Book Title: Jinabhashita 2001 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 रुपये जिनभाषित My Bogne वीर नि. सं. 2528 अप्रैल 2001 भगवान महावीर का २६०० वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव चैत्रशुक्ल 13, वि.सं. 2058 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित अप्रैल 2001 अन्तस्तत्त्व सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 (म.प्र.) फोन : 0755-776666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल वैनाड़ा डॉ. शीतल चन्द्र जैन डॉ.श्रेयांस कुमार जैन डॉ.वृषभप्रसाद जैन 1. सम्पादकीय 2. नवनीत : भगवती आराधना में मनोविज्ञान | 3. बोधकथा : सौ सगे, सौ दुःख 4. अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर 5. बोधकथा : अतिनिन्दनीय और अतिप्रशंसनीय 6. महावीर -प्रणीत जीवनपद्धति की प्रासंगिकता 7. कविता : गुरुस्तवन भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव 9. उर्दू शायरी में अध्यात्म 10. शलाका पुरुष : पूज्य पंडित गणेश प्रसाद जी 'वर्णी और उनकी साहित्यसेवा 11. कुन्दकुन्द की दृष्टि में शुभोपयोग परम्परया मोक्ष का हेतु 12. नारीलोक : गर्भपात : हमारी शुन्य होती संवेदनाए 16 13. कविताएँ : -टंच कसती है कसोट -मंजिल की पहुँच 14. हास्य व्यंग्य : नमस्कार सुख 15. बालवार्ता : बुद्धि चातुर्य की कथाएँ 16. अल्पसंख्यक मान्यता से जैन समाज को लाभ 17. बड़े बाबा की शरण में आकर नास्तिक भी आस्तिक बनकर जाते है 18. गुरु-समागम 19. कुण्डलपुर : एक रिपोर्ट 20. कुण्डलपुर महोत्सव पर विशेष आवरण एवं मुहर जारी 21. कुण्डलपुर की भूवैज्ञानिक परिस्थितियों का विवेचन 22. बोधकथा : माता चिरोंजाबाई की नि:स्पृहता 23. भूकम्प और गुरुकृपा का प्रसाद 24. तीर्थ सुरक्षा हेतु सार्थक पहल 25. विद्यासागराष्टकम् आवरणपृष्ठ-3 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा -282 002 (उ.प्र.) फोन :0562-351428, 352278 मुद्रक एकलव्य आफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित महाराणाप्रताप नगर, भोपाल फोन 0755-579183, 9827062272 मूल्य दस रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय स्वर्णयुग के प्रतिनिधि का महाप्रयाण आदरणीय पण्डित (डॉ.) पन्नालालजी साहित्याचार्य हमारे बीच नहीं | आज आधुनिक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जो रहे। उन्होंने कुण्डलपुर आकर 9 मार्च 2001 के प्रारम्भिक प्रहर में बड़े बाबा पी-एच.डी. और डी.लिट्-उपाधिधारी, जैनविद्या के विशेषज्ञ प्रोफेसरों का और छोटे बाबा (परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज ) की शरण में वर्ग दिखाई देता है अथवा जो उनमें से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, वे सब इन्हीं अपनी पार्थिव देह का सामायिक करते हुए विसर्जन कर दिया। 5 मार्च विद्वद्रत्नों की देन हैं। इसलिए इन विद्वानों के युग को जैनविद्या का स्वर्णयुग 2001 को ही उन्होने 91वें वर्ष में प्रवेश किया था। उसी दिन कुण्डलपुर से कहा जाना चाहिए। साहित्याचार्य जी इस स्वर्ण युग के प्रतिनिधि थे। लौटते हुए मैं सागर पहुँचा था और पहुँचते ही मैं पण्डितजी के दर्शन करने वर्णीजी की इच्छा थी कि पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य श्री गणेश गया था। वे मेरे गुरु थे। मैंने उनके स्वास्थ्य के विषय में पूछा । वे परिहास दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में जीवन पर्यन्त अध्यापन का करते हुए बोले , अब तो मेरी गति सिद्धों के समान ध्रुव और अचल हो गई कार्य करते हुए जैनविद्वानों की परम्परा को अविच्छिन्न बनाये रखने का है।' अर्थात् अब वे चल-फिर नहीं पाते हैं। एक ही जगह लेटे या बैठे रहना उत्तरदायित्व निभायें। पंडित जी ने इस इच्छा को अक्षरशः पूर्ण किया। इतना पड़ता है। फिर उन्होंने कुण्डलपुर महोत्सव के विषय में पूछा । आचार्यश्री ही नहीं, सागर महाविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के बाद परमपूज्य आचार्य का स्मरण किया। जब मैंने कहा कि महोत्सव अत्यंत भव्य था और निर्विघ्न श्री विद्यासागर जी के आदेश को शिरोधार्य कर श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल, सम्पन्न हो गया, लोगों की ऐसी भीड़ किसी धार्मिक समारोह में पहले कभी पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर में ब्रह्मचारी शिष्यों को जैनधर्म और संस्कृत नहीं देखी, बड़े बाबा और छोटे बाबा दोनों के दुर्निवार आकर्षण के वशीभूत की शिक्षा देने लगे। शरीर जब सर्वथा असमर्थ हो गया तब 8 जनवरी 2001 हो, लोग देश के कोने-कोने से खिंचे चले आये, तब पण्डित जी का मुखकमल को ही वे अपने पुत्रों के पास सागर आने के लिए तैयार हुए। इस प्रकार सन् खिल गया। फिर खेद व्यक्त करते हुए बोले , मेरे पुण्य क्षीण हो गये हैं, 1931 से लेकर सन् 2000 तक वे निरन्तर अध्यापन कार्य में लगे रहे। 70 इसीलिए मैं इतने भव्य महोत्सव के दर्शन से वंचित रह गया।' मैं लगभग वर्षों तक लगातार शिक्षण कार्य करते रहने का रिकार्ड अन्य किसी विद्वान् पौन घण्टे उनके पास बैठा और चला आया। तीन दिन बाद ही भोपाल में का देखने में नहीं आया। इसी प्रकार संस्कृत-प्राकृत जैन ग्रन्थों के सम्पादन, फोन से खबर आयी कि पण्डित जी कुण्डलपुर में चले बसे । मैं आश्चर्य से अनुवाद, टीका और स्वतन्त्र ग्रन्थ लेखन में भी वे सबसे आगे रहे हैं। उनके स्तब्ध रह गया। द्वारा अनुवादित और लिखित ग्रन्थों की संख्या 70 से ऊपर है। वे परमपूज्य पण्डित जी युगनिर्माता, इतिहास पुरुष पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में सम्पन्न हुई 11 आगम वाचनाओं प्रिय शिष्यों में से थे। वर्णी जी ने जैन समाज से अज्ञानान्धकार को मिटाने के के कुलपति रह चुके हैं। पण्डितजी संस्कृत के अच्छे कवि भी थे। 'वसन्त' लिए जो क्रान्ति की थी, सागर, बनारस, इंदौर, जबलपुर आदि नगरों में जैन उपनाम उनके इसी गुण का सूचक है। उन्होंने अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर संस्कृत पाठशालाएँ और महाविद्यालय खुलवाकर, जैन बालकों को जैनधर्म, जैन विद्वत्परिषद् के महामंत्री, अध्यक्ष एवं संरक्षक पदों को दीर्घकाल तक दर्शन और साहित्य की शिक्षा का अवसर प्रदान कर जैन विद्वानों की जो | सुशोभित करते हुए उन्हें अपने गरिमा के उच्चतम स्तर तक पहुँचाया है। फसल उगाई थी उसी के हिस्सा थे पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य। विद्वानों जब हम पण्डितजी के अद्यावधि जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तब एक की इस पीढ़ी में अनेक रत्न थे जैसे पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पं.फूलचन्द्र कर्मयोगी की छबि आँखों में उतर आती है। मानव पर्याय के अर्थ को जैसे जी शास्त्री, पं. दयाचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य, उन्होने गर्भ में ही हृदयंगम कर लिया था। इसीलिए आरम्भ से ही वे जीवन पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, डॉ. के प्रत्येक क्षण को सार्थक बनाने का महायज्ञ सम्पादित करते आ रहे थे। दरबारीलाल जी कोठिया, पं. माणिकचन्द्र जी न्यायतीर्थ, पं. पन्नालाल जी कोई भी उन्हें अनवरत कर्म में संलग्न देख सकता था। आलस्य, प्रमाद और साहित्याचार्य आदि। इन विद्वद्रत्नों ने अपनी गहन ज्ञानसाधना और प्रतिभा आराम से तो उनकी जान-पहचान ही नहीं हुई थी। पण्डितजी के जीवन में से जैनधर्म और दर्शन की शिक्षा के प्रसार तथा ग्रंथों के सम्पादन, अनुवाद, विद्वत्ता और चारित्र का मणिकाञ्चनयोग था। वे सप्तम-प्रतिमाधारी थे। टीका तथा स्वतंत्रग्रंथ लेखन का ऐतिहासिक कार्य किया है, जिससे आने पण्डित जी के महाप्रयाण से समाज को जो क्षति हुई है उसे पूर्ण होने में वाली पीढ़ियों के लिए संस्कृत और प्राकृत के जैन ग्रन्थों का पठन-पाठन सैकड़ों वर्ष लग जायेंगे। आदरणीय पण्डित जी को कृतज्ञ शिष्यों के हार्दिक तथा उनके हार्द को हृदयंगम करना सुकर हो गया है। इस उपकार के लिए प्रणाम। समाज इनका सदा ऋणी रहेगा। .रतनचंद्र जैन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधकथा नवनीत भगवती आराधना में मनोविज्ञान विजा जहा पिसायं सुटु, पउत्ता करेदि पुरिसवसं । णाणं हिदयपिसायं सुट्ठ पउत्ता करेदि पुरिसवसं ॥७६०।। जैसे अच्छी तरह साधी गयी विद्या पिशाच को पुरुष के वश में कर देती है, वैसी ही सम्यक् प्रकार से अभ्यस्त ज्ञान अशुभ में प्रवृत्त हृदयपिशाच को वश में कर देता है। णाणपदीओ पजलइ जस्स हियए विसुद्धलेस्सस्स। जिणदिट्ठमोक्खमग्गे पणासणभयं ण तस्सत्थि ॥७६६॥ जिस शान्तचित्त मनुष्य के हृदय में ज्ञानरूपी दीपक जलता है, उसे जिनोपदिष्ट मोक्ष मार्ग पर चलते हुए संसारसागर में डूबकर नष्ट होने का भय नहीं रहता। जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिं पि जाण जीवाणं । एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा ।। ७७६।। जैसे तुम्हें दुःख अच्छा नहीं लगता, वैसे ही दूसरों को भी नहीं लगता। ऐसा जानकर जीवों के साथ सदा अपने समान व्यवहार करो। सौ सगे, सौ दुःख .नेमीचन्द पटोरिया "विशाखा' थी गौतम-बुद्ध की एक प्रसिद्ध अनुयायिनी और भक्त । उसका वैभव विशाल था और कुटुम्ब भी विशाल था। एक दिन भगवान बुद्ध के दर्शन करने आयी तो उसके वस्त्र गीले थे, केश अस्त-व्यस्त थे और वह शोकाकुल दिखायी दे रही थी। उसे देख भगवान बुद्ध ने पूछा- “विशाखे ! तुम्हारा आज ऐसा वेष क्यों?" ___ " भन्ते ! आज मेरे एक पौत्र का देहान्त हो गया है। मृत के लिए यह शोकाचरण है।" विशाखा ने धीरे से उत्तर दिया। “विशाखे ! क्या तुम प्रसन्न होगी यदि तुम्हारे उतने पुत्र-पौत्रादि हो जाएँ, जितने इस समय श्रावस्ती में मनुष्य हैं?" ___हाँ भन्ते ! मैं अति प्रसन्न होऊँगी।" "विशाखे! श्रावस्ती में प्रतिदिन कितने मरते होंगे?" __“कम-से-कम एक तो मरता ही है।" "तो क्या फिर तुम गीले वस्त्र और बिखरे बाल का शोकाचरण प्रतिदिन करना पसन्द करोगी?" “ नहीं भन्ते !" "तब सुनो विशाखे ! जिसके सौ सगे हैं, उसके सौ दुःख हैं, जिसका एक प्रिय है उसका एक दुःख है। जिसका कोई भी अपना प्रिय नहीं है, उसके लिए संसार में कहीं भी दुःख नहीं है। जगत में सुखी होने का एकमात्र उपाय यह है कि किसी को भी अपना प्रिय न मानो और न किसी से ममता रखो । शोकरहित और सदा प्रसन्न रहने का अमोघ उपाय है कि किसी को भी अपना संबंधी स्वीकार न करो।" विशाखा ने नयी ज्योति पायी उसे फिर कभी शोकाकुल नहीं देखा गया। महकरिसमजियमहं व संजमं थोव-थोवसंगलियं । तेलोक्क सव्वसारं णो वा पूरेहि मा जहसु ॥ ७७९ ।। ___जैसे मधुमक्खियाँ थोडा-थोड़ा करके मध का संचय करती हैं, वैसे ही थोड़ा-थोड़ा करके संचित किया गया संयम तीनों लोकों में सारभूत है। उसे यदि पूर्ण नहीं कर सकते, तो उसका त्याग तो मत करो। जल-चंदण-ससि-मुत्ता-चंदमणी तह णरस्स णिव्वाणं। ण करंति, कुणइ जह अत्थजुयं हिदमधुरमिदवयणं ।।८२९॥ जल, चन्दन,चन्द्रमा, मोती और चन्द्रकान्तमणि मनुष्य को वैसा सुख प्रदान नहीं करते जैसा ज्ञान से परिपूर्ण, हित, मित और प्रिय वचन प्रदान करते हैं। जह मारुओ पवड्ढइ खणेण वित्थरइ अब्भयं च जहा। जीवस्स तहा लोभो मंदोविखणेण वित्थरइ ।।८५०।। जैसे मन्द हवा क्षणभर में तेज हो जाती है, जैसे मेघ धीरे-धीरे आकाश में फैल जाते हैं, वैसे ही जीव का थोड़ा सा भी लोभ क्षणभर में बढ़ जाता है। "सोना और धूल" से साभार 2 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर •आचार्य श्री विद्यासागर कौन कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा, है जो प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होते अनेकान्त से युक्त दृष्टि ही हमें चिन्तामुक्त और सहिष्णु यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन आया है हुये भी अपने स्वरूप में स्थित है। तो उसे जाना होगा, यह निश्चित है। यह वनाने में सक्षम है। संसार में जो विचार-वैषम्य है वह अपने | भगवान महावीर की यात्रा भी अरुक सत्य है। पर हम आने की बात से हर्षित होते एकान्त पक्ष को पुष्ट करने के आग्रह की वजह से है। अनेकान्त | थी, वह संसार में रुके नहीं, सतत हैं और आने को महोत्सव के रूप में मानते का हृदय है समता। सामनेवाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार |बढ़ते ही गये। जो इस प्रवाहमान हैं। प्रेम के साथ अपनाते हैं। जाने की बात करो। दुनिया में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान् महावीर की | जगत् में निरन्तर अपने आत्म-स्वरूप हमें रुचिकर नहीं लगती और जाने की बात | दिव्य-देशना से सर्वथा असंबद्ध था। यह बात जुदी है कि परस्पर की प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है, हमें उदास कर देती है। यही हमारी ना-समझी सापेक्षता का ज्ञान न होने से दराग्रह के कारण मतों में मान्यताओं वृद्धिंगत हो रहा है वही वर्धमान है। है। इस बात को हमें समझ लेना चाहिए कि | में मिथ्यापना आ जाता है। उसका प्रतिक्षण नित-नवीन वर्तमान आने-जाने का प्रवाह निरन्तर है। महावीर भगवान इस प्रवाह के बीच तटस्थ ही नहीं बल्कि | एक ही थी इसलिए माता-पिता ने बड़े सोच- । महावीर भगवान अपने नाम के अनुरूप ऐसे आत्मस्थ/स्वस्थ रहे। तभी वे वास्तव में महावीर समझकर योग्य वर की तलाश की। बहुत परिश्रम ही वर्धमान थे। वे अपनी आत्मा में निरन्तर बने। के बाद वर मिला। विवाह का शुभ-मुहूर्त आ गया प्रगतिशील थे। वर्धमान-चारित्र के धारी थे। पीछे ___महावीर बनने के लिए इस प्रवाह की मंगल बेला की सारी तैयारी आनन्द-दायक लग मुड़कर देखना या नीचे गिरना उनका स्वभाव नहीं वास्तविकता का बोध होना अनिवार्य है। दिन रही थी। लेकिन सात फेरे पूरे भी नहीं हुये और था। वे प्रतिक्षण वर्धमान और उनका प्रतिक्षण और रात का क्रम अबाध है। उषा के बाद निशा सातवाँ अंतिम फेरा प्रारंभ हुआ कि वर के प्राण वर्तमान था। उन्हें अपने खो जाने का भय नहीं था और निशा के बाद उषा आयेगी। जो यह जान देह से निकल गये। सब ओर हाहाकार मच गया। । जो शाश्वत है, जो कभी खो नहीं सकता, महावीर लेता है वह दोनों के बीच सहजता से जीता है। | पर अब क्या हो सकता था ? भगवान उसी के खोजी थे। उसी में खोने को राजी भगवान महावीर का जीवन ऐसा ही सहजता का “राजा-राणा छत्रपति हाथिन के असवार, | थे। उनका उपदेश भी यही था कि जो नश्वर है, जीवन है । वे स्वयंबुद्ध थे , विचारक थे, चिन्तक | मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ।" | मिटने वाला है उसे पकड़ने का प्रयास या उसे स्थिर थे। जीवन के हर पहलू के प्रति सजग चिन्तन उनका जिसकी जब बारी आ जाये उसे जाना होगा। इस | बनाने का प्रयास व्यर्थ है। वास्तविक सुख तो था। जो हो चुका , जो हो रहा है और जो होगा बात का बोध होने पर ही जीवन में समीचीनता | अपनी अविनश्वर आत्मा को प्राप्त करने में है। सभी के प्रति सहज भाव रखना यही वस्तु के आती है। सन्मार्ग की ओर कदम बढ़ते हैं। भगवान यहाँ संसार में जो सुख है उसके पीछे दुःख परिणमन का सही आकलन है। महावीर ने स्वयं सन्मार्ग पाया, वे स्वयं सन्मति थे भी है। संयोग के साथ वियोग लगा हुआ है। जो जो स्वागत के साथ विदाई की बात जानता और हमें भी वही सन्मार्ग दिखाया, सन्मति दी। सुख-दुःख के पार है, जो संयोग-वियोग के पार है, वह न स्वागत गान से हर्षित/प्रभावित होता है विवाह की मंगल बेला में भी जाने का समय है, उसका विचार आवश्यक है। उसका जन्म भी और न ही मृत्यु-गीत से उदास/ दुखित होता है। | आ गया । जाने की बेला आ गयी । जाने वाला | नहीं है, उसका मरण भी नहीं है, मानो एक आवरण जीवन क्या चीज है ? जीवन तो ऐसा है कि चला गया। कौन कहाँ तक साथ निभायेगा, कौन | है जो इधर का उधर हट जाता है। और वह जो जैसे किसी के हाथ में कुछ देर काँच का सामान कहाँ तक साथ देगा, यह कहा नहीं जा सकता पर | मृत्युंजयी है वह हमेशा बना ही रहता है। रहा फिर क्षणभर में गिरकर टूट गया। जन्म हुआ इतना अवश्य है कि सिवाय धर्म के कोई और अंत युद्ध से पूर्व अर्जुन को श्रीकृष्ण ने यही तो और मरण का समय आ गया। साठ-सत्तर बरस तक साथ नहीं देता । कोई भी द्रव्य, कोई भी समझाया था कि जो कर्मयोगी है वह जन्म मरण पल भर में बीत जाते हैं। जो यह जानता है वह पदार्थ या कोई भी घड़ी यहाँ टिक नहीं सकती। का विचार नहीं करता, वह तो जीवन मरण के समय का सदुपयोग कर लेता है। यही बुद्धिमानी बहाव है जो निरंतर बहता रहता है। परिणमन बीच जो शाश्वत आत्मतत्त्व है उसका विचार है। यही सन्मति है। प्रतिक्षण है। करता है और कर्तव्य में तत्पर रहता है। "जातस्य कहीं एक घटना पढ़ने में आयी थी। एक | कोई भी वस्तु यदि रुक जाये, परिवर्तित न | हि ध्रुवो मृत्यु वो जन्म मृतस्य च, लाड़ली प्यारी लड़की थी, अपने माता-पिता की | हातावह वस्तु नहा माना जायगा। वस्तु तो वहा । तस्मादपरिहार्येऽर्थे, न त्वं शोचितुमर्हसि।” अर्थात् - अप्रैल 2001 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसका जन्म है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और | करो। दुनिया में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान | है। आवश्यकता उसमें डुबकी लगाने की है। दर्पण जिसकी मृत्यु है उसका जन्म भी अवश्य होगा। महावीर की दिव्य-देशना से सर्वथा असंबद्ध था। में जैसे कोई देखे तो दर्पण कभी नहीं कहता कि यह अपरिहार्य चक्र है। इसलिये हे अर्जुन, सोच में यह बात जुदी है कि परस्पर सापेक्षता का ज्ञान न मेरा दर्शन करो, वह तो कहता रहता है कि अपने मत पड़ो। अपने धर्म का (कर्तव्य का पालन | होने से दुराग्रह के कारण मतों में, मान्यताओं में | को देखो। मुझमें भले ही देखो, पर अपने को देखो। करना ही इस समय श्रेयस्कर है। जन्म मरण तो | मिथ्यापना आ जाता है। अपने दर्पण स्वयं बनो । दर्पण बने बिना और दर्पण होते ही रहते हैं। हम शरीर की उत्पत्ति के साथ मैं बार-बार कहा करता हूँ कि हम दूसरे की । के बिना स्वयं को देखना संभव नहीं है। अपनी उत्पत्ति और शरीर के मरण के साथ अपना बात सुनें और उसका आशय समझें। आज बुद्धि गुणवश प्रभु तुम हम सम (आत्मा का ) मरण मान लेते हैं, क्योकि अपनी का विकास तो है लेकिन समता का अभाव है। पर पृथक् हम भिन्नतम वास्तविक आत्मसत्ता का हमें भान ही नहीं है। भगवान महावीर ने हमें अनेकान्त दृष्टि देकर वस्तु दर्पण में कब दर्पण जन्म-जयन्ती मनाना तभी सार्थक होगा जब हम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराया है। साथ ही करता निजपन अर्पण । अपनी शाश्वत सत्ता को ध्यान में रखकर अपना साथ हमारे भीतर वैचारिक सहिष्णुता और कर्तव्य करेंगे और उसी की संभाल में अपना जीवन गुणों की अपेक्षा देखा जाये तो भगवान प्राणिमात्र के प्रति सद्भाव का बीजारोपण भी किया लगायेगे। और हममें समानता है। लेकिन सत्ता दोनों की पृथक्-पृथक् है। दो दर्पण हैं ,समान हैं लेकिन भगवान महावीर स्वामी का कहना था कि __ हमें आज आत्मा के रहस्य को समझने के एक दर्पण दूसरे में अपनी निजता नहीं डालता। यदि वस्तु को आप देखना चाहते हो या जीवन को लिए अनेकान्त, अहिंसा और सत्य की दृष्टि की मात्र एक-दूसरे की निजता को प्रतिबिबिंत कर देता परखना चाहते हो या कोई रहस्य उद्घाटित करना आवश्यकता है। वह भी वास्तविक होनी चाहिये। | है। भगवान महावीर में हम अपने को देख सकें, चाहते हो तो वस्तु के किसी एक पहलू को पकड़कर बनावटी नहीं। यदि एक बार यह ज्योति (आँख) | यही हमारी बड़ी से बड़ी सार्थकता होगी। उसी पर अड़ करके मत बैठो। मात्र जन्म ही सत्य मिल जाये तो मालूम पड़ेगा कि हम व्यर्थ चिंता में नहीं है और न मरण ही सत्य है। सत्य तो वह भी है नदी, पहाड़ की चोटी से निकलती है। डूबे हैं। हर्ष विषाद और इष्ट-अनिष्ट की कल्पना जो जन्म मरण दोनों से परे है। चलते-चलते बहुत सी कंदराओं, मरुभूमियों, व्यर्थ है। आत्मा अपने स्वरूप में शाश्वत है। चट्टानों और गर्मों को पार करती है और अंत में जो व्यक्ति मरण से डरता है वह कभी ठीक __ भगवान महावीर अपनी ओर, अपने | महासागर में विलीन हो जाती है। हमारी जीवन से जी नहीं सकता। लेकिन जो मरण के प्रति स्वभाव की ओर देखने वाले थे। वे संसार के बहाव यात्रा भी ऐसी ही हो । अनंत की ओर हो ताकि निश्चिंत है, मरण के अनिवार्य सत्य को जानता में बहने वाले नहीं थे। हम इस संसार के बहाव में बार-बार यात्रा न करना पड़े। संसार का परिभ्रमण है, उसके लिए मरण भी प्रकाश बन जाता है। वह निरन्तर बहते चले जा रहे हैं और बहाव के स्वभाव रूप यह जन्म मरण छूट जाये । महावीर स्वामी ने साधना के बल पर मृत्यु पर विजय पा लेता है। को भी नहीं जान पाते है। जो बहाव के बीच आज की तिथि में जन्म लेकर; जन्म से मृत्यु की संसार में हमारे हाथ जो भी आता है वह एक न आत्मस्थ होकर रहता है वही बहाव को जान पाता ओर यात्रा प्रारंभ की, जो अंत में मृत्युंजयी बनकर एक दिन चला जाता है, यदि जीवन के इस पहलू है। आत्मस्थ होना यानी अपनी ओर देखना । जो | अनंत में विलीन हो गई। को, इस रहस्य को हम जान लें और आने-जाने आत्मगुण अपने भीतर हैं उन्हें भीतर उतरकर रूप दोनों स्थितियों को समान भाव से देखें तो आत्मा को निरन्तर शरीर धारण करना पड़ देखना। अपने आपको देखना, अपने आपको जीवन में समता भाव (साम्यभाव) आये बिना नहीं रहा है। यही एक मात्र दुख है। शरीर से हमेशा के जानना और अपने में लीन होना , यही रहेगा, जो मुक्ति के लिए अनिवार्य है। लिए मुक्त हो जाना ही सच्चा सुख है। अभी तो आत्मोपलब्धि का मार्ग है। जिस प्रकार अग्नि लौह पिण्ड के सम्पर्क में आने जीवन के आदि और अंत दोनों की एक - मैं कौन हूँ ? यह भाव भीतर गहराता जाये।। से लोहे के साथ पिट जाती है, उसी प्रकार शरीर के साथ अनुभूति हमारे पथ को प्रकाशित कर सकती | ऐसी ध्वनि प्रतिध्वनि भीतर ही भीतर गहराती जाये; साथ आत्मा घटी/मिटी तो नहीं है लेकिन पिटी है। हम शान्तभाव से विचार करें और हर पहलू प्रतिध्वनित होती चली जाये कि बाहर के कान अवश्य है। विभाव रूपसे परिणमन करना ही पिटना को समझने का प्रयास करें तो जीवन का हर रहस्य कुछ न सुनें। हमारे सामने अपना आत्म-स्वरूप है। अपने आत्म स्वरूप से च्युत होना ही पिटना है आपोआप उद्घाटित होता चला जाता है। | मात्र रहे तो उसी में भगवान महावीर प्रतिबिंबित जन्म मरण के चक्कर में पड़े रहना ही पिटना है। अनेकान्त से युक्त दृष्टि ही हमें चिन्तामुक्त और हो सकते हैं, उसी