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________________ सम्पादकीय स्वर्णयुग के प्रतिनिधि का महाप्रयाण आदरणीय पण्डित (डॉ.) पन्नालालजी साहित्याचार्य हमारे बीच नहीं | आज आधुनिक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जो रहे। उन्होंने कुण्डलपुर आकर 9 मार्च 2001 के प्रारम्भिक प्रहर में बड़े बाबा पी-एच.डी. और डी.लिट्-उपाधिधारी, जैनविद्या के विशेषज्ञ प्रोफेसरों का और छोटे बाबा (परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज ) की शरण में वर्ग दिखाई देता है अथवा जो उनमें से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, वे सब इन्हीं अपनी पार्थिव देह का सामायिक करते हुए विसर्जन कर दिया। 5 मार्च विद्वद्रत्नों की देन हैं। इसलिए इन विद्वानों के युग को जैनविद्या का स्वर्णयुग 2001 को ही उन्होने 91वें वर्ष में प्रवेश किया था। उसी दिन कुण्डलपुर से कहा जाना चाहिए। साहित्याचार्य जी इस स्वर्ण युग के प्रतिनिधि थे। लौटते हुए मैं सागर पहुँचा था और पहुँचते ही मैं पण्डितजी के दर्शन करने वर्णीजी की इच्छा थी कि पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य श्री गणेश गया था। वे मेरे गुरु थे। मैंने उनके स्वास्थ्य के विषय में पूछा । वे परिहास दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में जीवन पर्यन्त अध्यापन का करते हुए बोले , अब तो मेरी गति सिद्धों के समान ध्रुव और अचल हो गई कार्य करते हुए जैनविद्वानों की परम्परा को अविच्छिन्न बनाये रखने का है।' अर्थात् अब वे चल-फिर नहीं पाते हैं। एक ही जगह लेटे या बैठे रहना उत्तरदायित्व निभायें। पंडित जी ने इस इच्छा को अक्षरशः पूर्ण किया। इतना पड़ता है। फिर उन्होंने कुण्डलपुर महोत्सव के विषय में पूछा । आचार्यश्री ही नहीं, सागर महाविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के बाद परमपूज्य आचार्य का स्मरण किया। जब मैंने कहा कि महोत्सव अत्यंत भव्य था और निर्विघ्न श्री विद्यासागर जी के आदेश को शिरोधार्य कर श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल, सम्पन्न हो गया, लोगों की ऐसी भीड़ किसी धार्मिक समारोह में पहले कभी पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर में ब्रह्मचारी शिष्यों को जैनधर्म और संस्कृत नहीं देखी, बड़े बाबा और छोटे बाबा दोनों के दुर्निवार आकर्षण के वशीभूत की शिक्षा देने लगे। शरीर जब सर्वथा असमर्थ हो गया तब 8 जनवरी 2001 हो, लोग देश के कोने-कोने से खिंचे चले आये, तब पण्डित जी का मुखकमल को ही वे अपने पुत्रों के पास सागर आने के लिए तैयार हुए। इस प्रकार सन् खिल गया। फिर खेद व्यक्त करते हुए बोले , मेरे पुण्य क्षीण हो गये हैं, 1931 से लेकर सन् 2000 तक वे निरन्तर अध्यापन कार्य में लगे रहे। 70 इसीलिए मैं इतने भव्य महोत्सव के दर्शन से वंचित रह गया।' मैं लगभग वर्षों तक लगातार शिक्षण कार्य करते रहने का रिकार्ड अन्य किसी विद्वान् पौन घण्टे उनके पास बैठा और चला आया। तीन दिन बाद ही भोपाल में का देखने में नहीं आया। इसी प्रकार संस्कृत-प्राकृत जैन ग्रन्थों के सम्पादन, फोन से खबर आयी कि पण्डित जी कुण्डलपुर में चले बसे । मैं आश्चर्य से अनुवाद, टीका और स्वतन्त्र ग्रन्थ लेखन में भी वे सबसे आगे रहे हैं। उनके स्तब्ध रह गया। द्वारा अनुवादित और लिखित ग्रन्थों की संख्या 70 से ऊपर है। वे परमपूज्य पण्डित जी युगनिर्माता, इतिहास पुरुष पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में सम्पन्न हुई 11 आगम वाचनाओं प्रिय शिष्यों में से थे। वर्णी जी ने जैन समाज से अज्ञानान्धकार को मिटाने के के कुलपति रह चुके हैं। पण्डितजी संस्कृत के अच्छे कवि भी थे। 'वसन्त' लिए जो क्रान्ति की थी, सागर, बनारस, इंदौर, जबलपुर आदि नगरों में जैन उपनाम उनके इसी गुण का सूचक है। उन्होंने अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर संस्कृत पाठशालाएँ और महाविद्यालय खुलवाकर, जैन बालकों को जैनधर्म, जैन विद्वत्परिषद् के महामंत्री, अध्यक्ष एवं संरक्षक पदों को दीर्घकाल तक दर्शन और साहित्य की शिक्षा का अवसर प्रदान कर जैन विद्वानों की जो | सुशोभित करते हुए उन्हें अपने गरिमा के उच्चतम स्तर तक पहुँचाया है। फसल उगाई थी उसी के हिस्सा थे पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य। विद्वानों जब हम पण्डितजी के अद्यावधि जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तब एक की इस पीढ़ी में अनेक रत्न थे जैसे पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पं.फूलचन्द्र कर्मयोगी की छबि आँखों में उतर आती है। मानव पर्याय के अर्थ को जैसे जी शास्त्री, पं. दयाचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, पं. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य, उन्होने गर्भ में ही हृदयंगम कर लिया था। इसीलिए आरम्भ से ही वे जीवन पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, डॉ. के प्रत्येक क्षण को सार्थक बनाने का महायज्ञ सम्पादित करते आ रहे थे। दरबारीलाल जी कोठिया, पं. माणिकचन्द्र जी न्यायतीर्थ, पं. पन्नालाल जी कोई भी उन्हें अनवरत कर्म में संलग्न देख सकता था। आलस्य, प्रमाद और साहित्याचार्य आदि। इन विद्वद्रत्नों ने अपनी गहन ज्ञानसाधना और प्रतिभा आराम से तो उनकी जान-पहचान ही नहीं हुई थी। पण्डितजी के जीवन में से जैनधर्म और दर्शन की शिक्षा के प्रसार तथा ग्रंथों के सम्पादन, अनुवाद, विद्वत्ता और चारित्र का मणिकाञ्चनयोग था। वे सप्तम-प्रतिमाधारी थे। टीका तथा स्वतंत्रग्रंथ लेखन का ऐतिहासिक कार्य किया है, जिससे आने पण्डित जी के महाप्रयाण से समाज को जो क्षति हुई है उसे पूर्ण होने में वाली पीढ़ियों के लिए संस्कृत और प्राकृत के जैन ग्रन्थों का पठन-पाठन सैकड़ों वर्ष लग जायेंगे। आदरणीय पण्डित जी को कृतज्ञ शिष्यों के हार्दिक तथा उनके हार्द को हृदयंगम करना सुकर हो गया है। इस उपकार के लिए प्रणाम। समाज इनका सदा ऋणी रहेगा। .रतनचंद्र जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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