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________________ 'मूकमाटी' में प्रशासनिक एवं न्यायिक दृष्टि • सुरेश जैन, आई.ए.एस. आचार्य विद्यासा रचनाकार ने अपेक्षा की आगर जी द्वारा विर_ 'मूकमाटी' आचार्य श्री विद्यासागर जी का युगान्तरकारी महाकाव्य | है कि वे सिंहवृत्ति अपचित महाकाव्य मूकहै। महाकाव्य के साथ-साथ यह एक विश्वकोष भी है। 'महाभारत' के विषय नायें। मानवीय हितों के माटी भारतीय संस्कृति में कहा गया है : 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से सम्बन्धित जो ज्ञान इसमें | विपरीत सिद्धान्त विमुख की महत्त्वपर्ण धरोहर है।। है वही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं है।' ऐसा ही मकमाटी होकर कोई समझौता न परमधाम नैनागिरि की के विषय में भी कहा जा सकता है। उसमें काव्यलक्षणभूत रसात्मकता तो | करें। मायाचार एवं आडंमाटी में मूकमाटी महा- है ही, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से संबंधित विभिन्न ज्ञातव्यों से भी बरों से स्वयं को अलग काव्य की पूर्णता की | परिपूर्ण है। प्रशासन और न्याय अर्थ और काम के अंग हैं। उन पर भी | रखते हुए सदैव विवेक जानकारी पूर्णता के कुछ समीचीन दिशानिर्देश मूकमाटी में उपलब्ध है। प्रस्तुत शोधपूर्ण आलेख में | पूर्ण निर्णय लेकर समाज ही क्षणों बाद प्राप्त कर | उन्हीं का अनुसंधान किया गया है। में उच्च कोटि के प्रशाहमें हार्दिक प्रसन्नता सनिक एवं न्यायिक मानहुई थी। इसके पूर्व वरिष्ठ विद्वानों, साहित्य- । स्थापित करना आवश्यक है जिससे ऊँचे पद | दण्ड स्थापित करें। यथाकारों एवंअपनी पत्नी विमला जैन, जिला एवं पर बैठकर उन्हें साधारण से साधारण व्यक्ति पीछे से कभी किसी पर सत्र न्यायाधीश, के साथ बैठकर इस लेखक के साथ मानवीय व्यवहार करने में हीनता का धावा नहीं बोलता सिंह, ने नैनागिरि की सिद्धशिला पर विराजमान अनुभव न हो। यदि राजनीतिज्ञ, न्यायविद गरज के बिना गरजता भी नहीं, आचार्य विद्यासागर जी के मधुर कण्ठ से इस और प्रशासक आचार्य श्री के संदेश का और/बिना गरजे/किसी पर बरसता महाकाव्य की अनेक पंक्तियाँ सुनने का शतांश भी अपने जीवन में उतार लें तो वे भी नहीं अनुपम सौभाग्य प्राप्त किया था। और हम लौकिक एवं आध्यात्मिक सम्पन्नता यानी मायाचार से दूर रहता है सिंह नैनागिरि में जनमी यह मूकमाटी | के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं। सिंह विवेक से काम लेता है, प्रत्येक मानव में शाश्वत जीवनमूल्यों की | मूकमाटी हमें ऐसे सूत्र उपलब्ध कराती . सही कारण की ओर ही स्थापना कर संस्कृति के विकास में अपना | है जिनका अवलम्बन कर हम मानवता की सदा दृष्टि जाती है सिंह की। महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। यह प्रत्येक ऊँचाइयों का स्पर्श कर सकते हैं और अधिकांश न्यायिक एवं प्रशासनिक व्यक्ति को संजीवनी शक्ति प्रदान करती हुई राजनीति, न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकारी अपने शारीरिक सुख, पदोन्नति अपनी उत्कृष्ट वैचारिक क्रांति के द्वारा युगीन अंग बनकर राष्ट्र में सुख शान्ति का वातावरण एवं वेतनवृद्धि के चिंतन में अहर्निश संलग्न जीवनादर्शों की स्थापना करती है। पिसनहारी निर्मित करने में अहम् भूमिका निभा सकते रहते हैं। उनके लिये निम्नांकित पंक्तियाँ की मढ़िया में प्रारंभ हुई तथा पारसनाथ की वास्तविक जीवन लक्ष्य निर्धारित करने की हैं। नीचे उन सूत्रों का उद्घाटन किया जा रहा समवशरण भूमि में पूरी हुई मूकमाटी विश्व | है। प्रेरणा देती हैंके प्रत्येक प्राणी को विकास के समान एवं भोग पड़े हैं यहीं/भोगी चला गया, प्रशासकों के उत्थान के लिए अहंकारसमुचित अवसर उपलब्ध कराती है और योग पड़े हैं यहीं/योगी चला गया, शून्यता एवं इंद्रिय संयम की सर्वप्रथम प्रकाश स्तंभ की भाँति उसके उत्कर्ष का पथ कौन किसके लिए/धन जीवन के आवश्यकता हैप्रशस्त करती है। लिए, विकास के क्रम तब उठते हैं, मानव धर्म के बिना राजनीति, न्याय या जीवन धन के लिये? जब मति साथ देती है, पालिका और कार्यपालिका पंगु होती हैं मूल्य किसका/तन का या वेतन का, जो मान से विमुख होती है, क्योंकि प्रत्येक व्यवस्था मानव को केन्द्र में जड़ का या चेतन का? और रखकर ही निर्मित की जाती है। व्यवस्था का प्रत्येक अधिकारी को पुरुषार्थ एवं यह त्रिकोण समाज का आधारभूत एवं विनाश के क्रम तब जुटते हैं, परिश्रम की प्रेरणा देते हुए पुरुषार्थ एवं परिश्रम महत्त्वपूर्ण अंग है। आज राजनीतिक, न्याय जब रति साथ देती है, के जीवंत शीर्ष पुरुष कहते हैं - एवं प्रशासकीय पंगुता अपने शिखर पर है। जो मान से प्रमुख होती है। बाहुबल मिला है तुम्हें, करो पुरुषार्थ हमें अपने राजनीतिज्ञों, न्यायविदों एवं उत्थान-पतन का यही आमुख है। सही, प्रशासकों में मानवता के शाश्वत मूल्य | प्रशासकों एवं न्यायिक अधिकारियों से | पुरुष की पहचान करो सही, मई 2001 जिनभाषित 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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