में राम अवतरित हो सकते हैं। हम इस रहस्य को समझें और जन्म मरण के बीच सहिष्णु बनाने में सक्षम है। संसार में जो विचार उसी में महापुरुष जन्म ले सकते हैं। यही तो महावीर तटस्थ होकर अपने आत्म स्वरूप को प्राप्त करने वैषम्य है वह अपने एकान्त पक्ष को पुष्ट करने के | भगवान का उपदेश है कि प्रत्येक आत्मा में का प्रयास करें। अनंत सुख को प्राप्त करने का आग्रह की वजह से है। अनेकान्त का हृदय है | महावीरत्व छिपा हुआ है। प्रयास करें। समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार आत्मा अनंत है। चेतना की धारा अक्षुण्ण | 4 अप्रैल 2001 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का तो जन्म अंतिम था। | निर्मलता चाहिये । श्रद्धा भक्ति ही अन्तर्मन को | को धारण करती रहती है। यही शरीर का बंधन उनकी मृत्यु भी अंतिम थी । वे स्वयं भी अंतिम | निर्मल बनाती है। भगवान महावीर की जयन्ती | दुखदायी है। इस बंधन से मुक्त होना ही सुखकर है तीर्थंकर थे। इसके पूर्व और भी तेईस तीर्थंकर हुए | मनाकर अपने अन्तर्मन को निर्मल बनाने का प्रयास यही आदर्श है। यही श्रेयस्कर है। यही प्राप्तव्य । सभी ने अपने आत्मबल के द्वारा अपना कल्याण करें। पाँच पापों से मुक्त होकर, कषाय भावों को किया और हमारे लिए कल्याण का मार्ग बताया। छोड़कर आत्मस्थ होने का प्रयास करें। इसी भावना के साथ अंत में इतना ही कहूँगा लेकिन हम इस जन्म के चक्र से स्वयं को निकाल शरीर की बदली हुई नश्वर पर्यायों में न नीर निधि से धीर हो, वीर बने गम्भीर नहीं पाये। हमारा जीवन धर्मामृत की वर्षा होने के | उलझें । शरीर का बदलना तो ऐसा है कि जैसे पूर्ण तैर कर पा लिया, भवसागर का तीर । उपरान्त भी अमृतमय नहीं हुआ। जरा देर के लिए पुराना वस्त्र जब जीर्ण-शीर्ण होकर फटने लग जाता अधीर हूँ मुझ धीर दो, सहन करूँ सब पीर बाहर से भले ही अमृत से भीगा हो लेकिन भीतर | है तब उसे उतारकर दूसरा वस्त्र धारण कर लिया | चीर-चीरकर चिर लखू, अंदर की तस्वीर ।। तक भीग नहीं पाया। जाता है, ऐसे ही जब तक यह आत्मा संसार से भीतर तक भीगने के लिए अन्तर्मन की मुक्त नहीं होती तब तक नई-नई पर्याय अर्थात् शरीर बोधकथा अतिनिन्दनीय और अतिप्रशंसनीय • नेमीचन्द पटोरिया गुरुकुल के निर्धारित विषय अध्ययन कर | गये । एक माह बाद दोनों लौटे। संपूर्ण छात्र- | वस्तु नहीं है, क्योंकि नरदेह से ही हमें सद्ज्ञान सुभद्र और जयन्त दोनों विद्यार्थी स्नातक पद के मंडली के बीच आचार्य ने दोनों शिष्यों को मिलता है जिससे अन्य वस्तुओं की उपयोगिता योग्य हो गये। दीक्षान्त-समारोह का समय केवल बुलाया और उनकी एक माह की खोज का फल का पता चलता है। नर-देह से ही संयम पलता है। एक माह शेष रहा। दोनों प्रसन्नथे। सायंकाल के पूछा। जो हमें स्वर्ग के सुखों और मोक्ष तक की प्राप्ति | समय गुरुकुल के आचार्य ने उन दोनों को अपने सुभद्र बोला, मैने घास, पात, काँटे, राख में सहायक होता है। इस नर-देह को शास्त्रों में| कक्ष में बुलाया। दोनों विद्यार्थी सोच रहे थे कि सभी पदार्थ देखे, पर वे खाद में या क्षेत्र-सीमा चिन्तामणि-रत्न कहा है। मेरी खोज का सार यही| पूर्ण अध्ययन होने के उपलक्ष्य में आचार्यश्री कुछ लगाने में उपयोगी पाये । पशु-पक्षियों के शव | है कि नरदेह ही संसार में सबसे अधिक प्रशंसनीय उपहार या शुभाशीष देंगे। दोनों शिष्य गुरुचरण भी देखे उनकी खाल, उनके पंख या बाल यहाँ और उपयोगी है।" स्पर्श कर विनयपूर्वक खड़े रहे। आचार्य बोले - तक कि हड्डियाँ भी तरह-तरह की वस्तुओं के । विद्यार्थी विरोधी बातों को सुनकर असमंजस "मेरे प्रिय शिष्यो ! तुम दोनों ने गुरुकुल की निर्माण करने में उपयोगी मिलीं। विष-वृक्ष और में पड़ गये। तब आचार्यश्री गंभीर वाणी में बोले शिष्य-परम्परा में श्री-वृद्धि की है, इसका मुझे विषैले जन्तु भी देखे, लेकिन उनका प्रयोग वैद्यक - 'मेरे इन दोनों शिष्यों के निष्कर्ष सही हैं। हर्ष है। तुम्हारा पठनात्मक अध्ययन तो पूरा हुआ ग्रंथों में रोग-उपचार में मिला। अगर कोई निंद्य वास्तव में यह नर-देह सब गंदी व निंद्य वस्तुओं लेकिन प्रयोगात्मक अभी अवशेष है। या निरुपयोगी वस्तु मिली है तो वह है नरदेह। का भंडार है, व उसके सदा बहने वाले नौ मल। दोनों शिष्य बोले- 'श्रीगुरु की शरण-छाया यह नरदेह संसार की गंदी वस्तुओं का भंडार है द्वार हैं। मृत नरदेह किसी भी काम में नहीं आती में हम प्रयोगात्मक पाठ भी पूरा करने को कटिबद्ध और मरने पर इसका कोई उपयोग नहीं है। यदि है, अतः नर-देह अतिनिंद्य और निरुपयोगी है, हैं।' आचार्य बोले - "मुझे तुमसे ऐसी ही आशा नर-शव को तुरंत गाड़ा या जलाया न जाये तो लेकिन इसी देह से हम संयम व तप कर सकते थी। अच्छा तो चिरंजीव सुभद्र ! तुम प्रातः काल- वह वहाँ के वातावरण को इतना दूषित कर देता हैं, ज्ञानार्जन कर सकते हैं और इतने ऊँचे उठ उत्तर दिशा की ओर एक माह के लिए पद-यात्रा है कि उसके पास से निकलना भी स्वास्थ्यकर सकते हैं कि संसार की विभूति इसके चरण-रज करो और इस यात्रा में तुम्हें यह खोजना है कि नहीं है। मेरी खोज का सार यही है कि संसार में की बराबरी नहीं कर सकती है। स्वर्ग और संसार में सबसे निंद्य और निरुपयोगी कौन वस्तु सबसे निंद्य और निरुपयोगी यह नर-देह ही है।" मोक्षदायिनी यह नरदेह है, अतः नरदेह पाकर है ? और चिंरजीव जयन्त ! तुम प्रातःकाल ____ अब जयन्त की बारी आयी, वह उठ खड़ा यदि कुमार्ग की ओर चला जाए तो वह संसार में दक्षिण दिशा की ओर पद-यात्रा करो और इस हुआ और बोला-“मैंने पौधे, नदी, पर्वत, अतिनिंद्य और निरुपयोगी है, और यदि सन्मार्ग यात्रा में तुम्हें यह खोजना है कि संसार में सबसे फल-फूल सब उपयोगी वस्तुएँ देखीं। अनेक की ओर चले तो उससे प्रशंसनीय और उपयोगी प्रशंसनीय और उपयोगी कौन वस्तु है ? तुम दोनों प्रकार के उपकारी पशु भी देखे। अनेक अचूक संसार में कोई नहीं है।" को एक माह में अपनी-अपनी खोज का निष्कर्ष जड़ी-बूटियाँ और औषधियाँ भी जानीं । चाँदी, दोनों विद्यार्थियों ने अपने अनुभव से जान मुझे देना है।" सोनेवरत्न के भंडारों का भी मैने निरीक्षण किया, लिया कि संसार की अतिनिंद्य और - प्रातः दोनों शिष्य आचार्यश्री का आशीर्वाद लेकिन जैसी प्रशंसनीय और उपयोगी यह नरदेह अतिप्रशंसनीय वस्तु क्या है। प्राप्त कर निर्धारित दिशा की ओर प्रस्थान कर | है वैसी संसार के समस्त जड़ व चेतन में कोई 'सोना और धूल' से साभार - अप्रैल 2001 जिनभाषित 5 ___ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-प्रणीत जीवनपद्धति की प्रासङ्गिकता प्रो. रतनचंद्र जैन वर्तमान मानव जीवन अतीत के 5. आज अधिकांश वैज्ञानिक आविष्कारों से भोगसामग्री में निरन्तर वृद्धि के फलस्वरूप जीवन से कई दृष्टियों से भिन्न है । | देशों में प्रजातंत्र शासन पद्धति संयम की संस्कृति का तेजी से विनाश और भोगवादी संस्कृति का बेतहाशा वैज्ञानिक प्रगति तथा आधुनिक सभ्यता प्रचलित है। इसकी सफलता विस्तार हो रहा है। परिणामतः मनुष्य सभी मानवीय संवेदनाओं और के कारण मानवजीवन में कुछ ऐसे संकट सार्वजनिक हित को महत्त्व सामाजिक न्याय को तिलाञ्जलि देकर अधिकाधिक भोगसामग्री एवं उसके उत्पन्न हो गये हैं जो पहले नहीं थे। देने वाली जागरूक जनता पर साधनभूत धन को झपट कर कब्जे में करने की होड़ में लगा हुआ है। इससे उदाहरणार्थ निर्भर है। जिस देश की जनता सम्पूर्ण मानवजाति विध्वंस के कगार पर आखड़ी हुई है। भगवान् महावीर | अपने अधिकारों से बेखबर 1. पहले भी युद्ध होते थे, एक द्वारा उपदिष्ट जीवनपद्धति ही इस विध्वंस से बचा सकती है। इस सत्य को और केवल निजी हितों को देश दूसरे पर अधिकार करने का प्रयत्न निर्वस्त्र करता हुआ यह आलेख भगवान् महावीर के 2600 वें महत्त्व देने वाली होती है वहाँ करता था, लेकिन उस समय सम्पूर्ण जन्मकल्याणक महोत्सव तथा अहिंसावर्ष के सन्दर्भ में प्रस्तुत है। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि मानवता को नष्ट करने के साधन नहीं भयंकर भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो थे। आज हो गये हैं। आज अणुबम जैसे सर्वसंहारक अस्त्रों के आविष्कार से | जाते हैं जिससे उस देश का आर्थिक ढाँचा तो चरमरा ही जाता है, उसकी सम्पूर्ण मानवजाति के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। आजादी भी खतरे में पड़ जाती है। वहाँ सैनिक तंत्र या तानाशाही स्थापित हो 2. अनादिकाल से मनुष्य ऐन्द्रिय सुखों के पीछे दौड़ता आ रहा है, जाती है और हिंसा के द्वारा तख्ता पलटने का क्रम शुरू हो जाता है जिससे किन्तु पहले इन्द्रियों को उद्दीप्त एवं मूर्च्छित करने वाली सामग्री इतनी अधिक देश अनिश्चितकाल के लिए स्थिरता, शान्ति और प्रगति से वंचित हो जाता नहीं थी। आज है, जिससे मनुष्य अनियंत्रित भोगवृत्ति से ग्रस्त होकर विक्षिप्त है। अथवा जहाँ तानाशाही के कारण स्थिरता आ जाती है वहाँ मनुष्य को हो रहा है। इंद्रियों को नये-नये विषयों के सेवन द्वारा उद्दीप्त कर क्षणिक मनुष्यता से हाथ धोने पड़ते हैं और मूक पशु बनने के लिए विवश होना मूर्छा का आनंद लेना ही उसका लक्ष्य बन गया है। धरती से दुःखदर्द दूर पड़ता है। आज अनेक प्रजातांत्रिक देशों की जनता तात्कालिक निजी हितों करने के लिए कोई कर्म करना उसका लक्ष्य नहीं रहा। फलस्वरूप विलासी, को महत्त्व देने वाली, सार्वजनिक हितों को कुचलने वाली तथा अपने अकर्मण्य, आत्मकेन्द्रित और सार्वजनिक हितों से विमुख लोगों की संख्या व्यापक अधिकारों से बेखबर है जिससे वहाँ के शासक प्रचण्ड भ्रष्टाचार से बढ़ रही है। इससे शोषण, लूटपाट, बेईमानी और हिंसा की परम्परा ने जन्म ग्रस्त हैं और जनता अन्याय, पक्षपात, आर्थिक विषमता आदि के रूप में लिया है जो मानव समाज के उत्पीड़न में वृद्धि कर रही है। उनके भ्रष्टाचार का परिणाम भुगत रही है। 3.आज मनुष्य को कामकाज के इतने अधिक यांत्रिक साधन उपलब्ध हो गये हैं और होते जा रहे हैं कि बहुत कम समय में उसके सारे कार्य हो जाते हैं। इससे उसे बहुत अधिक फुरसत मिलती जा रही है। इस फुरसत का उपयोग वह भोगविलास और व्यसनों में कर रहा है। उसकी यह विलासपरकता समाज में अशान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रही है। 6. आज जीवन के मूल्यों में भारी परिवर्तन हो गया है। नैतिकता, ईमानदारी, परिश्रम, ज्ञान और कला का कोई महत्त्व नहीं रहा। राजसत्ता तथा वैभव महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। फलस्वरूप लोगों के जीवन का लक्ष्य येन-केन प्रकारेण इन्हीं को प्राप्त करना हो गया है। इससे एक ओर समाज में नैतिकता आदि का लोप होता जा रहा है, दूसरी ओर अनैतिकता, धूर्तता, तिकड़मबाजी और चाटुकारिता का बोलबाला हो रहा है। इससे सरल और ईमानदार लोगों का जीवन दूभर हो गया है। संकटों का कारण 4. उत्पादन के क्षेत्र में आज मनुष्य का स्थान मशीनों ने ले लिया है जिससे उत्पादन के स्रोत कुछ ही लोगों के हाथ में केन्द्रित हो गये हैं। इससे समाज में घोर आर्थिक विषमता उत्पन्न हुई है। भारत जैसे देश में पचास प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी की रेखा के नीचे पहुँच गये हैं। यह स्थिति पहले नहीं थी। यह आर्थिक विषमता विश्वभर में अशान्ति, क्रान्ति और युद्धों को जन्म दे रही है। ये संकट वैज्ञानिक प्रगति तथा आधुनिक सभ्यता के अनुरुप मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन न होने के कारण उत्पन्न हुए हैं। मनुष्य के बाह्य जगत और अन्तर्जगत में गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य का सुख केवल बाह्य जगत के 6 अप्रैल 2001 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन पर निर्भर नहीं है, तद्नुकूल अन्तर्जगत में भी परिवर्तन आवश्यक | क्योकि समस्त शासन-प्रणालियों में यही कम दोषपूर्ण है। इन सब को है। यदि बाह्य जगत के अनुरूप अन्तर्जगत में परिवर्तन नहीं हुआ तो बाह्य कायम रखते हुए ही आसन्न अनिष्टों से मुक्ति पानी है। वस्तुतः बुराई बाह्य जगत की सुख-सुविधाएँ भी दुःख का कारण बन जाती हैं। मनुष्य जगत में नहीं, अन्तर्जगत में होती है। यदि मनुष्य बुरा है तो बाह्य जगत विषयवासनाओं अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि कितना ही अच्छा हो, बुरा बन जाता है। यदि मनुष्य अच्छा है तो बुरे से बुरे विकारों का पुतला है। बाह्य जगत का उपयोग वह इन विषयवासनाओं के बाह्य जगत को अच्छा बना देता है। इसलिए मनुष्य की आत्मा का ही अनुसार ही करता है। इससे उसकी हानि होती है या लाभ, वासनाओं के संस्कार आवश्यक है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, जो आज नहीं तो कल आवेग में इसका विवेक नहीं कर पाता । यदि उसे बाह्य जगत में इन्द्रियों को | दुनिया को महसूस करना होगा कि जितनी ही भौतिक सम्पन्नता बढ़ेगी, प्रिय लगने वाली प्रचुर सामग्री एवं उसके भोग की स्वच्छन्दता प्राप्त हो जितनी ही वैज्ञानिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होंगी, मनुष्य को जितनी जाती है,तो इतना अनियंत्रित भोग करता है कि अपने जीवन का भी विनाश स्वायत्तता मिलेगी, उतना ही उसकी आत्मा का संस्कार आवश्यक होगा, कर लेता है। यदि उसे अपने आसपास प्रचुर सम्पत्ति दिखाई देती है तो उसे अन्यथा विषय-कषायों या काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि वह पूरी की पूरी बटोर लेना चाहता है। इससे दूसरे अभावग्रस्त होकर मर विकारों से ग्रस्त मूर्ख मानव इस सम्पन्नता का उपयोग अपने और दूसरों के जायेंगे या हिंसक होकर उसका ही विनाश कर डालेंगे इसकी परवाह नहीं विनाश में ही करेगा जिसके लक्षण दिखाई दे रहे हैं। जब हमारे पास ऐसे करता। यदि उसे कोई घातक शस्त्र मिल जाता है तो मामूली सी बात पर साधन हों जिनसे हम अपना हित भी कर सकते हैं और अहित भी, तब हमें क्रोध में आकर उसका ही अपने विरोधी पर प्रहार कर देता है अथवा तीव्र आत्मा के संस्कार की अर्थात् मूलप्रवृत्तियों और मनोविकारों की अधीनता क्रोधावेश में उससे अपना ही घात कर लेता है। इसलिए इन संकटों से से मुक्त होने की अत्यंत आवश्यकता हो जाती है। छुटकारा पाने के दो ही उपाय हैं, या तो मनुष्य को बाह्य जगत में ऐसी | महावीरप्रणीत जीवनपद्धति का सार : आत्मसंस्कार सुविधाएँ उपलब्ध न हों जिससे वह अपने या दूसरों के घात में समर्थ हो सके अथवा उसकी आत्मा का संस्कार हो जाये ताकि बाह्य जगत में उपलब्ध इस सन्दर्भ में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जीवनपद्धति अत्यन्त सुविधाओं का वह दुरुपयोग न करे । प्रासंगिक सिद्ध होती है। यह आत्मसंस्कार पर जोर देती है। इसका अन्तस्तत्त्व आत्मा का उदात्तीकरण है। आत्मा से क्रमश: परमात्मा बनने का लक्ष्य वर्तमान की विडम्बना यह है कि बाह्य जगत तो काफी सुख-सुविधाओं इसमें अन्तर्निहित है। मनुष्य के स्तर से उठकर भगवान के स्तर पर पहुँचने के से सम्पन्न हो गया है, किन्तु मनुष्य के अन्तर्जगत का संस्कार नहीं हुआ है। पुरुषार्थ की यह प्रणेता है । जैसे खान से निकला हुआ अशुद्ध स्वर्ण इसलिए भौतिक सुख-सुविधाओं और वैज्ञानिक साधनों का उपयोग वह विवेकपूर्वक न कर अविवेकपूर्वक कर रहा है, जिससे चारों तरफ अशान्ति किट्टकालिमा से मुक्त होकर शुद्ध स्वर्ण बन जाता है वैसे ही काम, क्रोध, और हिंसा फैल रही है। यदि बाह्य जगत में यह परिवर्तन न हुआ होता तो लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारों से छुटकारा पाकर निर्विकार चिन्ता की इतनी बात नहीं थी, मानवजाति के समाप्त होने का भय नहीं बन जाना ही महावीर के अनुसार मानवजीवन का साध्य है। निर्विकार होता, न मशीनों के आने से जो आर्थिक विषमता उत्पन्न हुई है वह होती, न स्वरूप ही आत्मा का परमस्वरूप है। यह अवस्था समस्त चिन्ताओं से प्रचुर भोग सामग्री के कारण मनुष्य जो अतिविलासी, शोषक और सार्वजनिक रहित होने के कारण परम आनन्दमय है। अतः यही जीवन का सर्वोच्च हित से विमुख बना है, वह बना होता , न अनेक आदमियों के हाथ में सत्ता प्राप्तव्य है। आने से जो भ्रष्टाचार बढ़ा है, वह बढ़ा होता । किन्तु बाह्यजगत के इस भगवान महावीर का दर्शन यह दृष्टि प्रदान करता है कि सांसारिक परिवर्तन ने मानवजाति के समाप्त हो जाने की या इस धरती के क्रमशः नरक वैभव, राजसत्ता और भोगसामग्री वे चीजें नहीं है जिनसे दुःख के स्रोतों का बनते जाने की चिन्ता उत्पन्न कर दी है। विनाश होता है। दुःख के स्रोत हैं - जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा, इष्टवियोग, संकटों से मुक्ति का उपाय : आत्मसंस्कार अनिष्टसंयोग, प्रतिस्पर्धा और अतृप्ति (लोभ)। जगत का कोई भी वैभव, कोई भी राजसत्ता, कोई भी भोग्य पदार्थ, दुःख के इन स्रोतों को नष्ट नहीं कर इस चिन्ता से मुक्त होने का एक ही उपाय है : मनुष्य के अन्तर्जगत् में सकता। हाँ, इनसे जो दुःख उत्पन्न होते हैं उनमें से कुछ की अनुभूति को परिवर्तन अर्थात् उसकी आत्मा का संस्कार । क्योकि बाह्य जगत को तो सांसारिक पदार्थ कुछ देर के लिए रोक सकते हैं, किन्तु उनकी उत्पत्ति पर पीछे नहीं ढकेला जा सकता है। वैज्ञानिक ज्ञान और आविष्कारों का भी प्रतिबन्ध नहीं लगा सकते। जब तक दुःख के उपर्युक्त कारण विद्यमान रहते परित्याग नहीं किया जा सकता। उनके विकास पर भी रोक नहीं लगायी जा हैं तब तक दुःख की उत्पत्ति होती रहती है। बस, सांसारिक पदार्थों के द्वारा सकती। प्रजातांत्रिक शासनपद्धति को भी तिलांजलि देना संभव नहीं है, उसकी अनुभूति को बार-बार रोकने की चेष्टा मात्र की जा सकती है। किन्तु - अप्रैल 2001 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांसारिक पदार्थों की शक्ति बड़ी सीमित है। वे दुःख की अनुभूति को रोकने में सदा समर्थ नहीं होते और सभी दुःखों की अनुभूति को रोकने का सामर्थ्य | तो उनमें है ही नहीं। अतः सांसारिक पदार्थ जीवन के प्राप्तव्य नहीं हैं। यहाँ 'सपरं' शब्द के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि चूँकि इन्द्रियसुख की सामग्री पराधीन है इसलिए उसकी प्राप्ति आकुलतोत्पादक होने से इन्द्रियसुख, सुख नहीं, दुःख ही है। महाभारत में भी कहा गया है - सर्वं परवशं दुःखं सर्वं ह्यात्मवशं सुखम् । वदन्तीति समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥ सभी प्रकार की पराधीनता दुःख है और सभी प्रकार की स्वाधीनता सुख है। संक्षेप में सुख-दुःख का यही लक्षण है। जिस वस्तु से जन्म-मरण आदि दुःखम्रोतों का विनाश हो, वही जीवन में प्राप्त करने योग्य है। वह वस्तु है आत्मा की निर्विकार अवस्था जो उसका परमस्वरूप है। आत्मा अनादि से शरीर, पुद्गल,कर्म और मोहरागद्वेषादि विकारों से ग्रस्त होने के कारण अशुद्ध है। इस अवस्था में मोह या अविद्या के कारण वह सांसारिक पदार्थों को सारभूत समझकर उनके प्रति आकृष्ट होती है और उन्हें पाने के लिए हिंसादि प्रवृत्तियों में संलग्न होती है जिससे वह बार-बार शरीर धारण करती है और, धारण करने से जन्म-मरण शरीर रोग, बुढ़ापा आदि के दुःख भोगती है। इसलिए मोह रागद्वेष से विमुक्त होकर जब शरीर और कर्मों से सदा के लिए छुटकारा पा लेती है तब अपने निर्विकार परमस्वरूप को उपलब्ध होती है और इस निर्विकार परम अवस्था की प्राप्ति होने पर उसके जन्ममरणादि समस्त दुःखस्रोत सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। अतः अपनी निर्विकार परम अवस्था को पाना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस सत्य को पराधीन सपनहुँ सुख नाही' इस उक्ति से सरलतया प्रकट कर दिया है। इसलिए जब हम सांसारिक पदार्थों की इच्छा से मुक्त हो जाते हैं, उनके पीछे भागना बन्द कर देते हैं, अपनी आवश्यकताओं को कम करने के लिए वस्तुओं की अनावश्यक अधीनता से मुक्ति पाने की चेष्टा करते हैं, इन्द्रियों को अनावश्यक भोग की आदत से छुटकारा दिलाते हैं अर्थात् संयम, तप और अपरिग्रह का अवलम्बन करते हैं तब हम टेन्शन' से, आकुलता से क्रमशः मुक्त होते जाते हैं और निराकुलता रूप सच्चे सुख का अनुभव करते हैं। मनुष्य सुख पाने की आकांक्षा से सांसारिक पदार्थों की इच्छा करता है और उन्हें पाने के लिए हिंसा आदि पापों में प्रवृत्त होता है। किन्तु जैनदर्शन इस सत्य की ओर ध्यान आकृष्ट करता है कि सुख सांसारिक पदार्थों को पाने में नहीं, अपितु उनकी आकांक्षा से मुक्त होने में है। जैनदर्शन ने सुख की अत्यंत मनोवैज्ञानिक व्याख्या की है। इसमें निराकुलता को अर्थात् Tensionless state of mind को सुख का लक्षण बतलाया गया है। विषयभोग या सांसारिक पदार्थों से प्राप्त होने वाला सुख सच्चा सुख नहीं है, क्योंकि उसकी इच्छामात्र से आकुलता या 'टेन्शन' पैदा होता है। हम देखते हैं कि हमारा मन तनावग्रस्त तब होता है जब उसमें किसी सांसारिक पदार्थ को पाने की इच्छा जागती है, जब वह इन्द्रियसुख की सामग्री, वैभव, राजसत्ता आदि को पाने के लिये तड़पता है। क्योंकि ये चीजें पराधीन हैं इसलिए इनकी प्राप्ति निर्बाध और सुनिश्चित नहीं है, अनेक बाधाओं से ग्रस्त और अनिश्चित है। इसलिए इनकी इच्छा 'टेन्शन'को जन्म देती है। इस प्रकार आकुलता या टेन्शन का एकमात्र कारण संसार के पदार्थों के पीछे भागना है। यतः सांसारिक पदार्थों की लालसा Tension को जन्म देती है इसलिए उन पर आश्रित इन्द्रियसुख सच्चा सुख नहीं है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने इस मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथा में उद्घाटित किया है - इस प्रकार महावीरोपदिष्ट जैन दर्शन इस सत्य के दर्शन कराता है कि आत्मा की निर्विकार परम अवस्था और निराकुलतारूप सुख ही वे सर्वश्रेष्ठ पदार्थ हैं जो मानवजीवन में प्राप्त करने योग्य हैं। वह मनुष्य की दृष्टि को नकली सुख से हटाकर असली सुख की ओर मोड़ता है, निस्सार से विमुख कर सारभूत की ओर उन्मुख करता है, सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण करता है अर्थात् जो वास्तव में सुखद और सारभूत है उसकी उपादेयता में आस्था उत्पन्न करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य के चरित्र का स्वरूप इस बात पर निर्भर है कि वह जीवन में किस चीज को सर्वाधिक उपादेय समझता है? यदि वह अपनी निर्विकार अवस्था और निराकुलतारूप वास्तविक सुख को सर्वाधिक उपादेय समझता है, तो वह उनकी बलि देकर सांसारिक पदार्थों को पाने के लिए तैयार नहीं होगा। यदि उसकी दृष्टि में सांसारिक पदार्थ और इन्द्रियसुख सर्वाधिक मूल्यवान होते हैं तो वह उनके लिए अपनी आत्मा को भी बेचने के लिए तैयार हो जायेगा। सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।।