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स्थान है वही स्थान कषायप्राभृत का भी है। | शिवकोटि, समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलं- | सम्यकश्रत-परिचय इन आगमग्रन्थों का मूल स्रोत क्या है यह तो | कदेव, विद्यानन्दि और योगीन्द्रदेव प्रभृति
इस समय इस भरतक्षेत्र में केवली, श्रुत-परिचय के समय बतलायेंगे। यहाँ तो सभी आचार्यों ने तथा राजमल, बनारसीदास
श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वियों का तो मात्र कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य गुणधर | जी आदि विद्वानों ने इनका अनुसरण किया
सर्वथा अभाव है ही, उत्तरकाल में विशिष्ट और उस पर वृत्तिसूत्रों की रचना करने वाले | है। आचार्य अमृतचन्द्र के विषय में तो इतना
श्रुतधर जो ज्ञानी आचार्य हो गये हैं उनका भी आचार्य यतिवृषभ के बारे में विचार करना | ही लिखना पर्याप्त है कि मानो आचार्य
अभाव है। फिर भी उन आचार्यों द्वारा है। कषायप्राभृत की प्रथम गाथा से सुस्पष्ट कुन्दकुन्द के पादमूल में बैठकर ही 'समय
लिपिबद्ध किया गया जो भी आगम साहित्य विदित होता है कि आचार्य धरसेन के समान | सार' आदि श्रुत की टीकायें लिखी हैं।
हमें विरासत में मिला है उसका पूरी तरह से आचार्य गुणधर भी अंग-पूर्वो के एक देश के चरणानुयोग को पुस्तकारूढ़ करने
मूल्यांकन करना हम अल्पज्ञों की शक्ति के ज्ञाता थे। उन्होंने कषायप्राभृत की रचना | वाले प्रथम आचार्य बट्टकेरस्वामी हैं। इनके
बाहर है। पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे प्राभृत | द्वारा निबद्ध 'मूलाचार' इतना सांगोपांग है कि
पूर्व काल में अरिहन्त परमेष्ठी की के आधार से की है। इससे विदित होता है आचार्य वीरसेन इसका आचारांग नाम द्वारा
वाणी के रूप में जिस श्रुत का गणधरदेव ने कि जिस समय पाँचवें पूर्व की अविछिन्न उल्लेख करते हैं। उत्तरकाल में जिन आचार्यों
संकलन किया था वह अंगबाह्य और परम्परा चल रही थी तब आचार्य गुणधर इस और विद्वानों ने मुनि-आचार पर जो भी श्रुत
अंगप्रविष्ट के भेद से दो भागों में विभक्त पृथ्वी-तल को अपने वास्तव्य से सुशोभित निबद्ध किया है उसका मूल स्रोत मूलाचार
किया गया था। अंगबाह्य ही, साथ ही आचार्य कर रहे थे। ये अपने काल के श्रुतधर आचार्यों ही है। आचार्य वसुनन्दि ने इस पर एक टीका
पुष्पदन्त और भूतबलि भी कम श्रेयोभागी में प्रमुख थे। लिखी है। भट्टारक सकलकीर्ति ने भी
नहीं, जिनकी विलक्षण प्रतिभा और प्रयास के आचार्य यतिवृषभ उनके बाद आचार्य मूलाचारप्रदीप नामक एक ग्रन्थ की रचना की
फलस्वरूप अंग-पूर्वश्रुत का यह अवशिष्ट नागहस्ती के काल में हुए हैं, क्योंकि आचार्य है। उसका मूल स्रोत भी मूलाचार ही है। इसी
भाग पुस्तकारूढ़ हुआ। भावविभोर होकर वीरसेन ने इन्हें आचार्य आर्य मंक्षु का शिष्य प्रकार चार आराधनाओं को लक्ष्य कर आचार्य
मनःपूर्वक हमारा उन भावप्रवण परम सन्त और आचार्य नागहस्ती का अन्तेवासी लिखा शिवकोटि ने आराधनासार नामक श्रुत की
आचार्यों को नो-आगमभाव नमस्कार है। है। ये प्रतिभाशाली महान आचार्य थे, यह रचना की है। श्रुत के क्षेत्र में मूल श्रुत के समान
सम्यक् श्रुत के प्रकाशक वे तो धन्य हैं ही, इनके कषायप्राभृत पर लिखे गये वृत्तिसूत्रों | इसकी भी प्रतिष्ठा है।।
उनकी षट्खण्डागमस्वरूप यह अनुपम कृति (चूर्णिसूत्रों) से ही ज्ञात होता है। वर्तमान में श्रावकाचार का प्रतिपादन करने वाला
