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________________ होती हैं। इसलिए मन के विषय-विरक्त हो जाने पर इच्छाएँ समाप्त | यही कारण है कि कई बार लोग बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि हो जाती हैं। अतः इन्द्रियों पर अलग से निग्रह आवश्यक नहीं है। की हानियों से सचेत होकर जब उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करते हैं तो इच्छाओं के दो स्रोत बार-बार कोशिश करने पर भी नहीं छोड़ पाते। इसीलिए जहाँ यह सत्य है कि इन्द्रियों के विषय-निवृत्त हो जाने पर भी मन का विषयपर यह धारणा तथ्य के विपरीत है। यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से विरक्त होना अनिवार्य नहीं है, वहाँ यह भी सत्य है कि मन के विषयदेखें तो पायेंगे कि इच्छाओं से मुक्ति के लिए विषयों से विरक्ति विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों का विषय-निवृत्त होना निश्चित नहीं ही प्रर्याप्त नहीं है। क्योंकि इच्छाएँ केवल विषयासक्ति से ही उत्पन्न है। यद्यपि यह सुनने में कुछ विचित्र लगेगा, क्योंकि हमारे मन में नहीं होती, इन्द्रियों के व्यसन या भोगाभ्यास से भी उत्पन्न होती हैं। यही धारणा है कि मन ही इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति का एकमात्र हेतु यह एक शुद्ध शारीरिक या स्नायुतन्त्रीय प्रक्रिया है। मूलरूप से इच्छाएँ है और उसके विरक्त हो जाने पर इन्द्रियों का भी विषयनिवृत्त हो जाना विषयराग से ही उत्पन्न होती हैं, किन्तु तृप्ति के लिए जब इन्द्रियाँ अनिवार्य है। पर अनुभव ऐसा नहीं कहता। मन के विषय-विरक्त हो विषयभोग करती हैं तब नाड़ीतन्त्र में भोग का एक संस्कार पड़ता जाने पर भी इन्द्रियों के अभ्यास-वश विषयेच्छा उत्पन्न होती रह है। यह संस्कार जब बार-बार आवत्त होता है तब वह एक व्यसन सकती है, जैसे कि चाय आदि की आदत पड़ जाने पर उनसे विरक्ति या लत में परिणत हो जाता है। तब इन्द्रियों में सम्बन्धित विषय के होने के बावजूद उनके भोग की इच्छा उत्पन्न होती रहती है। इस तथ्य भोग की इच्छा अपने आप उत्पन्न होने लगती है। जिस समय, जिस को देखते हुए गीता का यह कथन बिलकुल सत्य प्रतीत होता है कि वस्तु के भोग का अभ्यास इन्द्रियों को हो गया है उस समय उस 'काम' (इच्छा) का निवास मन, बुद्धि और इन्द्रिय तीनों में रहता वस्तु की प्राप्ति के लिए ऐन्द्रियक नाड़ी तन्त्र में उद्दीपन होता है। इससे शरीर और मन में व्याकुलता की अनुभूति होती है जिससे मुक्त होने इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। के लिए उस वस्तु का भोग आवश्यक हो जाता है। इस उद्दीपन को एतैर्विमोहत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनाम्॥ गीता 3/40 'तलब' कहते हैं। उदाहरण के लिए जिन्हें बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू. चाय, शराब आदि की लत पड़ जाती है उनके एन्द्रियक तन्तुओं में | व्यसननिवृत्ति अभ्यास से निर्धारित समय पर इन द्रव्यों के भोग की उत्तेजना पैदा होती है और इस प्रकार इच्छाओं के दो स्रोत हैं विषयराग तथा तब उन्हें बरबस इनका सेवन करना पड़ता है। इसी प्रकार जिन्हें अधिक | इन्द्रियव्यसन। विषयराग तो ज्ञान से नष्ट हो जाता है, इन्द्रिय-व्यसन भोजन करने की या अधिक कामसेवन की आदत पड़ जाती है उनकी | की निवृत्ति कैसे हो? इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। उनकी व्यवस्था पूर्णतः इन्द्रियाँ उतने ही भोजन और उतने ही कामसेवन की माँग करने लगती भौतिक या स्नायविक