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प्रकाश पाकर हमें स्वयं पुरुषार्थ करना होगा। | प्रकाश के साथ बाहर दिखने लगता है ऐसा । श्रुत का उपयोग भिन्न क्षेत्र में लेते हैं तो दूसरी बात, प्रातः कालीन सूर्य जब किरणे ही वह केवलज्ञान है। श्रुतज्ञानावरणी कर्म का | उसका कोई मूल्य नहीं है। यदि स्वक्षेत्र में काम फेंकता है तब हमारी छाया विपरीत दिशा में जब पूर्ण क्षय होगा तब आत्मा में एक नई लेते हैं तो केवलज्ञान की उत्पत्ति में देर नहीं पड़ती है और सायंकाल जब अस्ताचल में दशा उत्पन्न होगी। इसी दशा को प्राप्त करने लगती। अर्थात् कोई भी क्रिया करो विधि के जाता है तब भी हमारी छाया विपरीत दिशा के लिए यह श्रुत है।
अनुसार करो। दान इत्यादि क्रिया दाता और में पड़ती है लेकिन वही सूर्य जब मध्यान्ह में 'श्रुतमनिन्द्रियस्य' मन का विषय श्रुत पात्र की विशेषता द्रव्य और विधि की तपता है तब हमारी छाया परपदार्थों की ओर | है। मन को अनंग भी बोलते हैं। वह भीतर विशेषता, से विशिष्ट हो जाती है। फलवती न जाकर हमारे चरणों में ही रह जाती है। यही रहता है उसके पास अंग नहीं है किन्तु वह हो जाती है। औषधि सेवन में जैसे वैद्य के स्थिति श्रुत की है। जब हमारा श्रुतज्ञान बाह्य अंग के भीतर अंतरंग होता है। इसी अंतरंग अनुसार खुराक और अनुपान का ध्यान रखा पदार्थों में न जाकर आत्मस्थ हो जाता है तभी | के द्वारा ही सब कार्य होता है। यदि अंतरंग | जाता है ऐसा ही प्रत्येक क्रिया के साथ ज्ञान की उपलब्धि मानी जाती है। हम मध्य विकृत हो जाए और बहिरंग साफ सुथरा रहे सावधानी आवश्यक है। में रहे और मध्यस्थ रहें तो यह मध्याह्न हमारे तो भी कार्य नहीं होगा। जिसका अंतरंग शुद्ध स्वाध्याय करने का कहने से प्रायः जीवन के लिए कल्याणकारी है।
होगा उसके लिए श्रुत अंतर्मुहूर्त में पूरा का ऐसा होता है कि जो समय स्वाध्याय के लिए जब तेज धूप पड़ती है और पंडित जी पूरा प्राप्त हो जाता है। अंतर्मुहूर्त में ही उसे निषिद्ध है उन समयों में भी स्वाध्याय करने (पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य सागर) बार- कैवल्य भी प्राप्त हो सकता है। वर्तमान में लगते हैं। सिद्धांतग्रंथों के पठन पाठन का बार कहते हैं कि महाराज बाहर बहुत ततूरी यह अवसर्पिणी काल होने से श्रुत निरंतर अष्टमी चतुर्दशी को निषेध किया है तो है। ततूरी का अर्थ बहुत अच्छा उन्होंने बताया घटता चला जा रहा है। वह समय भी आया सावधानी रखना चाहिए। शास्त्र के प्रति था। मुझे मालूम नहीं था कि ततूरी का अर्थ जब धरसेन आचार्य के जीवन काल में एक- बहुमान, उसके प्रति विनय, उनके लिए इतना गम्भीर है। तप्त+उर्वी = तप्तूर्वी एक अंग का अंश ज्ञान शेष रह गया और निश्चित काल आदि सभी आपेक्षित हैं। पढ़ना (ततूरी)। जिस समय उर्वी अर्थात् पृथ्वी तप आज उसका शतांश क्या सहस्रांश भी शेष उसे ग्रहण और धारण करना सभी हो सके जाती है उस समय बोलते हैं बहुत ततूरी है। नहीं रहा।
इसका ख्याल रखना चाहिए। एक वर्ष में जो इस ततूरी के समय मध्यान्ह में किसान लोग आज सुबह पढ़ लेते हैं शाम को पूछो शांति से स्वाध्याय करना चाहिए उसे एक गर्मी के दिनों में भी शान्ति का अनुभव करते तो उसमें से एक पंक्ति भी ज्यों की त्यों नहीं माह में कर ले तो क्या होगा मात्र पढ़ना होगा, हैं। शान्ति का अनुभव इसलिए करते हैं कि बता सकते। थोड़ा सा मन इधर उधर चला ग्रहण और धारण नहीं होगा। अब मृगशीतला आ गयी और कुछ दिन के गया, उपयोग फिसल गया तो कहीं के कहीं श्रुतज्ञान हमारे लिये बहुत बड़ा साधन उपरान्त वर्षा आयेगी, बीज बोयेंगे, फसल पहुँच जाते हैं। क्या विषय चल रहा था, पता है। श्रुतज्ञान के बिना आज तक किसी को भी लहलहायेगी। यदि अभी धरती नहीं तपेगी तो तक नहीं पड़ता। हमारे पूर्व में हुए आचार्यों मुक्ति नहीं मिली और न आगे मिलेगी। वर्षा नहीं आयेगी।
