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________________ नारीलोक हमारा पहनावा : हमारी पहचान डॉ. ज्योति जैन भारतीय संस्कृति विशे यापन नहीं है? फैशन की इस नाषकर जैन संस्कृति ने वेशभूषा न केवल हमारी शारीरिक और सामाजिक भूलभुलैया में व्यक्ति कपड़ों 'सादा जीवन उच्च विचार' आवश्यकताओं का निर्वाह करती है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पर ज्यादा धन खर्च करने वाली उक्ति को आदर्श मान- | मनोभूमि का भी परिचय देती है। उससे हमारे जीवन के लक्ष्य लगा है। 'जितनी चादर उतने कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में | और आदर्श प्रतिध्वनित होते हैं। स्पृहणीय आदर्शों के अनुरूप | पैर फैलाओ' की जगह चादर सादगी को महत्त्व दिया है। वेशभूषा का प्रयोग तदनुरूप संस्कारों की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण से ज्यादा पैर फैलाने की हमारे आचार्य, मुनिवर, संत, भूमिका निभाता है। प्रस्तुत आलेख इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य पर | प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पहिले महात्मा भी सादगी को जीवन प्रकाश डालता है। दो-चार जोड़ी कपड़ों से काम में उतारने की प्रेरणा देते हैं। चल जाता था पर आज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे कि हमें अपने आलमारियाँ कपड़ों से अटी पड़ी हैं। शायद दरवाजे, खिड़कियाँ खुली रखनी हैं ताकि कारण ही विभिन्न वेषभूषाओं का जन्म होता | कुछ कपड़ों के पहनने का तो नम्बर ही नहीं बाहर की स्वच्छ ताजा हवा आ सके तथा है। ठीक है, व्यक्तित्व की पहचान कपड़ों से आता है। भीतर की गंदगी बाहर निकल सके। हवा चाहे होती है पर 'सादा जीवन उच्च विचार' वाली आज संस्कृति की बात हो या संस्कृति में सादगी से परिपूर्ण वस्त्र ही व्यक्ति पश्चिम की हो या पूरब की, उत्तर की हो या धार्मिकता की, सामाजिक परिवेश की हो या दक्षिण की, हर हवा में एक ताजगी होती है को गरिमा प्रदान करते हैं। वस्त्र ऐसे सादे पहनावे की, महिलाओं का उत्तरदायित्व और जब कभी प्रदूषित हवा का झोंका आये स्वच्छ एवं शालीन हों जिन्हें देखकर मन में समाज के प्रति बढ़ा हुआ ही दिखाई देता है। तो खिड़की दरवाजे बंद कर लेना चाहिए। पर किसी प्रकार का विकार पैदा न हो, चलने समाज निर्माण में योगदान हो या उसकी आज हम आँख मूंद कर अपने सारे दरवाजे फिरने या काम करने में बाधा न हो, किसी विकृतियों को दूर करने की पहल हो, खोले बैठे हैं और पश्चिम की विकृत सभ्यता तरह का शारीरिक कष्ट उत्पन्न न हो और दारोमदार अंततः महिलाओं पर ही होता है। एवं संस्कृति को बेलगाम होकर अपनाये जा सबसे प्रमुख बात यह कि व्यक्ति की गरिमा क्योंकि माँ ही पहली शिक्षिका होती है। अतः व मर्यादा बनी रहे। नारी ही संपूर्ण परिवेश को प्रभावित कर भारत लम्बे समय तक विदेशियों का आज हम विदेशी पहनावे से अधिक प्रभावित हो रहे हैं, अधिकांश पहनावा फूहड़ समाज को सही दिशा प्रदान कर सकती है। गुलाम रहा। इससे हमारी संस्कृति सर्वाधिक बदलते समय और बदलते परिवेश में और भड़कीला होता जा रहा है। जन सामान्य प्रभावित हुई है। ब्रिटिश शासन के दौरान आधुनिक पहनावे के प्रभाव से महिलाएँ भी हमारा एक वर्ग उनके खुलेपन से इतना में भी खत्म न होने वाली एक फैशन की होड़ अछूती नहीं रही हैं। वे भी वस्त्रों की चकाचौंध अधिक प्रभावित हुआ कि उनकी संस्कृति, शुरू हो गयी है। याद कीजिए, गाँधी जी ने और आकर्षण का शिकार हो रही हैं। वस्त्रों और एक धोती से ही विश्व में भारत का लोहा मनवा खानपान, पहनावा सभी अपनाने में गर्व सा उनकी डिजाइनों के माध्यम से स्त्री-पुरुषमहसूस करने लगा। इस वर्ग ने हमारी लिया था, चाहे वह इंग्लैंड का राज दरबार हो या भारत में वाइसराय की मीटिंग। लेकिन बच्चे, सभी को एक सुन्दर वस्तु के रूप में संस्कृति को ठेस पहुँचायी जो हमारी अपनी प्रस्तुत किया जा रहा है। आधुनिकता की इस पहचान थी। भारत एक विशाल देश है। यहाँ आज हम अपनी संस्कृति को छोड़ पाश्चात्य होड़ में आधुनिक दिखने की लिप्सा पैदा होती विभिन्न धर्मों, जातियों एवं संस्कृति के लोग संस्कृति को अपनाने में आगे बढ़ रहे हैं। जा रही है। भू-मंडलीकरण के नाम पर बढ़ती रहते हैं, जलवायु की भिन्नता भी है। प्रत्येक विशेषकर युवा पीढ़ी तो बेलगाम होती जा हुई बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ क्या हमारी क्षेत्र का अलग-अलग पहनावा है। भारत को रही है। पहनावे के नाम पर जो परोसा जा रहा बाजार व्यवस्था के चिन्तन और चरित्र पर ही लें तो व्यक्ति का पहनावा उसके है उसे हमारी युवा पीढ़ी हाथों हाथ ले रही है। प्रहार नहीं कर रही हैं? क्या आधुनिक ड्रेसों व्यक्तित्व का परिचय देता है। विश्व की किसी विभिन्न स्त्री-पुरुषों के मॉडलों के माध्यम से पहनावे के उत्तेजित रूप रोज ही सामने आ का पहनना हाई सोसाइटी का प्रतीक नहीं भी देश में साड़ी पहने महिला दिख जाये तो निश्चित ही उसे भारत का समझा जायेगा। रहे हैं, ये आकर्षक वस्त्र उत्तेजना बढ़ाने वाले बनता जा रहा है? क्या हम भोगवादी संस्कृति को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? पगड़ी पहने हो तो उसे सिक्ख समझा होते हैं। इनका व्यापक प्रचार-प्रसार कर जो विकृत पोशाकों और शारीरिक प्रदर्शन जायेगा। हमारे देश के पहनावे की अलग ही मायाजाल फैलाया जा रहा है उसमें ग्राहक के माध्यम से नारी की छवि को विकृत किया विशेषता एवं उपयोगिता है। स्वयं निर्णय नहीं कर पाता कि उसे क्या जा रहा है। नारी छवि को आज बाजार का समूह से अलग दिखने की प्रवृत्ति के खरीदना है? क्या नहीं? क्या फैशनके नाम केन्द्र-बिन्दु माना जा रहा है। सिनेमा, टी.वी., पर कुछ भी पहनना हमारा दिमागी दिवालि मई 2001 जिनभाषित 28Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524252
Book TitleJinabhashita 2001 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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