1/76 अतः जब मनुष्य के मन में यह आस्था दृढ़ हो जाती है कि स्वात्मा की निर्विकार अवस्था और निराकुलतारूप सुख ही परम मूल्यवान हैं तब उसकी प्रवृत्ति में अहिंसा, अपरिग्रह, संयम और तप स्थान लेने लगते हैं। वह गृहस्थ जीवन में रहकर, पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक भूमिकाओं For Private & Personal use only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्वाह करते हुए और सुख-सुविधाओं, इन्द्रियविषयों का आवश्यकतानुसार उपभोग करते हुए भी उन्हें परम मूल्यवान नहीं मानता। फलस्वरूप उन्हें येन केन प्रकारेण प्राप्त करने की कोशिश नहीं करता, न्यायपूर्वक ही अर्जित करता है, दूसरों का हक छीनकर अपने निर्वाह की सामग्री नहीं जुटाता । अन्यायपूर्वक धनोपार्जन से बचना उसका लक्ष्य बन जाता है। अतः कम से कम वस्तुओं से काम चलाने के लिए इन्द्रियों को संयत करने का अभ्यास करता है, वस्तुओं की अधीनता से यथाशक्ति मुक्त होने की साधना करता है। इस प्रकार उसके जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह, संयम और तप अवतरित होने लगते हैं जिन्हें जैनदर्शन ने आत्मा के सर्वोच्च स्वरूप अर्थात् निर्विकार अवस्था और निराकुलतारूप सुख को पाने के लिए परमावश्यक बतलाया है। दृष्टि (आस्था) का सम्यक् बन जाना और प्रवृत्ति का अहिंसा, अपरिग्रह, संयम एवं तपोमय बन जाना ही आत्म संस्कार है। यही जैन साधना का मूलमंत्र है। इसके द्वारा आधुनिक परिस्थितियों से उत्पन्न खतरों टाला जा सकता है। यही वर्तमान युग के संकटों से बचने का एकमात्र उपाय है। आज जब मानवता के समूल विध्वंस का साधन मनुष्य के हाथ लग गया है और कोई बाह्य शक्ति उस पर अंकुश लगाने में समर्थ नहीं है तब मनुष्य मात्र के प्रति संवेदनशीलता (मैत्री और कारुण्य) का संस्कार ही उसे मानव - विध्वंस के क्रूरकर्म से रोकने में सफल हो सकता है। मशीनीकरण के फलस्वरूप राष्ट्र की सम्पत्ति सारे उपायों के बावजूद, जो कुछ ही लोगों के हाथ में केन्द्रित होती जा रही है उससे उत्पन्न आर्थिक विषमता केवल अपरिग्रह के आत्मसंस्कार द्वारा ही दूर हो सकती है। दूसरा उपाय साम्यवादी तानाशाही है, किन्तु उसमें तो मनुष्य, मनुष्य ही नहीं रहता, पशु बना दिया जाता है और जैसा कि सुक्रात ने कहा है, 'एक सन्तुष्ट सुअर होने की बजाय एक असन्तुष्ट मनुष्य होना बेहतर है।' इसी प्रकार जब चारों तरफ नित नई भोग सामग्री उपलब्ध हो रही है तथा भोगवृत्ति पर कोई बाह्य नियंत्रण नहीं है, तब मात्र आत्मसंयम ही मनुष्य को विलासी, अकर्मण्य, शोषक तथा दूसरों के हितों से विमुख होने से बचा सकता है। तथा सर्वोत्तम प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में भी मानवस्वभाव की विकृति के कारण जब ऊपर से लेकर नीचे तक, नेता से लेकर जनता तक के लिए भ्रष्टाचार के द्वार खुल गये हैं तब इन द्वारों में प्रवेश करने से मनुष्य को रोकने वाली एकमात्र शक्ति आत्मसंस्कार ही है। महावीर द्वारा उपदिष्ट जैन जीवनपद्धति आत्मसंस्कार प्रधान है अतः वर्तमान सन्दर्भ में वह अत्यंत प्रासंगिक है। 137, आराधनानगर, भोपाल-462003 (म.प्र.) जो बिनु ग्यान क्रिया अवगाहै, जो बिनु क्रिया मोखपद चाहे। नमो है मैं सुखिया, सो अजान मूढ़नि मैं मुखिया || कविता गुरु-स्तवन • डॉ. कपूरचन्द्र जैन देह तो मैली-कुचैली आत्म उज्ज्वल रूप है। वासनायें मर चुकी हैं, चेतना चिद्रूप है। अज्ञान का तम हट चुका है ज्ञान तो सद्रूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है। आत्मसंयम के धनी ये दोष से तो रंक हैं पाप में हैं शून्यये पर पुण्य में शत अंक हैं। ज्ञान, वाणी, चेतना से भरा आतम- कूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है। गुमित्र को गुप्त रखके ज्ञान का आलोक करते समिति पाँचों पालते हैं स्वयं में संयम को धरते ॥ धर्म दश आराधना कर धर्म इनका रूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है। चिन्तन करें अनुप्रेक्षायें ज्ञान से सब ज्ञेय हैं जीतते हैं परीषह सब और स्वयं अजेय हैं। पंचविध चरित्र से चारित्र इनका रूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है। अध्यक्ष संस्कृत विभाग, श्री कुन्दकुन्द जैन कालेज, खतौली - 25101 ( उ. प्र. ) अप्रैल 2001 निभाषित Prary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवान महावीर का २६०० वा गन्म कल्याणक महोत्सव' कैसे मनाएँ: कार्य-योजनाएँ प्राचार्य निहालचंद जैन १ अप्रेल २००१ से ३० अप्रेल २००२ | अध्यक्षता में राज्य समिति का गठन करके, पहल | के विकास और उत्कर्ष में आगे बढ़कर, अपनी तक वर्ष भर भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के | की शुरुआत की। कार्यकुशलता से भारत सरकार और कालजयी महापुरुष भगवान वर्द्धमान महावीर का भगवान महावीर की मानवता के । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के माध्यम से इसे २६००वाँ जन्म जयंती महोत्सव, राष्ट्रीय एवं उत्थान/उत्कर्ष के लिये, सबसे बड़ी देन | जीवन्त बनाए रखें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 'अहिंसा वर्ष' के रूप में मनाया 'अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह' के __ अभी हाल में डॉ.कमलचंद जी सोगानी जा रहा है। अनुशीलन करने की रही। जैन धर्म का मुख्य चिंतन | अध्यक्ष जैन विद्या संस्थान महावीर जी ने लेखक सन १९७४ में मानवता के मसीहा भगवान 'अहिंसा का परिपूर्ण पालन' रहा। और “जियो को अवगत कराया कि जयपुर में (राजस्थान)में महावीर का २५००वाँ परिनिर्वाण महोत्सव भी एक संस्कृत विश्वविद्यालय का शुभारंभ होने जा राष्ट्रीय स्तर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा | का केन्द्र बिन्दु बना। रहा है। चर्चा के दौरान उनकी भावना दिखी कि वे गांधी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय समिति द्वारा इसे "भगवान महावीर संस्कृत प्राकृत अतः इस शुभावसर पर यह प्रयत्न पूरी मनाया गया था और विदेशों तक इसकी हलचल विश्वविद्यालय" नाम देने के लिये संकल्पित हैं। ताकत से किया जाना चाहिए कि अहिंसा की इस रही। जैन धर्म को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया सार्वभौमिक भावना का राष्ट्रीय स्तर पर समादर जैन समाज के श्रीमानों और सुधी विद्वानों को गया। दिगम्बर और श्वेताम्बर परंपरा में एक हो। इस वर्ष भगवान महावीर का जन्म कल्याणक एकजुट होकर यह नेक काम साकार करवाना समन्वय की दिशा में सर्वमान्य समण-सुत्तं' ग्रन्थ महोत्सव एक व्यापक दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में चाहिए और कहीं भी आर्थिक पहलू के कारण यह प्रणयन किया जाकर आचार्य विनोबा भावे की मनाया जावे।उनके जीवनदर्शन और उपदेशों का अवसर नहीं चूकना चाहिए भले ही जैन समाज भावना को मूर्तवन्त किया गया था। इसका प्रचार-प्रसार भी, इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम को १ या २ करोड़ धनराशि अनुदान स्वरूप देना पद्यानुवाद "जैन गीता" के नाम से आचार्य श्री से सर्वव्यापकरूप से किया जावे। पड़े। विद्यासागर जी महाराज ने करके इसकी व्यापकता यहां कुछ कार्य-योजनाओं की रूपरेखा को नया आयाम दिया। नई दिल्ली के महरौली क्षेत्र मेरा विचार है कि उनके दिव्य-संदेशों की प्रस्तुत है, जिनके क्रियान्वयन के लिए समाजसेवी में अहिंसा स्थली के रूप में भगवान महावीर स्वामी गूंज के साथ ही पर्यावरण, सामाजिक शांति और संस्थाओं, समाज के नेताओं, संस्थाओं की विशाल/ मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाकर सद्भाव, स्वास्थ्य और शिक्षा तथा लोकसेवा के (प्रकाशन) और राज्य सरकारों को यथोचित उसे पर्यटन केन्द्र के रूप में भारत सरकार के सहयोग क्षेत्र में जनकल्याणकारी कार्यक्रम समादित किए सहयोग करना चाहिए। से विकसित किया जा रहा है। महानगरों/ कस्बों जावें, जिसमें भगवान महावीर प्रतिबिम्बित हो सकें। ___इनमें से बहुत सारी कार्य-योजनाएं में "जय-स्तम्भों' का निर्माण किया जाकर उन कुछ बिन्दु/कार्य-योजनाएं (Projects) महासमिति द्वारा भी प्रस्तावित की गयी हैं। अस्तु पर भगवान महावार के दिव्य-सदश उत्काण किए प्रस्तावित हैं, जिनके लिए सर्वप्रथम पूज्य इन पर स्वीकृति की मुहर लगनी चाहिए। गए। आचार्यों/संतों/मुनिवरों का आशीर्वाद चाहिए। १. भारत सरकार द्वारा निम्नांकित योजनाएं इसी प्रकार समग्र जैन समाज के केन्द्रीय संत हमारे राष्ट्र की चारित्र-रीढ़ हैं। आचार्य भगवन्तों साकार की जावेंसंगठन के रूप में भगवान महावीर २६०० वाँ जन्म का जैन समाज में सर्वोपरि पूज्य-भाव है। इन कल्याणक महोत्सव महासमिति का गठन किया संयमी-पुरुषों का आशीष और वरदहस्त इसकी १. भगवान महावीर के चित्र सहित सिक्कों और गया तथा राष्ट्रीय स्तर पर माननीय प्रधानमंत्री श्री पवित्रता को अक्षुण्ण रखेगा। इसके साथ भारतवर्ष ___ डाक-टिकटों का लोकार्पण, राष्ट्र के नागरिकों अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय की समस्त जैन संगठन, संस्थाएं, कुन्दकुन्द भारती के लिये किया जावे। समिति का भी गठन कर लिया गया है। इसी प्रकार नई दिल्ली, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इंदौर, जैन विश्व २. एक चलित रेलगाड़ी का शुभारंभ किया जावे प्रायः सभी राज्यों में राज्य स्तरीय समितियों का भारती लाडनू, त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर, जिसमें भगवान महावीर के जीवन दर्शन की गठन भी प्रस्तावित है और इस दिशा में सर्वप्रथम जैन विद्या संस्थान महावीर जी आदि जैसी जागरूक झांकियाँ, उनके पूर्व ९० भवों का चित्रांकन, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने अपनी संस्थाएं संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं प्रमुख-उपदेशों का लेखन/सूचना-पट्ट हो। A 10 अप्रैल 2001 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं। व्यसन-मुक्त समाज की परिकल्पना को साकार संस्कृत-प्राकृत विभागों में सेमीनार संयोजित | 'ग्रुप-डिसकशन' समायोजित किये जावे जो करने हेतु पोस्टर बनवाकर उनकी प्रदर्शनी किये जाएँ जिनमें निम्नांकित संदर्भो को उठाया। मूलतः अहिंसा और नैतिक मूल्य परक हों। समायोजित हो और व्यसनों की बुराइयों का जाये और जनसामान्य के लिये उनके निष्कर्ष ४. प्रतिभाशाली चरित्रवान परंतु गरीब साधनहीन चित्रांकन के माध्यम से दिग्दर्शन कराया जावे। प्रकाशित किये जायें। छात्रों के भावी उच्च अध्ययन के लिए मद्यपान, धूम्रपान, गुटखा, पान, गांजा, अ.पर्यावरण-सुधार में जैन धर्म के सिद्धांतों का | छात्रवृत्तियों का प्रावधान सुनिश्चित किया जावे। ब्राउन शुगर जैसे नशीले पदार्थों के बहिष्कार का | योगदान इसके लिए स्थानीय जैन समुदाय द्वारा फण्ड माहौल बनाया जावे। ब. जन-संरक्षण, स्वास्थ्य और शिक्षा में नैतिक का निर्माण कर एक सहायता राशि विद्यालयों ३. एक अंतर्राष्ट्रीय “विश्व-धर्म- मूल्यों का समावेश आदि पर कार्य-शालाएं को दी जावे। सम्मेलन" का आयोजन दिल्ली में सुनिश्चित किया आयोजित हों। ५. गरीब-रोगियों के असाध्य रोगों के इलाज के जावे जिसमें जैनधर्म/दर्शन पर विशेष व्याख्यान स. जैनधर्म की वैज्ञानिकता को मुखर करने वाले लिए "जीवनदान-अनुदान' के रूप में आयोजित हों। शोधालेखों का वाचना सहायता मुहैय्या करायी जावे। ४. मांस निर्यात नीति के संबंध में संसद में द. भोगवादी संस्कृति के बढ़ते परिवेश को नियंत्रित (४) लोक कल्याण एवं पर्यावरण सुधार के पुनर्विचार किया जावे और इस पर प्रतिबंध लगाने ___ करने में साधु व श्रावक-चर्या की अहम लिये कार्ययोजनाएकी कार्यवाही सुनिश्चित की जावे ताकि मूक भूमिकाएँ। १. गो सदनों/गो-शालाओं का निर्माण किया पशुओं का वीभत्स-कत्ल बंद हो सके और | इ .अहिंसा और अणुव्रतों के अनुशीलन में जावे, जो जीव दया के सिद्धांत को प्रचारित "जीव-दया" की मूल अवधारणा को बल मिले। श्रावकत्व, धर्म और चर्या आदि विषय हो करें। इसमें राज्य सरकार और समस्त हिन्दू, ५. एन.सी.ई.आर.टी. के माध्यम से सिख,मुस्लिम,पारसी,ईसाईजनों से सहयोग भगवान महावीर के जीवन एवं उपदेश के संबंध में ई. जैनतीर्थों का पर्यटन केन्द्रों के रूप में विकास माँगा जावे ताकि उनमें भगवान महावीर की एक मानक कृति का प्रणयन-हिंदी/अंग्रेजी भाषा किया जावे। उनके चारों ओर की भूमि में करुणा/प्रेम की मूल अवधारणा का विकास में किया जाकर उसका प्रकाशन हो और विदेशों औषधि, वनस्पतियाँ और उद्यान विकसित में केन्द्रीय सरकार के माध्यम से वह पुस्तक भेजी किये जावें तथा जैन पुरातत्व से विदेशी पर्यटकों २. वृक्षारोपण किया जावे। प्रत्येक नवनिर्मित मंदिर को अवगत कराया जावे। के साथ उद्यान/बगीचों के निर्माण का प्रावधान इस संबंध में एनसीईआरटी के डायरेक्टर डॉ. राजपूत एवं शिक्षा-दर्शन विभाग के समन्वयक (3)भगवान वर्द्धमान महावीर के जीवन प्रसंगों की सुनिश्चित किया जावे। डॉ.एम.सी.जैन को लिखा जावे, जिनके संयुक्त सशक्त अभिव्यक्ति के लिए नुक्कड़ | ३. पशु-पक्षियों के लिये चिकित्सालयों की नाटकों/एकाकियों का मंचन किया जावे। सहयोग से यह कार्य-योजना प्रभावी रूप से । शुरुआत हो। क्रियान्वित हो सकती है। ३.शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कार्ययोजनाएं ४. अपंग लोगों को अंग-उपकरण और व्यवसाय २. प्रकाशन एवं प्रभावना संबंधी कार्य के लिए साधन प्रदत्त किए जावें। योजनाएँ पाठ्यक्रम तैयार किया जाकर उन्हें राज्य के ५. प्रत्येक शहर में "जैन-श्रावक-आहार केन्द्र" समस्त विद्यालयों में लागू करने के लिए राज्य १.रेडियो एवं टेलीविजन कार्यक्रमों के माध्यम से लाभ-हानि रहित सिद्धांत पर खोले जावें जहाँ भगवान महावीर के जीवन दर्शन और जैनदर्शन के माध्यमिक परीक्षा-बोर्ड एवं राज्य सरकारों शुद्ध आहार की व्यवस्था हो। को रूपायित/व्याख्यापित किया जावे तथा जैन - को भेजा जावे। (५) अन्य विविध महत्वपूर्ण योजनाएँ धर्म को मानव-जीव-कल्याण, विश्वशांति और | २. पं. जुगल किशोर मुख्तार रचित "मेरी भावना" १. अध्यात्मिक-योग-ध्यान-केन्द्रों का शुभारंभ अहिंसा के संदर्भ में उल्लेखित किया जावे। को विद्यालयों की सर्वधर्म प्रार्थना में समाहित बड़े नगरों/शहरों में किया जावे। जहाँ आज २. विदेशों में जैन धर्म/ भगवान महावीर के उपदेशों करने के लिए शिक्षा-सचिव/राज्य सरकारों को की गंभीर ज्वलंत समस्या-मानसिक तनाव का के प्रचार-प्रसार के लिए जैन विद्वानों का चयन लिखा जावे। सकारात्मक समाधान मिल सकता है। प्रत्येक कर विदेशों में भेजा जाये। इसके लिए एक चयन ३. प्रत्येक विद्यालय में- “अहिंसा और मैत्री" तीर्थ स्थलों पर योग-ध्यान-केन्द्रों का निर्माण समिति गठित की जाये। क्लब की स्थापना की जावे। महाविद्यालयीन और विकास किया जावे। जम्बूद्वीप शोध ३. विश्वविद्यालयों के दर्शन/ समाजशास्त्र/ स्तर पर-संगोष्ठियां, भाषण प्रतियोगिता और संस्थान हस्तिनापुर और श्री महावीर जी में ऐसे जावे। अप्रैल 2001 जिनभाषित ।। ___ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान केन्द्रों की शुरुआत हो चुकी है। २. " एयर लाइन" एवं पाँच सितारा होटलों में "जैन-फूड प्रकोष्ठ की स्थापना की जावे " जहाँ शाकाहार को बल मिल सके और वहाँ शाकाहार की गुणवत्ता का वैज्ञानिक निष्कर्षो सहित प्रचार किया जावे। ३. जैन साधुओं के शिथिलाचार पर सकारात्मक नियंत्रण हेतु एक "श्रमण-संगीति" के तत्त्वावधान में "मूलाचार" जैसे आगम ग्रंथों का आचार्य परमेष्ठी द्वारा "वाचना" का कार्यक्रम रखा जावे और श्रावक समुदाय तथा श्रावक संघों के बीच इसकी खुली वाचना प्रशस्त की जावे। इससे इस बदलते परिवेष में " श्रमण- संविधान" को जबरदस्त बल मिलेगा। वाचना की कबरेज प्रतिदिन राष्ट्रीय दैनिक अखबारों में दी जाये। इसे पढ़कर शिथिलाचारी साधु आत्म-निरीक्षण कर अपने महाव्रतों को विशुद्ध पालन करने के लिए संकल्पित होगे। ४. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश की प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों/ग्रंथों के संरक्षण और शोध के लिए जैन शोध संस्थानों को और प्रभावी बनाया जावे। इस दिशा में अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना जैसी संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जावे। ५. जैन शोधार्थियों के शोध-प्रबन्धों के प्रकाशन की व्यवस्था की जाकर उन्हें विदेशों की लायब्रेरी में भेजने की व्यवस्था कारगर की जावे। 2 आशा है कि उपर्युक्त कार्ययोजनाओं के संबंध में एक सार्थक चिंतन होगा। इस पर सुधी पाठकों की प्रतिक्रिया भी सादर आमंत्रित है। यदि उन्हें क्रियान्वित किया गया तो भगवान महावीर स्वामी हमारे बीच जीवन्त हो उठेगे और आतंकवाद, हिंसा, क्रूरता का पना कुहासा छँटने में देर नहीं लगेगी। शा.उ. मा. विद्यालय ३ के सामने बीना बीना (म.प्र.) 12 अप्रैल 2001 जिनभाषित उर्दू शायरी में अध्यात्म हम अनादिकाल से संसरण कर रहे हैं हर दौर रह चुका है हमारी कयामगाह, ' हम खानुमा खराब मुसाफिर अवद' के हैं। सुख-दुःख हमारे ही कर्मों के फल हैं तकदीर के कातिब से इल्जाम रसी 'कैसी, खुद हमने खता की थी, खुद हमने सजा पाई। पौरुष ही सफलता का मन्त्र है चले चलो कि चलना ही दलीले कामरानी 'है, जो थक कर बैठ जाते हैं वो मंजिल पा नहीं सकते। प्रस्तुति शीलचंद्र जैन आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा पौरुष है फिराक गोरखपुरी दुनिया को जिस दृष्टि से देखते हैं, वैसी ही दिखाई देती है -७ एक तर्जे तसव्वुर के करिश्में हैं ब-हर-रंग, ऐ दोस्त ये दुनिया न बुरी है, न भली है। , जमाने में उसने बड़ी बात कर ली, खुद अपने से जिसने मुलाकात कर ली। जो निःस्पृह हो जाता है, सारा संसार उसका दास बन जाता है भागती फिरती थी दुनिया, जब तलब करते थे हम, जब से नफरत हमने की. वह बेकरार आने को है। सोज होशियारपुरी ताबिश जिगर मुरादाबादी मजाज शेरी भोपाली १. विश्रामस्थल, २. अभागा, ३. अनन्तकाल, ४. लेखक, ५. दोषारोपण, ६. सफलता का उपाय, ७. सोचने का ढंग 13, आनंदनगर, जबलपुर - 482004 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलाका पुरुष पूज्य पं. गणेशप्रसाद जी वर्णी और उनकी साहित्य - सेवा • डॉ. पण्डित पन्नालाल जैन साहित्याचार्य यदि संसार समुद्र है तो उसमें रत्न अवश्य होने चाहिये । पूज्य पंडित गणेश प्रसाद जी वर्णी जैन संसार के अनुपम रत्न थे। आपने 'मड़ावरा' ग्राम में जन्म लेकर समस्त बुन्देलखण्ड प्रान्त को गौरवान्वित किया है। आप यद्यपि असाटी वैश्य कुल में उत्पन्न हुए थे तथापि पूर्वभव के संस्कार से जैन धर्म के मर्मज्ञ प्रतिपालक थे। आपका जीवन चरित्र असाधारण घटनाओं से भरा हुआ है। आपने अपनी निरन्तर साधना से जैन समाज में जो अनुपम व्यक्तित्व प्राप्त किया था वह उल्लेख करने योग्य है। परन्तु इस छोटे लेख में लिखकर में उसका महत्व नहीं गिराना चाहता । राष्ट्रीय जागृति में यदि महामना लोकमान्य तिलक के बाद महात्मा गाँधी का उल्लेख होता है तो जैन समाज में शिक्षा प्रचार की जागृति में सर्वश्री गुरु गोपालदास जी के बाद श्रद्धेय वर्णी गणेशप्रसाद जी न्यायाचार्य का नामोल्लेख होना चाहिये। स्वर्गीय तिलक जी के दृष्टिकोणों को जिस प्रकार महात्मा गाँधी ने सीमा से उन्मुक्त कर सर्वाङ्गीण जागृति का उठाया था उसी प्रकार पूज्य वर्णी जी ने भी बरैया जी के सीमित दृष्टिकोणों से आगे बढ़कर धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि सभी विषयों की उच्च शिक्षा का सुन्दर प्रचार किया था। सुनते हैं कि आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व बुन्देलखण्ड में जैन शास्त्रों साधारण जानकार भी नहीं थे । तत्त्वार्थसूत्र, सहस्रनाम और संस्कृत की देव-शास्त्र- गुरु पूजा का मात्र पाठ कर देने वाले महान पंडित कहलाते थे । धार्मिक आचार विचार में भी लोगों में शिथिलता आ गई थी, परंतु आज पूज्य वर्णी जी के सतत प्रयत्न और सच्ची लगन से बुन्देलखण्ड भारत वर्ष के कोने-कोने में अपने विद्वान भेज रहा हैं। आज यदि जैन समाज में कुछ विषयों के आचार्य है तो वे बुन्देलखण्ड के हैं, शास्त्र के लब्ध प्रतिष्ठ और सर्वमान्य विद्वान है तो बुन्देलखण्ड के हैं भारतवर्ष की समस्त जैन संस्थाओं यदि कर्मठ अध्यापक हैं तो प्रायः 80 प्रतिशत बुन्देलखण्ड के हैं और जैन पाठशालाओं तथा विद्यालयों में यदि सुयोग्य विद्यार्थी हैं तो उनमें बहुभाग बुन्देलखण्ड का है। आचार विचार में भी आज बुन्देलखण्ड का साधारण से साधारण गृहस्थ अन्य प्रान्तों के विशेषज्ञ पंडितों की अपेक्षा कुछ विशेषता रखता है। यदि अन्य प्रांत के शास्त्री विद्वान बाजार का सोडावाटर शौक से पी सकते हैं तो बुन्देलखण्ड का साधारण अनपढ़ जैन गृहस्थ अगालित जल से दातौन भी नहीं कर सकता। मैं यह नहीं कहता कि इसके अपवाद नहीं है, अपवाद हैं अवश्य, परंतु बहुत कम बुन्देलखण्ड के विद्वान सीधे, साहित्यिक और कलहप्रिय काण्डों से प्रायः दूर रहने वाले होते हैं। कुछ लोग भले ही कहते हो कि बुन्देलखण्ड दरिद्र प्रान्त है इसलिए वहाँ के लोग निःशुल्क मिलने वाली संस्कृत शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं और फिर आजीविका के लिये देश छोड़कर जहाँ-तहाँ बिखर जाते हैं। बात ठीक भी जचती है, परंतु इसमें मुझे रोष नहीं होता बल्कि संतोष होता है और वह इस बात का कि इस प्रान्त के लोग धार्मिक क्षेत्र में अपनी प्रगति कर रहे हैं। दरिद्रता के अभिशाप से पीड़ित होकर इन्होने कोई ऐसा मार्ग नहीं अपनाया है जो इन्हें तथा इनके पूर्वजों को कलंकित करने वाला हो और जैन धर्म की प्रगति में बाधक हो । अब हमारे विज्ञ पाठक जानना चाहेंगे कि बुन्देलखण्ड की इस धार्मिक प्रगति का मुख्य कारण कौन है ? सोते हुए बुन्देलखण्ड प्रांत को जगाकर उसके कानों में जागृति का मन्त्र फूँकने वाला कौन है ? बुन्देलखंड के गृहस्थोचित आचार विचार को अक्षुण्ण रखने वाला कौन है ? और उसे दुनिया में चकाचौंध पैदा कर देने वाली पाश्चात्य सभ्यता (!) से अपरिचित रखने वाला कौन है ? जहाँ तक मेरा अनुभव है मैं कह सकता हूँ कि इन सबका सर्वमान्य उत्तर है - प्रातः स्मरणीय पूज्य पं. गणेशप्रसाद जी वर्णी । इन्होंने अपनी धर्ममाता स्वर्गीय चिंरोजाबाई जी की उदारवृत्ति तथा पुत्रवत् वात्सल्यपूर्ण भावना से बनारस, खुर्जा, मथुरा, गदिया आदि स्थानों में जाकर बड़ी कठिनाइयों से विद्याभ्यास किया था। आज के विद्यार्थियों को उदार जैन समाज ने धर्म शिक्षा के सुयोग्य साधन सुलभ कर दिये हैं। आज के विद्यार्थियों को रहने के लिये सुन्दर और स्वच्छ भवन प्राप्त हैं। उत्तम भोजन मिलता है और अच्छे-अच्छे आचार्य अध्यापक उन्हें पढ़ाने के लिये उनके घर आते हैं, आते ही नहीं प्रेरणा भी करते हैं कि तुम मेरे पास पढ़ो। परंतु एक वक्त वह था कि जब पूज्य वर्णी जी जैसे महान व्यक्तियों को पुस्तक बगल में दाबकर मीलों दूर अजैन अध्यापकों के पास जाना पड़ता था, उनकी सुश्रूषा करनी पड़ती थीं, किन्तु वे धार्मिक विद्वेष के कारण पुस्तक टैक्स पर से दूर फेंक देते थे। पूज्य वर्णी जी ने ऐसी ही विकट परिस्थिति से गुजर कर विद्याध्ययन किया था। उन्होने दानवीर सेठ माणिकचंद्र जी बम्बई आदि के सहयोग से बनारस जैसे हिन्दू धर्म के केन्द्र स्थान में स्याद्वाद विद्यालय की स्थापना कराई थी। प्रकृति ने आपके वचनों में मोहनी शक्ति दी थी, विद्या की कमी नहीं थी। अपने युग के आप सर्वप्रथम षट्खण्डोत्तीर्ण जैन न्यायाचार्य थे। यदि आप विद्याध्ययन के बाद चाहते तो समाज के किसी विद्यालय के प्रधान बनकर लक्षाधीश हो सकते थे। परन्तु आपके हृदय में तो अपने प्रान्त और धर्म के उत्थान की प्रबल भावना जमी हुई थी जिससे आपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ममत्व छोड़कर अपना जीवन परोपकार में लगा दिया। सन् 1909 में आपने सागर का सत्र्क विद्यालय खुलवाया था जो आज मध्यप्रदेश का गौरव कहलाता है और जिसने बुन्देलखण्ड की जागृति में अप्रैल 2001 जिनभाषित 13 . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्व हाथ बँटाया है। द्रोणगिरि, रेशन्दीगिरि, आहार, पपौरा आदि अनेक स्थानों पर पाठशालाएँ स्थापित कराकर आपने जैन धर्म और जैन साहित्य के प्रचार में पर्याप्त योगदान किया था। मात्र साहित्यनिर्माण, पुस्तक का संशोधन, सम्पादन, लेखन, मुद्रण आदि ही साहित्य सेवा नहीं है, बल्कि इस कार्य के योग्य साहित्यिक पुरुष पैदा कर देना भी साहित्य सेवा है और उससे कहीं बढ़कर । के आपके हृदय में दया कूट-कूटकर भरी थी। मैं अपने से वयोवृद्ध पुरुषों के द्वारा उनकी दयालुता के अनेक प्रकरण सुनता आया हूँ और कुछ तो मैने स्वयं देखे हैं । लेख का कलेवर बढ़ता जा रहा है, परंतु एक महान पुरुष विषय में कुछ लिखे बिना भी नहीं रहा जाता । लगभग 10 बजे दिन का वक्त था, पूज्य वर्णी जी दुपट्टा ओढ़कर मोराजी से भोजन के लिये कटरा आने के लिये तैयार थे, तभी एक गरीब जैनी भाई उनके पास पहुँचते हैं। उनके पास पहनने को कपड़ा नहीं था, मात्र धोती पहने हुए थे। पूज्य वर्णी जी ने उन्हें देखते ही अपना दुपट्टा उतारकर उन्हें उड़ा दिया और आप धोती को ही कन्धे पर डालकर कटरा चले गए। शीत ऋतु का समय था, वर्णी जी के पास ही हम लोग बैठकर पाठ याद कर रहे थे कि इतने में कहीं से एक सज्जन आते हैं। उनके पास रुई भरी ई रजाई नहीं थी । वर्णी जी अपने बिस्तर का गद्दा निकाल कर उन्हें दे देते हैं उस दिन से उन्होने फिर गद्दे पर सोना ही छोड़ दिया। आज बुन्देलखण्ड के पंडितों में शायद ही ऐसा कोई हो जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वर्णी जी का आभारी न हो। उन्होंने मेरे साथ तो महान उपकार किया है। किसी भी छात्र को परखना और उसे आगे बढ़ाना तो आपका स्वभाव ही था। बहुत पहले की बात है। मैं व्याकरण की प्रथम परीक्षा उत्तीर्ण ही हुआ था कि कविता लिखने का शौक उत्पन्न हुआ। मुझे एक प्रार्थना पत्र लिखना था मैने संस्कृत के 6-7 पद्य लिखकर पूज्य वर्णी जी को दिये। आप सोच सकते हैं कि उस समय मेरी रचना कैसी रही होगी ? अभी 3-4 वर्ष की बात है कि मुझे अपने पुराने कागजों में उन श्लोकों की एक कापी मिल गई तो मुझे अपनी मूर्खता पर भारी तरस आया और मैने उसे बाहर फेंक दिया। परंतु वर्णी इन श्लोकों पर कुछ भी नुक्ताचीनी न कर मुझे पाँच रुपये नगद दिये। मेरा उत्साह बढ़ गया। मैं उनका ही महान उपकार मानता हूँ जो आज कुछ कविता करना सीख गया हूँ । मैने अपने श्रीपालचरित (संस्कृत गद्य काव्य ) और । रत्नत्रयी में उनका क्रमश: इस प्रकार स्मरण किया है - 'यस्यानुकम्पामृतपानमा बुधा न हीच्छन्ति सुधा समूहम् । भूयात्प्रमोदाय बुधाधिपानां गुणाम्बुराशिः स गुरुर्गणेशः ॥' येषां कृपाकोमलवृष्टिपातैः सुपुष्पिताभून्मम सूक्तिवल्ली । तान् प्रार्थये वर्णिगणेशपादान् फलोदयं तत्र नतेन मूर्ध्ना ।। मैं अन्य विद्वानों का अपवाद नहीं कर रहा हूँ, परंतु यह अवश्य कह रहा हूँ कि पूज्य वर्णी जी अपने वक्तव्य में किसी की शानी नहीं रखते थे । जहाँ अन्य वक्ताओं के चटपटे चुटकले और जोशीले शेर क्षणिक हास्य या जोश उत्पन्न कर विस्मृत हो जाते हैं, वहीं पूज्य वर्णी जी की अनुपम भाषण शैली 14 अप्रैल 2001 जिनभाषित T | और अनोखे शास्त्र प्रवचन का प्रभाव श्रोताओं के अन्तस्तल पर पड़े नहीं रहता था। जिसने एक बार भी आपका शास्त्र प्रवचन या भाषण सुना होगा वह सदा के लिये आपका आभारी हो गया होगा । एक घटना मे आँखों देखी है। अतिशय क्षेत्र बीना-बारहाजी में परवारसभा का वार्षिक अधिवेशन हो रहा था । स्वर्गीय पंचमलाल जी तहसीलदार जबलपुर वाले अध्यक्ष थे । पूज्य पंडित जी का सारगर्भित भाषण प्रारम्भ होते ही जोरों से जलवृष्टि होने लगती है। पंडाल के नीचे पानी बहने लगता है, पर क्या बात, जो एक बच्चा भी अपनी जगह छोड़कर उठा हो । यात्रियों के डेरे-डंगल खराब हो रहे थे, परंतु सब लोग उनसे निस्पृह हो पंडित जी के भाषण सुनने में लगे हुए थे। श्रोताओं को हँसा देना या रुला देना तो आपके बाँये हाथ का खेल था। मुझे भी अनेक जैन- अजैन विद्वानों के भाषण सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, परंतु वर्गीजी के समान सारगर्भित और अंतरात्मा पर स्थाई असर करने वाला भाषण मैने आज तक नहीं सुना । आप अध्यात्म विषय का निरंतर मनन करते रहते थे। जब भी हम देखते थे समयसागर आपके हाथ में मिलता था । समयसार मूल और अमृतचन्द्राचार्य कृत उसकी टीका तो आपको प्रायः अक्षरशः कण्ठ हो गई थी। आप विद्यार्थियों की तरह 4 बजे रात से उठकर याद किया करते थे। आप इस वृद्धावस्था के समय ज्ञानार्जन में इतना अधिक परिश्रम क्यों करते हैं ? ऐसा पूछने पर आप यही उत्तर देते थे कि भैया ! ज्ञान ही ऐसी वस्तु है जो परभव में साथ जाती है। तीर्थकर को किसी गुरु के पास पट्टी लेकर नहीं पढ़ना पड़ता इसका मुख्य कारण उनके पूर्वभव का ज्ञानार्जन और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ही है आप लोग धन को हितकारी समझते हैं और उसे जर्जर काय होकर भी कमाते जाते हैं। मैं ज्ञान को हितकारी मानता है और उसे प्राप्त करने में जब तक शक्ति है प्रयत्न करता हूँ । परभव में न जाने ऐसी निर्द्वन्द्व अवस्था मिलेगी या नहीं। आपका धन आपके साथ नहीं जावेगा और मेरा ज्ञान मेरे साथ जावेगा। आप सुयोग्य लेखक और टीकाकार थे। आपने श्लोकवार्त्तिक की एक प्रामाणिक हिंदी टीका लिखी थी। उसके कुछ पत्र मेरे देखने में भी आए हैं, परंतु वह पूर्ण हुई या अपूर्ण रही, इसका पता नहीं। आप शांतिप्रिय आत्माराम विद्वान थे। अखबारी लेखनकला को शांतिभंग का एक कारण मानते थे, इसलिये उससे बचते रहे हैं। अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा पाकर ही जब कभी आप लिखते थे। पत्र लिखने में तो आप सर्वथा बेजोड़ थे। आप अपने सहधर्मी और स्नेही सज्जनों को जो पत्र लिखते थे उनमें 'अत्र कुशलं तत्रास्तु', 'या बहुत समय से चिट्ठी नहीं सो देना' यही नहीं रहता था, किंतु शांतिलाभ की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध रहती थी। आपके पत्र जो भी पढ़ता था वह क्षण भर के लिए अपने आपको भूल जाता था। आनंद में बिभोर हो जाता था । यही कारण है कि जबलपुर, सागर और कलकत्ता समाज की ओर से आपके पत्रों की प्रतिलिपियाँ 4 भागों में प्रकाशित हो चुकी है। इस 20 वीं शताब्दी में आपने सब मिलाकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जैन धर्म और जैन साहित्य की जितनी सेवा की है उतनी बहुत कम लोगों ने की होगी । . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द की दृष्टि में शुभोपयोग परम्यरया मोक्ष का हेतु डॉ. श्रेयांसकुमार जैन बतलाया है - आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसागर में शुभोपयोग का लक्षण इस प्रकार | शुद्धोपयोग परिणाति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने में सफल हो जाता है। इस प्रकार गृहस्थ का शुभोपयोग परमसुख अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति का परम्परया हेतु है । देवजदि गुरु पूजासु वेव दाणाम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा || 691 जो आत्मा देव, यति और गुरु की पूजा, दान सुशील (गुणव्रत, महाव्रत आदि उत्तम प्रवृत्तियों) तथा उपवास आदि तपों में अनुरक्त होता है वह शुभापयोगी है। जो जाणादि जिनिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । जीवेसु साणुकंपा उवओगो सो सुहो तस्स ।।1571 जो जीव अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु में श्रद्धा-भक्ति रखता है तथा जीवों पर दया करता है उसका उपयोग शुभ होता है। अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विजदिदि सामपणे सा सुहजुत्ता भवोचरिया ।। 246।। जिस मुनि की अरहन्त और सिद्ध में भक्ति तथा शुद्धात्मस्वरूप के उपदेशक आचार्य, उपाध्याय और साधु में वात्सल्य होता है उसका चारित्र शुभोपयोग युक्त होता है। दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं । चरिया हि सरागाणं जिणंदपूजोवदेसो य | 24811 सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह तथा पोषण करना एवं जिनेन्द्र की पूजा का उपदेश देना शुभोपयोगी मुनियों की प्रवृत्ति है। शुभोपयोग का फल - उपर्युक्त शुभोपयोग का फल बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं. एसा पसत्थमूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति मणिदा ता एव परं लहदिसोक्खं ॥ 25411 यह शुभोपयोगरूप चर्चा श्रमणों के तो गौण रूप से होती है, किन्तु गृहस्थों के मुख्य रूप से होती है। गृहस्थ इसी के द्वारा परम्परया परमसुख (मोक्षमुखः) प्राप्त करते हैं। शुभोपयोग के द्वारा गृहस्थ को परम्परया मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार किया है " गृहिणां तु... ... स्फटिक सम्पर्कणा तेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुमवात् क्रमतः परमनिर्वाण सौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।" अर्थात् जैसे ईंधन स्फटिक के सम्पर्क से धीरे-धीरे सूर्य के तेज को ग्रहण कर जल उठता है वैसे ही गृहस्थ अरहन्तादि के प्रति जो शुभराग होता है। उसके संयोग से क्रमशः शुद्धोपयोग की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। और फिर आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्रशस्तराग रूप शुभोपयोग को वस्तुविशेष के सम्पर्क से भिन्न-भिन्न फल देने वाला बतलाते हुए उसके परम्परया मोक्ष हेतु होने का औचित्य सिद्ध किया है। यथा रागो पसत्थमूदो वस्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥ छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदाणियमज्झयण झाणदाणरदो। ण लहदि अपुणम्भावं भावं सादप्यगं लहदि ॥ प्रवचनसार, 255-256 जैसे एक ही प्रकार के बीज वर्षा ऋतु में अलग-अलग प्रकार की भूमियों में बोये जाने पर अलग-अलग प्रकार से फलित होते हैं अर्थात् अच्छी भूमि में बोये गये बीजों से अच्छी फसल होती है और खराब भूमि में बोये गये बीजों से खराब फसल, वैसे ही सर्वशोपदिष्ट तत्त्वों का अवलम्बन करने वाला शुभोपयोग पुण्यबन्धपूर्वक मोक्ष का कारण बनता है और मिथ्यादृष्टियों द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों का अवलम्बन करने वाला शुभोपयोग मोक्ष का कारण नहीं होता, केवल उत्तम देव और मनुष्यगति का कारण होता है। आचार्य जयसेन ने उक्त गाथाओं की व्याख्या इस प्रकार की है 'यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिविशेषेण तान्येव वीजानि भिन्नमित्रफलं प्रयच्छन्ति तथा स एव वीजस्थानीय शुभोपयोगो भूमिस्थानीय पात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्न-भिन्नफलं ददाति । तेन किं सिद्धम् ? यदा पूर्व सूत्रकथिततन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृच्या पुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्वाणंच, नो पुण्यबन्धभात्रमेव ।” अर्थ-जैसे वही बीज जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भूमियों की विशेषता से भिन्न फल देता है। अभिप्राय यह है कि जब सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होता भिन्न-भिन्न फल देते हैं, वैसे ही वही शुभोपयोग पात्रों की विशेषता से भिन्नहै तब मुख्य रूप से तो पुण्यबन्ध होता है और परम्परया मोक्ष, अन्यथा पुण्यबन्ध होता है, मोक्ष नहीं होता। इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वज्ञोपदिष्ट व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि के अनुष्ठान पर आश्रित शुभोपयोग को परम्परया मोक्ष का कारण बतलाया है। अतः वह कंथचिद् उपादेय भी है, सर्वथा हेय नहीं है। 24/32, गाँधी रोड बड़ौत - 250611 (उ.प्र.) अप्रैल 2001 जिनभाषित 15 . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारीलोक गर्भपात : हमारी शून्य होती संवेदनायें .डॉ. ज्योति जैन जैन धर्म में तीर्थंकरों के पाँच रहे हैं। समय के चक्र की विडंबना कल्याणक मनाने की परंपरा है। __ लड़की पैदा होने और बड़ी होने के साथ-साथ उस पर बढ रही | देखिये कि महावीर, बुद्ध और उनका गर्भ कल्याणक भी मनाया हिंसा, बलात्कार, दहेज आदि से निपटने के लिए उन्हें गर्भ में ही गांधी के इस अहिंसावादी देश जाता है। जैन साहित्य में जहाँ विवाह में निरपराध शिशुओं की गर्भ में संस्कारों की चर्चा की गयी है वहीं समाप्त किया जा रहा है। यह मानव सभ्यता का सबसे अधिक त्रासदी ही हिंसा हो रही है। १९७१ के गर्भाधान संस्कार को भी महत्त्व दिया | भरा पहलू है। इससे समाज का समीकरण भी बिगड़ रहा है, जिसका | पहिले तक भारत में गर्भपात गया है। तीर्थंकर की माता का यही | फल आज नहीं तो कल हम सबको भुगतना पड़ेगा। कानूनन अपराध था पर बदलती सौभाग्य उसे सर्वश्रेष्ठ नारी होने की हुई परिस्थितियाँ, जनसंख्या गरिमापूर्ण स्थिति प्रदान करता है। वृद्धि, स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचार जाज भी हम पंचकल्याणक समारोह में समस्त रूप से और गर्भस्थ शिशु शारीरिक रूप से खण्ड- एवं शोषण ने इसे कानूनी मान्यता प्रदान कर दी क्रियायें देखते हैं। हमारे परिवारों में भी कहीं पर खण्ड हो जाते हैं। पाप-पुण्य की जो परिभाषा हमें | और हम सब इसका इतना दुरुपयोग कर रहे हैं कि सातवें और कहीं पर नौवें महीने में अपने-अपने संस्कारों से मिली है वह भी धरी की धरी रह जाती | अहिंसा के पुजारी बनते-बनते हिंसा के पुजारी बन रीति-रिवाजों के अनुसार गर्भवती नारी और उसके | गये हैं। गर्भ की मंगल कामना की जाती है। आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने आधुनिकता की लहर और भोगवादी 'जियो और जीने दो' तथा 'दूधों नहाओ उन्नति कर हर असंभव कार्य को संभव बना दिया | संस्कृति एवं प्रवृत्ति का विकास जिस तेजी से हो पतों फलों' जैसी भावना रखने वाले हमारे देश है पर मानवीय सवेदनाये विज्ञान की पहुच से बाहर | रहा है उसका असर समाज. परिवार तथा व्यक्ति हमारे समाज में गर्भपात जैसी घटनायें सचमुच हैं तभी तो चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन करने वाला | पर भी पड़ रहा है। आज संयुक्त परिवार बिखर रहे २१वीं सदी में प्रवेश करते मानव की शून्य होती विद्यार्थी जो यह शपथ लेता है कि वह प्रत्येक के | हैं और घर की मर्यादाओं की परिभाषा ही बदल संवेदनाओं को ही व्यक्त कर रही हैं। वैसे तो विश्व जीवन की रक्षा करेगा' वही जब गर्भपात के मामले गयी है। सीमित परिवार और कम संतान आधुनिक का कोई भी धर्म भ्रूण हत्या का समर्थन नहीं करता में रक्षककी जगह भक्षक बन जाता है तब क्या | सोच का ही नजरिया है। महिलायें जागरूक हो पर,जैन धर्म तो प्राणी मात्र के जीवन की बात करता कहा जाये। गयी हैं। पर गर्भपात तो हमारे संस्कार और मर्यादा है। निरपराध भ्रूण को निर्दयतापूर्वक खत्म कराना देश के वर्तमान कानून और उनको तर्क की | के अनुकूल नहीं है। आज शिक्षित नारी जब प्रत्येक आज सभ्य समाज का सबसे बड़ा कलंक है और कसौटी पर सही ठहराने वाले अनेक बिंदु मिल | क्षेत्र में अपने अधिकारों के प्रति सजग है अपनी यह अपराध इतना बड़ा है कि शायद ही किसी जायेंगे। आज की बदलती हई परिस्थितियों में रुचि, अपना निर्णय, अपना कैरियर, अपनी पसंद प्रायश्चित से इसका प्रमार्जन किया जा सके। अनेक बार स्थिति ऐसी बन जाती है कि गर्भपात | से अपने घर की सजावट, स्वयं के कपड़े आदि वर्तमान में संसार का प्रत्येक प्राणी किसी कराना आवश्यक हो जाता है, जैसे माँ के स्वास्थ्य का निर्णय करने की क्षमता रखती है तो बच्चा कब न किसी दुःख से दुःखी है लेकिन गर्भपात रूपी को गंभीर खतरा, बलात्कार की शिकार युवती या कितने हों यह भी विवेक रखे ताकि गर्भपात जैसी विषम स्थिति उपस्थित ही न हो और महिलाओं दुःख तो हमारा अपना बनाया हुआ है। हमारा अपना | अन्य गंभीर कारणालेकिन इन सब कारणों की ही खून, जो हमारे अपने ही प्यार का फूल है, हम संख्या नगण्य है। स्वेच्छा से कराये जाने वाले का अपना शरीर विभिन्न दवाओं,और साधनों की गर्भपात के आंकड़े स्थिति की जैसी भयानकता सब स्वयं ही मिलकर उसे मसल देते हैं। कोख में प्रयोगशाला बनने से बच जाये। पल रहे शिशु को मारना सचमुच ही संसार का प्रदर्शित करते हैं उससे तो लगता है कि आज पिछले कुछ वर्षों में जैनों ने गर्भपात से सबसे जघन्य और अमानवीय कार्य है। यह एक गया है, जिसमें डाक्टर भी अपनी भूमिका निभा | गर्भपात विषयक समस्त जानकारी निहित है। यह 16 अप्रैल 2001 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अच्छा प्रयास है। महिलाओं को गर्भ और उससे संबंधित जानकारी तो होना ही चाहिये। अनेक महिलायें जानकारी न होने पर गलतफहमी का शिकार बन जाती हैं। सामान्यजनों में गर्भपात को एक मामूली सी शल्यक्रिया बताया जाता है जबकि जब तक हमें पता चलता है कि महिला गर्भवती है तब तक गर्भ काफी विकसित हो जाता है। मैं अपनी एक परिचित से मिलने उनके घर गई। घर का माहौल बड़ा तनावपूर्ण था। इधर-उधर की कुछ बातें करने के बाद जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैने 'पूछा क्या बात है। बताइए शायद आपका दुख-दर्द बांट सकूँ तो वह फूट-फूट कर रोने लगीं और उन्होंने बताया कि वह कई रातों से सो नहीं पा रही हैं, क्योंकि उन्होंने हाल में ही गर्भपात कराया था। उन्हें आज भी यह अपराध बोध हो रहा है कि सबने मिलकर बच्चे को मरवा दिया। वे आज भी नार्मल स्थिति में नहीं आ पा रही हैं। अनेक डॉक्टर उनका इलाज कर चुके हैं किसी ने तो उन्हें कुछ ऊपरी बाधा हो गयी है यह भी सिद्ध कर दिया, पर उनके पल-पल पनपते अपराध बोध के अहसास को कौन दूर करायेगा? यह सही है कि समय घावों को भर देता है पर उसकी पीड़ा, स्त्री का गर्भ धारण करना और फिर गर्भपात कराना इस शारीरिक और मानसिक व्यथा को भुक्तभोगी ही समझ सकती हैं। सच ही है 'जाके पैर न फटी बिवाई को क्या जाने पीर पराई'। यह भी सच है कि पाश्चात्य संस्कृति में निहित भोगवाद ने हमारी संस्कृति और हमारे चारित्रिक गुणों की मर्यादा खत्म कर दी है। पापऔर जीव दया को लेकर हमें जो संस्कार पुण्य मिले हैं वे सब बिखर से रहे हैं। गर्भपात से जहाँ जीव हिंसा होती है वहीं महिलाओं में गर्भाशय संबंधी अनेक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे गर्भाशय में छेद, बाँझपन, सूजन, रक्तस्राव, मासिक धर्म में गड़बड़ी, कमर दर्द, श्वेत प्रदर जैसी अनेक संक्रामक बीमारियाँ हो जाती है। महिलायें न केवल शारीरिक तौर पर, अपितु मानसिक तौर पर भी बीमार हो जाती हैं और एक अच्छा खासा परिवार तनावपूर्ण स्थिति में आ जाता है। कुछ वर्षों से हमारी संकीर्ण सामाजिक मनोवृत्ति के कारण अल्ट्रा साउण्ड के माध्यम से कन्या-भ्रूणों का गर्भपात तेजी से बढ़ रहा है। लड़की पैदा होने और बड़ी होने के साथ-साथ उस पर बढ़ रही हिंसा, बलात्कार, दहेज आदि से निपटने के लिये उन्हें गर्भ में ही समाप्त किया जा रहा है। यह मानवीय सभ्यता का सबसे त्रासदी भरा पहलू है। इससे समाज का समीकरण भी बिगड़ रहा है जिसका फल आज नहीं तो कल हम सबको भुगतना पड़ेगा। