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________________ नहीं की थी, तथापि निर्मल सम्यग्दर्शन द्वारा उपार्जित पूर्व पुण्य से | वस्तुएँ ही जुगाड़ना चाहते हैं। उनकी दृष्टि के सम्यक्त्व या मिथ्यात्व उनके सभी विघ्न दूर हो गये (द्रव्यसंग्रह, गाथा 41)। श्रुत में ऐसा | का पता इस बात से चलता है कि वे धन कमाने के लिए किन तरीकों उपदेश होने पर भी श्रावकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उक्त मिथ्यात्व | का इस्तेमाल करते हैं और हम देखते हैं कि उनके तरीके अपवित्र का शिकार है, जिससे स्पष्ट होता है कि हम श्रुत की केवल व्यवहारपूजा | हैं, समाजविरोधी और धर्मविरोधी हैं। अतः उनकी दृष्टि विषयों को करके कर्त्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं, उसकी निश्चयपूजा से हम कोसों | ही सारभूत मानने के तीसरे प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त है। इससे जाहिर है कि वे द्रव्यश्रुत की आराधना करते हुए भी भाक्श्रुत से वंचित किन्तु यह नहीं समझ लेना चाहिए कि श्रावकों का जो समुदाय | हैं अर्थात् वे श्रुत की निश्चयपूजा नहीं कर रहे हैं। शासन देवी-देवताओं की पूजा नहीं करता, नवग्रहों को नहीं पूजता, | इसके अतिरिक्त यह वर्ग यद्यपि सज्जातित्व के नाम पर मन्त्रतन्त्र के चक्कर में नहीं पड़ता और नीलम-पन्ना आदि रत्नों के | जैनधर्मानयायियों में उपजाति भिन्न होनेपर पारस्परिक विवाह को प्रयोग को विघ्नविनाशक नहीं मानता, वह मिथ्यात्व से मुक्त है। धर्मविरुद्ध नहीं मानता, तथापि उपजातियों में परस्पर उच्च-नीच, हकीकत यह है कि वह श्रुत का सघन स्वाध्याय करते हुए भी एक श्रेष्ठ-हीन का भेदभाव करता है। फलस्वरूप साधर्मी होने के नाते जहाँ दूसरे प्रकार के मिथ्यात्व में फँसा हुआ है। वह कुन्दकुन्द द्वारा प्रत्येक जैन के प्रति वात्सल्यभाव धारण करना चाहिए, वहाँ उपजाति हिंसारहिये धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। की भिन्नता के कारण तीव्र द्वेषभाव रखता है। इस मामले में श्रावकों णिग्गंथे पावयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं॥मोक्खपाहुड, 90॥ के ये तीनों वर्ग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। उपजातीय विद्वेष को इस गाथा में बतलाये गये गुरु के लक्षण को (कि निम्रन्थ ही | ये इस सीमा तक ले आये हैं कि इन्होंने साधु-सन्तों को भी अपने-पराये गुरु होता है) ताक पर रखकर सग्रन्थ या असंयमी को गुरु मानता में बाँट लिया है और उन पर भी अपने विद्वेष-विष का असर डालने है, उसे पूजता है, उसके आगमविरुद्ध एकान्तवादी उपदेश को, उसके की कोशिश कर रहे हैं। इस घातक प्रवृत्ति से अल्पसंख्यक जैन समाज द्वारा रचित निश्चयाभासी ग्रन्थों को प्रमाण रूप में स्वीकार करता है, को विघटन का खतरा है। यह उपजातीय विद्वेष श्रुताराधना करते हुए उन्हें आर्षवचनों की अपेक्षा भी प्रधानता देता है और जो सच्चे निर्ग्रन्थ भी महामिथ्यात्व में फँसे होने का और निश्चय श्रुतपूजा से दूर रहने गुरु हैं, उन्हें द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि कहता है। श्रावकों का यह वर्ग मानता का जबर्दस्त सबूत है। है कि आजकल भावलिंगी मुनि हो ही नहीं सकते। इसलिए