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कषायों की प्रशमता और परिणामों की
समता का नाम 'सल्लेखना'
मुनिश्री अजितसागर एक ऐसा नाम जिसके नाम के
साधना संयमी साधक के जीवन का शब्दों में प्रकाश की विराटता समाई आचार्यश्री ज्ञानसागर जी के 29वें समाधि
अंतिम लक्ष्य होता है जिसे पाने के लिए हुई है, तो उसके जीवन में अज्ञानरूपी दिवस 23 मई 2001 के संदर्भ में आचार्यश्री
काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया आदि अंधकार का समावेश कैसे हो सकता | विद्यासागर जी के सुशिष्य मुनिश्री अजितसागर जी
कषायों का त्याग कर समता की साधना है? जिसके अंदर संयम, शील का | का विशेष आलेख
वीतरागता की उपासना के साथ करता पावन सागर लहराया हो, ऐसा ज्ञान
- है। किसी की धारणा हो सकती है कि का आराधक, हरक्षण जिसके जीवन का लक्ष्य ज्ञानोदधि का मंथन | सल्लेखना की साधना आत्मघात है। यह सल्लेखनामरण आत्मघात चिन्तन करना था, ऐसा पावन नाम ज्ञानसागर था। जिसके अंदर मान | नहीं, यह तो आत्मसात् करने की बात है। आत्मघात तो निराशावादी नहीं, सम्मान की चाह नहीं, यदि कुछ चाह थी जीवन के प्रत्येक क्षण | लोग ही किया करते हैं, लेकिन सल्लेखना की साधना तो उत्साहपूर्वक पर, आत्मकल्याण की भावना एवं जिनवाणी की उपासना करने की | होती है। सल्लेखना के साधक जैन मुनि व श्रावक के लिए कहा हैथी। जिनकी प्रत्येक चर्या से ज्ञान की शिक्षा मिला करती, ऐसे | सर्व प्रथम तो कषायों को कृश करना बाद में काय को कृश करने महानात्मा से हजारों जीवों के कल्याण का स्रोत मिला, जिनकी का नाम सल्लेखना है। कषायों की प्रशमता और परिणामों में समता गंभीरमुद्रा, शांत छबि, वैराग्यमूर्ति, वीतरागता के महामहिम आचार्य | के साथ ही सल्लेखना की साधना होती है। संकल्प-विकल्प एवं श्री ज्ञान सागर जी महाराज का समाधि दिवस। कालजयी व्यक्तित्व | संवलेश परिणामों का त्याग करने के बाद अपनी देह को कृश करने के धनी का परिचय इन पंक्तियों के साथ देना चाहता हूँ
की बात होती है। सल्लेखना जाग्रत होकर ही की जाती है अतः यह कुछ लोग हैं की वक्त के साँचे में ढल गये।
आत्मघात नहीं है। कुछ लोग थे कि वक्त के साँचे बदल गये।
संक्षिप्त परिचय आचार्यश्री ज्ञानसागर जी का व्यक्तित्व वक्त के साँचे में रहते अपने मन में डूबकर पाले सुरागे जिन्दगी।। हुए, वक्त का साँचा बदलने वाला था। संसार में मृत्यु ऐसी वस्तु तु अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन॥ है जो किसी को क्षमा नहीं करती। लोकव्यवहार में कहा जाता है, 'मृत्यु | दुनिया को अपना न बनाकर, अपने आपको समझकर अपने
और ग्राहक का कोई भरोसा नहीं रहता है, कब आ जाये,' इसलिये | बने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का बाल्यकाल उदासीन सभी व्यक्ति मृत्यु से डरते हैं, लेकिन इस महानात्मा को मृत्यु से | वृत्तिमय था। पिता श्री चतुर्भुज जी एवं माता श्री घृतवरी देवी ने बालक भय नहीं था, निर्भय होकर मृत्यु को आमंत्रण दिया, उसे बुलाया और | का नाम भूरामल रखा, दूसरा नाम शांति कुमार भी था। जैन दर्शन प्रेम से गले लगाया था। ज्येष्ठ मास की भीषण तपन, वह भी राजस्थान | एवं अन्य दर्शनों के अध्ययन के प्रति विशेष लगन आपके अंदर थी। की उस मरुभूमि की तपन जहाँ पर उस समय तीन साल से अकाल | परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि आपको बनारस भेज का वातावरण बना था, जहाँ पर प्रत्येक 5-10 मिनिट पर व्यक्ति कर अध्ययन करा सके। लेकिन आप बनारस गये और गमछा आदि पानी-पानी चिल्लाता हो, ऐसी भीषण तपन में 3 दिन तक चारों प्रकार बेचकर जीविकोपार्जन करते हुए जैन दर्शन, न्याय एवं भारतीय दर्शनों के आहार का त्याग कर, आत्म ध्यान में लीन और आत्मचिन्तन का का अध्ययन उच्च कोटी के विद्वानों से बनारस में किया। संस्कृत नीर ही जिनके अंदर शीतलता उत्पन्न कर रहा था। और ऐसे समय व्याकरण का विशेष अध्ययन कर, जयोदय, वीरोदय, भाग्योदय में आपसे दीक्षित प्रथम शिष्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आदि जैसी महान कृतियाँ संस्कृत साहित्य को दी। आपने बालब्रह्मचारी अपने गुरु को सजग बनाये रखे हुए थे। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी रहकर संयम को धारण करके मोक्षमार्ग पर चलना प्रारंभ किया। आपने ने उस समय अपने समतारूपी निलय में बास करते हुए देह और | आचार्य श्री वीरसागर जी से सन् 1955 में क्षुल्लक दीक्षा ली, और आत्मा के चिन्तन में लीन रहते हुए, उस ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से आषाढ़ कृष्णा द्वितीय वि.सं. वि.सं. 2030 शुक्रवार 1 जून 1973 को प्रातः काल 10 बजकर 2016 में मुनि दीक्षा ली। ऐसे ज्ञानसागर जी महाराज ने जैन समाज 50 मिनिट पर नसीराबाद (राजस्थान) में अपनी देह का त्याग के लिये 24-25 जैन साहित्यकृतियाँ दी और आचार्य श्री विद्यासागर समाधिमरणपूर्वक किया था।
जी महाराज जैसी अनुपम चेतनकृति प्रदान की। ऐसे महान साधक जैन मुनि का जीवन अनोखा होता है। वह अपने शरीर को एक का पुण्यतिथि-महोत्सव हम सबके लिये देह से विदेही बनने की याद पड़ौसी की तरह मानता है और उसकी रक्षा-सुरक्षा करता है। जब तक दिलानेवाला एवं आत्मसाधना के साथ आत्मकल्याणरूपी समाधिमरण यह शरीर चर्या में सहयोग देता है, तब तक वह आवश्यकता के का रहस्य बताने वाला है। ऐसे अप्रतिम योगी के चरणों में नमन करता अनुसार उसे खिलाता-पिलाता है। जब कमजोर होने लगता है, तो | हूँ इन पंक्तियों से..... इसे छोड़ने का निश्चय करता है, और धीरे-धीरे काय को कृश करता
तरणि ज्ञानसागर गुरी तारो मुझे ऋषीश। हुआ सल्लेखना की साधना करता है। जैन दर्शन में सल्लेखना की
करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष।
-मई 2001 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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बेचकर जान उच्च कोल
' और ऐसे का कामाविकोपार्ज लकिन आप