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________________ अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर •आचार्य श्री विद्यासागर कौन कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा, है जो प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होते अनेकान्त से युक्त दृष्टि ही हमें चिन्तामुक्त और सहिष्णु यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन आया है हुये भी अपने स्वरूप में स्थित है। तो उसे जाना होगा, यह निश्चित है। यह वनाने में सक्षम है। संसार में जो विचार-वैषम्य है वह अपने | भगवान महावीर की यात्रा भी अरुक सत्य है। पर हम आने की बात से हर्षित होते एकान्त पक्ष को पुष्ट करने के आग्रह की वजह से है। अनेकान्त | थी, वह संसार में रुके नहीं, सतत हैं और आने को महोत्सव के रूप में मानते का हृदय है समता। सामनेवाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार |बढ़ते ही गये। जो इस प्रवाहमान हैं। प्रेम के साथ अपनाते हैं। जाने की बात करो। दुनिया में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान् महावीर की | जगत् में निरन्तर अपने आत्म-स्वरूप हमें रुचिकर नहीं लगती और जाने की बात | दिव्य-देशना से सर्वथा असंबद्ध था। यह बात जुदी है कि परस्पर की प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है, हमें उदास कर देती है। यही हमारी ना-समझी सापेक्षता का ज्ञान न होने से दराग्रह के कारण मतों में मान्यताओं वृद्धिंगत हो रहा है वही वर्धमान है। है। इस बात को हमें समझ लेना चाहिए कि | में मिथ्यापना आ जाता है। उसका प्रतिक्षण नित-नवीन वर्तमान आने-जाने का प्रवाह निरन्तर है। महावीर भगवान इस प्रवाह के बीच तटस्थ ही नहीं बल्कि | एक ही थी इसलिए माता-पिता ने बड़े सोच- । महावीर भगवान अपने नाम के अनुरूप ऐसे आत्मस्थ/स्वस्थ रहे। तभी वे वास्तव में महावीर समझकर योग्य वर की तलाश की। बहुत परिश्रम ही वर्धमान थे। वे अपनी आत्मा में निरन्तर बने। के बाद वर मिला। विवाह का शुभ-मुहूर्त आ गया प्रगतिशील थे। वर्धमान-चारित्र के धारी थे। पीछे ___महावीर बनने के लिए इस प्रवाह की मंगल बेला की सारी तैयारी आनन्द-दायक लग मुड़कर देखना या नीचे गिरना उनका स्वभाव नहीं वास्तविकता का बोध होना अनिवार्य है। दिन रही थी। लेकिन सात फेरे पूरे भी नहीं हुये और था। वे प्रतिक्षण वर्धमान और उनका प्रतिक्षण और रात का क्रम अबाध है। उषा के बाद निशा सातवाँ अंतिम फेरा प्रारंभ हुआ कि वर के प्राण वर्तमान था। उन्हें अपने खो जाने का भय नहीं था और निशा के बाद उषा आयेगी। जो यह जान देह से निकल गये। सब ओर हाहाकार मच गया। । जो शाश्वत है, जो कभी खो नहीं सकता, महावीर लेता है वह दोनों के बीच सहजता से जीता है। | पर अब क्या हो सकता था ? भगवान उसी के खोजी थे। उसी में खोने को राजी भगवान महावीर का जीवन ऐसा ही सहजता का “राजा-राणा छत्रपति हाथिन के असवार, | थे। उनका उपदेश भी यही था कि जो नश्वर है, जीवन है । वे स्वयंबुद्ध थे , विचारक थे, चिन्तक | मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ।" | मिटने वाला है उसे पकड़ने का प्रयास या उसे स्थिर थे। जीवन के हर पहलू के प्रति सजग चिन्तन उनका जिसकी जब बारी आ जाये उसे जाना होगा। इस | बनाने का प्रयास व्यर्थ है। वास्तविक सुख तो था। जो हो चुका , जो हो रहा है और जो होगा बात का बोध होने पर ही जीवन में समीचीनता | अपनी अविनश्वर आत्मा को प्राप्त करने में है। सभी के प्रति सहज भाव रखना यही वस्तु के आती है। सन्मार्ग की ओर कदम बढ़ते हैं। भगवान यहाँ संसार में जो सुख है उसके पीछे दुःख परिणमन का सही आकलन है। महावीर ने स्वयं सन्मार्ग पाया, वे स्वयं सन्मति थे भी है। संयोग के साथ वियोग लगा हुआ है। जो जो स्वागत के साथ विदाई की बात जानता और हमें भी वही सन्मार्ग दिखाया, सन्मति दी। सुख-दुःख के पार है, जो संयोग-वियोग के पार है, वह न स्वागत गान से हर्षित/प्रभावित होता है विवाह की मंगल बेला में भी जाने का समय है, उसका विचार आवश्यक है। उसका जन्म भी और न ही मृत्यु-गीत से उदास/ दुखित होता है। | आ गया । जाने की बेला आ गयी । जाने वाला | नहीं है, उसका मरण भी नहीं है, मानो एक आवरण जीवन क्या चीज है ? जीवन तो ऐसा है कि चला गया। कौन कहाँ तक साथ निभायेगा, कौन | है जो इधर का उधर हट जाता है। और वह जो जैसे किसी के हाथ में कुछ देर काँच का सामान कहाँ तक साथ देगा, यह कहा नहीं जा सकता पर | मृत्युंजयी है वह हमेशा बना ही रहता है। रहा फिर क्षणभर में गिरकर टूट गया। जन्म हुआ इतना अवश्य है कि सिवाय धर्म के कोई और अंत युद्ध से पूर्व अर्जुन को श्रीकृष्ण ने यही तो और मरण का समय आ गया। साठ-सत्तर बरस तक साथ नहीं देता । कोई भी द्रव्य, कोई भी समझाया था कि जो कर्मयोगी है वह जन्म मरण पल भर में बीत जाते हैं। जो यह जानता है वह पदार्थ या कोई भी घड़ी यहाँ टिक नहीं सकती। का विचार नहीं करता, वह तो जीवन मरण के समय का सदुपयोग कर लेता है। यही बुद्धिमानी बहाव है जो निरंतर बहता रहता है। परिणमन बीच जो शाश्वत आत्मतत्त्व है उसका विचार है। यही सन्मति है। प्रतिक्षण है। करता है और कर्तव्य में तत्पर रहता है। "जातस्य कहीं एक घटना पढ़ने में आयी थी। एक | कोई भी वस्तु यदि रुक जाये, परिवर्तित न | हि ध्रुवो मृत्यु वो जन्म मृतस्य च, लाड़ली प्यारी लड़की थी, अपने माता-पिता की | हातावह वस्तु नहा माना जायगा। वस्तु तो वहा । तस्मादपरिहार्येऽर्थे, न त्वं शोचितुमर्हसि।” अर्थात् - अप्रैल 2001 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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