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नवनीत
भगवती आराधना में मनोविज्ञान
भारक्कंतो पुरिसो भारं ऊरुहिय णिव्वुदो हो । जह तह पहिय गंथे णिस्संगो णिव्वुदो होड़ ||1172 ||
जैसे भार से लदा हुआ मनुष्य भार के उत्तर जाने पर सुखी होता है वैसे ही परिग्रह से मुक्त हो जाने पर अपरिग्रही भी सुखी होता है।
महुलित्तं असिधारं तिक्खं लेहिज्ज जध णरो कोई । तथ विसयसुहं सेवदि दुहावहं इह हि परलोगे ।।1346।।
जैसे कोई मनुष्य मधु से लिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार को चाटने पर दुःखी होता है वैसे ही मनुष्य विषयसुख का सेवन करने पर इस लोक और परलोक दोनों में दुःखी होता है।
सहेण मओ रुवेण पदंगो वणगओ वि फरिसेण । मच्छो रमेण भमरो गंधेण व पाविदो दोसं ।।1347
शब्द (मधुरगीत) में आसक्त होकर मृग, रूप (दीपक के प्रकाश) में आसक्त होकर पतंगा, स्पर्श (हथिनी के शरीर के स्पर्श) में आसक्त होकर हाथी, रस (स्वाद) में आसक्त होकर मछली और सुगंध में आसक्त होकर भ्रमर मृत्यु को प्राप्त हो जाता
है।
जह कोइ तत्तलोहं गहाय रुट्ठो परं हणामित्ति | पुव्वदरं सो उज्झदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो ।।1356 || तथ रोसेण सयं पुष्यमेव उज्झदि हुकलकलेणेव अणस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्ज || 1357 ||
जैसे कोई क्रुद्ध मनुष्य दूसरे को मारने के लये तपे हुए लोहे को उठाता है उससे दूसरा जले या न जले, स्वयं अवश्य जलता है, वैसे ही दूसरे पर किये गये क्रोध से दूसरा सन्तप्त हो या न हो, क्रोधी मनुष्य स्वयं अवश्य सन्तप्त होता है।
दट्ठूण अप्पणादो हीणे मुक्खाउ विंति माणकलिं । दडुण अप्पणादो अथिए माणं णयंति बुधा ।।1370।।
अज्ञानी अपने से हीन मनुष्यों को देखकर मान करते हैं, किन्तु ज्ञानी अपने से बड़ों को देखकर मान दूर करते हैं।
मई 2001 जिनभाषित 6
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बोधकथा
यमराज को भी डर
● डॉ. जगदीश चन्द्र जैन प्राचीन काल में वाराणसी में महापि गल नाम का राजा राज्य करता था। वह बड़ा अन्यायी था और दण्ड आदि द्वारा लोगों से रुपया ऐंठ, कोल्हू में पेले जाने वाले गन्ने की तरह प्रजा का शोषण करता था।
महापिंगल बहुत रौद्र, कठोर और दुस्साहसी था, उसके हृदय में रंचमात्र भी दया न थी वह अपनी रानियों, पुत्र, पुत्री, मन्त्री, ब्राह्मण और गृहपति सभी को अप्रिय था। लोगों को वह हमेशा आँख की किरकिरी, के समान, और एड़ी में घुसे हुए काँटे के
समान खटकता था।
संयोगवश कुछ समय बाद राजा मर गया। वाराणसी के लोग बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने सहस्रों गाड़ी लकड़ियों से राजा का दाह संस्कार किया, और सहस्रों घड़ों जल द्वारा आग को शान्त किया।
नगर के लोगों ने बड़ी सजधज के साथ राजकुमार को सिंहासन पर अभिषिक्त किया। उत्सव की भेरियाँ बजने लगीं, ध्वजाएँ फहरायी गयीं, प्रत्येक द्वार पर मण्डप बनवाये गये, खील फूल बिखेरे गये और लोग मण्डपों में बैठकर आनन्द मनाने लगे। वस्त्राभूषणों से सज्जित राजकुमार, श्वेत छत्र से अलंकृत हो, सुन्दर आसन पर विराजमान हुए।
मन्त्री, ब्राह्मण, गृहपति, राष्ट्रपाल, द्वारपाल आदि अनेक नौकर-चाकर राजा को घेरे खड़े थे।
राजा ने देखा कि द्वारपाल सिसकियाँ भर कर रो रहा है। राजा ने पूछा- 'द्वारपाल ! पिताजी के मरने पर सब लोग प्रसन्न हो उत्सव मना रहे हैं। क्या तुझे उनके मरने की प्रसन्नता नहीं है?'
द्वारपाल बोला- महाराज में इसलिए नहीं रो रहा है कि राजा महापिंगल अब इस संसार में नहीं रहे हैं। उनके मरने से तो मुझे आनन्द ही हुआ, क्योंकि जब कभी राजा महल के अन्दर प्रवेश करते या महल से बाहर जाते तो वे मेरे सिर पर जोर-जोर से आठ ठोसे लगाते थे। लेकिन अब हर इस बात का है कि परलोक में यमराज के साथ भी वे ऐसा ही बर्ताव करेंगे। कहीं ऐसा न हो कि यमराज घबराकर उन्हें फिर से यहाँ वापस भेज दे।
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