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________________ - परिश्रम के बिना तुम, नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह, प्रत्युत जीवन को खतरा है। न्यायिक-प्रशासनिक अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह सही व्यक्ति पर अनुग्रह करे एवं समाज विरोधी आचरण को नियंत्रित करे शिष्टों पर अनुग्रह करना, सहज प्राप्त शक्ति का, सदुपयोग करना ही धर्म है। और दुष्टों का निग्रह नहीं करना, शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म राज्य शासन द्वारा अपने अधीनस्थ अल्प वेतनभोगी कर्मचारियों को पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ दी जावें और उन्हें विकास के अवसर उपलब्ध कराये जावें। इन सिद्धान्तों का चित्रण निम्नांकित पंक्तियों में उत्कृष्ट ढंग से किया गया है थोड़ी सी/तन की भी चिन्ता होनी चाहिए, तन के अनुरूप वेतन अनिवार्य है, मन के अनुरूप विश्राम भी। मात्र दमन की प्रक्रिया से, कोई भी क्रिया, फलवती नहीं होती जो कि महा अज्ञानता है, प्राणदण्ड से औरों को तो शिक्षा दूरदर्शिता का अभाव, मिलती है, पर के लिए नहीं, परन्तु, जिसे दण्ड दिया जा रहा है, अपने लिए भी घातका उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त। नहीं-नहीं-नहीं/अभी लौटना नहीं। दण्ड संहिता इसको माने या न माने अभी नहीं-कभी भी नहीं, क्रूर अपराधी को, क्योंकि अभी/आतंकवाद गया नहीं, क्रूरता से दण्डित करना भी उससे संघर्ष करना है अभी एक अपराध है, यह कृत संकल्प है अपने धृव पर दृढ़। न्याय मार्ग से स्खलित होना है। जब तक जीवित है आतंकवाद न्याय शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धान्त शक्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती | है कि चोरी करने वाला तथा चोरी की प्रेरणा देने वाला दोनों समान रूप से दोषी हैं। यह, ये आँखे अब/आतंकवाद को देख नहीं आचार्य श्री इस सिद्धान्त से भी आगे बढ़कर सकती उद्घोष करते हैंकि चोर को चोरी की प्रेरणा ये कान अब/आतंकवाद का नाम सुन देने वाला चोर से अधिक दोषी हैनहीं सकते, चोर इतने पापी नहीं होते, यह जीवन की कृत संकल्पित है कि जितने की चोरों को पैदा करने वाले। उसका रहे या इसका __राजनीति, प्रशासन और न्यायपालिका यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा। राज्यशक्ति के महत्वपूर्ण स्तंभ है। मनुष्य को इन शक्तिस्तंभों के विभिन्न पदों पर सदैव __अधिकारियों के लिए सन्त समागम बने रहने की तृष्णा घेर लेती है। यह तृष्णा जीवन में संतोष के आविर्भाव का अमोध अत्यधिक कष्ट दायक होती है। पद लिप्सा के उपाय है दुष्परिणामों को कवि ने निम्न पंक्तियों में संत समागम की यही तो सार्थकता रेखांकित किया है और उससे दूर रहने की प्रेरणा दी हैसंसार का अन्त दिखने लगता है, जितने भी पद हैं, समागम करने वाला भले ही, वे विपदाओं के आस्पद हैं, तुरन्त संत संयत/बने या न बने पद लिप्सा का विषधर वह इसमें कोई नियम नहीं है/किन्तु वह भविष्य में भी हमें न सँघे, संतोषी अवश्य बनता है। बस यही कामना है, विभो। सही दिशा का प्रसाद ही अधिकारियों के लिए सन्त को यह सही दशा का प्रासाद है। सीख माननीय है__ दण्डसंहिता का प्रमुख लक्ष्य अपराधी धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, की उद्दण्डता को दूर करना है, उसे क्रूरतापूर्वक और पीड़ित करना नहीं। आचार्यश्री कांटो को काटने हम सबकी, की नहीं बल्कि उनके घावों को सहलाने की शिक्षा देते हैं। वे पापी से नहीं पाप से, पंकज धरती में निष्ठा घनी रहे बस। से नहीं पंक से घृणा करने की सीख देते हैं 30, निशात कालोनी, भोपाल (म.प्र.)-462003 शासन का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है अल्प बचत के लिये प्रोत्साहन। आचार्य श्री ने यह तथ्य इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है धन का मितव्यय करो, अति व्यय नहीं, अपव्यय तो कभी नहीं, भूलकर स्वप्न में भी नहीं। देश तथा प्रदेश में फैलता हुआ आतंक सामान्य जन की सतत उपेक्षा, उपहास, शोषण और अपमान का परिणाम है। यह स्थापित करते हुए आचार्य श्री नीति-निर्धारकों को महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन देते हैंमान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है। अतिपोषण और अतिशोषण का भी यही परिणाम होता है तब जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं, बदले का भाव प्रतिशोध। कोऽन्धो योऽङ्कार्यरतः को वधिरो यः श्रृणोति न हितानि। को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति।। - अन्धा कौन है? जो अनुचित कार्य में लगा है। बहरा कौन है? जो हित की बात नहीं सुनता। गूंगा कौन है? जो समय पर प्रिय बोलना नहीं जानता। --मई 2001 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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