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________________ स्व. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य : श्रद्धासुमनाञ्जलि .धर्मदिवाकर पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश कोसा नहीं भाग्य को जिसने, ललकारा पुरुषार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को।। 5 भारतीय गौरव-गरिमा को, तुम उत्कर्ष प्रदाता। सादा जीवन उच्च विचारों, के सच्चे उद्भाता॥ राजनीति से दूर, नीति पथ के अनन्य अनुयायी। पर-निन्दा, मात्सर्य किसी से, तुम को तनिक न भायी। हाथ पकड़ सन्मार्ग दिखाया, अपनाया लोकार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित है, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को। जब भारत माँ के हाथों में, थीं हथकड़ियाँ भारी। पैरों में थीं पड़ी बेड़ियाँ, शासक अत्याचारी॥ तब सागर के 'पारगुवाँ' में, थी बज उठी बधाई। 'गल्लीलाल' - 'जानकी' के घर, थी बसंत ऋतु आई।। पुत्र-रत्न पा सबने समझा, जीवन के चरितार्थ को। श्रद्धा सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को॥ 2 काल और दुर्भाग्य ने मिलकर, जीवन में विष घोला। केवल सात कदम चल पाये, साथ पिता ने छोड़ा। पर, बोलो सूरज-प्रकाश को, रोक सकी क्या निशा अँधेरी। घिस ‘पन्ना' बन ‘लाल' चमकता, यद्यपि हो सकती है देरी॥ ऊष्मा में तपकर ही पाता, जीवन अपने सार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को। 3 जन्म ग्राम तज सागर आये, माँ-आँचल की छाया। गणेश प्रसाद वर्णी का तुमने, शुभाशीष तब पाया। लौकिक शिक्षा रुची न किंचित्, धार्मिक पथ अपनाया। 'अ' से 'ज्ञ' तक आत्मसात कर, सब जिह्वाग्र बसाया।। पढ़-लिख कर गुरु का पद पाया, लक्ष्य किया धर्मार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को॥ जिनवाणी माँ के चरणों में, अगणित पुष्प चढ़ाये। लेखन-सम्पादन-अनुवादन, के सुकार्य अपनाये।। अगम बने ग्रन्थों को तुमने, सबको सुगम बनाया। आर्षमार्ग पर खुद चलकर, सबको सन्मार्ग दिखाया। तुम जीवन भर रहे समर्पित, सरस्वती - सेवार्थ को। श्रद्धा सुमन समर्पित हैं, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को। । रत्नप्रसविनी भारत माता, हुई है जिनसे उन्नतभाल। उन रत्नों में एक रतन है, श्रीयुत पंडित पन्नालाल।। सागरसम व्यक्तित्वधनी से, सागर ने धन्यता पायी। जिनकी वाणी की मिठास से, कोयल भी शरमायी॥ वासंती विद्वत्ता द्वारा, साधा सदा परार्थ को॥ श्रद्धा सुमन समर्पित हैं उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को। 8 सब गिरियों में उच्च हिमालय की छबि है यशवाली। सब ऋतुओं में ऋतु वसन्त है, सर्वाधिक मतवाली। नदियों में गंगा, वृक्षों में, चन्दन है गुणवाला। विद्वानों में पंडित जी का, है स्थान निराला।। बारम्बार नमन है मेरा, विद्वानों के सार्थ को। श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं, उस धर्म क्षेत्र के पार्थ को। ग्रंथों का मंथन करके, सम्यक् नवनीत निकाला। सोत्साह शिष्यों में वितरण, करने का व्रत पाला॥ रोम-रोम में घृतमय करके, प्रवचन पटुता पायी। शब्द-शब्द में जिनगंगा की, शीतल-सुरभि समायी॥ निज-हित साधन किया, किन्तु प्राधान्य दिया परमार्थ को। श्रद्धा सुमन समर्पित है, उस धर्मक्षेत्र के पार्थ को। नेहरू चौक, गली नं. 4, गंजबासौदा, विदिशा मई 2001 जिनभाषितJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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