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________________ जिसका जन्म है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और | करो। दुनिया में ऐसा कोई भी मत नहीं है जो भगवान | है। आवश्यकता उसमें डुबकी लगाने की है। दर्पण जिसकी मृत्यु है उसका जन्म भी अवश्य होगा। महावीर की दिव्य-देशना से सर्वथा असंबद्ध था। में जैसे कोई देखे तो दर्पण कभी नहीं कहता कि यह अपरिहार्य चक्र है। इसलिये हे अर्जुन, सोच में यह बात जुदी है कि परस्पर सापेक्षता का ज्ञान न मेरा दर्शन करो, वह तो कहता रहता है कि अपने मत पड़ो। अपने धर्म का (कर्तव्य का पालन | होने से दुराग्रह के कारण मतों में, मान्यताओं में | को देखो। मुझमें भले ही देखो, पर अपने को देखो। करना ही इस समय श्रेयस्कर है। जन्म मरण तो | मिथ्यापना आ जाता है। अपने दर्पण स्वयं बनो । दर्पण बने बिना और दर्पण होते ही रहते हैं। हम शरीर की उत्पत्ति के साथ मैं बार-बार कहा करता हूँ कि हम दूसरे की । के बिना स्वयं को देखना संभव नहीं है। अपनी उत्पत्ति और शरीर के मरण के साथ अपना बात सुनें और उसका आशय समझें। आज बुद्धि गुणवश प्रभु तुम हम सम (आत्मा का ) मरण मान लेते हैं, क्योकि अपनी का विकास तो है लेकिन समता का अभाव है। पर पृथक् हम भिन्नतम वास्तविक आत्मसत्ता का हमें भान ही नहीं है। भगवान महावीर ने हमें अनेकान्त दृष्टि देकर वस्तु दर्पण में कब दर्पण जन्म-जयन्ती मनाना तभी सार्थक होगा जब हम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराया है। साथ ही करता निजपन अर्पण । अपनी शाश्वत सत्ता को ध्यान में रखकर अपना साथ हमारे भीतर वैचारिक सहिष्णुता और कर्तव्य करेंगे और उसी की संभाल में अपना जीवन गुणों की अपेक्षा देखा जाये तो भगवान प्राणिमात्र के प्रति सद्भाव का बीजारोपण भी किया लगायेगे। और हममें समानता है। लेकिन सत्ता दोनों की पृथक्-पृथक् है। दो दर्पण हैं ,समान हैं लेकिन भगवान महावीर स्वामी का कहना था कि __ हमें आज आत्मा के रहस्य को समझने के एक दर्पण दूसरे में अपनी निजता नहीं डालता। यदि वस्तु को आप देखना चाहते हो या जीवन को लिए अनेकान्त, अहिंसा और सत्य की दृष्टि की मात्र एक-दूसरे की निजता को प्रतिबिबिंत कर देता परखना चाहते हो या कोई रहस्य उद्घाटित करना आवश्यकता है। वह भी वास्तविक होनी चाहिये। | है। भगवान महावीर में हम अपने को देख सकें, चाहते हो तो वस्तु के किसी एक पहलू को पकड़कर बनावटी नहीं। यदि एक बार यह ज्योति (आँख) | यही हमारी बड़ी से बड़ी सार्थकता होगी। उसी पर अड़ करके मत बैठो। मात्र जन्म ही सत्य मिल जाये तो मालूम पड़ेगा कि हम व्यर्थ चिंता में नहीं है और न मरण ही सत्य है। सत्य तो वह भी है नदी, पहाड़ की चोटी से निकलती है। डूबे हैं। हर्ष विषाद और इष्ट-अनिष्ट की कल्पना जो जन्म मरण दोनों से परे है। चलते-चलते बहुत सी कंदराओं, मरुभूमियों, व्यर्थ है। आत्मा अपने स्वरूप में शाश्वत है। चट्टानों और गर्मों को पार करती है और अंत में जो व्यक्ति मरण से डरता है वह कभी ठीक __ भगवान महावीर अपनी ओर, अपने | महासागर में विलीन हो जाती