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एवं यूनिसेफ ने भी इसे गंभीरता से लिया है। यद्यपि पढ़े-लिखे वर्ग की सोच में परिवर्तन आया है कि लड़का-लड़की में भेद कैसा ?' पर इतने विशाल समाज की सोच को बदलना एक कठिन कार्य है। यह सच है कि बढ़ती हुई जनसंख्या ने देश के सामने अनेक समस्यायें खड़ी कर दी हैं। यही कारण है कि परिवार नियोजन कार्यक्रम को एक योजना के तहत पूरे देश में लागू करना पड़ा है। परिवार नियोजन के अनेक साधन एवं गर्भ निरोधकों की एक लंबी श्रृंखला है, फिर गर्भपात क्यों? हम अपना विवेक, संयम और संस्कार रखें तो न केवल अपने शरीर को शोषण से बचा सकते हैं अपितु गर्भपात जैसे भयंकर पाप से भी बच सकते हैं, और संयममय जीवन अपनाकर सुख-शांति के मार्ग पर चल सकते हैं, तो आइये हम सोचें, समझें और जीवन में यह वाक्य उतारें कि 'संयम ही जीवन है। ' ६ शिक्षक आवास श्री कुन्दकुन्द जैन कालेज खतौली- २५२२०१ (उ. प्र. ) कविताएँ ऋषभ समैया 'जलज' टंच कसती है कसोटी जो करें चोखा करें आप जो लेखा करें, वह आप ही जोखा करें टंच कसती है कसोटी, जो करें चोखा करें फूलते हैं किस तरह से, एक पल में फूटने जिंदगी को जानना हो, बुलबुले देखा करें आप अपने ही चरण से, पा सकेंगे मंजिलें रास्ते के अनुभवों से, फलसफा सीखा करें सांस हर अनमोल है, दिल साज की आवाज है गुनगुनाने को मिली है, व्यर्थ न चीखा करें एक दिन की बात हो तो माफ भी कर दे खुदा ये कहाँ की बदसलूकी, रात-दिन धोखा करें मंजिल की पहुँच यार कोई दिल्लगी नहीं अपनी खुदी की चाह नहीं, बंदगी नहीं कितनी भी कामयाब हो, वह जिंदगी नहीं तेजाब है अहम, जला डालेगा आशियाँ बर्बादियाँ मिलेंगी, अगर सादगी नहीं कहने को बहुत कहता है, करने को कुछ नहीं मंजिल की पहुँच यार कोई दिल्लगी नहीं कागज के फूल दूर से लगते हैं लाजबाब डाली पे खिले फूल सी बस ताजगी नहीं , निखार भवन, कटरा बाजार, सागर 470002 (म. प्र. ) अप्रैल 2001 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास्य-व्यंग्य नमस्कार-सुख • शिखरचंद्र जैन नमस्कार ! सर्वप्रथम उन्हें जिनकी असीम | लोट-पोट होकर प्रसन्नता प्रगट करने का लोभ तो | उपयुक्त हिन्दी शब्द दूसरा नहीं है। इसके उपयोग अनुकम्पा से इन पंक्तियों ने आपका मुँह देखा। मैं संवरण कर गया लेकिन उस माथे को क्या कहूँ। में न तो 'गुड' के साथ मार्निंग, इविनिंग, डे-नाइट, ऐसा सौभाग्य विरलों का ही होता है। दरअसल, जो गौरवान्वित होकर झटके से ऊँचा उठा और | आई-वाई जैसे प्रत्ययों के यथास्थित-यथासमय लिखे जाने और प्रकाशित होने की महायात्रा के गर्दन को करीब-करीब लचकाते हुए कालर से | याद रखने की चकल्लस है और न ही इसके उच्चारण दौरान किसी भी समय कहीं भी गिर जाने, गुम | नीचे कमीज के दो-तीन बटन तोड़ गया। एड़ी से में किसी वर्जिश की जरूरत। सब मों की एक जाने, रह जाने अथवा अस्वीकृत होकर रद्दी की चोटी तक खुशी विद्युत लहर की तरह झनझना दवा के माफिक इसे सुबह, दोपहर, शाम एक से टोकरी या वापसी वाले लिफाफे की शोभा बढ़ाने | गयी! आते-जाते लोग मुझे देख कर ठिठकने लगे | असर के साथ उपयोग किया जा सकता है। जैसी अनिवार्य विपदाओं को पारकर लक्ष्य तक सहसा लोगों की नजरें मेरे सीने पर कुछ वैसा प्रभाव इसके अलावा नमस्कार में एक ऐसी पहुँच पाना बिना ढेर सारी सद्भावना और सहयोग डालती महसूस हुईं जिसके अंतर्गत महिलायें विशिष्टता है जो अन्यत्र नहीं पायी जाती। नमस्कार के सम्भव नहीं है। अतः जिनका योगदान मुझे इस अनायास ही आंचल संवारने लगती हैं। तत्काल की रचना 'नर' शब्द के 'न' और 'र' अक्षरों के दिशा में उपलब्ध हुआ है उन्हें नमस्कार कर रखना मेरा हाथ सीने पर गया तो मैंने उसे बैलून की तरह बीच निहायत ही खूबसूरती से 'मस्का' लगाने पर मैं अपने हित में समझता हूँ ताकि सनद रहे और फूला हुआ पाया। जरूर खुशी से ही फूला होगा। हुई है। वैसे सम्भावना तो नहीं कि इस संसार में ऐसे वक्त और भी आवें। लेकिन आश्चर्य कि वह सीना जिसे लाख कोशिश मस्का से कोई अपरिचित हो फिर भी अपवादों के दूसरे नम्बर पर मेरे नमस्कार के पात्र हैं आप, के बावजूद भी निर्धारित सीमा तक न फुला पाने लिए मैं बतला दूं कि मस्का शब्द के समानार्थी हैंजो यह पढ़ रहे हैं। रेल, बस या हवाई यात्रा के के कारण मैं पुलिस में भरती न हो सका और मक्खन, नवनीत इत्यादि। इस तरह अभिवादन के दौरान घर में गाव तकिये के सहारे या आफिस में जिसका दुख मरते दम तक ताजा रहेगा, नमस्कार सही प्रयोजन को उजागर करता है। फाइल के अंदर रखे आप मूंगफली छीलने-चबाने के वशीभूत हो इस कदर फूला कि आपे से बाहर होने को था। मेरे जीवन में यह नवीन अनुभव था। से जरा परिष्कृत टाइम पास अपना कर निश्चय ही हो सकता है कि भाषा और व्याकरण की सर्वथा नवीन। वैज्ञानिक शब्दावली में कहूँ तो अपनी महानता का परिचय दे रहे हैं। आप महान हैं रोटी तोड़ने वाले इस विश्लेषण से सहमत न हो। और आगे जब कभी इस लेखक की कोई किताब ध्वनि-शक्ति का बिना किसी माध्यम के यांत्रिक बल्कि न ही होंगे। क्योंकि विद्वान कब दूसरे के मत आपकी नजर में आए तो उसे खरीदकर पुनः अपनी शक्ति में परिवर्तित होने का एकमात्र उदाहरण। से सहमत हुए हैं ? इसी कारण कभी-कभार असहमत हो लेने की मेरी भी आदत है। लेकिन मैं महानता का परिचय दें, इस दृष्टिकोण से आपके बहुधा इस तरह के अप्रत्याशित अनुभव हाथ कंगन को आरसी वाली बात पर अधिक खाते में एक नमस्कार का इनवेस्टमेण्ट मैं लाभप्रद आदमी को महान बनाने में सहायक होते पाए गए विश्वास रखता हूँ। जब मीलों दूर से नमस्कार में समझता हूँ। हैं। जैसा कि 'न्यूटन' वगैरह के साथ हुआ! इस मस्का लगा हुआ नजर आ रहा है तो फिर इस तीसरा और इस सिलसिले में मेरा अंतिम | तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए मैने भी अपने अनुभव तथ्य से इन्कार करना कि यहां इसका अर्थ मक्खन नमस्कार अर्पित है उस महामना को जिसने जीवन को केपिटलाइज करने का पूर्ण प्रयत्न किया है। ही है, नादानी होगी। में पहली बार मुझे नमस्कार-सुख से परिचित यदि रजिस्ट्रेशन और गाइड जैसी औपचारिकताओं कराया था। यद्यपि काफी जोर देने पर भी उनका को आवश्यक न समझा जाए तो कहा जा सकता नमस्कार की इस व्याख्या को मानकर चलने नाम मेरे स्मृति-पटल पर नहीं उभर रहा है लेकिन है कि 'मानव जीवन में नमस्कार के भौतिक प्रभाव में एक लाभ और भी है। इसके द्वारा हम नमस्कार वह वाकया दस के पहाड़े की तरह मुझे आज भी 'विषय पर मैंने बाकायदा रिसर्च की है। वर्षों के प्रचलन का समय और परिस्थितियाँ निर्धारित कर सकते हैं। कहते हैं कि प्राचीनकाल में किसी याद है जब इस सत्पुरुष ने बीच बाजार मुझे यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी के चक्कर लगाए हैं। मोटी मोटी किताबों के पन्ने पलटे हैं। गोया वह तमाम नमस्कार किया था। इतना ही नहीं बल्कि 'साहब' समय हमारे देश में दूध-दही की नदियाँ बहा करती थीं। यद्यपि पुरातत्त्वी खुदाई में अभी तक इसके जैसे घोर आदर सूचक शब्द से मुझे संबोधित भी नाटक किए हैं जो रिसर्च के दौरान आवश्यक समझे ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं पर निराश होने की किया था। कहा था- “नमस्कार जैन साहब!" जाते हैं। और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि आवश्यकता नहीं। अभी तमाम जगहों पर खुदाई अब मैं आपको क्या बतलाऊँ कि इस अप्रत्याशित | अभिवादन के क्षेत्र में नमस्कार जैसा सहज, मधुर, बाकी है। और जिस तरह आबादी बढ़ रही है. आदर ने मेरी क्या गत बनाई। उसी समय, वहीं, 18 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदमी की नस्ल के निकट भविष्य में समाप्त होने का कोई भय नहीं है। आगे कभी-कभी प्रमाण मिल सकते हैं। हालांकि उपर्युक्त कथन के विरोध में भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है जबकि उसके पक्ष में हमारे बड़े-बूढ़े मरते दम तक आश्वस्त रहे हैं। इसलिए यह मानकर चलना हमारा नैतिक कर्तव्य है किसी समय हमारे देश में दूध-दही की नदियाँ अवश्य ही बहती रही होंगी। उन दिनों, कच्चे माल के प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने के कारण मक्खन उत्पादन के गृहउद्योग बहुतायत में पाए जाते थे। मध्यमवर्गीय लोग विशेष रूप से इस उद्योग से सम्बद्ध थे। बाइ-प्राडक्ट के रूप में निकलने वाली छाँछ गरीबों में मुफ्त बाँट दी जाती थी और मक्खन बड़े लोगों को लगाने के काम आता था। शास्त्रों में बड़े लोग उन्हें कहा गया है जिनसे किसी लाभ की गुंजाइश हो और जिन्हें प्रसन्न रखने पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वर्तमान या भविष्य में कोई काम निकाला जा सकता हो । उस समय की प्रथा के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी बड़े आदमी से मिलने जाता था तो उन्हें अंजलि में मक्खन भरकर नैवेद्य की तरह अर्पित करता था। इस क्रिया को मक्खन लगाने की संज्ञा दी गई। कालान्तर में तो मक्खन के रूप में कुछ परिवर्तित हो जाने के कारण और शेष नदियों से दरिया और दरिया से होता हुआ सागर में समाहित हो जाने के कारण जब नदियों का दूध-दही समाप्त हो गया और शुद्ध पानी ही उनमें बहने को बचा तब मक्खन लगाने की प्रथा पर जबरदस्त संकट आया। छोटे-बड़े सभी चिंता में डूब गए। दैनिक कार्यों में भीषण अवरोध पैदा होने लगे। ऐसे में आचार्यों ने सतत मनन कर सर्व सम्मति से यह | निर्णय लिया कि वर्ग भेद-जैसे महान सिद्धांत के अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि इस प्रथा को बनाए रखा जाए। भले ही मस्का का फिजिकलट्रान्जेक्शन न हो पर प्रथा की स्पिरिट बनी रहना चाहिए। इसके लिए तय हुआ कि खाली अंजलि को बंद कर हाथ जोड़ लिये जायें। जुड़े हाथों को छाती के ठीक सामने लाकर मस्तक को इस तरह झुकाया जाये कि वह हाथों को छूने लगे और साथ ही सविनय 'नमस्कार' का उच्चारण किया जाए। इस क्रिया से कर्त्ता को सामने वाले से यह कहते हुए माना जाएगा कि 'हे माइ बाप! नार्मल कंडीशन होती तो मैं मक्खन ही लाता। निश्चय ही आप इस योग्य हैं कि आपको मस्का लगाया जाये। पर आप मेरी मजबूरी समझें और कृपा बनाये रखें, ऐसी विनय है।' बड़े लोगों को भी यह हिदायत दी गई कि वे इस क्रिया को मक्खन लगाने का शतप्रतिशत स्थानापन्न मानें। इस तरह नमस्कार का प्रचलन तब से हुआ जब देश की नदियों में दूधदही का बहना बंद हो गया। ऐसा कब हुआ? यह बतलाने का उत्तरदायित्व पुरातत्त्ववेत्ताओं पर है। सारी जिम्मेदारी मेरी ही नहीं है। ओर तेजी से परिवर्तन हुए हैं, धन का सम्मान हुआ है, डिग्री पर आधारित तथाकथित पांडित्य की छीछालेदर हुई है, वर्गभेद पर कुठाराघात हुआ है और धन, पांडित्य एवं वर्ग विशेष, बड़े होने की गारंटी नहीं रह गए हैं, तब नमस्कार का प्रभाव और भी बढ़ा है। बड़े होने का मापदण्ड अब नमस्कार ही रह गया है। दो व्यक्तियों में बड़ा कौन है, यह जानने के लिए दोनों को घण्टा भर बाजार में घुमा दीजिए और गिनिए किसको कितने नमस्कार मिले। जिसे ज्यादा मिले उसे दूसरे की अपेक्षा बड़ा आदमी माना जायेगा, वरना अपनी गली में तो हर कुत्ता शेर होता है। बड़े समझे जाने की लालसा किसमें नहीं है ? सरेआम नमस्कृत होने पर कौन खुश नहीं होगा? सभी होंगे, केवल उन अपवादों को छोड़कर जिन्हें से शाम तक अनगिनत नमस्कार मिलते हैं सुबह और जिनकी अनुभूति प्रेयसी के पत्नी बन जानेजैसी हो जाती है। वरना वे, जिन्हें यदा-कदा ही कोई नमस्कार करता है, नमस्कारवाले दिन को होली दीवाली की तरह मनाते हैं। मेरी ट्रेजेडी यही है कि बहुत दिनों से नमस्कार - सुख से वंचित चला आ रहा हूँ। मजा नहीं आ रहा है। इस आशा से कि कोई बदले में ही नमस्कार कर दे, मैं हर छोटे-बड़े पर निरन्तर नमस्कार थोपे जा रहा हूँ। तीसरे नम्बर पर जिस सत्पुरुष को मैने नमस्कार अर्पित किया है वह भी इसी आशा से कि भूले-भटके वही एक नमस्कार ठोक जाए। आखिर उसी ने तो मुझे यह रोग लगाय है। तब बहरहाल जब भी हुआ हो, से अब तक नमस्कार अपना कर्त्तव्य बखूबी निभाए चला आ रहा है। समय के परिवर्तनों से अछूते नमस्कार में अब भी वही ताजगी है, वही प्रभाव है, वही निष्ठा है। बीच-बीच में स्वार्थी तत्वों ने नमस्कार की छवि धूमिल करने हेतु मस्का लगाने के आल्टरनेटिव्ज ईजाद करने के भगीरथ प्रयत्न किये लेकिन कोई भी ऐसा तरीका नहीं ढूंढ पाए जिसे सार्वजनिक रूप से छाती ठोककर इस्तेमाल किया जा सके। अंगद के पांव की तरह नमस्कार अभी भी अपने स्थान पर डटा है। आज की ही परस्थितियों में जबकि चहुँ किं परवदनं धर्मः कः शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम् । कः पण्डितो विवेकी किं विषमवधीरिता गुरवः मार्ग का भोजन क्या हैं ? धर्म । पवित्र कौन है ? जिसका मन शुद्ध है पण्डित कौन है ? जो विवेकी है (अपने हित-अहित को पहचानता 1 है) । विष क्या है ? गुरुओं का अपमान करना । भगवान करे आप भी इस रोग से ग्रसित हों इसलिये मेरा आपको एक बार फिर नमस्कार ! प्लाट ७ / ५६-ए, मोतीलाल नेहरूनगर (पश्चिम) भिलाई- ४९००२० (दुर्ग) म.प्र. किं संसारे सारं बहुशोपि विचिन्तयमानमिदमेव । मनुजेषु दृष्टतत्त्वं स्वपरहितायोद्यतं जन्म || संसार में सार क्या है ? मनुष्यपर्याय में जन्मलेकर तत्त्वों को जानना और स्वपरहित में संलग्न रहना। अप्रैल 2001 जिनभाषित 19 . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालवार्ता बुद्धिचातुर्य की कथाएँ प्रस्तुति : श्रीमती चमेलीदेवी जैन प्राचीन काल की ( जैन साहित्य एवं बौद्धसाहित्य कथात्मक वाङ्मय की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। था। बात है, उज्जयिनी नगरी के अनेक विषयों पर संक्षिप्त, विस्तृत ऐसी कथाएँ विपुल परिमाण में प्राप्त है, जो शताब्दियों पूर्व लिखी गई, किन्तु, जिनका महत्त्व आज भी उससे कम नहीं हुआ, जितना उनके बालू की रस्सी समीप एक छोटा सा ग्राम था। उसमें अधिकांशतः रचना काल में था। वस्तुत: जिसे साहित्य कहा जा सके, उसकी यही विशेषता है, वह राजा ने नट-ग्राम के लोगों को कभी पुरातन नहीं होता। उसमें प्रेषणीयता के ऐसे अमर तत्त्व जुड़े होते हैं, जो उसे सदा | नटों का निवास था । उज्जयिनी से संदेश भेजा -'तुम अभिनव बनाये रखते हैं। पञ्चतन्त्र इसका उदाहरण है, जिसमें वर्णित कथाएँ, सारे इसलिए वह नट-ग्राम के लोगों के गाँव के पास जो नदी संसार में व्याप्त हुईं, प्राच्य, प्रतीच्य अनेकाअनेक भाषाओं में अनूदित भी। जैन-साहित्य नाम से प्रसिद्ध था। उन नटों| एवं बौद्ध-साहित्य में बुद्धिप्रकर्ष की कथाओं का बड़ा सुन्दर समावेश है, जो रोचक भी है, उसकी बालू बहुत उत्तम है। में एक भरत नामक नट था। है, बुद्धिवर्धक भी। मनोरंजन के साथ-साथ आज भी उन कथाओं द्वारा पाठक अपनी | उस बालू की एक रस्सी बनाओ उसके एक पुत्र था। उसका | | सूझबूझ को संवार सकता है। और उसे मेरे पास उज्जयिनी नाम रोहक था । वह अपने श्वेताम्बर ग्रन्थ नन्दिसूत्र में ऐसी ही एक कथा है चतुर बालक रोहक की जो भेजो।" यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। माता-पिता को बहुत प्रिय गाँववासी नटों ने संदेश सुना। था। ग्राम के अन्य नटों का उत्तर दें।" जो उत्तर देना था, रोहक ने उनको अच्छी संदेशवाहक को वापस विदा भी उस पर बड़ा स्नेह था। तरह समझा दिया। किया। उन्होंने रोहक के समक्ष यह प्रसंग उपस्थित रोहक एक संस्कारी बालक था । किया। रोहक ने उनको उसका उत्तर समझाया और नट उज्जयिनी आये । राजा के समक्ष प्रत्युत्पन्नमति था, बडी सूझबूझ का धनी था। आयु जाकर राजा को बताने के लिए कहा । गाँववासी | उपस्थित हुए । राजा द्वारा जिज्ञासित तिलों की में बडे नट भी, जब उनके समक्ष कोई समस्या या | रोहक द्वारा दिया गया समाधान भलीभॉति ह्दयंगम संख्या के विषय में कहा -“महाराज ! हम नट हैं, उलझन आती तो रोहक से उसका समाधान पूछते। कर राजा के पास उज्जयिनी गये तथा उन्होंने राजा नाचना-कूदना, खेल-तमाशे दिखलाना, रोहक उन्हें बड़ी बुद्धिमानी से समस्या के साथ | से निवेदन किया - "राजन, हम लोग तो नट हैं, कलाबाजी द्वारा लोगों का मनोविनोद करना हम निपटने का मार्ग बताता। वे बहुत संतुष्ट होते। रस्सी बनाना हम लोग क्या जानें? कभी रस्सी बंटने जानते हैं, गिनने की कला-गणित शास्त्र हम कहाँ गाड़ियों में भरे तिलों की गिनती का प्रसंग ही नहीं आया। हाँ, इतना अवश्य कर से जानें! फिर भी हम आपको तिलों की तुलनात्मक सकते हैं, यदि वैसी बनी हुई रस्सी देख लें तो राजा ने अपनी परीक्षा-योजना के अन्तर्गत संख्या निवेदित करते हैं । गगन-मंडल में जितने एक बार तिलों से परिपूर्ण गाड़ियाँ नटों के गांव में तारे हैं इन गाडियों में उतने ही तिल हैं । आप ठीक उसकी प्रतिकृति - उस जैसी ही दूसरी रस्सी हम बना देंगे। आपका पुरातन संग्रहालय है। अनेक भेजी तथा नटों को संदेश भिजवाया कि इन गाड़ियों अपने गणितज्ञों से तारों की गिनती करा लीजिए, वस्तुओं के साथ वहाँ कोई-न-कोई बालू की रस्सी में भरे हुए तिल संख्या में कितने हैं, बतलाएँ ।। दोनों एक समान निकलेंगे। अवश्य होगी। वह रस्सी कृपाकर हमें एक बार यदि वे तिलों की ठीक ठीक संख्या नहीं बता सके उज्जयिनी-नरेश ने मंद स्मित के साथ | भिजवा दें। उसे देखकर वैसी-की-वैसी बालू की तो उन्हें कड़ी सजा दी जायेगी। उनके लिए यह मुस्कराते हुए नटों से पूछा "सत्य बतलाओ, यह रस्सी निश्चितरूप से बना देंगे।' सर्वथा असंभव बात थी। नट घबरा गए, तिलों | उपमा तुम लोगों को किसने बतलाई है ?' की गिनती कैसे हो। उन्होंने रोहक के आगे अपनी एक वृद्ध नट बोला -'स्वामिन् ! हमारे राजा जान गया कि ये नट रोहक की बताई परेशानी की चर्चा की। गाँव में भरत नामक नट का पुत्र रोहक नामक बालक हुई युक्ति से बात कर रहे हैं। राजा रोहक की सूक्ष्मरोहक ने कहा - "घबराओ नहीं। घबरा है। उसी ने यह युक्ति बतलाई है।' ग्राहिता तथा पैनी सूझ से बहुत प्रभावित हुआ। जाने से बुद्धि अस्त व्यस्त हो जाती है, प्रतिभा की राजा ने नटों को पुरस्कृत किया तथा वहाँ | (मुनि श्री नगराजकृत 'आगम और त्रिपिटक' से साभार) उर्बरता मिट जाती है। आप लोगों को मैं एक उत्तर । से बिदा किया। रोहक की बुद्धिमत्ता पर राजा प्रसन्न १३७, अराधना नगर, भोपाल ४६२००३ म. प्र. बतला रहा हूँ। राजा के पास जाकर आप वही हुआ। राजा अभी कुछ और परीक्षा करना चाहता 20 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पसंख्यक-मान्यता से जैन समाज को लाभ • कैलाश मड़बैया भारतीय संविधान के अनुच्छेद २५ व ३० । होगा। करना ही चाहिये, परंतु इसके बावजूद राज्य को (एक) में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि इनके किसी नागरिक के लिये सरकारी, निजी यह गणना अपने स्तर पर कर संसूचित करना अंतर्गत सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई तथा पारसी धर्म | संस्थाओं में धर्म, जाति, भाषा के आधार पर प्रवेश आवश्यक होगा। कर्नाटक और तमिलनाडु की तरह को मानने वाले अल्पसंख्यक माने गये हैं। इसी का | पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकेगा। मध्यप्रदेश को भी राज्य मंत्रिमंडल के २१ अगस्त, अनुसरण करते हुए मध्यप्रदेश के माननीय आर्टीकल ३० (१) ९८ के इस विषय में लिये गये निर्णय को सर्वप्रथम मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह जी ने कुंडलपुर में मध्यप्रदेश में तत्काल लागू करना चाहिये। इसके दिनांक २३ फरवरी २००१ को आचार्यश्री सभी अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षा । लिए केन्द्र की अथवा कर्नाटक की दलील देने के विद्यासागर जी के समक्ष मध्यप्रदेश के जैनों को संस्थायें स्थापित करने तथा उनका प्रबंध करने का | कोई आधार नहीं रह जाते। हालाकि मध्यप्रदेश अल्पसंख्यकों का दर्जा देने की घोषणा की है। इसके | अधिकार होगा। शासन ने इस विषय में गंभीरता से विचार किया है। लिए जैन समाज उनके प्रति अपना आभार व्यक्त ___ सरकारी आर्थिक सहायता के मामले में | एतदर्थ अखिल भारतीय दिगम्बर जैन समाज ने करता है। किसी शिक्षण संस्था के साथ इसलिए भेदभाव नहीं आभार भी माना है, जरूरत है केवल संसूचना अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने से जैनों को | किया जायेगा कि वह अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित जारी करने की। क्या लाभ होगा इस पर प्रकाश डाला जा रहा है। की गई है। कर्नाटक सरकार ने तो अपने आदेश क्र. यों तो आर्टीकल १५/१६ तथा आर्टीकल | एस.डब्ल्यू. डी. १५०/ बी.सी.ए.९४ बंगलौर संविधान और अल्पसंख्यकों के हित २५ भी इस विषय में उल्लेखनीय हैं, परंतु मुख्य रूप दिनांक १७.९.१९९४ द्वारा दिगम्बर जैन समाज संविधान में कतिपय ऑर्टीकल्स ही ऐसे को पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया है। से आर्टीकल २६ तथा ३०(१) के तहत जैन समाज हैं, जिनसे अल्पसंख्यकों के हितों का संबंध है। को अल्पसंख्यक घोषित होने पर समुचित और कर्नाटक राज्य शासन के परिपत्र क्र. आइये उन्हीं पर विचार करें। वस्तुत: इससे जैन आवश्यक संरक्षण मिल सकेगा, जो अपरिहार्य रूप एस.डब्ल्यू.डी.८४ बी.सी.ए.९६ दिनांक समाज को कोई आर्थिक लाभ नहीं हैं,पर से वांछनीय है। १२.६.९६ से दिगम्बर जैन समाज के लोगों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवैधानिक संरक्षण का पिछड़े वर्ग का प्रमाण पत्रजारी करने के निर्देश भी आर्टीकल २६ तथा ३० (१) के अनुसार हक मिलना औचित्यपूर्ण है। इसमें अधिक विलम्ब दिये हैं। इससे संपूर्ण दिगम्बर जैन समाज को धार्मिक संस्थाओं तथा शिक्षण संस्थाओं की होना ही अहिंसक जैन समाज के साथ अन्याय अतिरिक्त परंतु आवश्यक आर्थिक लाभ हो रहा स्थापना और प्रबंधन का अधिकार अल्पसंख्यकों होगा। है। जैन समाज तो म.प्र. सरकार से फिलहाल को प्रदत्त है। इनका न तो सरकारीकरण हो सकेगा अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग कर रही है आर्टीकल २६ और न अल्पसंख्यकों को इनसे पृथक किया जा जिससे कोई आर्थिक बोझ भी शासन पर नहीं पड़ने सकेगा। जन व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य को वाला है। हालांकि म.प्र. शासन ने मंत्रिपरिषद की ध्यान में रखते हुए कोई भी धार्मिक समुदाय अपनी चूँकि संस्थाओं की स्थापना और प्रबंधन बैठक दिनांक २१ अगस्त, १९९८ में "आयटम" धार्मिक संस्थायें स्थापित कर सकता है तथा अपने | राज्य सरकारों का विषय है, इसलिए प्रांतीय सरकार क्र. ४० में जैन समाज को अल्पसंख्यक मानते हुए धार्मिक मामलों का प्रबंध इच्छानुसार कर सकता को जनसंख्या के आधार पर जैन समाज को भारत सरकार से घोषित करने हेतु अनुशंसा भी है। चल-अचल संपत्ति खरीद सकता है और कानून अल्पसंख्यक घोषित करना आवश्यक है, तभी की है। परंतु हमारा अनुरोध है कि केन्द्र सरकार को के दायरे में उनका प्रबंधन कर सकता है। संविधान की धारा २६ एवं ३० (१) का लाभ | भले सुप्रीम कोर्ट में लंबित "पई" रिट याचिका मिल सकेगा। इसलिए किसी भी राज्य सरकार को आर्टीकल २९ इस विषय में केन्द्र की ओर देखना आवश्यक नहीं के निराकरण तक प्रतीक्षा करनी पड़े, परंतु म.प्र. किसी भी समुदाय को जो किसी प्रदेश है, न ही दूसरे राज्य की तुलना करना वांछनीय है। सरकार को तो अपने यहां यह संसूचना जारी करने अथवा उसके एक भाग का निवासी हो, अपनी हालांकि केन्द्र सरकार को अपने स्तर पर संख्या में कोई अवरोध नहीं है। अतः करना ही चाहिये। भाषा, लिपि और संस्कृति के रक्षण का अधिकार | के आधार पर जैनियों को अल्पसंख्यक घोषित हां, म.प्र. सरकार को पहले मध्यप्रदेश अधिनियम अप्रैल 2001 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. १५ सन १९९६ की धारा २ (ग) में निम्नानुसार | परंतु आजादी के बाद कतिपय जैनेतर गेरूए | प्रमाण भी नहीं मिलते हैं, परंतु ऐतिहासिक, संशोधन करना आवश्यक होगा। वस्त्रधारियों ने जबरन उन चरणों पर अपना कब्जा | भौगोलिक और पौराणिक तथ्यों को नजरअंदाज कर चढ़ावा प्राप्त करने के लिए अपनी दुकानदारी | किया जा रहा है। २ (ग) में पूर्व निहित प्रावधान,इस अधिनियम के चला रखी है। परिणाम यह हुआ कि सदियों से जैन आजादी के बाद जब कतिपय जैनेतर प्रयोजन के लिये अल्पसंख्यक से अभिप्रेत है, (१) धर्मावलंबी अपनी उपासना स्थली पर हिंसा और केन्द्रीय सरकार द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक साधुओं ने यहां कब्जा जमाया तो भारत के अशांति के भय से अपने आराध्य की जय तक अधिनियम १९९२ (१९९२ का सं. १९) के दिगम्बर जैन तीर्थ के अध्यक्ष ने वहां पहुंचकर नहीं बोल पाते, पूजन तो दूर की बात है। क्या ऐसे कलेक्टर की अध्यक्षता में एक बैठक में भाग लिया प्रयोजन के लिये इस रूप से अधिसूचित किया बहुसंख्यकों के पास इन प्रश्नों के उत्तर हैं: था। वे दस्तावेज आज भी विद्यमान हैं, जिनमे गया समुदाय। (१) यह कि अधिकांशतः वैदिक तीर्थ | सामंजस्य कर यह तय हुआ था कि जैनियों के २ (ग) में अब जोड़े जाना वाला अंश- | (देवियों को छोड़कर) भारत की नदियों के किनारे | साथ हिंदू धर्मावलंबियों को भी वहां जाने दिया (२) राज्य सरकार द्वारा म.प्र. राज्य अल्पसंख्यक | अवस्थित हैं, फिर गिरनार पर्वत स्थित पंर चरणों जायेगा और जैन धर्मावलंबियों को पूजन करने से अधिनियम १९९६ (१९९६ की संख्या १५) के पर वैदिक तीर्थ अब कहां से बन गया। जबकि | नहीं रोका जायेगा, परंतु अब कथित साधु उस प्रयोजन के लिये इस रूप में अधिसूचित किया | केवल जैन तीर्थ ही प्रायः पर्वतों पर होते हैं। समझौते को भी नहीं मानते और अल्पसंख्यक गया समुदाय) जैन समुदाय। जैनियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, (२) जिन दत्तात्रय की उपासन गिरनार पर्वत २ग (२) को संशोधन करने के उपरांत के चरणों पर अब होने लगी है, उनकी स्थली तो बहुसंख्यकों के हिंसक व्यवहार से जैन समाज के लोग वहां दर्शन और जयकार बोलने को भी तरस म.प्र. राज्य अल्पसंख्यक आयोग की अनुशंसा | चित्रकूट में, मंदिर आबू में पहले से है, दक्षिण में जाते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। पर राज्य शासन जैन समाज को अल्पसंख्यक भी चिकमगलूर के पास ही कहीं समाधि बताई जा घोषित करने की अधिसूचना जारी कर सकता है। रही है, फिर एक ऋषि की जन्मस्थली या समाधि ऐसे कई प्रकरण हैं, जिनमें अल्पसंख्यक चूंकि म.प्र.शासन इसे स्वीकार कर चुका है। अतः एक से अधिक जगह कैसे हो सकती है? जैन समाज के तीर्थ असुरक्षित हो गये हैं। अनेक प्रक्रिया में अधिक विलंब नहीं लगना चाहिये। जैन तीर्थों को नकार दिया जाता है। अल्पसंख्यक (३) चरणों की पूजा केवल जैन धर्म के कुछ लोगों ने यह प्रश्न उठाया है कि केवल | तीर्थों पाही अधिकांशत होती | घोषित होने पर जैन समाज अपने विधिक तीर्थों पर ही अधिकांशतः होती है, गिरनार पर्वत न्यासियों के हित ही इससे सधेगे, यह भी भ्रामक अधिकारों को निश्चय ही सुरक्षित रख सकेगा। की पाँची टोंक पर चरण ही स्थित हैं, जो है। वस्तुतः इससे जैन तीर्थों की सुरक्षा एवं प्रबंधन जैन, भारत के मूल निवासी हैं और वे इस देश की | ऐतिहासिक रूप से तीर्थंकर नेमिनाथ के हैं, तो वे भी,हो सकेगा। उदाहरण के लिए जैन तीर्थ गिरनार यहाँ वैदिक कैसे हो गये? मुख्य धारा में सदैव अग्रणी रहे हैं, रहेगेभी। अपेक्षा जी को ही ले लें कि कैसे कतिपय बहुसंख्यकों ने है संविधान में प्रदत्त आधारों पर अल्पसंख्यक (४) जूनागढ़ में तीर्थकर नेमिनाथ से जिनकी एक ऐतिहासिक तथ्य को झुठला दिया है और घोषणा की ओर इन्हें संरक्षण प्रदान करने की। शादी होने वाली थी उन राजकुमारी राजुल के नरेश जोर-जबर्दस्ती के कब्जे से, प्रशासन भी असहाय पिता का दुर्ग है, जो नेमिनाथ की बारात यहां आने ३४/१०, दक्षिण तात्या टोपे नगर, नजर आ रहा है। का प्रमाण है। भोपाल फोन : ७७४०३७ इतिहास, भूगोल और शास्त्र पुराण साक्षी हैं कि गुजरात में जूनागढ़ के निकट स्थित गिरनार (५) चूंकि नेमिनाथजी यदुवंशी और भगवान श्री कृष्ण चचेरे भाई थे और कृष्ण जी की पर्वत तेईसवें जैन तीर्थकर नेमिनाथ की तपोभूमि द्वारिका यहां पास ही समुद्र में उपस्थित थी, जबकि और मोक्ष कल्याणक की पावन स्थली रही है, | दत्तात्रय ऋषि के यहां आसपास कोई ऐतिहासिक त्वरितं किं कर्त्तव्यं विदुषा संसारसन्ततिच्छेदः । किं मोक्षतरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम्।। भगवान् किमुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम् । को गुरुरधिगतत्त्व: सत्त्वहिताभ्युद्यत: सततम् ॥ भगवान् उपादेय क्या है ? गुरुवचन । हेय क्या है ?अनुचित कार्य (पाप)। गुरु कौन है ? जो तत्त्व ज्ञानी हो और सदा प्राणियों के हित में लगा रहता हो। विद्वान को शीघ्र क्या करना चाहिए ? संसाररूपी बेल का उच्छेद । मोक्षरूपी वृक्ष का बीज क्या है ?सम्यक्चारित्रसहित सम्यग्ज्ञान । 22 अप्रैल 2001 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़े बाबा की शरण में आकर नास्तिक भी आस्तिक बनकर जाते हैं •आचार्य श्री विद्यासागर महाभारत का युद्ध होना है और व्यवस्थित होने की आवश्यकता है। सभी योद्धाओं के मन में विकल्प है | कुण्डलपुर में २७ फरवरी २००१ मैंने अपने जीवन में बीस-बाईस कि हम विजयी होगे या नहीं ? तब पंचकल्याण गजरथ महोत्सवों को देखा कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, 'हे अर्जुन ! है, लेकिन गजरथ की परिक्रमा का सबसे दिया गया प्रवचन तुम हाथ में अपने गाण्डीब धनुष को बड़ा पथ यहाँ का था। जब पहली धारण करो, तुम्हारी विजय निश्चित परिक्रमा में ही ४५ मिनिट लग गये, सोचा इसमें है। अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, आप कैसे कह रहे हैं | पिता जी होता है। यहाँ उत्तर में ये बड़े बाबा हैं। तो शाम ६.०० बज जायेगे। जल्दी-जल्दी कराने कि विजय हमारी ही है? कृष्ण ने कहा, 'अर्जुन | बाबा का अर्थ दादा होता है। यानी दक्षिण में बड़े के लिये सेवा दल वालों को बाजू में करके परिक्रमा देखो, सामने यथाजातरूपधारी का दर्शन हमारी पिताजी बाहुबली तो यहाँ बड़े बाबा उनके दादा ये हुई , तब तो जल्दी हो सकी। हमारे पैर थके नहीं। विजय का प्रतीक है।' यह यथाजातरूप मंगल का भगवान आदिनाथ हैं। दादाजी का समर्थन तो सब उत्साह के साथ इतने बड़े कार्यक्रम का अंतिम कार्य प्रतीक है। जो भी मांगलिक कार्य करना चाहता है, करते हैं। अभी क्या हुआ? अभी तो बड़े बाबा का गजरथ सानंद संपन्न हो गया। सभी लोगों में उसका ध्येय असत्य को हटाकर सत्य को स्थापित बड़ा मंदिर बनने तो दो, फिर क्या होता है देखना। भक्तिभाव व उत्साह देखा और सभी ने व्यवस्थित करने का हुआ करता है। जब बड़े बाबा के आप लोगों की एक पाई भी लगती है तो उसको होकर इसका आनंद लिया। आप लोगों के बीच में महामस्तकाभिषेक कार्यक्रम की योजना बनाई जा भी उतना ही पुण्य संचय होने वाला है। आप लोगों इतना बड़ा संघ रहा, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियाँ रही थी और बड़े कार्यक्रम की योजना बड़ी बनी। | का सात्विक धन लगेगा तो और अतिशय बढ़ेगा आदि भी रहे इन सब की चर्चा हुई, संघ का निर्वाह कार्यक्रम कैसे होगा? क्या करेंगे? अरे! हमारे बड़े | फिर बुंदेलखंड की जनता की बात ही अलग है। हुआ, यह सबसे बड़ा काम है। बाबा भी यथाजात रूप ही हैं, और फिर बड़े बाबा | लोगों ने कहा महाराज आप बुंदेलखंड का पक्ष का काम बड़ा होता है क्योकि बड़े बाबा की रेंज | क्यों लेते हैं? क्यों नहीं लेगे? अरे भैया ! बड़े बाबा यहाँ पर दो-दो बड़े कार्यक्रम हुए, एक तो बहुत बड़ी है, यह तो स्थानीय जनता का विशेष | भी तो बंदेलखंड में ही हैं, तो मैं क्यों नहीं यहाँ की | पंचकल्याणक का, दूसरा बड़े बाबा के पुण्य बड़े बाबा से जुड़ा हुआ है। अभी तो कुछ | जनता का पक्ष लूँगा? सभी ने इस कार्यक्रम में | महामस्तकाभिषेक का। यह सब जो काम हुआ है, नहीं है, जब बड़े बाबा उच्चासन पर स्थापित होंगे | बड़ा सहयोग दिया। प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने कह | वह देवों के सहयोग के बिना नहीं हो सकता था। तब कैसे व्यवस्था करोगे इस जनता की ? अभी दिया कि 'बड़े बाबा का कार्य कराने के लिये इसीलिए तो कहा हैतो यह प्रारंभिक मंगलाचरण है। बड़े बाबा की शरण | प्रशासन वचनबद्ध है'। यहाँ लगा ही नहीं, सात धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो, में आकर बड़े-बड़े नास्तिक भी आस्तिक बनकर | दिन में कैसा क्या हो गया? सब हो गया। बड़े बाबा | देवावितस्स पणमंति, जस्सधम्मे सया मणो।। गये हैं। दिन पर दिन बड़े बाबा का अतिशय बढ़ ही | के दरबार में बड़े-बड़े काम सहज रूप में हो जाते देव लोग भी सच्चे अहिंसाधर्म की एवं सच्चे रहा है घट नहीं रहा। यह मैं नहीं कह रहा, इस | हैं, यही तो बड़े बाबा का अतिशय है। सभी लोग महोत्सव में आई जनता कह रही है। ये बड़े बाबा | कहते थे पानी की व्यवस्था कैसे होगी? अपने आप देवगुरुशास्त्र की भक्ति एवं प्रभावना में लगे रहते हैं तो सबके बड़े बाबा हैं। यह तो उनका सदा का काम है । गजरथ के पूर्व पानी के झरने फूट पड़े, यह सब जनता का ही पुण्य एक दिन बदलियाँ जैसी आ गई थीं। वैसे हर बार है। वैसे यहां की जनता को ज्यादा व्यवस्था की दक्षिण भारत में भगवान बाहुबली हैं, उनको आती हैं, लेकिन धार्मिक वातावरण में सात्विक आवश्यकता नहीं है। व्यवस्थापकों को स्वयं वहाँ पर 'दोडप्पा' कहते हैं। दोडप्पा का अर्थ बड़े भावनाओं का संयोग जब मिलता है तब देव स्वयं - अप्रैल 2001 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग करने के लिये आते हैं। इस आयोजन में जैनेतर भाइयों का भी बड़ा सहयोग रहा है। मैं में रहना सिखाते हैं। जब भी गुरु कुछ दें, तुम ले गुरु- समागम लेना। चंदन जैसी महक एवं खस जैसी सुगन्धी जिस दिन कुण्डलपुर आया था उस दिन १०-१५ - मुनि श्री चन्द्रसागर जीवन में फूट उठेगी। चंदन की रीति को अपनाने| सज्जन आये, हम से बोले, 'हम भी इस कार्यक्रम गुरु का समागम दिशा का बोध एवं दशा वाला बड़ा ही कुशल होता है। उसे जितना ही में अपना सहयोग देना चाहते हैं। हमारे लिये इस का परिवर्तन है। यदि साथ गुरु का हो तो कोई अधिक घिसा जाता है वह उतना ही अधिक कार्यक्रम के दौरान सफाई व्यवस्था का काम दे |भटकता नहीं,चलना सीख जाता है। उसके जीवन महकता है। घिसनेवाले को अपनी सुगंध से दिया जाये। उन्होने हाथ में झाडू लेकर वह काम | में आयी हुई सभी समस्याओं का समाधान मिल सुरभित कर देता है। इस रीति को अपनाने- जानने करना स्वीकार किया। बोले हमारे ५०० कार्यकर्ता | जाता है। जो चलता है वह रास्ता पार कर मंजिल वाले गुरु, समागम में आये शिष्य की पात्रताहैं, वे कौन हैं? तो वे गायत्री परिवार वाले हैं, पर पहुंच जाता है। जो रुक जाता है वह ठहर कर अपात्रता को जानकर साधना के क्षेत्र में उतार जिन्होंने अपना कार्य कुशलतापूर्वक किया। जैनों रह जाता है। वह भटक जाता है मार्ग में ही अटक देते हैं। इनका समागम ही ऐसा होता है। इन जैसा के लिये उनके सेवा भाव से सीख लेना चाहिए। वे जाता है। मानो उसका जीवन लुट जाता है। गुरु भले ना बने पर वह संयत एवं संतोषी अवश्य बन सभी धन्यवाद के पात्र हैं। साफ-सफाई दूसरे की के समागम का पूर्ण लाभ लेना चाहिए। मौके का जाता है। गुरु का सान्निध्य ही गुणों के विकास नहीं, हमारी अपनी व्यवस्था है। यह बड़ा कठिन फायदा उठाना चाहिए। यदि हम अपना भला का मार्ग है। गुरु के पास रहने से भावना पवित्र बनकर कार्यों की सिद्धि के योग्य बना देती है। कार्य था, जो इन्होंने किया। चाहते हैं तो गुरु हमारा हाथ पकड़कर चलाने लगते हैं, लेकिन किसी को दिखता नहीं कि गुरु यहाँ पर सारे गमों को भूलकर गुरु में समा जाना हमारा संघ संख्या में तो बड़ा है, लेकिन || हमारा हाथ पकड़े हैं। उनकी शक्ति अदृश्य होती ही समागम कहलाता है जो समता की ओर गमन उम्र में बहुत छोटा है, सभी जवान हैं। उनसे गलतियाँ | है। वे अपने सहारे चलना सिखाते हैं अपने आप करने का आदेशपत्र है। भी हो सकती हैं, हुई होंगी। उनको ध्यान में न दे। बहुत बार तो मुझे भी डाँटना पड़ा और पुलिस प्रो.रतनचन्द्र जैन का अभिनन्दन वालों से भी कार्य कराना पड़ा। पुलिसवालों का भी विशेष सहयोग रहा। यह सब काम भावनाओं कुण्डलपुर महोत्सव के अवसर पर दि. 26 फरवरी 2001 को विशाल जनसभा में प्रो. से होता है। चतुर्थकाल, पंचमकाल और कुछ नहीं रतनचंद्र जैन, भोपाल ने परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज को अपने नवलिखित ग्रन्थ “दिगम्बर जैन साहित्य और यापनीय साहित्य" की पाण्डुलिपि समर्पित की। यह तो हमारे भावों के ऊपर आधारित है। इतने बड़े आयोजन में कमियाँ तो अवश्य रही होंगी। ___ इस वर्ष अमरकण्टक चातुर्मास के समय आचार्यश्री के समक्ष पन्द्रह दिन तक इस ग्रन्थ की वाचना की गई थी। आचार्यश्री ने प्रतिदिन चार घण्टे का समय देकर ग्रन्थ का ध्यान से श्रवण किया अभी जो अध्यक्ष महोदय सभी से क्षमा माँग रहे था। इसी प्रकार कुण्डलपुर में भी सात दिन तक दो-दो घंटे बैठकर ग्रन्थ के शेष पृष्ठ मनोयोग से सुनें। थे, उनसे कहना है, 'अगले आयोजन की तैयारी अमरकण्टक में पूज्य मुनिश्री अभयसागर जी तथा कुण्डलपुर में पूज्य मुनिश्री प्रमाण सागर जी एवं अच्छे से आपको करना है।' आगामी कार्यक्रम में अभयसागर जी भी आचार्यश्री के साथ बैठते थे। उनके द्वारा सुझाये गये अनेक संशोधन ग्रन्थ में कमियां न हों, यह ध्यान रखें। ' यह कार्यक्रम किये गये तथा अनेक नये तथ्य जोड़े गये जिससे ग्रन्थ परिमार्जित हो गया। जबलपुर से बड़ा कार्यक्रम था। जो सानंद संपन्न आचार्यश्री ने प्रवचन के अंत में ग्रन्थ की प्रशंसा करते हुए कहा कि "ग्रन्थ अत्यंत परिश्रमपूर्वक लिखा गया है । इसके लेखन में शोधपद्धति अपनायी गयी है । लेखक ने अपने मन्तव्यों और हुआ। अंत में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज निष्कर्षों को युक्ति और प्रमाणों से पुष्ट किया है जिससे ग्रन्थ प्रामाणिक बन गया है। 'जैनधर्म का को स्मरण करता हुआ विराम लेता हूँ। यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने दिगम्बर जैन साहित्य के विषय में जो यह भ्रान्ति फैलाई है कि यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोरा उसके षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि अनेक ग्रन्थ यापनीय सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा लिखे गये हैं, उसका निराकरण इस ग्रन्थ से भलीभाँति हो जाता है।" आचार्यश्री ने लेखक को आशीर्वाद हरी भरी दिखती रहे, परती चारों ओर।। प्रदान किया। पश्चात् सर्वोदय जैन विद्यापीठ आगरा की ओर से इक्यावन हजार रुपये एवं शाल तथा श्रीफल भेंटकर प्रो.रतनचंद्र जी का अभिनन्दन किया गया। रतनचंद्रजी ने अपनी ओर से ग्यारह आचार्य विद्यासागर जी का शत-शत हजार रुपये मिलाकर सम्पूर्ण सम्मान राशि बड़े बाबा के नवमंदिर निर्माणार्थ दान कर दी। अभिनन्दन 24 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्डलपुरः एक रिपोर्ट सदी का प्रथम जैन कुंभ कुंडलपुर में उमड़ा जन सैलाब • रवीन्द्र जैन, पत्रकार कुंडलपुर महोत्सव, दिगम्बर जैन इतिहास न में प्रमुखता से दर्ज हो गया है। २१ से २७ फरवरी २००१ तक चले इस महोत्सव को "जैन कुंभ" नाम दिया गया था। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज सहित १७९ मुनि आर्यिकाओं तथा ४८५ बाल ब्रह्माचारी ब्रह्मचारिणियों ने इस जैन कुंभ में चार चाँद लगाये। देश-विदेश से १५ से २० लाख लोगों ने इस समारोह में शिरकत की। आचार्य श्री का आशीर्वाद लेने राजनेताओं में होड़ लग गई। दो राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्री, आधा दर्जन मंत्री, अनेक सांसद, विधायक, आय.ए.एस., आय.पी.एस. अधिकारी बड़े बाबा, आदिनाथ भगवान एवं छोटे बाबा, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की एक झलक पाने को लालायित थे। दिगम्बर जैन समाज की शीर्ष संस्थाओं ने भी इस महामहोत्सव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के छोटे से कस्बे कुंडलपुर में विश्व प्रसिद्ध बड़े बाबा की अतिशयकारी प्रतिमा के १५०० वर्ष पूरे होने पर देशभर की देश समाज ने बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक तथा श्री जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, गजरथ महोत्सव का आयोजन किया था। इस आयोजन में लोगों के उत्साह को देखते हुए इसे "जैन कुंभ" का नाम दे दिया गया था। नगर बसाने का काम सौंपा गया। राज्य सरकार ने बिजली, पानी की कमी न आने देने का भरोसा दिलाया तथा चार किलोमीटर दूर से एक नदी को बड़े-बड़े पाइपों के माध्यम से कुंडलपुर की ओर मोड़ दिया। कुंडलपुर के पहाड़ पर रातों रात काम करके दो लाख गैलन क्षमता की एक टंकी बनाई गई। यात्रियों के लिये महोत्सव स्थल पर २००० स्नानगृह तथा २००० शौचालय बनाये गये। सभी नगरों में बाजार बनाये गये। पाँच किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस मेले में एक गोलाकार सड़क बनाई गई जिस पर सेवा वाहन चलाकर यात्रियों को पंडाल, मंदिर आदि स्थानों पर आने जाने की सुविधा दी गई। यहाँ टेलीफोन तथा संचार के साधन भी उपलब्ध कराये गये। मेले में यात्रियों की सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था की गई थी। दिगम्बर जैन समाज के देशभर २६ नवयुवक मंडलों ने स्वेच्छा से अपनी सेवाएँ देने की पेशकश की तथा आयोजकों का आमंत्रण मिलते ही ये सेवादल ८४५ कार्यकर्ताओं, १२ बैण्ड टीमों के साथ २० फरवरी को ही कुंडलपुर पहुंच गये थे। भोपाल की एक निजी सुरक्षा एजेंसी के सवा सौ प्रशिक्षित जवान, आधुनिक सुविधाओं से लैस बुलाये गये। इसके अलावा जिला प्रशास ने एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में मेले की सुरक्षा के ६०० पुलिस कर्मचारी तैनात किये। वन विभाग ने मेले में बेरीकेटिंग के लिये भारी तादात में बांस, बल्लियां, उपलब्ध कराईं, विद्युतमंडल ने २०० के. बी. ए. के ८ नये ट्रांसफार्मर वहां लगा दिये तथा पूरे एक माह के लिये कुंडलपुर कस्बे को विद्युत कटौती से मुक्त रखा, साथ ही कुंडलपुर में २१ फरवरी से पहले ही आचार्य श्री के अलावा ५१ दिगम्बर मुनिराज, ११४ आर्यिका माता जी, ४ ऐलक महाराज, ८ क्षुल्लक अलावा देशभर से ४८५ ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी महाराज तथा एक क्षुल्लिका पहुंच गये थे। इसके भी वहां पहुंच गये थे। यहां मुख्य आयोजन के लिये एक लाख वर्गफीट में विशाल पंडाल बनाया गया था। इसमें १०० गुणा १५० फीट का विशाल मंच बना था। मंच पर शानदार महल की आकृति ग्वालियर के कलाकारों ने तैयार की थी। पंडाल आयोजकों ने ५३ समितियाँ बनाकर कुंभ की तरह से ही तैयारियां शुरू कर दीं। कुंडलपुर कस्बे की लगभग ५०० एकड़ भूमि किसानों को मुआवजा देकर तीन माह पहले ही ले ली गई तथा राजस्थान से ट्रेक्टर बुलाकर उसे समतल किया के बाहर खुले मैदान में जबलपुर नवयुवक मंडल के उत्साही कार्यकर्ताओं ने बड़े बाबा के प्रस्तावि मंदिर का विशाल मॉडल तैयार किया था जिसक गया। आगरा की एक बड़ी कंपनी को इस जमीन अपने ४४ कर्मचारी भी वहां पदस्थ कर दिये। लोक लंबाई ९० फीट, चौड़ाई ३५ फीट तथा ऊंचाई पर यात्रियों की सुविधा के लिये तंबुओं के १२ निर्माण विभाग का अमला कुंडलपुर पहुंचने वाली ४५ फीट थी। कुंडलपुर के वर्धमान सागर में सागर सड़कों के मरम्मत में लग गया तथा पहाड़ पर स्थित बड़े बाबा मंदिर तक के मार्ग का डामरीकरण भी उसने कर दिया। राज्य का परिवहन विभाग एक कदम आगे आया तथा उसने अपनी ३०० बसें यात्रियों की सुविधा के लिये लगा दीं, साथ ही प्रदेश के बाहर से आने वाली बसों पर आधा टैक्स माफ करने की घोषणा कर दी। प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इस आयोजन के महोत्सव नायक बनाये गये थे, उन्होने मेले में कोई परेशानी न हो इसलिए ११ फरवरी को कुंडलपुर पहुंचकर व्यवस्थाओं का जायजा लिया तथा आचार्यश्री के संघ सहित दर्शन किये। श्री सिंह ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्य सर्वश्री हरवंश सिंह, श्रवण कुमार पटेल, नरेन्द्र नाहटा, अजय नारायण मुशरान, रत्नेश सालोमन, राजा पटेरिया आदि को इन व्यवस्थाओं में सहयोग के लिये यहां पाबंद किया। अप्रैल 2001 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के युवाओं ने शानदार म्युजिकल फाउन्टेन लगाया था। पंडाल के चारों ओर गजरथ फेरी के लिये मजबूत सड़क बनाई गई थी। आयोजन में शामिल होने दुनिया के सबसे बड़े मार्बल व्यापारी अशोक पाटनी १६ फरवरी को ही परिवार सहित कुंडलपुर पहुंच गये थे। आयोजन समिति के संयोजक, देश के जाने-माने उद्योगपति मदनलाल जी बैनाड़ा अपने पांचों भाइयों के परिवार सहित सप्ताह भर पहले से आ गये थे। जयपुर के गणेश जी राना, मुंबई के प्रभात जैन, अमेरिका के महेन्द्र पंडवा ने सपरिवार अपना डेरा जमा लिया था। २१ फरवरी को केन्द्रीय कपड़ा राज्यमंत्री वी. धनंजय कुमार कुंडलपुर आये, उनके साथ दमोह के सांसद रामकृष्ण कुसमरिया, सागर के सांसद वीरेन्द्र कुमार, भाजपा विधायक जयंत मलैया, नरेश जैन, श्रीमती सुधा जैन भी थे। मध्यप्रदेश सरकार की ओर से राज्यमंत्री राजा पटेरिया ने केन्द्रीय मंत्री का स्वागत किया तथा आयोजन समिति की ओर से संयोजक मदनलाल बैनाड़ा, उपाध्यक्ष हृदय मोहन जैन ने उनकी आगवानी की। केन्द्रीय मंत्री ने आचार्य श्री से कन्नड़ भाषा में बात की तथा लगभग तीन किलोमीटर आचार्य श्री के साथ शोभा यात्रा में नंगे पैर चले। महोत्सव शुभारंभ के अवसर पर वी. धनंजय कुमार कुंडपुर में प्रस्तावित बड़े बाबा के मंदिर का खुला समर्थन करते हुए कहा कि कोई भी सरकार समाज से बड़ी नहीं होती, यदि समाज ने बड़े बाबा का मंदिर बनाने का फैसला कर ही लिया है तो अब इसे कोई ताकत रोक नहीं सकती। उन्होंने इस मंदिर के लिये भारत सरकार की ओर से शीघ्र अनुमति दिलाने का भरोसा दिलाया। भाजपा सांसद तथा विधायकों ने भी मंदिर को अपना समर्थन दिया तथा आचार्य श्री से आशीर्वाद लिया। २२ फरवरी को राज्यमंत्री राजा पटेरिया ने कुंडलपुर पहुंचकर जैन समाज के अल्पसंख्यक का दर्जा देने का माहौल बनाया, उन्होने कहा कि यदि जैन समाज एकता के साथ यह मांग करती है तो राज्य सरकार इसे पूरा करने को तैयार है। २२ फरवरी को दोपहर में देशभर से आये १३० युवा संगठनों का सम्मेलन पूज्य मुनिश्री समयसागर जी, 26 अप्रैल 2001 जिनभाषित योग सागर जी, क्षमासागर जी, समता सागर जी, प्रमाण सागर जी, अभय सागर जी आदि के सानिध्य में हुआ। इस सम्मेलन में युवा पत्रकार रवीन्द्र जैन ने शाश्वत तीर्थ सम्मेद शिखर की सुरक्षा का प्रस्ताव रखा जिसे एक स्वर में पारित किया गया। भोपाल के युवा कवि चंद्रसेन जैन ने भारत से मांस निर्वात का विरोध करने का प्रस्ताव रखा, इसे भी स्वीकार किया गया। मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज ने सम्मेद शिखर की घटनाओं की जानकारी देते हुये युवा संगठनों से वहां पारसनाथ टोंक बचाने का आव्हान किया। मुनिश्री समता सागर जी ने मांस निर्यात के विरोध में माहौल बनाने के लिये युवाओं को संकल्प दिलाया। अन्य मुनियों शक्ति को रचनात्मक कार्यों में लगने ने भी युवा शक्ति को रचनात्मक कार्यों में लगने का आव्हान किया। भोपाल के अमर जैन ने इस सम्मेलन की तैयारी की थी जबकि अशोक नगर के विजय जैन धुर्रा ने युवा संगठनों को एक मंच पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। २२ फरवरी को ही कुंडलपुर के पहाड़ पर बने बड़े बाबा के मंदिर में बड़े बाबा का प्रथम महामस्तकाभिषेक भी शुरू हुआ। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तथा ५१ मुनिराजों की उपस्थिति में जयपुर के गनेश जी राजा ने स्वर्ण कलश से जैसे ही बड़े बाबा के मस्तक से जलधारा छोड़ी, पूरा कुंडलपुर कस्बा जयकारों के नारों से गूंज उठा। ११४ आर्यिका माता जी मंदिर के मुख्य द्वार पर लगे कांच से यह दृश्य देख रहीं थीं। आचार्य श्री ने मूर्ति के नीचे हाथ फैलाकर गंधोदक हाथ में लेकर अपने मस्तक पर लगाया तो वहां उपस्थित लोग भावुक हो गये, कई मुनियों ने आचार्य श्री से विनय की कि अपने हाथ से गंधोदक लेकर हमें दें ताकि हम इस क्षण को सदैव याद कर सकें। आचार्य श्री ने पुनः अपना हाथ बड़े बाबा की प्रतिमा के नीचे लगाया तथा अंजुलि में गंधोदक लेकर मुनियों को दिया। इन आलौकिक क्षणों को इस छोटे से गर्भगृह मैं मैं ( रवीन्द्र जैन) एकमात्र कैमरामेन था जो अपने वीडियो कैमरे में कैद कर रहा था तथा इस स्थान पर अपनी उपस्थिति से गौरवान्वित हो रहा था। दोपहर एक बजे तक महामस्तकाभिषेक चला। भोपाल के टी.टी. नगर मंदिर के युवा कार्यकर्ताओं ने अमर जैन के नेतृत्व में महामस्तकाभिषेक की व्यवस्थाएँ सम्हाली थीं। इसके अलावा इंदौर के संजय जैन मैक्स भी बड़े बाबा मंदिर की व्यवस्थाओं को संचालित कर रहे थे। उम्मेदमल जी पंडया अभिषेककर्ताओं को सुविधाएँ देने का २३ फरवरी को प्रातः बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक पहाड़ पर शुरू हुआ और नीचे आयोजन स्थल पर देश भर से आये ८२ विद्वानों ने अपना सम्मेलन शुरू कर दिया। अखिल भारतीय विद्वत परिषद् के बैनर तले हुए इस सम्मेलन में सभी ने एक स्वर से कुंडलपुर में निर्माणाधीन बड़े बाबा के मंदिर का जोरदार शब्दों में समर्थन किया। विद्वानों की स्पष्ट राय थी कि समाज के सर्वोच्च संत आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में कोई गलत कार्य हो ही नहीं सकता। उन्होने इस मंदिर का विरोध करने वालों से कहा कि वे समाज को रचनात्मक दिशा देने आगे आयें तथा - पूरी योजना को गौर से समझें। विद्वत् परिषद् ने जैन तीथों के जीर्णोद्धार के बारे में इंडिया टुडे द्वारा छापे गये समाचारों की निंदा की तथा कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा जैन आमनाओं के विरुद्ध छपवाये जा रहे संमाचारों का तत्काल प्रतिवाद जारी करने का निर्णय लिया। २३ फरवरी तक कुंडलपुर में २ लाख से अधिक लोग पहुंच चुके थे। एक लाख की क्षमता वाले पंडाल में बैठने की जगह नहीं होती थी। लोग बाहर से आचार्य श्री के प्रवचन सुनते थे। २३ फरवरी को प्रदेश के उद्योग मंत्री नरेन्द्र नाहटा तथा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विक्रम वर्मा कुंडलपुर पहुंचे। श्री वर्मा के साथ भाजपा विधायक गोपाल भार्गव, जयंत मलैया, सांसद रामकृष्ण कुसमरिया, भाजपा नेता श्रीमती सुधा मलेवा भी पहुंचीं जबकि श्री नाहटा के साथ इंका नेता अजय टंडन, अशोक जैन भाभा, देवेन्द्र सेठ थे। दोपहर की सभा में आयोजन समिति के उपाध्यक्ष हृदयमोहन जैन ने आचार्य श्री से अनुमति लेकर प्रस्ताव रख दिया कि- " यहां उपस्थित लाखों जैन समाज के अनुयायी प्रदेश सरकार से जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग करते हैं तथा मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने विधानसभा में जैनियों को अल्पसंख् Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की जो पहल की है उसका स्वागत करते | मंत्री रत्नेश सालोमन, राज्यमंत्री राजा पटेरिया, | हेतु वे एक पत्र भेज रहे हैं। श्री जोगी ने कहा कि - हैं।" पंडाल में बैठे लाखों लोगों ने इस प्रस्ताव का | पूर्वमंत्री ललित जैन, गोसेवा आयोग के अध्यक्ष | छत्तीसगढ़ में कोई नया बूचढ़खाना नहीं खुलने दिया हाथ उठाकर समर्थन किया। उद्योगमंत्री नरेन्द्र नाहटा | महेन्द्र कुमार बम, दमोह कांग्रेस अध्यक्ष अजय जायेगा। ईसाई समुदाय के इस मुख्यमंत्री ने कुंडलपुर ने भी प्रस्ताव का समर्थन करते हुए भाजपा के प्रदेश टंडन, कुंडलपुर पहुंचे थे। उद्योग मंत्री नरेन्द्र नाहटा | में मांस निर्यात विरोध परिषद के संयोजक त्रिलोक अध्यक्ष विक्रम वर्मा से भी इस प्रस्ताव को समर्थन | ने मुख्यमंत्री की आगवानी की। मुख्यमंत्री की जैन की पहल पर मांस निर्यात का विरोध करने देने की अपील की ।श्री वर्मा ने कहा कि- राज्य उपस्थिति में हृदयमोहन जैन ने पंडाल में लाखों | संबंधी फार्म पर हस्ताक्षर भी किये। श्री जोगी के सरकार जैन समाज को यह दर्जा देना चाहती है। लोगों से हाथ उठाकर बड़े बाबा के मंदिर तथा जैन साथ छत्तीसगढ़ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्वरूपानंद और जैन समाज लेना चाहती है तो किसी को क्यों | समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का समर्थन | जैन तथा छत्तीसगढ़ के उद्योगपति बी.आर. जैन एतराज हो सकता है? उन्होंने प्रदेश भाजपा की | कराया। इस अवसर पर आचार्य श्री ने कहा कि- भी कुंडलपुर आये थे। ओर से इस प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। इसी | मुख्यमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं तो उन्हें मेरा २६ जनवरी को कुंडलपुर में देश के जैन मंच से श्री विक्रम वर्मा ने कुंडलपुर के प्रस्तावित आशीर्वाद है। उन्होने कहा कि- कुंडलपुर के बड़े समाज के वरिष्ठ नेता साहू रमेशचंद्र जैन पहुंचे तथा मंदिर का समर्थन करते हुए कहा कि राज्यसभा में बाबा के विशाल मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा भी उन्होंने वहां श्री दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षणी कमेटी उन्होने केन्द्रीय संस्कृति मंत्री अनंत कुमार से मंदिर मुख्यमंत्री इसी प्रकार यहां आयोजित करें और का राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया। इसमें अनुमति की चर्चा कर ली है। २३ फरवरी को | उसमें उपस्थित रहें ऐसी भावना है। मुख्यमंत्री ने कमेटी के मध्यांचल इकाई के अध्यक्ष दादा कुंडलपुर में स्पष्ट हो गया कि - बड़े बाबा और कुंडलपुर के पहाड़ पर स्थित बड़े बाबा के मंदिर में डालचंद जैन भी उपस्थित थे। कमेटी ने कुंडलपुर छोटे बाबा के दरबार में जैन समाज की दो मांगे चांदी का छत्र चढ़ाया तथा बड़े बाबा की भक्ति में चल रहे विकास कार्यों को अपना समर्थन दिया। स्वीकार हो जायेंगी। भारत सरकार मंदिर की भाव से पूजा-अर्चना की। इस अवसर पर विभिन्न संगठनों ने आचार्य श्री की अनुमति दे देगी तथा राज्य सरकार जैनियों को २५ फरवरी को सुबह छत्तीसगढ़ के प्रेरणा से लगभग १० लाख रुपये सम्मेद शिखर अल्पसंख्यक का दर्जा दे देगी। नरेन्द्र नाहटा ने कहा मुख्यमंत्री अजीत जोगी का हेलीकॉप्टर कुंडलपुर | तीर्थ की सुरक्षा हेतु साहू रमेशचंद्र जी जैन को भेंट कि- जैन समाज को ऐसी ताकत मुख्यमंत्री के के ऊपर था। श्री जोगी जबलपुर तक हवाई जहाज | किये। कमेटी ने भगवान महावीर के जन्म स्थान सामने दिखाना चाहिये। से आये थे वहां से हेलीकॉप्टर लेकर वे कुंडलपुर वैशाली में भव्य स्मारक बनाने का भी निर्णय लिया। २४ फरवरी को सुबह से मुख्यमंत्री दिग्विजय पहुंचे। प्रदेश के दो राज्यमंत्री राजा पटेरिया तथा आचार्य श्री ने कमेटी को अपना आशीर्वाद दिया। सिंह का हेलीकॉप्टर कुंडलपुर के ऊपर मंडरा रहा | मानवेन्द्र सिंह ने श्री जोगी की आगवानी की। श्री २७ फरवरी को मध्यप्रदेश के राज्यपाल डॉ. था। मुख्यमंत्री हेलीपेड से सीधे आचार्य श्री के कक्ष जोगी विधानसभा चुनाव जीतकर सीधे कुंडलपुर कुडलपुर भाई महावीर हेलीकॉप्टर से जब कुंडलपुर के ऊपर में पहुंचे तथा लगभग २५ मिनिट एकांत में उन्होंने आये थे। उन्होने आचार्य श्री के कक्ष में पहुंचकर पहुंचे तो भीड़ देखकर हैरान रह गई। कुंडलपुर में आचार्य श्री से चर्चा की। इस चर्चा का माहौल | उनसे आशीर्वाद लिया और स्पष्ट कहा कि- आज २७ फरवरी को गजरथ फेरी थी तथा इसे देखने विदिशा के हृदयमोहन जैन ने बनाया था। बाद में | वे आचार्य श्री के आशीर्वाद से ही इस पद तक जैन अजैन भारी तादात में कुंडलपुर पहुंच रहे थे। मुख्य पंडाल में आकर मुख्यमंत्री ने कई महत्वपूर्ण | पहुँचे हैं इसलिये आचार्य श्री का जो भी आदेश | आसपास के १०० से अधिक गांव के लोग जीप, घोषणाएं की। उन्होंने ६ अप्रैल से मध्यप्रदेश में | होगा, छत्तीसगढ़ सरकार उसका पालन करेगी। ट्रेक्टरों, ट्रॉली तथा पैदल कुंडलपुर की ओर बढ़ जैन समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की आचार्य श्री से आशीर्वाद लेने के बाद अजीत जोगी रहे थे। सुबह साढ़े नौ बजे जब महामहिम का घोषणा की। इसके अलावा कुंडलपुर तीर्थ की | ने मदनलाल बैनाड़ा के तम्बू में पहुंचकर पत्रकारों | हेलीकॉप्टर कुंडलपुर उतरा उस समय तक कंडलपुर १५९ एकड़ भूमि जो राज्य सरकार के अधीन है | | से बातचीत करते हुए कहा कि-बीते बीस वर्षों से में तीन लाख से अधिक लोग पहुंच चुके थे तथा वह भी जैन समाज को देने की घोषणा की। आचार्य श्री का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त है तथा इस | कुंडलपुर पहुंचने वाली सभी सड़कें जाम थीं। लाखों मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कहा कि- आचार्य श्री का जो विधानसभा चुनाव में उनकी रिकार्ड विजय भी लोग कुंडलपुर की ओर बढ़ रहे थे। कुंडलपुर के भी आदेश होगा, राज्य सरकार उसे स्वीकार करेगी। आचार्यश्री के आशीर्वाद का नतीजा है। श्री जोगी | धार्मिक माहौल को देखकर महामहिम अभिभूत उन्होंने बड़े बाबा के बड़े मंदिर का समर्थन करते ने कहा कि- आचार्य श्री के आदेश पर वे छत्तीसगढ़ | हो गये। उन्होने आचार्य श्री को श्रीफल भेंट करते हुए कहा कि- इस मंदिर के निर्माण के लिए राज्य में जैन समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा देने जा हुए प्रणाम किया तथा अपने उद्बोधन में उन्हें सरकार ने भारत सरकार को पत्र लिखा है तथा | रहे हैं। इसके अलावा अमरकंटक के विकास के | आलौकिक महापुरुष बताया। राज्यपाल ने इसके अलावा भी कुछ जरूरत हुई तो राज्य सरकार लिये पेन्डा रोड में विकास की योजनाएँ बनाई कुंडलपुर में निर्माणाधीन मंदिर का समर्थन करते पीछे नहीं हटेगी। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ | जायेंगी। उन्होंने कहा कि- कुंडलपुर में बड़े बाबा | हुए इसके निर्माण के लिये मुख्यमंत्री द्वारा भारत राज्य के पंचायत मंत्री अजय सिंह, उच्च शिक्षा | के विशाल मंदिर को भारत सरकार की अनुमति | सरकार को लिखे पत्र की तारीफ की तथा अप्रैल 2001 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासन दिया कि यदि जरूरत हुई तो वे भी | तैयार थे तथा युवा मंडल के १२ बैण्ड फेरी के कुंडलपुर में १०८ दीक्षाओं की उम्मीद थी भारत सरकार को खत लिखेंगे। लिये क्रमबद्ध खड़े हो गये थे। गजरथ फेरी देखने किन्तु दीक्षा समारोह नहीं हुआ। फिर भी कुंडलपुर राज्यपाल ने पहाड़ पर बने बड़े बाबा के भारी जन समूह उमड़ पड़ा था। इसे नियंत्रित करना महोत्सव में आने वाले स्वयं को धन्य और मंदिर में पहुंचकर, घर से पहनकर आये अपने कपड़े मुश्किल हो रहा था। आचार्य श्री तथा मुनि संघ के भाग्यशाली मान रहे हैं जिन्होंने दिगम्बर जैन उतारे तथा धोती,दुपट्टा, पहनकर मंदिर में प्रवेश पहुँचते ही गजरथ फेरी शुरू हुई। इतिहास के सबसे बड़े महोत्सव को अपनी आंखों किया। उन्होने बड़े बाबा पर चांदी का छत्र चढ़ाया कुंडलपुर में श्री जिन बिम्ब प्रतिष्ठा समारोह | से देखा। तथा पत्नी सहित बड़े बाबा की भावसहित आरती में देशभर से आई १८० प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा उतारी। भी की गई। आचार्य श्री ने इस प्रतिमाओं को सूर्यमंत्र आर.जे. हाऊस, १०बी, प्रोफेसर कॉलोनी, भोपाल दोपहर में जब महामहिम कुंडलपुर से वापस दिया। पंच कल्याणक में अशोक पाटनी सौधर्म लौटे उस समय तक वहां पांच लाख से अधिक इंद्र बने तथा लगभग सात सौ जोड़े इंद्र-इंद्राणी बने थे। लोग पहुंच चुके थे। मुख्य पंडाल में तीन गजरथ कुण्डलपुर महोत्सव पर विशेष आवरण एवं मुहर जारी संत शिरोमणी दिगम्बर जैनाचार्य प्रवर | आयरन स्टोर्स, स्टेशन रोड, दमोह, मध्यप्रदेश, | के द्वारा कलशाभिषेक को दर्शाते हुए एक विशेष १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज ५१ मुनिराज, | फोन- ०७६०५-२२३९४, २२०४७) की रबर/मुहर (सील) २२ फरवरी २००१ को जारी ११४ आर्यिकाओं, ४ ऐलक महाराज, ८ क्षुल्लक शुभेच्छा से इंदौर फिलेटलिक सोसायटी, इंदौर के की गई है। इस ऐतिहासिक क्षण को स्मृति में संजोने महाराज तथा १ क्षुल्लिका माताजी के सान्निध्य में | निर्देशन में भारतीय डाक विभाग. भोपाल से | का अपूर्व अवसर सभी को प्राप्त हुआ है। २१ वीं शताब्दी में १५०० वर्षों के बाद प्रथम बार अनुमति प्राप्त कर ११ से.मी. गुणा २० से.मी. का इस विशेष आवरण (लिफाफे) पर तीन 'बड़े बाबा' भगवान ऋषभदेव का विशेष आवरण (कवर) प्रकाशित कराया गया है। रुपए की टिकिट लगाकर डाक विभाग द्वारा जारी महामस्तकाभिषेक तथा समवशरण जिनालय हेतु इस विशेष आवरण पर कुण्डलपुर पर्वत | विशेष मुहर (सील) अंकित कराकर इसे महोत्सव पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रिगजरथ महोत्सव का तलहटी में स्थित मंदिर समूहों का वर्द्धमान सरोवर | की स्मृति स्वरूप अपने पास सुरक्षित/संरक्षित सफल आयोजन २१ से २६ फरवरी २००१ तक की जलराशि में प्रतिबिम्बित नयनाभिराम दृश्य किया जा सकता है। अथवा अपने परिचितों,मित्रों आयोजित हुआ था। मुद्रित है। उसी में ऊपर एक ओर बड़े बाबा-तीर्थंकर | या डाक टिकिट संग्राहकों को प्रेषित करके उसे इस महोत्सव के अवसर पर बड़े बाबा | ऋषभदेव तथा दूसरी ओर छोटे बाबा-आचार्य श्री | संरक्षित/प्रचारित किया-कराया जा सकता है। यह अभिषेक समिति के संयोजक श्री संजय जैन विद्यासागर जी महाराज के सुंदर चित्रों से इस विशेष | विशेष सील युक्त विशेष आवरण (लिफाफा) श्री 'मेक्स'(५०- शिवविलास पैलेस, राजवाड़ा, | आवरण की शोभा स्वभावतः द्विगुणित होकर | दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर तीर्थक्षेत्र कमेटी, इंदौर, मध्यप्रदेश, फोन-०७३१-५३७५२२, शोभायमान हो रही है। पोस्ट पटेरा (दमोह) मध्यप्रदेशसे अथवा उक्त दोनों ५३९१६०) तथा श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कमेटी इस विशेष आवरण पर भारतीय डाक महानुभावों से संपर्क करके प्राप्त किया जा सकता कुण्डलपुर के अध्यक्ष श्री संतोष सिंघई (सिंघई | विभाग के द्वारा बडे बाबा के बिम्व के ऊपर इन्द्रदय । है। मदिरेव मोहजनकः कः स्नेहः, केचदस्यवः विषयाः। का भववल्ली तृष्णा को वैरी नन्वनुद्योगः।। मदिरा के समान मोह को उत्पन्न करने वाला कौन है ? स्नेह। लुटेरे कौन हैं ? विषय । संसाररूपी लता क्या है ? प्रमाद । कस्माद्यमिह मरणादन्धादपिको विशिष्यते रागी। कः शूरो यो ललनालोचनवाण न च व्यथितः।। लोक में भय किससे है?मृत्यु से। अन्धे से भी ज्यादा अन्धा कौन है? रागी। शूर कौन है ? जो सुन्दरियों के नयनवाणों से विचलित नहीं होता। पातुं कर्णाञ्जलिमिः किममृतमिव बुध्यतेसदुपदेशः। किं गुरुताया मूलं यदेतदप्रार्थनं नाम । कर्णरूपी अंलियों से अमृत के समान पीने योग्य क्या है? सदुपदेश। बड़प्पन की जड़ क्या है ? याचना न करना। किं गहनं स्त्रीचरितं, कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन । किं दारिद्र्यमसन्तोष एव, किं लाघवं याञ्चा।। समझ से बाहर क्या है ? स्त्रीचरित । चतुर कौन है ? जो उससे धोखा नहीं खाता। दरिद्रता क्या है? असंतोष । और लघुता क्या है? याचना करना। राजर्षि अमोघवर्ष 28 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलपुर की भूवैज्ञानिक परिस्थितियों का विवेचन • विनोद कुमार कासलीवाल भूगर्भ अभियांत्रिकी विशेषज्ञ, भूतपूर्व निदेशक, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण कुंडलपुर ( दमोह, म. प्र. ) में विराजमान बड़े बाबा के नाम से प्रसिद्ध प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की प्राचीन प्रतिमा पिछले पन्द्रह सौ वर्षों से पूजी जा रही है। इस प्रतिमा और इसके मंदिर से संबंधित कुछ बातें जैन समाज में काफी अरसे से चर्चा का विषय हैं, जैसे पूजन के लिए पर्याप्त स्थान का ना होना, मूर्ति का वास्तुशास्त्रानुसार स्थापित ना होना, भूकंप से क्षति की संभावना होना आदि इन समस्याओं के समाधान हेतु यह प्रस्ताव आया कि एक विशाल नया मंदिर बनवाकर प्रतिमा को उसमें पुनः प्रतिष्ठित किया जाए। इस प्रक्रिया में प्रतिमा को कोई क्षति न हो इस हेतु भू-वैज्ञानिक जाँच के लिए २० फरवरी २००१ को मंदिर का मुआयना किया गया जिसमें निम्न बातों की जाँच की गई यह मूर्ति बलुआ पत्थर में से खड़ी चट्टान से गढ़ी गयी है। यह एक महत्वपूर्ण बात है। यद्यपि भू-वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में इन चट्टानों की परतें पट्ट होती है पर इसमें खड़ी है। इसलिए जब भी इसमें से मूर्ति काटी जायेगी इसकी प्रत्येक परत गोलाकार रूप में दिखाई पड़ेगी। बलुवा पत्थर अपने स्वभाव और बनावट के कारण भुरभुरे होते हैं और उनमें पानी सोखने की क्षमता होती है। यदि ऐसे किसी बलुआ पत्थर को लगातार पानी में भिगोया जाये और उसको रगड़ा जाये तो ये परतें खुल सकती हैं। वास्तव में पिछले १५०० सौ साल में इस मूर्ति का प्रक्षाल कुछ ही यात्रियों द्वारा किया जाता था परंतु अब अधिक से अधिक बार इसका प्रक्षाल होगा। इसलिए मूर्ति में जो १५०० सालों में बदलाव नहीं आया वह बदलाव १५ साल में आ सकता है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि मूर्ति का प्रक्षाल कम से कम किया जाये। यह कोई धर्म विरुद्ध बात नहीं हैं, क्योंकि ऐसा ही अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी में भी किया जा रहा है। २. मूर्ति में दरारें आना लेखक पूर्ण श्रद्धा और विनय से अपने भाव आचार्यश्री और मुनि श्री क्षमासागरजी महाराज यह मूर्ति बलुवा पत्थर की चट्टान से गढ़ी एवं प्रमाणसागर जी महाराज को अर्पित करते हुए गयी है। बलुवा पत्थर की चट्टानों में अदृश्य जोड़ / अपना महान सौभाग्य मानता है कि उनसे इस चीरें होती हैं जो बहुत मुश्किल से दिखती हैं। उनका विषय में चर्चा करने का सौभाग्य मिला । कोई विस्तार नहीं होता। इनके होने से चट्टानों में १. मूर्ति के पत्थर की जातिऔर उस पर कोई नुकसान नहीं होता । परंतु यदि लंबे अरसे तक लगातार नैसर्गिक क्षरण शक्तियां जैसे हवा और यह मूर्ति वहाँ पर मिलने वाले बलुआ | पानी काम करती रहती हैं तो ये चीरें और जोड़ असर १. यह मूर्ति किस पत्थर से बनी हुई है और इस पर १५०० साल में क्या असर आया है। २. मूर्ति में दरारें आना ३. क्षेत्र की भूकंपीय परिस्थितियां ४. नींव की हालत यह सभी जाँच आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महाराज और उनके संघ की प्रेरणा से हुई और सभी में केवलज्ञानी १००८ तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी का मार्गदर्शन रहा। पत्थर (Sand Stone) से गढ़ी गई है। यह चहान विंध्यकालीन महा चट्टानों की एक सदस्य है । ये बलुआ पत्थर चट्टानें रीवा बलुआ पत्थर और पट्टीदार शैल से बनी हुई हैं। इस प्रकार की चट्टानें कुण्डलगिरि एवं उसके आसपास पायी जाती हैं। साफ दिखाई देने लगते हैं। जिस बलुआ चट्टान से यह मूर्ति गढ़ी गयी है उसमें तीन जोड़ / चीरें मौजूद हैं। इसमें से दो, मूर्ति के पद्मासन के दाहिने पांव पर हैं और तीसरी मुख पर। इनमें से कोई भी लंबी चीर या जोड़ महीं है। जो पद्मासन में है वह नीचे की वेदी में नहीं पायी जाती है और जो चेहरे पर है वह शरीर और वक्ष पर नहीं पायी जाती है। ये चीरें साफ-सुथरी हैं अर्थात् उनके अंदर किसी भी प्रकार के बाहरी पदार्थ का भराव नहीं है। ये तीनों चीरें एक-दूसरे के समानान्तर हैं। जो पद्मासन पर है, वह समान दूरी पर है और जो मुख पर है वह हटकर है। ये चीरें मानवजनित क्षरण शक्तियों, जैसे कि प्रक्षाल, की वजह से अब स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगी हैं। पद्मासन और बेदी के बीच में जो एक बाल सदृश मोटाई का खुलापन दिख रहा है वह उसके नीचे भराव की पुनः संरचना में बदलाव आने के कारण है तथा इसी प्रकार जो मूर्ति के बायें कुण्डल के पीछे एक चीर दिखाई पड़ती है वह मूर्ति के दाहिने तरफ झुक जाने की वजह से है। यदि और कोई निशान चीरा जैसे लगते हैं तो वे मूर्तिकार की छैनी के निशान हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि मूर्ति में कोई नुकसान नहीं हुआ है परंतु उसकी वेदी में बदलाव आने की वजह से यह मूर्ति असुरक्षित हो गयी है। अतएव यह परम आवश्यक है कि इस मूर्ति को किसी सुरक्षित स्थान पर पुनः स्थापित किया जाये। ३. क्षेत्र की भूकंपीय परिस्थितियाँ कुण्डलगिरि जबलपुर से सीधी उड़ान में उत्तर में १२० कि.मी. की दूरी पर है। जबलपुर अप्रैल 2001 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदा के किनारे बसा है। यहाँ पर नर्मदा नदी एक अति प्रसिद्ध अपभ्रंश युगल में होकर बहती है जिसका नाम सोन-नर्मदा-तापी (सोनाटा) है। यहाँ पर यह उत्तरी और दक्षिणी नर्मदा अपभ्रंश के बीच में है। यह क्षेत्र भारत के भूकंपीय नक्शे की तीसरी श्रेणी ("भारतीय मानक संख्या १८९३ के चतुर्थ संस्करण') में आता है। इसमें मध्य तीव्रता वाले भूकंप आते है। उनमें से कुछ का विवरण निम्न प्रकार है: १. दिनांक १७/१०/२००० तीव्रता ५.२ रिक्टर, केन्द्र मेनेरी, जिला मंडला । जबलपुर। बोधकथा २. दिनांक १३/१०/१९९३ तीव्रता ३.