवार्थ को। श्रद्धा सुमन समर्पित हैं, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को।
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रत्नप्रसविनी भारत माता, हुई है जिनसे उन्नतभाल। उन रत्नों में एक रतन है, श्रीयुत पंडित पन्नालाल।। सागरसम व्यक्तित्वधनी से, सागर ने धन्यता पायी। जिनकी वाणी की मिठास से, कोयल भी शरमायी॥ वासंती विद्वत्ता द्वारा, साधा सदा परार्थ को॥ श्रद्धा सुमन समर्पित हैं उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को।
8 सब गिरियों में उच्च हिमालय की छबि है यशवाली। सब ऋतुओं में ऋतु वसन्त है, सर्वाधिक मतवाली। नदियों में गंगा, वृक्षों में, चन्दन है गुणवाला। विद्वानों में पंडित जी का, है स्थान निराला।। बारम्बार नमन है मेरा, विद्वानों के सार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को।
ग्रंथों का मंथन करके, सम्यक् नवनीत निकाला। सोत्साह शिष्यों में वितरण, करने का व्रत पाला॥ रोम-रोम में घृतमय करके, प्रवचन पटुता पायी। शब्द-शब्द में जिनगंगा की, शीतल-सुरभि समायी॥ निज-हित साधन किया, किन्तु प्राधान्य दिया परमार्थ को। श्रद्धा सुमन समर्पित है, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को।
नेहरू चौक, गली नं. 4,
गंजबासौदा, विदिशा
मई 2001 जिनभाषित
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________________ आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित प्रभु का अवलम्बन लेकर प्रभु बना जा सकता है। पंच परमेष्ठी की आराधना विषय कषायों से बचने के लिये होती है। पाप से भीति बिना भगवान से प्रीति नहीं और भगवान् से प्रीति बिना आत्मा की प्रतीति नहीं। अपने मित्र और आत्मीय बन्धु को देखकर जितनी प्रसन्नता होती है उससे भी अधिक प्रसन्नता जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करने से होनी चाहिए। जैन दर्शन में व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व पूजा गया है, यही कारण है कि अनादि-अनिधन गुणों में स्थित पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया जब तक हमारा सम्बन्ध भगवान से है तभी तक हम भक्त कहलाने के अधिकारी हैं। * जिन और जन में इतना ही अन्तर है कि एक वैभव के ऊपर बैठा है और एक के ऊपर वैभव बैठा है। भक्ति-आराधना सातिशय पुण्य की कारण तो है ही, साथ ही साथ परम्परा से मुक्ति की कारण भी है। भगवान् के मन्दिर में प्रवेश करते ही दुनिया के सारे महल और मकान फीके लगने लगते हैं। हे भगवन्! अब हमें प्रसिद्धि की नहीं सिद्धि की जरूरत है। आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ (राजस्थान) के सौजन्य से