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शलाका पुरुष
पूज्य
पं. गणेशप्रसाद जी वर्णी और उनकी साहित्य - सेवा
• डॉ. पण्डित पन्नालाल जैन साहित्याचार्य
यदि संसार समुद्र है तो उसमें रत्न अवश्य होने चाहिये । पूज्य पंडित गणेश प्रसाद जी वर्णी जैन संसार के अनुपम रत्न थे। आपने 'मड़ावरा' ग्राम में जन्म लेकर समस्त बुन्देलखण्ड प्रान्त को गौरवान्वित किया है। आप यद्यपि असाटी वैश्य कुल में उत्पन्न हुए थे तथापि पूर्वभव के संस्कार से जैन धर्म के मर्मज्ञ प्रतिपालक थे।
आपका जीवन चरित्र असाधारण घटनाओं से भरा हुआ है। आपने अपनी निरन्तर साधना से जैन समाज में जो अनुपम व्यक्तित्व प्राप्त किया था वह उल्लेख करने योग्य है। परन्तु इस छोटे लेख में लिखकर में उसका महत्व नहीं गिराना चाहता । राष्ट्रीय जागृति में यदि महामना लोकमान्य तिलक के बाद महात्मा गाँधी का उल्लेख होता है तो जैन समाज में शिक्षा प्रचार की जागृति में सर्वश्री गुरु गोपालदास जी के बाद श्रद्धेय वर्णी गणेशप्रसाद जी न्यायाचार्य का नामोल्लेख होना चाहिये। स्वर्गीय तिलक जी के दृष्टिकोणों को जिस प्रकार महात्मा गाँधी ने सीमा से उन्मुक्त कर सर्वाङ्गीण जागृति का उठाया था उसी प्रकार पूज्य वर्णी जी ने भी बरैया जी के सीमित दृष्टिकोणों से आगे बढ़कर धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि सभी विषयों की उच्च शिक्षा का सुन्दर प्रचार किया था।
सुनते हैं कि आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व बुन्देलखण्ड में जैन शास्त्रों साधारण जानकार भी नहीं थे । तत्त्वार्थसूत्र, सहस्रनाम और संस्कृत की देव-शास्त्र- गुरु पूजा का मात्र पाठ कर देने वाले महान पंडित कहलाते थे । धार्मिक आचार विचार में भी लोगों में शिथिलता आ गई थी, परंतु आज पूज्य वर्णी जी के सतत प्रयत्न और सच्ची लगन से बुन्देलखण्ड भारत वर्ष के कोने-कोने में अपने विद्वान भेज रहा हैं। आज यदि जैन समाज में कुछ विषयों के आचार्य है तो वे बुन्देलखण्ड के हैं, शास्त्र के लब्ध प्रतिष्ठ और सर्वमान्य विद्वान है तो बुन्देलखण्ड के हैं भारतवर्ष की समस्त जैन संस्थाओं
यदि कर्मठ अध्यापक हैं तो प्रायः 80 प्रतिशत बुन्देलखण्ड के हैं और जैन पाठशालाओं तथा विद्यालयों में यदि सुयोग्य विद्यार्थी हैं तो उनमें बहुभाग बुन्देलखण्ड का है। आचार विचार में भी आज बुन्देलखण्ड का साधारण से साधारण गृहस्थ अन्य प्रान्तों के विशेषज्ञ पंडितों की अपेक्षा कुछ विशेषता रखता है। यदि अन्य प्रांत के शास्त्री विद्वान बाजार का सोडावाटर शौक से पी सकते हैं तो बुन्देलखण्ड का साधारण अनपढ़ जैन गृहस्थ अगालित जल से दातौन भी नहीं कर सकता। मैं यह नहीं कहता कि इसके अपवाद नहीं है, अपवाद हैं अवश्य, परंतु बहुत कम बुन्देलखण्ड के विद्वान सीधे, साहित्यिक और कलहप्रिय काण्डों से प्रायः दूर रहने वाले होते हैं।
कुछ लोग भले ही कहते हो कि बुन्देलखण्ड दरिद्र प्रान्त है इसलिए वहाँ के लोग निःशुल्क मिलने वाली संस्कृत शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं और फिर
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आजीविका के लिये देश छोड़कर जहाँ-तहाँ बिखर जाते हैं। बात ठीक भी जचती है, परंतु इसमें मुझे रोष नहीं होता बल्कि संतोष होता है और वह इस बात का कि इस प्रान्त के लोग धार्मिक क्षेत्र में अपनी प्रगति कर रहे हैं। दरिद्रता के अभिशाप से पीड़ित होकर इन्होने कोई ऐसा मार्ग नहीं अपनाया है जो इन्हें तथा इनके पूर्वजों को कलंकित करने वाला हो और जैन धर्म की प्रगति में बाधक हो ।
अब हमारे विज्ञ पाठक जानना चाहेंगे कि बुन्देलखण्ड की इस धार्मिक प्रगति का मुख्य कारण कौन है ? सोते हुए बुन्देलखण्ड प्रांत को जगाकर उसके कानों में जागृति का मन्त्र फूँकने वाला कौन है ? बुन्देलखंड के गृहस्थोचित आचार विचार को अक्षुण्ण रखने वाला कौन है ? और उसे दुनिया में चकाचौंध पैदा कर देने वाली पाश्चात्य सभ्यता (!) से अपरिचित रखने वाला कौन है ? जहाँ तक मेरा अनुभव है मैं कह सकता हूँ कि इन सबका सर्वमान्य उत्तर है - प्रातः स्मरणीय पूज्य पं. गणेशप्रसाद जी वर्णी ।
इन्होंने अपनी धर्ममाता स्वर्गीय चिंरोजाबाई जी की उदारवृत्ति तथा पुत्रवत् वात्सल्यपूर्ण भावना से बनारस, खुर्जा, मथुरा, गदिया आदि स्थानों में जाकर बड़ी कठिनाइयों से विद्याभ्यास किया था। आज के विद्यार्थियों को उदार जैन समाज ने धर्म शिक्षा के सुयोग्य साधन सुलभ कर दिये हैं। आज के विद्यार्थियों को रहने के लिये सुन्दर और स्वच्छ भवन प्राप्त हैं। उत्तम भोजन मिलता है और अच्छे-अच्छे आचार्य अध्यापक उन्हें पढ़ाने के लिये उनके घर आते हैं, आते ही नहीं प्रेरणा भी करते हैं कि तुम मेरे पास पढ़ो। परंतु एक वक्त वह था कि जब पूज्य वर्णी जी जैसे महान व्यक्तियों को पुस्तक बगल में दाबकर मीलों दूर अजैन अध्यापकों के पास जाना पड़ता था, उनकी सुश्रूषा करनी पड़ती थीं, किन्तु वे धार्मिक विद्वेष के कारण पुस्तक टैक्स पर से दूर फेंक देते थे। पूज्य वर्णी जी ने ऐसी ही विकट परिस्थिति से गुजर कर विद्याध्ययन किया था। उन्होने दानवीर सेठ माणिकचंद्र जी बम्बई आदि के सहयोग से बनारस जैसे हिन्दू धर्म के केन्द्र स्थान में स्याद्वाद विद्यालय की स्थापना कराई थी।
प्रकृति ने आपके वचनों में मोहनी शक्ति दी थी, विद्या की कमी नहीं थी। अपने युग के आप सर्वप्रथम षट्खण्डोत्तीर्ण जैन न्यायाचार्य थे। यदि आप विद्याध्ययन के बाद चाहते तो समाज के किसी विद्यालय के प्रधान बनकर लक्षाधीश हो सकते थे। परन्तु आपके हृदय में तो अपने प्रान्त और धर्म के उत्थान की प्रबल भावना जमी हुई थी जिससे आपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ममत्व छोड़कर अपना जीवन परोपकार में लगा दिया।
सन् 1909 में आपने सागर का सत्र्क विद्यालय खुलवाया था जो आज मध्यप्रदेश का गौरव कहलाता है और जिसने बुन्देलखण्ड की जागृति में
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अप्रैल 2001 जिनभाषित 13 www.jainelibrary.org.