SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर महावीर के उपदेशों उपदेशों की प्रासंगिकता विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, डी.लिट्. | पड़ा हुआ था । परदे को हटाये बिना एक का भी उदय-उत्थान सम्भव नहीं था, फिर सर्वोदय की बात तो बहुत दूर थी । भगवान् महावीर ने संन्यास लेकर द्वादशी तपश्चर्या के ब्याज से अपने उर- अन्तर में वीतरागता को जाग्रत किया । चतुर्विध संघ की स्थापना कर श्रमण श्रमणी और श्रावक-श्राविका समान रूप से सभी के लिए आत्मोद्धार के द्वार खोल दिये। जीवन और जगत के संचालन में कालचक्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। उसका नित्य और निरन्तर ह्रास और विकास जीवन और जगत की अवनति और उन्नति का प्रतीक है। कालचक्र के चंक्रमण में जैनधर्म के पुरस्कर्त्ता तथा प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव कर्मकला का प्रवर्तन करते हैं। तीर्थंकरी परम्परा में भगवान् महावीर अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर थे। जैनधर्म वस्तुतः प्राकृत धर्म है, कोई मत विशेष नहीं मत किसी न किसी महान आत्मा द्वारा प्रवर्तित होता है। जैन धर्म का समयसमय पर तीर्थंकर तथा महामनीषी मुनिवृन्द द्वारा प्रचार और प्रसार होता रहा है। कालचक्र के प्रारंभ में भोग- भूमि की सुविधा उपलब्ध थी। इसके उपरान्त तीर्थंकर ऋषभदेव कर्मभूमि का प्रवर्तन करते हैं। विश्व के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर इनका उल्लेख उपलब्ध है। यजुर्वेद में भगवान ऋषभदेव मुक्तिदाता के रूप में समादृत हैं। अथर्ववेद में उन्हें आत्मिक बलशाली तथा प्रेम का आलोक पुरुष माना गया है। वैदिक वाङ्मय में ऋषभदेव अग्निदेव परमेश्वर रुद्र, केशव, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा, विष्णु तथा सूर्यदेव के रूप में पूजित हैं। भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर इस विशाल देश का नाम भारतवर्ष पड़ा और विद्यावैविध्य, कला तथा लिपि (ब्राह्मी लिपि) का सूत्रपात करने वाले भगवान् ऋषभदेव की परम्परा के अन्तिम तीर्थंकर तथा सत्य-अहिंसा के मसीहा भगवान महावीर लोक में समादत रहे हैं। भगवान महावीर विश्वात्मा के प्रतिनिधि थे। आज से 26 सौ वर्ष पूर्व वे वैशाली के राज घराने में उत्पन्न हुए। उस समय समाज में अधर्म ही धर्म था। संस्कृति के स्थान पर विकृति का बोलवाला था। तत्कालीन समाज में नारी निरी निरादृत और असहाय थी । दास प्रथा का प्रचलन था। धर्म के नाम पर घोर हिंसा (बलिप्रथा) व्याप्त थी। कैसा भयावह वातावरण महावीर के युग में प्रचलित था। राजा और प्रजा दोनों की आँखों के सामने मोह और मिथ्यात्व का परदा , किं जीवितमनवद्यं किं जाइयं पाटवेऽप्यनभ्यासः । को जागर्ति विवेकी का निद्रा मूढता जन्तोः ॥ जीवन क्या है? पाप न करना मूर्खता क्या है? बुद्धिमान् भी शास्त्राभ्यास न करना। जागता कौन है ? विवेकी । निद्रा क्या है? प्राणियों की मूढ़ता होते हुए नलिनी दलगत जललव - तरलं किं, यौवनं धनमथायुः । के शशधरनिकरानुकारिणः एव ।। सज्जना कमलपत्र पर पड़ी हुई बूँदों के समान चंचल कौन है? यौवन, धन और आयु चन्द्रमा की किरणों का अनुकरण करने वाले कौन है ? सज्जन । मई 2001 जिनभाषित 24 Jain Education International हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह जैसे जघन्य पापों से पीड़ित समाज के त्राण के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील (ब्रह्मचर्य) तथा अपरिग्रह जैसे आत्मस्वभावी शुभ संकल्पों का प्रवर्तन किया। इन आत्म स्वभावों को यदि कोई भी सुधी साधक अपने अंतरंग में जाग्रत कर ले तो उसका और सबका इन तमाम मैली और मलीन मनोवृत्तियों से पिण्ड छूट सकता है। भगवान महावीर ने व्यक्ति अथवा वर्गोंदय की नहीं अपितु संर्वोदय की कल्याणकारी देशना दी थी। इतना ही नहीं राग और रोष से अनुप्राणित समाज में व्याप्त बौद्धिक प्रदूषण को शान्त और शमन करने के लिये भगवान महावीर की अनुपम देन है- अनेकान्त अनेकान्त और स्याद्वाद् अर्थात् कथन की सप्तभंग-पद्धति के द्वारा वैचारिक द्वन्द्व का पूर्णतः समापन हो जाता है, जिसकी आज महती आवश्यकता है। बड़े हर्ष का प्रसंग है कि आज देश-देशान्तर में बड़े उत्साह और उल्लास पूर्वक भगवान् महावीर की छब्बीस सौ वीं जन्म जयन्ती 6 अप्रैल 2001 को 'अहिंसा दिवस' तथा पूरे वर्ष को जयन्ती वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। ऐसे पुनीत और पवित्र अवसर पर हम - सब मिलकर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट दिव्य देशनाओं का शक्तिभर अनुपालन करें, स्वयं जियें और समस्त जीवों को जीने का सुअवसर प्रदान करें, तभी भगवान् महावीर के प्रति हमारा स्मरण और हमारी वन्दना वस्तुतः सार्थक मानी जायेगी। 'मंगल कलश' 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001 को नरकः परवशता किं सौख्यं सर्वसङ्गविरतिर्या । किं सत्यं भूतहितं किं प्रेयः प्राणिनामसवः ।। नरक क्या है? पराधीनता। सुख क्या है? समस्त परद्रव्यों से विरक्ति । सत्य क्या है? प्राणियों का हित करना । प्राणियों को सर्वाधिक प्रिय क्या है? प्राण । किं दानमनाकाइक्ष कि मित्रं यन्निवर्तयति पापात् । कोऽलङ्कारः शीलं किं वाचां मण्डनं सत्यम् ।। दान क्या है ? इच्छा का अभाव। मित्र कौन है? जो पाप से बचाता है। अलंकार क्या है? शील। वाणी का आभूषण क्या है ? सत्य । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy