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________________ अपूर्व हाथ बँटाया है। द्रोणगिरि, रेशन्दीगिरि, आहार, पपौरा आदि अनेक स्थानों पर पाठशालाएँ स्थापित कराकर आपने जैन धर्म और जैन साहित्य के प्रचार में पर्याप्त योगदान किया था। मात्र साहित्यनिर्माण, पुस्तक का संशोधन, सम्पादन, लेखन, मुद्रण आदि ही साहित्य सेवा नहीं है, बल्कि इस कार्य के योग्य साहित्यिक पुरुष पैदा कर देना भी साहित्य सेवा है और उससे कहीं बढ़कर । के आपके हृदय में दया कूट-कूटकर भरी थी। मैं अपने से वयोवृद्ध पुरुषों के द्वारा उनकी दयालुता के अनेक प्रकरण सुनता आया हूँ और कुछ तो मैने स्वयं देखे हैं । लेख का कलेवर बढ़ता जा रहा है, परंतु एक महान पुरुष विषय में कुछ लिखे बिना भी नहीं रहा जाता । लगभग 10 बजे दिन का वक्त था, पूज्य वर्णी जी दुपट्टा ओढ़कर मोराजी से भोजन के लिये कटरा आने के लिये तैयार थे, तभी एक गरीब जैनी भाई उनके पास पहुँचते हैं। उनके पास पहनने को कपड़ा नहीं था, मात्र धोती पहने हुए थे। पूज्य वर्णी जी ने उन्हें देखते ही अपना दुपट्टा उतारकर उन्हें उड़ा दिया और आप धोती को ही कन्धे पर डालकर कटरा चले गए। शीत ऋतु का समय था, वर्णी जी के पास ही हम लोग बैठकर पाठ याद कर रहे थे कि इतने में कहीं से एक सज्जन आते हैं। उनके पास रुई भरी ई रजाई नहीं थी । वर्णी जी अपने बिस्तर का गद्दा निकाल कर उन्हें दे देते हैं उस दिन से उन्होने फिर गद्दे पर सोना ही छोड़ दिया। आज बुन्देलखण्ड के पंडितों में शायद ही ऐसा कोई हो जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वर्णी जी का आभारी न हो। उन्होंने मेरे साथ तो महान उपकार किया है। किसी भी छात्र को परखना और उसे आगे बढ़ाना तो आपका स्वभाव ही था। बहुत पहले की बात है। मैं व्याकरण की प्रथम परीक्षा उत्तीर्ण ही हुआ था कि कविता लिखने का शौक उत्पन्न हुआ। मुझे एक प्रार्थना पत्र लिखना था मैने संस्कृत के 6-7 पद्य लिखकर पूज्य वर्णी जी को दिये। आप सोच सकते हैं कि उस समय मेरी रचना कैसी रही होगी ? अभी 3-4 वर्ष की बात है कि मुझे अपने पुराने कागजों में उन श्लोकों की एक कापी मिल गई तो मुझे अपनी मूर्खता पर भारी तरस आया और मैने उसे बाहर फेंक दिया। परंतु वर्णी इन श्लोकों पर कुछ भी नुक्ताचीनी न कर मुझे पाँच रुपये नगद दिये। मेरा उत्साह बढ़ गया। मैं उनका ही महान उपकार मानता हूँ जो आज कुछ कविता करना सीख गया हूँ । मैने अपने श्रीपालचरित (संस्कृत गद्य काव्य ) और । रत्नत्रयी में उनका क्रमश: इस प्रकार स्मरण किया है - 'यस्यानुकम्पामृतपानमा बुधा न हीच्छन्ति सुधा समूहम् । भूयात्प्रमोदाय बुधाधिपानां गुणाम्बुराशिः स गुरुर्गणेशः ॥' येषां कृपाकोमलवृष्टिपातैः सुपुष्पिताभून्मम सूक्तिवल्ली । तान् प्रार्थये वर्णिगणेशपादान् फलोदयं तत्र नतेन मूर्ध्ना ।। मैं अन्य विद्वानों का अपवाद नहीं कर रहा हूँ, परंतु यह अवश्य कह रहा हूँ कि पूज्य वर्णी जी अपने वक्तव्य में किसी की शानी नहीं रखते थे । जहाँ अन्य वक्ताओं के चटपटे चुटकले और जोशीले शेर क्षणिक हास्य या जोश उत्पन्न कर विस्मृत हो जाते हैं, वहीं पूज्य वर्णी जी की अनुपम भाषण शैली 14 अप्रैल 2001 जिनभाषित Jain Education International T | और अनोखे शास्त्र प्रवचन का प्रभाव श्रोताओं के अन्तस्तल