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________________ सम्यक् श्रुत स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री गवाह की अपेक्षा श्रुत अनादि है। इसकी | चन्द्रगुफा में निवास करते हुए ध्यान अध्ययन | दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी विद्या की ममहिमा की व्याख्या करते हुए जीवकाण्ड में तल्लीन रहते थे। इनके गुणों का ख्यापन | अधिष्ठात्री देवी कानी है। यह देखकर उन्होंने में श्रुतज्ञान की मुख्यता से कहा है कि केवल करते हुए वीरसेन स्वामी ने (धवला पु.1) मंत्रों को शुद्ध कर पुनः दोनों विद्याओं को ज्ञान और श्रुतज्ञान में प्रत्यक्ष और परोक्ष का लिखा है कि वे परवादीरूपी हाथियों के समूह सिद्ध किया। इससे वे दोनों विद्यादेवियाँ अपने ही भेद है, अन्य कोई भेद नहीं। ऐसा नियम के मद का नाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के स्वभाव और अपने सुन्दर रूप में दृष्टिगोचर है कि केवलज्ञानविभूति से सम्पन्न भगवान समान थे और उनका मन सिद्धान्तरूपी हुईं। तदनन्तर उन दोनों साधुओं ने विद्या तीर्थकर परमदेव अपनी दिव्यध्वनि द्वारा अमृतसागर की तरंगों के समूह से धुल गया सिद्धि का सब वृत्तान्त आचार्य धरसेन के अर्थरूप से श्रुत की प्ररूपणा करते हैं और था। वे अष्टांग महानिमित्त शास्त्र में भी समक्ष निवेदन किया। इससे उन दोनों साधुओं मत्यादि चार ज्ञान के धारी गणधरदेव अपनी पारगामी थे। वर्तमान में उपलब्ध श्रुत की रक्षा पर अत्यन्त प्रसन्न हो, उन्होंने योग्य तिथि सातिशय प्रज्ञा के माहात्म्यवश अंगपूर्वरूप का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। अपने | आदि का विचार कर उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारंभ से अन्तर्मुहूर्त में उसका संकलन करते हैं। जीवन के अंतिम काल में यह भय होने पर । किया। आषाढ़ शुक्ला 11 के दिन पूर्वाह्नकाल अनादि काल से सम्यक् श्रुत और श्रुतधरों की | कि मेरे बाद श्रुत का विच्छेद होना संभव है, | में ग्रन्थ-अध्यापन समाप्त हआ। परम्परा का यह क्रम है। इन्होंने प्रवचन वात्सल्यभाव से महिमानगरी जब इन दोनों साधुओं ने विनयपूर्वक ___ इस नियम के अनुसार वर्तमान में सम्मिलित हुए दक्षिणा पथ के आचार्यों के ग्रन्थ समाप्त किया तब भूतजाति के व्यन्तर अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के अंतिम भाग पास पत्र भेजा। उसे पढ़कर उन आचार्यों ने देवों ने उनकी पूजा की। यह देख आचार्य में अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर और ग्रहण और धारण करने में समर्थ नाना प्रकार धरसेन ने एक का नाम पुष्पदन्त और दूसरे उनके ग्यारह गणधरों में प्रमुख गणधर की उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित का नाम भूतबलि रखा। गौतमस्वामी हुए। भावश्रुत पर्याय से परिणत अंगवाले, शीलरूपी माला के धारक,देश- बाद में वे दोनों साधु गुरु की आज्ञा गौतमगणधर ने ग्यारह अंश और चौदह पूर्वो कुल-जाति से शुद्ध, समस्त कलाओं में से वहाँ से रवाना होकर अंकलेश्वर आये और की रचना कर उन्हें लोहाचार्य को दिया। पारंगत ऐसे दो साधुओं को आन्ध्रप्रदेश में वहाँ वर्षाकाल तक रहे। वर्षायोग समाप्त होने लोहाचार्य ने जम्बूस्वामी को दिया। इसके बाद बहनेवाली वेणा नदी के तट से भेजा। पर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देश को चले विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और जब ये दोनों साधु मार्ग में थे, आचार्य गये और भूतबलि आचार्य द्रविण देश को भद्रबाहु ये पाँचों आचार्य परिपाटी क्रम से | धरसेन ने अत्यन्त विनयवान् शुभ्र दो बैलों गये। चौदहपूर्व के धारी हुए। तदन्तर विशाखाचार्य, को स्वप्न में अपने चरणों में विनतभाव से बाद में पुष्पदन्त आचार्य ने जिनपाप्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, पड़ते हुए देखा। इससे सन्तुष्ट हो आचार्य लित को दीक्षा देकर तथा वीसदि सूत्रों की सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, धरसेन ने 'श्रुतदेवता जयवन्त हो' यह शब्द रचना कर और जिनपालित को पढ़ाकर गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य उच्चारण किया। साथ ही उन्होंने 'मुझे सम्यक् भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। परिपाटी क्रम से ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व श्रुत को धारण और ग्रहण करने में समर्थ ऐसे भूतबलि आचार्य ने जिनपालित के पास आदि दस पूर्वो के धारक तथा शेष चार पूर्वो दो शिष्यों का लाभ होने वाला है। यह जान वीसदि सूत्रों को देखकर और पुष्पदन्त के एकदेश धारक हुए। इसके बाद नक्षत्राचार्य, | लिया। आचार्य अल्पायु हैं ऐसा जिनपालित से जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसा- जिस दिन आचार्य धरसेन ने यह स्वप्न जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का विच्छेद होने चार्य ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से देखा था उसी दिन वे दोनों साधु आचार्य के भय से द्रव्यप्रमाणानुगम से लेकर शेष सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के और चौदह पूर्वो के धरसेन को प्राप्त हुए। पादवन्दना आदि ग्रन्थ की रचना की। एकदेश धारक हुए। तदनन्तर सुभद्र, यशो- कृतिकर्म से निवृत्त हो और दो दिन विश्राम यह आचार्य धरसेन प्रभृति तीन प्रमुख भद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों आचार्य कर, तीसरे दिन वे दोनों साधु पुनः आचार्य आचार्यों का संक्षिप्त परिचय है। इस समय सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंगों धरसेन के पादमूल में उपस्थित हुए। इष्ट कार्य जैन परम्परा में पुस्तकारूढ़ जो भी श्रुत के तथा पूर्वो के एकदेश के धारक हुए। के विषय में जिज्ञासा प्रकट करने पर आचार्य उपलब्ध है उसमें षट्खण्डागम और कषायआचार्य धरसेन-पष्पदन्त-भतबलि | धरसेन ने आशीर्वादपूर्वक दोनों को सिद्ध | प्राभृत की रचना प्रथम है। षटखंडागम के मल करने के लिए एक को अधिक अक्षरवाली और स्रोत के व्याख्याता हैं आचार्य धरसेन तथा तदनन्तर सभी अंग-पूर्वो का एकदेश दूसरे को हीन अक्षरवाली दो विद्याएँ दी और रचयिता हैं आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि। ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन कहा इन्हें उपवास धारण कर सिद्ध करो। आचार्य को प्राप्त हुआ। ये सौराष्ट्र देश के आचार्य गुणधर-यतिवृषभ विद्याएँ सिद्ध होने पर उन दोनों साधुओं ने गिरिनगर पत्तन के समीप ऊर्जयन्त पर्वत की देखा कि एक विद्या की अधिष्ठात्री देवी के जैन-परम्परा में षट्खण्डागम का जो मई 2001 जिनभाषित 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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