है। हमारी जीवन से जी नहीं सकता। लेकिन जो मरण के प्रति स्वभाव की ओर देखने वाले थे। वे संसार के बहाव यात्रा भी ऐसी ही हो । अनंत की ओर हो ताकि निश्चिंत है, मरण के अनिवार्य सत्य को जानता में बहने वाले नहीं थे। हम इस संसार के बहाव में बार-बार यात्रा न करना पड़े। संसार का परिभ्रमण है, उसके लिए मरण भी प्रकाश बन जाता है। वह निरन्तर बहते चले जा रहे हैं और बहाव के स्वभाव रूप यह जन्म मरण छूट जाये । महावीर स्वामी ने साधना के बल पर मृत्यु पर विजय पा लेता है। को भी नहीं जान पाते है। जो बहाव के बीच आज की तिथि में जन्म लेकर; जन्म से मृत्यु की संसार में हमारे हाथ जो भी आता है वह एक न आत्मस्थ होकर रहता है वही बहाव को जान पाता ओर यात्रा प्रारंभ की, जो अंत में मृत्युंजयी बनकर एक दिन चला जाता है, यदि जीवन के इस पहलू है। आत्मस्थ होना यानी अपनी ओर देखना । जो | अनंत में विलीन हो गई। को, इस रहस्य को हम जान लें और आने-जाने आत्मगुण अपने भीतर हैं उन्हें भीतर उतरकर रूप दोनों स्थितियों को समान भाव से देखें तो आत्मा को निरन्तर शरीर धारण करना पड़ देखना। अपने आपको देखना, अपने आपको जीवन में समता भाव (साम्यभाव) आये बिना नहीं रहा है। यही एक मात्र दुख है। शरीर से हमेशा के जानना और अपने में लीन होना , यही रहेगा, जो मुक्ति के लिए अनिवार्य है। लिए मुक्त हो जाना ही सच्चा सुख है। अभी तो आत्मोपलब्धि का मार्ग है। जिस प्रकार अग्नि लौह पिण्ड के सम्पर्क में आने जीवन के आदि और अंत दोनों की एक - मैं कौन हूँ ? यह भाव भीतर गहराता जाये।। से लोहे के साथ पिट जाती है, उसी प्रकार शरीर के साथ अनुभूति हमारे पथ को प्रकाशित कर सकती | ऐसी ध्वनि प्रतिध्वनि भीतर ही भीतर गहराती जाये; साथ आत्मा घटी/मिटी तो नहीं है लेकिन पिटी है। हम शान्तभाव से विचार करें और हर पहलू प्रतिध्वनित होती चली जाये कि बाहर के कान अवश्य है। विभाव रूपसे परिणमन करना ही पिटना को समझने का प्रयास करें तो जीवन का हर रहस्य कुछ न सुनें। हमारे सामने अपना आत्म-स्वरूप है। अपने आत्म स्वरूप से च्युत होना ही पिटना है आपोआप उद्घाटित होता चला जाता है। | मात्र रहे तो उसी में भगवान महावीर प्रतिबिंबित जन्म मरण के चक्कर में पड़े रहना ही पिटना है। अनेकान्त से युक्त दृष्टि ही हमें चिन्तामुक्त और हो सकते हैं, उसी में राम अवतरित हो सकते हैं। हम इस रहस्य को समझें और जन्म मरण के बीच सहिष्णु बनाने में सक्षम है। संसार में जो विचार उसी में महापुरुष जन्म ले सकते हैं। यही तो महावीर तटस्थ होकर अपने आत्म स्वरूप को प्राप्त करने वैषम्य है वह अपने एकान्त पक्ष को पुष्ट करने के | भगवान का उपदेश है कि प्रत्येक आत्मा में का प्रयास करें। अनंत सुख को प्राप्त करने का आग्रह की वजह से है। अनेकान्त का हृदय है | महावीरत्व छिपा हुआ है। प्रयास करें। समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार आत्मा अनंत है। चेतना की धारा अक्षुण्ण | 4 अप्रैल 2001 जिनभाषितJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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