भी धन्य है। उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति इनकी अविकल | प्रथम श्रुतग्रन्थ रत्नकरण्डश्रावकाचार है। यह 'रचना है यह कहना तो कठिन है, पर इतना आचार्य समन्तभद्र की कृति है, जिसका मूल
अनुपलब्ध चार टीकाएँ अवश्य है कि इसके सिवा एक त्रिलोकप्रज्ञप्ति आधार उपासकाध्ययनांग है। इसके बाद षट्खण्डागम का समस्त जैन वाङ्मय और होनी चाहिए। सम्भव है उसकी रचना अनेक अन्य आचार्यों और विद्वानों ने में जो महत्त्वपूर्ण स्थान है और उनमें इन्होंने की हो।
गृहस्थधर्म पर अनेक ग्रन्थों की रचनायें की | जीवसिद्धान्त तथा कर्मसिद्धान्त का जैसा ___यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि |
विस्तार से सांगोपांग विवेचन किया गयाहै सम्यक् श्रुत के अर्थकर्ता तीर्थकर केवली होते प्रथमानुयोग में महापुराण, पद्मपुराण उसे देखते हुए इतने महान् ग्रन्थ पर सबसे हैं और ग्रन्थकर्ता गणधरदेव होते हैं। इस तथ्य | और हरिवंशपुराण प्रसिद्ध हैं। इनकी रचना भी पूर्व आचार्य वीरसेन ने ही टीका लिखी होगी, को ध्यान में रखकर आनुपूर्वी क्रम से विचार | यथासम्भव परिपाटी क्रम से आये हुए अंग- यह बुद्धिग्राह्य प्रतीत नहीं होता। इन्द्रनन्दि के करने पर विदित होता है कि सिद्धान्त-ग्रन्थों पूर्वश्रुत के आधार से की गई है। जिन आचार्यों श्रुतावतार पर दृष्टिपात करने से विदित होता और तदनुवर्ती श्रुत के अतिरिक्त अन्य जो ने इस श्रुत को सम्यक् प्रकार से अवधारण है कि सर्व प्रथम षट्खण्डागम और कषायभी श्रुत वर्तमानकाल में उपलब्ध होता है | कर निबद्ध किया है उनमें आचार्य जिनसेन प्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरुपरिउसके रचयिता आचार्यों ने परिपाटी क्रम से (महापुराण के कर्ता), आचार्य रविषेण पाटी से कुण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दि मुनि को प्राप्त हुए श्रुत के आधार से ही उसकी रचना (पद्मपुराण के कर्ता) और आचार्य जिनसेन प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खकी है। इसलिए यहाँ पर कुछ प्रमुख श्रुतधर (हरिवंशपुराण के कर्ता) मुख्य हैं। ण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार आचार्यों का नाम-निर्देश कर देना भी इष्ट है इस तरह चारों अनुयोगों में विभक्त श्लोकप्रमाण परिकर्म नाम की एक टीका जिन्होंने अन्य अनुयोगों की रचना कर समग्र मूल श्रुत की रचना आनुपूर्वी से प्राप्त लिखी। यह तो स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दि ने प्रकृत सर्वप्रथम श्रुत के भंडार को भरा है। अंगपूर्वश्रुत के आधार से ही इन श्रुतधर में जिन पद्मनन्दि मुनि का उल्लेख किया है द्रव्यानुयोग को सर्वप्रथम पुस्तकारूढ़ करने आचार्यों ने की है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए। वे प्रातःस्मरणीय कुन्दकुन्द आचार्य ही होने वाले प्रमुख आचार्य कुन्दकुन्द हैं। इनकी और जैन परम्परा में पूर्व-पूर्व श्रुत की अपेक्षा ही चाहिए। इनके द्वारा रचित श्रुत की महिमा इसी से जानी उत्त-उत्तर श्रुत को प्रमाणं माना गया है। अतः इन्द्रनन्दि ने दूसरी जिस टीका का जा सकती है कि भगवान् महावीर और गौतम | सव्व इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही श्रुत उल्लेख किया है वह शामकुण्ड आचार्यकृत गणधर के बाद इनको स्मरण किया जाता है। की प्रामाणिकता स्वीकार करनी चाहिए। थी। वह छठे खण्ड को छोड़कर शेष पाँच उत्तरकाल में आचार्य गृद्धपिच्छ, बट्टकेर,
खण्डों और कषायप्राभृत इस प्रकार दोनों
-मई 2001 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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