७ रिक्टर, केन्द्र जबलपुर। ३. दिनांक १७/५/१९९३ तीव्रता ५० रिक्टर, केन्द्र जबलपुर। ४. दिनांक २७/५/१८४६ तीव्रता ५० रिक्टर, भूकंप के आने की संभावना नहीं है। केन्द्र जबलपुर । ५. दिनांक २२/५/१९९७ तीव्रता ६ रिक्टर, केन्द्र इसके अलावा लगभग आधा दर्जन क्षीण तीव्रता वाले भूकंप जिनकी तीव्रता ३ रिक्टर से कम है, पिछले दो वर्षों में १९९९-२००० में आये हैं। एक समय ब्रह्मचारी मोतीलाल जी वर्णी की ब्रह्मचारी गणेशप्रसादजी वर्णी से भेंट हुई तो ब्र. मोतीलालजी ने धर्मक्षेत्र सोनागिरि की वंदना करने का अपना विचार बताया। ब्र. गणेशप्रसाजी वर्णी की भी भावना उनके साथ उस क्षेत्र की वंदना की हुई। जब उन्होने अपनी धर्ममाता चिरोंजा बाई को अपनी भावना बतायी तो माता जी ने उनकी भावना का समर्थन किया और बोलीं- "मैं भी आप लोगों के साथ उस तीर्थ की वंदना को चलूँगी।" कुण्डलगिरि उत्तरी नर्मदा अपभ्रंश के उत्तर में है, जहां क्षीण तीव्रता वाले कुछएक भूकंप नापे गये हैं। जबलपुर के २/५/१९९७ की भूकंप की जाँच, नुकसान के आधार पर भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने की है। उससे यह पता चला है कि कुण्डलपुर पांच (संशोधित मरकली स्केल) की तीव्रता वाले क्षेत्र में आता है। इस क्षेत्र में श्रेणी दो के नुकसान और क्लास वन 'कच्चे-पक्के मकानों में क्षति होती है और यहां भूकंप सभी को महसूस हुए। अतएव यह कहा जा सकता है कि कुण्डलगिरि में नाशवान 30 अप्रैल 2001 जिनभाषित ४. नींव की हालत जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है पुराने माता चिरोंजाबाई की निःस्पृहता और दोनों वर्णी ब्रह्मचारी उदास मुद्रा में हो गये। किन्तु यह सब सुनकर माता चिरोंजा बाई बिलकुल शान्त रहीं वे धैर्यपूर्वक बोली "ओ होना था सो हो गया, इसमें चिन्ता करना व रोना-धोना व्यर्थ हैं।" ऐसा कहकर वह अपने नित्य कार्य में लग गयीं। उनके चेहरे पर चिन्ता की कोई रेखा तो क्या छाया तक नहीं था । तीनों यात्री धर्मक्षेत्र सोनागिरिजी पहुँच गये। मालूम होने पर माता जी की सास व ननद भी वहाँ आ गयीं। तब पांचो यात्रियों ने दो दिन बड़े भक्ति भाव से वंदना, पूजन, जाप व शास्त्र - पठन आदि किया। सबका इरादा एक और वंदना करने का था। इतने में एक आदमी सिमरा गांव से आया, जहाँ माता चिरोंजा बाई का मकान है। वह बोला "माता चिरोंजा बाई के मकान में चोरी हो गयी है। किवाड़ खुले हैं व सामान जहाँ तहाँ बिखरा पड़ा है। कहीं कहीं खोदा भी गया हैं। समाचार 37 सुन माता चिरोंजा बाई की सास व ननद रोने लग आदमी भी तब तक रुका रहा । - फिर वह आदमी बोला "माता जी को पुलिस के दरोगा ने जल्दी बुलाया है जिससे मालूम हो कि क्या क्या सामान चोरी हो गया है। तभी तो चोर व चोरी का पता लगाया जा सकता है।" यह सुनकर शेष चारों कहने लगे कि माता चिरोंजा बाई को सिमरा चले जाना चहिये। लेकिन माता चिरोंजा बाई ने शांत व दृढ स्वर में कहा कि अब मैं पाँच दिन और वहीं वंदना करूँगी जिससे गये धन का मोह व चिन्ता पूरी तह मिट जाये। दोनों वर्णियों ने माताजी के शान्त परिणामों की प्रशंसा की फिर पूर्ववत् सब ही साथी धर्म ध्यानपूर्वक तीर्थ वंदना में पांच दिनों तक व्यस्त रहे । वह 1 | मंदिर में वेदी की वजह से मूर्ति असुरक्षित हो गयी है। इस मूर्ति का स्थानांतरण करने के बाद, किसी भी उपयुक्त तरीके से इस मंदिर की पवित्रता बनाये रखी जा सकती है, जैसे कि चरणमंदिर, छत्र वा किसी अन्य तरीके से। इससे अतिशय क्षेत्र की महत्ता पर कोई आँच नहीं आयेगी, बल्कि अतिशय बढ़ेगा ही जैसा कि श्री महावीर जी और बाड़ा पदमपुरा (जयपुर) में देखा गया है। निष्कर्ष यह कि कुण्डलगिरि में आदि तीर्थंकर ऋषभ देव की मूर्ति सुरक्षित है। उसमें किसी प्रकार की दरार नहीं आयी है, न ही भूकंप की वजह से और न ही किसी नये निर्माण की गतिविधियों से। वरन इस मूर्ति की बेदी में खतरा प्रकट हो रहा है, इसलिए नितांत आवश्यक है कि मूर्ति को अतिशीघ्र सुरक्षित किया जाये। ए-6, हास्पिटल रोड, अशोकनगर सी स्कीम, जयपुर - ३०२००१ " नेमीचन्द पटोरिया छठे दिन उस आदमी के साथ माता चिरोंजा बाई सिमरा गयीं। जाते समय बोल गर्यो"मेरे तो परिग्रह परिमाण व्रत है। अब चोरी से बचेगा बस उतना ही धन अब से मेरे परिग्रह-परिमाण व्रत की सीमा में आजीवन रहेगा ।" सिमरा पहुँचकर देखा कि घर पर पुलिस का पहरा है, किवाड़ खुले हैं। कहीं-कहीं खोदा भी गया है। जहाँ सोना व जेवर गड़े रखे थे वह स्थान सुरक्षित है। हाँ, एक जगह दस रुपये के राजाशाही अने रखे थे, वे उन्हें खोदने से मिले। वे शायद निराश हो गये होंगे तो उन राजाशाही अत्रों को कमरे में बिखेर गये तथा चावल, दाल आदि भी कमरे में बिखेर गये, शायद यह समझकर कि जेवर व सोना आदि उनमें छुपा दिया हो। सारांश, एक पैसा भी चोरी नहीं गया। माता जी ने यह माना कि धर्म पर अटूट श्रद्धा व निःस्पृह - भावना का यह पुण्यफल है। वे और भी अधिक दान व साधुसेवा में जुट गयीं और अन्त तक अपनी निःस्पृहभावना व धर्म-भावना से ओत-प्रोत रहीं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूकम्प और गुरुकृपा का प्रसाद कार्यालय के आजू-बाजू, पीछे आदि के लगभग १४ आफिस तब तक तहस-नहस होकर मिट चुके थे। आपके इस शोरूम में अनेक मारुति गाड़ियाँ खड़ी थीं। भीतर जाकर देखा तो कार्यालय में अपने आराध्य, गुरुदेव श्रमण संस्कृति के उन्नायक दिगम्बर जैनाचार्य सन्त शिरोमणि श्री विद्यासागर जी महाराज, आपके शिक्षा-दीक्षागुरू तथा नसीराबाद (अजमेर) में स्व. जैनाचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज तथा आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्यमुनि श्री सुधासागर जी महाराज, जो विगत ७-८ वर्षों से राजस्थान में विहार कर रहे हैं, के लगभग २॥ गुणा २|| फुट लम्बे-चौड़े चित्र अपने स्थान से हिले तक नहीं हैं। आपने सोचा संभव है यह सब गुरु चरणों काही प्रबल प्रताप है जहाँ उनकी तीनों फोटो अपने स्थान से हिलीं तक नहीं हैं, उसी के परिणामस्वरूप शोरूम में खड़ी गाड़ियों अथवा शोरूम के काँच तक नहीं टूटे / क्रेक हुए। यह सब गुरुकृपा के बिना संभव नहीं हो सकता। वापिस आकर आवास पर देखा तो उसमें भी यही स्थिति थी। वहाँ पर भी तीनों फोटो अपने स्थान पर जस की तस थीं। बाद में जिन भी परिचितों ने आपका आवास या कार्यालय देखा वे भी आश्चर्य में पड़े बिना नहीं रह सके। जहाँ चारों ओर ऐसा भीषण ताण्डव दृश्य उपस्थित हो, वहाँ आपके आवास या कार्यालय में कोई नुकसान नहीं होना, यह प्रबल पुण्य अथवा किसी विशिष्ट कृपा के परिणाम के अलावा और क्या हो सकता है? नसीराबाद से परिजन आकर आपको सपरिवार गांधीधाम से वापिस ले आए। कुण्डलपुर, (दमोह) मध्यप्रदेश में बड़े बाबा महामस्तकाभिषेक एवं पंचकल्याणक महोत्सव के उपरांत ५ मार्च २००१ को आकर 'छोटे बाबा' आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्रीचरणों में श्रीफल समर्पित करते हुए जब श्री रमेश गदिया अपनी आपबीती सुना रहे थे, तो श्रोतागण जहाँ आश्चर्यचकित हो रहे थे, आश्चर्यचकित हो रहे थे, वहीं गुरुकृपा के परमप्रसाद से सुरक्षित आपके सकुशल रह पाने पर आपके पुण्य की प्रशंसा भी कर रहे थे। कुण्डलपुर । २६ जनवरी २००१ का दिन। | रही थीं। लगभग १.५० मिनिट तक आए भूकंप के सारा देश गणतन्त्र दिवस की खुशियाँ इजहार करने कंपनों का आलम यह था कि अधिकांश हेतु अपने-अपने ढंग से तैयारियों में लीना बच्चों बहुमंजिली इमारतें हिल हिलकर क्रेक हो चुकी में उमंग, उत्साह। प्रभात फेरियाँ निकालने के लिए थीं। उनमें भी बहुत सी इमारतें टूटकर बिखरी नहीं, विद्यालयीन गणवेश में तैयार होने हेतु उद्यत अपितु नीचे की ओर पैंस गई। चौथी मंजिल, तीसरी गृहणियाँ गणतंत्र दिवस के दिन भोजन - मिष्टान्न मंजिल के स्थान पर, तो तीसरी मंजिल दूसरी, बनाने के लिए तत्पर । पुरुष वर्ग ध्वजारोहण दिवस दूसरी मंजिल प्रथम और भूतल वाला स्थान जमीन के कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए तत्पर । के नीचे धंसते जा रहे थे। एक मंजिले भवन ही वृद्धजन समाचार पत्रों में राष्ट्र के नाम प्रसारित संदेश कुछ सुरक्षित से थे। का वाचन करते अथवा टी.वी. के सम्मुख बैठकर गणतंत्र दिवस के दिन देश की राजधानी नई दिल्ली में आयोजित होने वाली गणतंत्र दिवस परेड के कार्यक्रम को देखने में दत्तचित्त सभी लोग अपनेअपने ढंग से व्यस्त । इसी प्रकार प्रभात वेला में लगभग ७.४५ बजे गुजरात प्रान्त के गांधीधाम जिला भुज निवासी रमेश कुमार जैन गदिया टी.वी. के सम्मुख बैठकर राष्ट्रीय कार्यक्रम का अवलोकन कर रहे थे। लगभग डेढ़ लाख की जनसंख्या वाले इस गांधीधाम के बी-४, अपना नगर निवासी ३५ वर्षीय श्री गदिया ने बच्चों को तैयार होने का निर्देश दे रखा था। अचानक अत्यधिक तेज आवाज सुनकर आप चौंक उठे। ऐसा लग रहा था मानो राकेटों से कहीं हमला हुआ हो। गांधीधाम से १३ कि.मी. की दूरी पर काण्डला बंदरगाह है, जो कि करांची समुद्री जलमार्ग से लगभग १५० कि.मी. दूरी पर अवस्थित है। देश के प्रमुख बंदरगाह की गांधीधाम से निकटता होने से मन में प्रथमतः यही विचार आया कि मानो पाकिस्तान ने काण्डला पोर्ट पर राकेटों से भीषण हमला किया हो। उसी के फलस्वरूप इतनी भयंकर आवाज आ रही है। किन्तु अगले ही कुछ क्षणों में धरती काँपती / डोलती सी महसूस हुई। अतः समझते देर नहीं लगी कि यह सब भूकंप की वजह से ही हो रहा है। अतः परिजनों को घर से बाहर आ जाने का निर्देश देते हुए ११ वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र ईशान्त, जो उस समय स्नान कर रहा था, उसे उसी नग्न दशा में ही खींचते हुए घर से बाहर ले आए । ४ वर्षीय द्वितीय पुत्र आदि के साथ बाहर आकर जो दृश्य देखा वह तो कल्पनातीत था। आपके आवास के निकट के अनेक बहुमंजिली इमारतें एक के बाद एक हिल नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान निवासी एवं विगत ११ वर्षों से गाँधीधाम प्रवासी श्री गदिया ने विगत ८ वर्ष पूर्व ही अपना आवास निर्मित कराया था। उन्हीं के भवन के साथ बने इन बहुमंजिली भवनों को ताश के पत्तों के समान ढहते देखकर आप भौंचक रह गए। कुछ क्षण तो कुछ सोच ही नहीं सके कि क्या किया जाए? ज्येष्ठ पुत्र इतना अधिक भयभीत हो चुका था कि दिन के ढाई बजे तक पहनाने पर भी उसने वस्त्र नहीं पहने। वह अभी भी रात में चीख पड़ता है और रोने लगता है। जहाँ चारों ओर हाहाकार चीत्कार मचा था, टूटते जा रहे मकानों में फँसे लोगों की करुण आवाजें आ रही थीं, बचाओ-बचाओ के स्वर सुनकर हृदय दहल रहा था किन्तु एक के बाद एक अथवा कहीं-कहीं पर तो एक-दूसरे पर गिर रहे भवन या उनके मलबों के बीच में जाने की किसी में हिम्मत नहीं हो पा रही थी । फिर भी लोग साह कर अपने स्वजनों, परिचितों को या सामग्री सुरक्षित करने यथासंभव प्रयास करते हुए अपनी जान को जोखिम में डालते हुए उद्यमशील हो रहे थे। भचाऊ, भुज अंजार के निकटवर्ती इस नगर में भूकंप ने प्रलय सा ढाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अधिकांश बहुमंजिले मकान ढह चुके या भीषण रूप से क्रेक हो चुके थे। आवास से लगभग डेढ़ कि.मी. पर आपका ट्रांसपोर्ट व्यापार का कार्यालय है। कटारिया ट्रांसपोर्ट कंपनी (सेक्ट १-ए, जूनी कोट, गांधीधाम ) एवं कटारिया आटोमोबाइल्स के नाम से मारुति कार का शोरूम बना हुआ था। दोपहर लगभग ढाई बजे आफिस की स्थिति देखने जब श्री गदिया अपने शोरूम पहुंचे तो आश्चर्यचकित रह गए। आपके इस अप्रैल 2001 जिनभाषित 31 . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ सुरक्षा हेतु सार्थक पहल जैन समाज भोपाल की ओर से १,०२,५५१/राशियों के चैक तथा नगदी ब्रह्मचारी अनिल कुमार जैन, अधिष्ठाता श्री दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम, इंदौर के माध्यम से वहाँ-वहाँ की जैन समाज के प्रतिनिधियों ने समर्पित किए। - कुण्डलपुर धर्मायतन हमारी सांस्कृतिक रक्षा करने में तथा धार्मिक वातावरण बनाने के लिए साधनभूत होते हैं। तीर्थ हमारी सम्पदा हैं जहाँ पर हम निज / आत्मस्वरूप को जानने-पाने का मार्गदर्शन सहज, सरलरीति से प्राप्त कर सकते हैं। इन धरोहरों की सुरक्षा, साज-सँभाल करना प्रत्येक श्रद्धालुजन का परम पवित्र दायित्व है। समय-समय पर गाँव, कस्बों से लेकर नगर या महानगरों में धार्मिक समारोह आयोजित होते रहते हैं। इनमें सामूहिक रूप से भाग लेकर श्रावकजन अभिषेक, पूजन कर पुण्य संचय कर लेते हैं वहीं यथाशक्य दान देकर पाप से अर्जित धन-सम्पदा का सुयोग्य वितरण भी कर लेते हैं। दिगम्बर जैनाचार्य सन्तशिरोमणी १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज ने इस सामाजिक उत्सवप्रियता को नया मोड़ देने का सतपरामर्श यथा अवसर दिया है। आपने जैन समाज को दिशा बोध देते हुए अनेक बार सार्वजनिक प्रवचनों में कहा है कि आगम में दान देने के लिए 'विधिद्रव्यदाता एवं पात्र' को दृष्टि में रखने का निर्देश मिलता है। | लाखों-करोड़ों रुपये की राशि खर्च करके जो धार्मिक समारोह सम्पन्न हो रहे हैं, उनमें से कदाचित यदि कुछ राशि को हमारे धर्मायतनों, तीर्थों की अभिरक्षा, जीर्णोद्धार, व्यवस्था संचालन तथा शिक्षण-प्रशिक्षण, चिकित्सा आदि कार्यों में भी लगाया जा सके तो दोनों उद्देश्यों की पूर्ति हो सकेगी। आचार्यप्रवर श्री विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में बुन्देलखंड अंचल में संपन्न हुए पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव में इस भावना को प्रथम बार साकार किया पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव के आयोजक स्व. श्री लखमीचंद मोदी एवं उनके सप्त पुत्रों ने देवरी (सागर) म.. में २० से २६ फरवरी ९३ तक आयोजित इस समारोह में हुए व्यय के उपरांत अवशिष्ट राशि में से कुछ भाग अतिशय क्षेत्र बीना बारहा, तहसील देवरी (सागर) म.प्र. तथा कुछ भाग सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक (शहडोल) म.प्र. को प्रेषित की गई। तदुपरान्त एक रात्रि में निर्मित जिन मंदिरकारे भाई जी का मंदिर, कटरा बाजार, सागर के 32 अप्रैल 2001 जिनभाषित जिन मंदिर हेतु भाग्योदय तीर्थ परिसर से आपके ससंघ सान्निध्य २० से २६ फरवरी ९३ तक आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रय गजरथ महोत्सव आयोजित हुआ था। इस समारोह में प्राप्त दान राशि को जैन समाज, सागर ने उदारतापूर्वक १२,०६,२८० रुपए ६५ पैसे की निधि श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र अंतरिक्ष पार्श्वनाथ शिरपुर, अकोला, महाराष्ट्र के पदाधिकारियों को समर्पित करके एक अनुकरणीय पहल की थी। यही भावना विगत वर्ष १७ से २१-२२००० तक आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रय गजरथ महोत्सव के प्रसंग पर करेली ( नरसिंहपुर ) म.प्र. में धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री विद्यासागरजी ने पुनः प्रतिपादित की। जैन समाज का आव्हान किया कि तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर जी के उचित विकास, धर्मायतन सुरक्षा, जीर्णोद्धार आदि कार्य हेतु अपने द्रव्य का सदुपयोग करें। इस समारोह के आयोजकों ने अवशिष्ट राशि में से ६ लाख रुपयों का चैक सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक (शहडोल) में चातुर्मास के दौरान श्री दिगम्बर शाश्वत तीर्थराज सम्मेद शिखर ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष सुभाष जैन, शकुन प्रकाशन, देहली को सौंपा। फिर तो यह क्रम आगे ही बढ़ता गया और छिंदवाड़ा (म.प्र. में ८ से १३ मार्च २००० तक आयोजित पंचकल्याक प्रतिष्ठा के अवसर पर घोषित दानराशि में से एक किस्त संतोष पाटनी एवं बाबूलाल पटौदी छिंदवाड़ा के हस्ते १,११,१११ / रुपये तथा आचार्यप्रवर श्री विद्यासागर जी महाराज की शिष्या आर्यिका श्री दृढ़मती जी की संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहिनों के द्वारा पर्यूषण पर्व में हुए धर्मोपदेश/प्रवचनों से प्रभावित होकर श्री दिगम्बर जैन समाज आरोन (गुना) म.प्र. के द्वारा ६१ हजार, श्री दिगम्बर जैन समाज अशोकनगर के द्वारा १,५१,०००/- श्री दिगम्बर जैन समाज सागवाड़ा, राजस्थान के द्वारा ३१,२२६/- श्री दिगम्बर जैन समाज तलवाड़ा, राजस्थान द्वारा २६,५००/-, श्री दिगम्बर जैन समाज कुंभराज द्वारा २५,६००/-, श्री दिगम्बर जैन समाज ईसागढ़ २१,०००/-, श्री दिगम्बर जैन समाज चंदेरी २१,०००/-, श्री दिगम्बर जैन समाज बीनागंज १०,२६७/- तथा श्री दिगम्बर कुण्डलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में २१ से २७ फरवरी २००१ तक आयोजित पंचकल्याणक एवं त्रिगजरथ महोत्सव के प्रसंग पर संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज एवं ५१ मुनिराज, ११४ आर्यिकाओं, ४ ऐलक जी, ८ क्षुल्लकजी तथा १ क्षुल्लिकाजी रूप १७९ पिच्छिकाधारियों की समुपस्थिति में कल्याणक दिवस की अपरान्ह बेला में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी तथा श्री दिगम्बर जैन शाश्वत तीर्थराज सम्मेदशिखर ट्रस्ट के अध्यक्ष साहू श्री रमेशचंद्र जैन को उपरोक्त राशियों को समर्पित किया गया। इसके अतिरिक्त कटनी में आयोजित बेदी प्रतिष्ठा समारोह में से भी राशि पूर्व में ही उक्त संस्था को प्रेषित की जा चुकी है। जैन समाज के उदार सहयोग से तीर्थराज सम्मेदशिखर जी के चहुँमुखी विकास एवं सुरक्षा के लिए प्रत्येक श्रद्धालुजन कटिबद्ध होकर अपने नगर में आयोजित हो रहे / हुए कार्यक्रमों में से यदि कुछ सहयोग तीर्थरक्षा के कार्य में भी लगावें, तो निश्चय ही वे अतिशय पुण्य के भागीदार होगे। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने धार्मिक उपदेशों में जहाँ तीर्थ सुरक्षा का आह्वान किया है, वहीं अभावग्रस्त, गरीब, उपेक्षित सर्वहारा वर्ग के आरोग्य लाभ हेतु समाज को आर्थिक संसाधन जुटाने, बढ़ाने का परामर्श भी दिया है। श्री गौराबाई दिगम्बर जैन मंदिर, कटरा बाजार, सागर (म.प्र.) जिन मंदिर हेतु भाग्योदय तीर्थ परिसर, सागर में द्वितीय बार २९ अप्रैल से ५ मई ९८ तक आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं १ गजरथ १ वृषभरथ तथा १ मानवरथ का आयोजन पूज्यश्रीजी के सान्निध्य में ही सम्पन्न हुआ था। इस महोत्सव समिति के आयोजकों ने उसी वर्ष भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय, मानव कल्याण, चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र, सागर में संचालित हो रहे चिकित्सालय हेतु लगभग पाँच लाख रुपयों की राशि एवं एक डायलिसिस मशीन भी प्रदान की थी। 9 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यासागराष्ट्रकम डॉ. पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य (वसन्ततिलका) सिद्धान्त - सागरमगाधगाह्यमान लब्धा च येन विरतिर्ह्यमृतोपमाना यद्वक्त्र निर्गतवचस्ततिसन्निकृष्टा सद्यो भवन्ति यतयो भवतो विरक्ता मन्येन यो मथितवान्मतिमन्दरेण । विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ॥ १ ॥ सम्प्राप्नुवन्ति विषयेष्वरतिं युवानः । विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ॥ २ ॥ न्मुञ्छन्ति वैरनिचयं रिपवः पुराणम् । विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ।। ३ ।। श्रुत्वा भवन्ति भविनो भवतो विभीताः । विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ।। ४ ।। नम्राः भवन्ति गुरुगर्वयुता जनाश्च । विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ।। ५ । संधर्तुमुद्यतभुजो भजतेऽनुकम्पाम् । विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ॥ ६॥ सद्ब्रह्मचर्यमहिमादतमानसा वै । यहदीप्तिकणनिःसरणप्रभावा शान्त्या युतो बुधनुतो गुणिसंस्तुतो यो पदेशनामिह भवे भुवि भव्यभूतां यः साधकोऽस्ति जगतीहितसन्ततेश्च यस्यातितीव्रतपसः प्रबलप्रभावा यो धर्मदेशनकरो निकरो गुणानां । संसारसिन्धुपतितान्मनुजान्सदा वः कारुण्यपूर्णहृदयः समताश्रयो यः वस्यास्यनिर्गतविरक्तिवचः प्रभावात् लुनन्ति केशनिचयं तरनास्तरुण्यो यः काव्यनिर्मितकलाकुशलः पृथिव्यां विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ॥ ७ ॥ यो देशनाविधिविधानमहाविदग्धः सद्य: समुत्तरविधानविधी च विज्ञो विद्यादिसागरमहर्षिवरं स्तुमस्तम् ॥ ८ ॥ ( अनुष्टुप ) विद्यासागरमाचार्यमाचाराङ्गबहुश्रुतम् । भूयो भूयो नमो नित्यं तद्गुणग्रहणेच्छया ।। ९॥ विद्यासागर आचार्य : करुणापूर्णमानसः । मार्गनिर्देशको भूयात्सदास्माकं शिवश्रियः ॥१०॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान (पंजीयन संख्या 320 दि. 25.8.96) जैन नसियां रोड, सांगानेर- 303902 जयपुर (राज.) प्रवेश-सूचना सांगानेर (जयपुर) आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभाशीर्वाद एवं मुनिश्री सुधासागर जी की मंगलप्रेरणा से संचालित श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान ( आचार्य ज्ञान सागर छात्रावास) सांगानर का पंचम सत्र एक जुलाई 2001 से प्रारंभ होगा। यह आधुनिक सुविधाओं से युक्त अद्वितीय छात्रावास है जहां छात्रों की आवास, भोजन व पुस्तकादि की निःशुल्क व्यवस्था रहती है। इसमें सम्पूर्ण भारत से प्रवेश के लिए अधिक छात्र इच्छुक होने से विभिन्न प्रदेशों के लिए स्थान निधारित हैं। अतः स्थान सीमित हैं / धार्मिक अध्ययन सहित कुल पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम में दो वर्षीय उपाध्याय (जो सीनियर हायर सेकेण्डरी के समकक्ष है ) माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर से एवं त्रिवर्षीय शामा स्नातक परीक्षा जो कि (बी.ए के समकक्ष) राजस्थान विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। यह सरकार द्वारा आई.ए.एस.. आर.एस.एस. जैसी किसी भी सर्वमान्य प्रतियोगिता परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए सर्वमान्य है। जो छात्र प्रवेश के इच्छुक हों वे प्रवेश फार्म मंगवाकर प्रार्थना-पत्र 30 अप्रेल 2001 तक अनिवार्य रूप से भिजवा दें। जिन छात्रों ने 10वीं की परीक्षा दी है वे भी प्रवेश फार्म मंगा सकते हैं। राजस्थान प्रांत के एवम् सीमावर्ती क्षेत्र के इच्छुक छात्रों का प्रवेश चयन “शिविर''- आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास सांगानेर जयपुर में / जून से (6 जून 2001 तक आयोजित है। अन्य प्रांत क्षेत्रों के छात्रों का प्रवेश चयन “शिविर' 7 जून से / 5 जून 2001 तक श्री दिगम्बर जैन वर्धमान धर्मशाला, अशोक नगर, जिला गुना (मध्यप्रदेश) में आयोजित है। दोनों शिविरा में अध्ययनरत शिवरार्थियों की परीक्षा/साक्षात्कार लिया जाकर चयन किया जावेगा। डॉ. शीतलचन्द्र जैन निदेशक सम्पर्क: अधीक्षक श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदय नगर, जैन नसियां रोड, सांगानेर, जयपुर (राज.) फोन नं. 0141-730552. 315825