की उपयोग की स्थिरता, उनका श्रुत के प्रति अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान का मुक्ति इसी प्रकार जब तक श्रुत के साथ हम बहुमान आदि देखते हैं तो उसमें से हमारे में उतना महत्त्व नहीं है जितना श्रुतज्ञान का समाधिस्थ होकर अपने को नहीं तपायेंगे तब पास एक कण मात्र भी नहीं है, किन्तु भाव- है। केवल ज्ञान भी उसी का फल है। यदि इस तक अनंत केवलज्ञानरूपी फसल नहीं भक्ति और श्रद्धा ही एकमात्र हमारे पास महान् श्रुत का हम गलत उपयोग करते हैं तो आयेगी। जिस समय श्रुत आत्मस्थ हो जायेगा साधन है। यह श्रद्धा-विश्वास हमें नियम से अर्थ का अनर्थ हो सकता है। हमें श्रुत के तब आत्मा नियम से विश्रुत हो जायेगी। वहीं तक ले जाएगा जहाँ तक पूर्व आचार्य माध्यम से आजीविका नहीं चलानी चाहिए। विश्रुत का अर्थ है विख्यात होना। तब आत्मा गये हैं।
इसे व्यापार का साधन नहीं बनाना चाहिए। की तीन लोक में ख्याति फैल जायेगी। तीन आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में यह पवित्र जिनवाणी है। वीर भगवान के मुख लोक में उसी की ख्याति फैलती है जो संपूर्ण कहा है कि 'सद्दो णाणं ण हवदि जह्या सद्दो | से निकली है। जो श्रुत प्राप्त है उसके माध्यम श्रुत को पीकर के विश्रुत हो गया। विश्रुत का ण याणए किंचि, तह्मा अण्णं णाणं अण्णं सई | से स्व-पर कल्याण करना चाहिए। दूसरा अर्थ श्रुतभाव या श्रुत से ऊपर उठ जाना जिणा विंति। अर्थात् शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि श्रुत का फल बताते हुए परीक्षामुख सूत्र भी है। तो जो श्रुत से ऊपर उठे हुए हैं वे ही शब्द कुछ भी नहीं जानता इसलिए ज्ञान भिन्न | में आचार्य माणिक्यनंदी जी कहते हैं कि केवलज्ञानी भगवान तीन लोक में पूज्य है। | है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान का कथन है। यहाँ | 'अज्ञान निवृत्तिानोपानोपेक्षाश्च फलम्' अर्थात्
श्रुतज्ञान वास्तव में आत्मा का स्वभाव आशय यही है कि शब्द मात्र साधन है। उसके | श्रुत की सार्थकता तभी है जब हमारे अंदर नहीं है, किन्तु आत्म-स्वभाव पाने के लिए माध्यम से हम भीतरी ज्ञान को पहचान लें बैठा हुआ मोह रूपी अज्ञान अंधकार समाप्त श्रुतज्ञान है। उस श्रुतज्ञान के माध्यम से जो यही उसकी उपयोगिता है अन्यथा वह मात्र हो जाय और हेय उपादेय की जानकारी प्राप्त अपने आपको तपाता है वह केवल ज्ञान को कागज है। जैसे भारतीय मुद्रा है वह कागज | करके हेय से बचने का प्रयास किया जाये और उपलब्ध कर लेता है। श्रुतज्ञान तो आवरण में | की होकर भी भारत में मूल्यवान है, दूसरे उपादेय को ग्रहण किया जाय अर्थात् चारित्र से झाँकता हुआ प्रकाश है। जब मेघों का पूर्ण स्थान पर कार्यकारी नहीं है। वहाँ उसको की ओर कदम बढ़ना चाहिये। भले ही अल्प अभाव हो जाता है तब जो सूर्य अपने सम्पूर्ण कागज ही माना जायेगा। इसी प्रकार यदि हम | ज्ञान हो लेकिन उसके माध्यम से हमें संयमित
मई 2001 जिनभाषित 10Jain Education International
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