है। उनकी अभ्यासजन्य स्नायविक व्यवस्था हैं। इसे मनोवैज्ञानिक भाषा में प्रतिबद्धीकरण (Conditioning) | को ज्ञान से कैसे बदला जा सकता है? नाड़ीतन्त्र आध्यात्मिक सत्य कहते हैं। और दार्शनिक तर्कों को कैसे समझे? तर्कों को चेतन तत्त्व ही समझ इन्द्रियों का एक अलग विधान सकता है। जो विकार अज्ञानजन्य हो उसे ही ज्ञान से नष्ट किया जा सकता है, किन्तु जो विकार अभ्यासजन्य हो उसे ज्ञान से समाप्त भोगाभ्यास हो जाने पर इन्द्रियों का अपना एक अलग विधान करना कैसे सम्भव है? यदि मन की कोई धारणा गलत हो तो उसे बन जाता है। पहले वे मन के अनुसार चलती हैं, बाद में मन को केवल समझ से बदला जा सकता है, लेकिन यदि तन की कोई आदत अपने अनुसार चलाने लगती हैं, और उनकी चालक शक्ति इतनी गलत हो तो उसे केवल समझ से कैसे बदला जा सकता है? जिन्हें प्रबल हो जाती है कि न चाहते हुए भी वे मन को बलपूर्वक अपनी बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि की लत पड़ गयी है उनके नाड़ीतन्त्र ओर खींच लेती हैं। यह तथ्य तो सर्वविदित है कि मन ही हमारे समस्त में उत्पन्न होने वाली तलब (उत्तेजना) क्या इन पदार्थों को हानिकारक कार्यों का स्रोत हैं, मन ही इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त समझ लेने मात्र से मिट सकती है? नहीं, समझ उत्पन्न होने के बाद करता है, पर इस तथ्य पर शायद सबका ध्यान न गया हो कि इन्द्रियाँ जब इस 'तलब' के अवदमन (उपेक्षा) का अभ्यास किया जायेगा भी मन को बलात् अपने विषयों की ओर आकृष्ट कर लेती हैं। गीता तभी मिट सकती है। अर्थात् जब-जब इन मादक द्रव्यों की इच्छा में यह तथ्य स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है उत्पन्न हो तब-तब उस इच्छा को पूर्ण न करने का प्रयास किया जाए यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। तभी नाड़ीतन्त्र में विकसित 'तलब' के संस्कार धीरे-धीरे शिथिल इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ 2/60 होकर नष्ट हो सकते हैं। इसके लिए कोई प्रतिपक्षी उपाय भी अपनाया - हे अर्जुन! समझदार मनुष्य भी इन इन्द्रियों को वश में करने जा सकता है, जैसे बीड़ी, तम्बाकू, आदि की तलब उत्पन्न होने पर का बार-बार प्रयत्न करे तो भी ये प्रचण्ड इन्द्रियाँ मन को जबर्दस्ती किसी अहानिकर वस्तु का सेवन किया जाय या चित्त को किसी रुचिकर विषयों की ओर खींच ले जाती हैं। कार्य में व्यस्त कर दिया जाय। पर व्यसनजन्य इच्छा को किसी भी । पंडित आशाधर जी ने भी अनगारधर्मामृत में इस मनोवैज्ञानिक | दशा में सन्तुष्ट न किया जाए। इस कार्य में आरंभ में कष्ट तो बहुत सत्य को अनावृत किया है - होगा, लेकिन हम पायेंगे कि धीरे-धीरे इन्द्रियों की व्यसनजन्य उत्तेजना इष्टमिष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भटीकृताः। तृप्ति की सामग्री न मिलने से क्षीण होती जा रही है और नाड़ीतन्त्र यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयन्ति बहिर्मनः॥ की विकृत व्यवस्था में बदलाव आ रहा है। इस प्रकार वह व्यसन अर्थात् यदि इन्द्रियों को इष्ट, मिष्ट और स्वादिष्ट भोजन से एक दिन पूर्णतः समाप्त हो जायेगा। समस्त इन्द्रियविषयों के अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया जाता है तो वे मन को बाह्य पदार्थों अनावश्यक भोग की आदतें इसी प्रकार मिटायी जा सकती हैं और में भ्रमण कराती हैं। -मई 2001 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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