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________________ सम्पादकीय श्रुतपञ्चमी : श्रुत की निश्चयपूजा आवश्यक श्रुतपञ्चमी श्रुत की पूजा का दिन है। इस दिन श्रुत का अवतार | और अभ्यन्तर तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है और न होगा।" हुआ था। जब सम्पूर्ण श्रुत के धारी आचार्यों का धीरे-धीरे अभाव होने आचार्य कुन्दकुन्द स्वाध्याय के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लगा, तब आचार्य-परम्परा से चला आता हुआ अंगों और पूर्वो के | प्रवचनसार में कहते हैंएकदेश का ज्ञान (एकदेशश्रुत) आचार्य धरसेन (प्रथम शताब्दी ई.) जिणसत्थादो अद्वे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। को प्राप्त हुआ। वे जिस समय सोरठ देश के गिरिनगर पर्वत की खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदव्वं ॥86॥ चन्द्रगुफा में स्थित थे उस समय उन्हें स्वयं को प्राप्त श्रुत के "जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत आगम से प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा मरणोपरान्त लुप्त हो जाने का भय हुआ। अतः उन्होंने दक्षिणापथ की | | जीवादि पदार्थों के स्वरूप को जानने से मिथ्यात्व का विनाश होता महिमानगरी में सम्मिलित हुए आचार्यों को पत्र लिखकर दो योग्य है। इसलिये जिनागम का अध्ययन विधिपूर्वक करना चाहिए।" मुनियों को भेजने का आग्रह किया। वहाँ से दो प्रतिभाशाली युवा मुनि इस आर्षवचन को ध्यान में रखते हुए हमारा यह मानना उनके पास भेजे गये, जिनके नाम पुष्पदन्त और भूतबलि रखे गये। स्वाभाविक है कि द्रव्यश्रुत के अभ्यास से श्रावकों को भावश्रुत की आचार्य धरसेन ने उन्हें महाकम्मपयडिपाहुड (महाकर्मप्रकृतिप्रामृत) प्राप्ति हो रही होगी, उनके मिथ्यात्व का विलय हो रहा होगा। किन्तु का अध्ययन कराया और बिदा कर दिया। उन्होंने प्राप्त ज्ञान को सूत्रबद्ध दृश्य उलटा ही दिखाई देता है। श्रुताभ्यास करते हुए भी श्रावकों का केया और उसे षट्खण्डागम नाम दिया। पश्चात् आचार्य भूतबलि ने एक वर्ग शासन देवी-देवताओं के नाम पर यक्ष-यक्षणियों की पूजा, उसे पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी के दिन चतुर्विध संघ के नवग्रहपूजा, तन्त्रमन्त्र, झाड़फूंक, गण्डाताबीज एवं नीलम पन्ना आदि साथ उसकी पूजा की। इसी कारण यह दिन श्रुत पञ्चमी के नाम से के प्रयोग द्वारा विघ्नों के विनाश और इष्टफलप्राप्ति की मान्यता के प्रसिद्ध हो गया। इस दिन दिगम्बर जैन प्रति वर्ष शास्त्रों की पूजा करते मिथ्यात्व में फंसा हुआ है। सज्जातित्व के नाम पर जैनधर्मावलम्बियों है, उनकी साफ-सफाई और जीर्णोद्धार करते हैं तथा नये वेष्टनों में में भी अवैज्ञानिक उपजातियों के भिन्न होने पर परस्पर विवाहसम्बन्ध बाँधकर सुरक्षित करते हैं। को धर्मविरुद्ध मानता है और उनसे उत्पन्न सन्तान को वर्णसंकर घोषित ___ यह श्रुत की व्यवहारपूजा है। निश्चयपूजा है श्रुत के अर्थ को करता है, जबकि मिथ्यादृष्टि के साथ उपजाति के समान होने पर किये आत्मसात् करना, भावश्रुत को हृदयंगम करना, जिसका फल होता जाने वाले विवाह को धर्मानुकूल बतलाता है। यह भी मिथ्यात्व में । मिथ्यात्व से मुक्ति। यह शुभ लक्षण है कि वर्तमान युग में श्रुत ही विचरण करने का सबूत है। का अभ्यास बड़े पैमाने पर हो रहा है। श्रावकों में तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव सूरि ने साफ कहा है कि पावकाचार, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार, समयसार, प्रवचनसार आदि मंत्रसाधित देवता कुछ भी नहीं कर सकते, न विघ्न उत्पन्न कर सकते पन्थों के स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है। साधुसन्तों और पण्डितों के हैं, न विघ्नों का विनाश। जो कुछ भी भला-बुरा होता है स्वयं के प्रवचनों में उमड़ती हुई भीड़ देखी जाती है। शास्त्रों का प्रकाशन व्यापक साता-असाता कर्म के उदय से होता है। वे दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते स्तर पर हो रहा है। पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा शास्त्रों के रहस्य खोले जा हैं कि 'क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित, अनन्तज्ञानादि गुणों हे हैं, शंकाओं का समाधान किया जा रहा है, शोधग्रन्थ लिखे जा से सहित जो वीतराग सर्वज्ञ देव हैं उनके स्वरूप को न जानने के हे हैं, संगोष्ठियों में शोध-आलेख पढ़े जा रहे हैं। गोया हर तरह से कारण मनुष्य ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, पुत के अर्थ को हृदयंगम करने और कराने की कोशिश की जा रही स्त्री और राज्यादि सम्पदा की प्राप्ति के लिए जो रागद्वेषयुक्त और आर्त्तरौद्रपरिणाम के धारक क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्यादेवीभारतीय मोक्षमार्गों में स्वाध्याय को परम तप माना गया है देवताओं की आराधना करता है उसे देवमूढ़ता कहते हैं। ये देवी-देवता . 'स्वाध्यायः परमं तपः।' गुरुकुलों में दीक्षान्त समारोह के अवसर कुछ भी फल नहीं देते। इसका प्रमाण यह है कि रावण ने रामचन्द्र पर 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' (स्वाध्याय में प्रमाद मत करना) यह जी और लक्ष्मण जी को मारने के लिए बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की उपदेश देने का नियम था। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में कहा है थी, कौरवों ने पाण्डवों के उन्मूलन के लिए कात्यायनी विद्या को साधा बारसविधझि वि तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदितु। | था और कंस ने श्रीकृष्ण के विनाश के लिए अनेक विद्याओं की आराधना ण वि आत्थि णवि य होही सज्झायसमं तवो कम्मं॥4091 की थी, किन्तु ये विद्याएँ उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकीं। इसके "सर्वज्ञ एवं गणधरादि के द्वारा प्रतिपादित बारह प्रकार के बाह्य विपरीत राम, पाण्डव और कृष्ण ने किसी देवी-देवता की आराधना -मई 2001 जिनभाषित 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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