इस नस्ल | कुछ श्रावक व्रत ग्रहण कर लेते हैं, प्रतिमाएँ धारण कर लेते के श्रावक मुनियों को नमस्कार करने और आहार आदि देने को निगोद हैं। फिर उन्हीं का उन्हें अभिमान हो जाता है। वे अकड़कर चलने लगते में जाने का कारण मानते हैं। यह वर्ग पुण्य को सर्वथा हेय मानता | हैं, आसमान की ओर नजरें कर लेते हैं, सब को तुच्छ समझने का है और निमित्त को अकिंचित्कर। यह व्रतादि को जड शरीर की क्रिया | भाव उनकी आँखों में झलकने लगता है, 'धर्मी सौं गोवच्छ प्रीति' कहता है। सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग या व्यवहारमोक्षमार्ग को | और 'गुणिषु प्रमोदं' उन्हें आगम विरुद्ध प्रतीत होने लगते हैं। साधारण परम्परया भी मोक्ष का हेतु नहीं मानता, मात्र बन्ध का ही कारण मानता | श्रावकों के बीच वे अपनी तुलना मुनियों से करते हैं। गोया व्रत धारण है। इस वर्ग के श्रावक मानते हैं कि जो कुछ होना है वह पूर्वनियत करने से उनके मद का आलम्बन मात्र बदलता है। आगम का कथन है. जीव उसमें कछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता है। अर्थात वह नियत- | है कि आठ मदों में से एक भी मद की मौजूदगी हो तो मिथ्यात्व अनियत के अनेकान्त को भी अमान्य करता है। इस तरह यह वर्ग | का अभाव नहीं होता। यह दशा श्रावकवर्ग की श्रुताराधना करते हुए मात्र श्रुत के ही अभ्यास को मोक्ष का एकमात्र पौरुष मानते हए और | भी मिथ्यात्व ग्रस्त बने रहने की कहानी कहती है। स्पष्ट है कि इस रात दिन स्वाध्याय करते हुए भी भावश्रुत से शून्य है, अर्थात् मिथ्यात्व | प्रकार के श्रावक भी श्रुत की निश्चयपूजा में रुचि नहीं रखते। का शिकार है जिससे सिद्ध होता है कि श्रावकों का यह वर्ग भी श्रुत | श्रुताम्यासियों में इन चार प्रकार के मिथ्यात्वों की मौजूदगी श्रुत की निश्चयपूजा से परहेज करता है। | की व्यवहारपूजा के साथ निश्चयपूजा की आवश्यकता प्रतिपादित और जो श्रावक इन दोनों प्रकार के मिथ्यात्वों से मुक्त हैं, उनके | करती है। श्रुतपञ्चमी के पर्व पर इस ओर ध्यान जाना चाहिए। सन्तोष बारे में यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि वे सभी सम्यग्दृष्टि हैं। | की बात है कि इन विभिन्न श्रावकवर्गों के बीच श्रावकों का उनमें से अधिकांश श्रावक तीसरे प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। उनकी | अल्पसंख्यक वर्ग श्रुत की निश्चयपूजा भी कर रहा है। वह उपर्युक्त दृष्टि में धन, सत्ता, भोग और ख्याति (money; power, | चारों प्रकार के मिथ्यात्वों से मुक्त है, क्योंकि वह श्रुत की निश्चयपूजा pleasure and popularity) ही जीवन के सारभूत तत्त्व हैं। वे | करने वाले सच्चे निर्ग्रन्थ गुरुओं के चरणों का निर्व्याज अनुगामी है। पूजा-भक्ति, तीर्थवन्दना, साधुसन्तों की सेवा करते हुए दिखाई देते | ऐसे सच्चे निर्ग्रन्थ गुरू इस युग में भी भारतभूमि को अलंकृत कर हैं तो यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह सब वे मोक्ष की आकांक्षा | रहे हैं। से करते हैं। वस्तुतः इससे अर्जित पुण्य के द्वारा वे उपर्युक्त चार • रतनचंद्र जैन मई 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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