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________________ बोधकथा नवनीत भगवती आराधना में मनोविज्ञान विजा जहा पिसायं सुटु, पउत्ता करेदि पुरिसवसं । णाणं हिदयपिसायं सुट्ठ पउत्ता करेदि पुरिसवसं ॥७६०।। जैसे अच्छी तरह साधी गयी विद्या पिशाच को पुरुष के वश में कर देती है, वैसी ही सम्यक् प्रकार से अभ्यस्त ज्ञान अशुभ में प्रवृत्त हृदयपिशाच को वश में कर देता है। णाणपदीओ पजलइ जस्स हियए विसुद्धलेस्सस्स। जिणदिट्ठमोक्खमग्गे पणासणभयं ण तस्सत्थि ॥७६६॥ जिस शान्तचित्त मनुष्य के हृदय में ज्ञानरूपी दीपक जलता है, उसे जिनोपदिष्ट मोक्ष मार्ग पर चलते हुए संसारसागर में डूबकर नष्ट होने का भय नहीं रहता। जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिं पि जाण जीवाणं । एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवेसु होदि सदा ।। ७७६।। जैसे तुम्हें दुःख अच्छा नहीं लगता, वैसे ही दूसरों को भी नहीं लगता। ऐसा जानकर जीवों के साथ सदा अपने समान व्यवहार करो। सौ सगे, सौ दुःख .नेमीचन्द पटोरिया "विशाखा' थी गौतम-बुद्ध की एक प्रसिद्ध अनुयायिनी और भक्त । उसका वैभव विशाल था और कुटुम्ब भी विशाल था। एक दिन भगवान बुद्ध के दर्शन करने आयी तो उसके वस्त्र गीले थे, केश अस्त-व्यस्त थे और वह शोकाकुल दिखायी दे रही थी। उसे देख भगवान बुद्ध ने पूछा- “विशाखे ! तुम्हारा आज ऐसा वेष क्यों?" ___ " भन्ते ! आज मेरे एक पौत्र का देहान्त हो गया है। मृत के लिए यह शोकाचरण है।" विशाखा ने धीरे से उत्तर दिया। “विशाखे ! क्या तुम प्रसन्न होगी यदि तुम्हारे उतने पुत्र-पौत्रादि हो जाएँ, जितने इस समय श्रावस्ती में मनुष्य हैं?" ___हाँ भन्ते ! मैं अति प्रसन्न होऊँगी।" "विशाखे! श्रावस्ती में प्रतिदिन कितने मरते होंगे?" __“कम-से-कम एक तो मरता ही है।" "तो क्या फिर तुम गीले वस्त्र और बिखरे बाल का शोकाचरण प्रतिदिन करना पसन्द करोगी?" “ नहीं भन्ते !" "तब सुनो विशाखे ! जिसके सौ सगे हैं, उसके सौ दुःख हैं, जिसका एक प्रिय है उसका एक दुःख है। जिसका कोई भी अपना प्रिय नहीं है, उसके लिए संसार में कहीं भी दुःख नहीं है। जगत में सुखी होने का एकमात्र उपाय यह है कि किसी को भी अपना प्रिय न मानो और न किसी से ममता रखो । शोकरहित और सदा प्रसन्न रहने का अमोघ उपाय है कि किसी को भी अपना संबंधी स्वीकार न करो।" विशाखा ने नयी ज्योति पायी उसे फिर कभी शोकाकुल नहीं देखा गया। महकरिसमजियमहं व संजमं थोव-थोवसंगलियं । तेलोक्क सव्वसारं णो वा पूरेहि मा जहसु ॥ ७७९ ।। ___जैसे मधुमक्खियाँ थोडा-थोड़ा करके मध का संचय करती हैं, वैसे ही थोड़ा-थोड़ा करके संचित किया गया संयम तीनों लोकों में सारभूत है। उसे यदि पूर्ण नहीं कर सकते, तो उसका त्याग तो मत करो। जल-चंदण-ससि-मुत्ता-चंदमणी तह णरस्स णिव्वाणं। ण करंति, कुणइ जह अत्थजुयं हिदमधुरमिदवयणं ।।८२९॥ जल, चन्दन,चन्द्रमा, मोती और चन्द्रकान्तमणि मनुष्य को वैसा सुख प्रदान नहीं करते जैसा ज्ञान से परिपूर्ण, हित, मित और प्रिय वचन प्रदान करते हैं। जह मारुओ पवड्ढइ खणेण वित्थरइ अब्भयं च जहा। जीवस्स तहा लोभो मंदोविखणेण वित्थरइ ।।८५०।। जैसे मन्द हवा क्षणभर में तेज हो जाती है, जैसे मेघ धीरे-धीरे आकाश में फैल जाते हैं, वैसे ही जीव का थोड़ा सा भी लोभ क्षणभर में बढ़ जाता है। "सोना और धूल" से साभार 2 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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