पर पड़े नहीं रहता था। जिसने एक बार भी आपका शास्त्र प्रवचन या भाषण सुना होगा वह सदा के लिये आपका आभारी हो गया होगा । एक घटना मे आँखों देखी है। अतिशय क्षेत्र बीना-बारहाजी में परवारसभा का वार्षिक अधिवेशन हो रहा था । स्वर्गीय पंचमलाल जी तहसीलदार जबलपुर वाले अध्यक्ष थे । पूज्य पंडित जी का सारगर्भित भाषण प्रारम्भ होते ही जोरों से जलवृष्टि होने लगती है। पंडाल के नीचे पानी बहने लगता है, पर क्या बात, जो एक बच्चा भी अपनी जगह छोड़कर उठा हो । यात्रियों के डेरे-डंगल खराब हो रहे थे, परंतु सब लोग उनसे निस्पृह हो पंडित जी के भाषण सुनने में लगे हुए थे। श्रोताओं को हँसा देना या रुला देना तो आपके बाँये हाथ का खेल था। मुझे भी अनेक जैन- अजैन विद्वानों के भाषण सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, परंतु वर्गीजी के समान सारगर्भित और अंतरात्मा पर स्थाई असर करने वाला भाषण मैने आज तक नहीं सुना । आप अध्यात्म विषय का निरंतर मनन करते रहते थे। जब भी हम देखते थे समयसागर आपके हाथ में मिलता था । समयसार मूल और अमृतचन्द्राचार्य कृत उसकी टीका तो आपको प्रायः अक्षरशः कण्ठ हो गई थी। आप विद्यार्थियों की तरह 4 बजे रात से उठकर याद किया करते थे। आप इस वृद्धावस्था के समय ज्ञानार्जन में इतना अधिक परिश्रम क्यों करते हैं ? ऐसा पूछने पर आप यही उत्तर देते थे कि भैया ! ज्ञान ही ऐसी वस्तु है जो परभव में साथ जाती है। तीर्थकर को किसी गुरु के पास पट्टी लेकर नहीं पढ़ना पड़ता इसका मुख्य कारण उनके पूर्वभव का ज्ञानार्जन और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ही है आप लोग धन को हितकारी समझते हैं और उसे जर्जर काय होकर भी कमाते जाते हैं। मैं ज्ञान को हितकारी मानता है और उसे प्राप्त करने में जब तक शक्ति है प्रयत्न करता हूँ । परभव में न जाने ऐसी निर्द्वन्द्व अवस्था मिलेगी या नहीं। आपका धन आपके साथ नहीं जावेगा और मेरा ज्ञान मेरे साथ जावेगा। आप सुयोग्य लेखक और टीकाकार थे। आपने श्लोकवार्त्तिक की एक प्रामाणिक हिंदी टीका लिखी थी। उसके कुछ पत्र मेरे देखने में भी आए हैं, परंतु वह पूर्ण हुई या अपूर्ण रही, इसका पता नहीं। आप शांतिप्रिय आत्माराम विद्वान थे। अखबारी लेखनकला को शांतिभंग का एक कारण मानते थे, इसलिये उससे बचते रहे हैं। अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा पाकर ही जब कभी आप लिखते थे। पत्र लिखने में तो आप सर्वथा बेजोड़ थे। आप अपने सहधर्मी और स्नेही सज्जनों को जो पत्र लिखते थे उनमें 'अत्र कुशलं तत्रास्तु', 'या बहुत समय से चिट्ठी नहीं सो देना' यही नहीं रहता था, किंतु शांतिलाभ की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध रहती थी। आपके पत्र जो भी पढ़ता था वह क्षण भर के लिए अपने आपको भूल जाता था। आनंद में बिभोर हो जाता था । यही कारण है कि जबलपुर, सागर और कलकत्ता समाज की ओर से आपके पत्रों की प्रतिलिपियाँ 4 भागों में प्रकाशित हो चुकी है। इस 20 वीं शताब्दी में आपने सब मिलाकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जैन धर्म और जैन साहित्य की जितनी सेवा की है उतनी बहुत कम लोगों ने की होगी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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