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________________ आदमी की नस्ल के निकट भविष्य में समाप्त होने का कोई भय नहीं है। आगे कभी-कभी प्रमाण मिल सकते हैं। हालांकि उपर्युक्त कथन के विरोध में भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है जबकि उसके पक्ष में हमारे बड़े-बूढ़े मरते दम तक आश्वस्त रहे हैं। इसलिए यह मानकर चलना हमारा नैतिक कर्तव्य है किसी समय हमारे देश में दूध-दही की नदियाँ अवश्य ही बहती रही होंगी। उन दिनों, कच्चे माल के प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने के कारण मक्खन उत्पादन के गृहउद्योग बहुतायत में पाए जाते थे। मध्यमवर्गीय लोग विशेष रूप से इस उद्योग से सम्बद्ध थे। बाइ-प्राडक्ट के रूप में निकलने वाली छाँछ गरीबों में मुफ्त बाँट दी जाती थी और मक्खन बड़े लोगों को लगाने के काम आता था। शास्त्रों में बड़े लोग उन्हें कहा गया है जिनसे किसी लाभ की गुंजाइश हो और जिन्हें प्रसन्न रखने पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वर्तमान या भविष्य में कोई काम निकाला जा सकता हो । उस समय की प्रथा के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी बड़े आदमी से मिलने जाता था तो उन्हें अंजलि में मक्खन भरकर नैवेद्य की तरह अर्पित करता था। इस क्रिया को मक्खन लगाने की संज्ञा दी गई। कालान्तर में तो मक्खन के रूप में कुछ परिवर्तित हो जाने के कारण और शेष नदियों से दरिया और दरिया से होता हुआ सागर में समाहित हो जाने के कारण जब नदियों का दूध-दही समाप्त हो गया और शुद्ध पानी ही उनमें बहने को बचा तब मक्खन लगाने की प्रथा पर जबरदस्त संकट आया। छोटे-बड़े सभी चिंता में डूब गए। दैनिक कार्यों में भीषण अवरोध पैदा होने लगे। ऐसे में आचार्यों ने सतत मनन कर सर्व सम्मति से यह | निर्णय लिया कि वर्ग भेद-जैसे महान सिद्धांत के अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि इस प्रथा को बनाए रखा जाए। भले ही मस्का का फिजिकलट्रान्जेक्शन न हो पर प्रथा की स्पिरिट बनी रहना चाहिए। इसके लिए तय हुआ कि खाली अंजलि को बंद कर हाथ जोड़ लिये जायें। जुड़े हाथों को छाती के ठीक सामने लाकर मस्तक को इस तरह झुकाया जाये कि वह हाथों को छूने लगे और साथ ही सविनय 'नमस्कार' का उच्चारण किया जाए। इस क्रिया से कर्त्ता को सामने वाले से यह कहते हुए माना जाएगा कि 'हे माइ बाप! नार्मल कंडीशन होती तो मैं मक्खन ही लाता। निश्चय ही आप इस योग्य हैं कि आपको मस्का लगाया जाये। पर आप मेरी मजबूरी समझें और कृपा बनाये रखें, ऐसी विनय है।' बड़े लोगों को भी यह हिदायत दी गई कि वे इस क्रिया को मक्खन लगाने का शतप्रतिशत स्थानापन्न मानें। इस तरह नमस्कार का प्रचलन तब से हुआ जब देश की नदियों में दूधदही का बहना बंद हो गया। ऐसा कब हुआ? यह बतलाने का उत्तरदायित्व पुरातत्त्ववेत्ताओं पर है। सारी जिम्मेदारी मेरी ही नहीं है। ओर तेजी से परिवर्तन हुए हैं, धन का सम्मान हुआ है, डिग्री पर आधारित तथाकथित पांडित्य की छीछालेदर हुई है, वर्गभेद पर कुठाराघात हुआ है और धन, पांडित्य एवं वर्ग विशेष, बड़े होने की गारंटी नहीं रह गए हैं, तब नमस्कार का प्रभाव और भी बढ़ा है। बड़े होने का मापदण्ड अब नमस्कार ही रह गया है। दो व्यक्तियों में बड़ा कौन है, यह जानने के लिए दोनों को घण्टा भर बाजार में घुमा दीजिए और गिनिए किसको कितने नमस्कार मिले। जिसे ज्यादा मिले उसे दूसरे की अपेक्षा बड़ा आदमी माना जायेगा, वरना अपनी गली में तो हर कुत्ता शेर होता है। बड़े समझे जाने की लालसा किसमें नहीं है ? सरेआम नमस्कृत होने पर कौन खुश नहीं होगा? सभी होंगे, केवल उन अपवादों को छोड़कर जिन्हें से शाम तक अनगिनत नमस्कार मिलते हैं सुबह और जिनकी अनुभूति प्रेयसी के पत्नी बन जानेजैसी हो जाती है। वरना वे, जिन्हें यदा-कदा ही कोई नमस्कार करता है, नमस्कारवाले दिन को होली दीवाली की तरह मनाते हैं। मेरी ट्रेजेडी यही है कि बहुत दिनों से नमस्कार - सुख से वंचित चला आ रहा हूँ। मजा नहीं आ रहा है। इस आशा से कि कोई बदले में ही नमस्कार कर दे, मैं हर छोटे-बड़े पर निरन्तर नमस्कार थोपे जा रहा हूँ। तीसरे नम्बर पर जिस सत्पुरुष को मैने नमस्कार अर्पित किया है वह भी इसी आशा से कि भूले-भटके वही एक नमस्कार ठोक जाए। आखिर उसी ने तो मुझे यह रोग लगाय है। तब बहरहाल जब भी हुआ हो, से अब तक नमस्कार अपना कर्त्तव्य बखूबी निभाए चला आ रहा है। समय के परिवर्तनों से अछूते नमस्कार में अब भी वही ताजगी है, वही प्रभाव है, वही निष्ठा है। बीच-बीच में स्वार्थी तत्वों ने नमस्कार की छवि धूमिल करने हेतु मस्का लगाने के आल्टरनेटिव्ज ईजाद करने के भगीरथ प्रयत्न किये लेकिन कोई भी ऐसा तरीका नहीं ढूंढ पाए जिसे सार्वजनिक रूप से छाती ठोककर इस्तेमाल किया जा सके। अंगद के पांव की तरह नमस्कार अभी भी अपने स्थान पर डटा है। आज की ही परस्थितियों में जबकि चहुँ किं परवदनं धर्मः कः शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम् । कः पण्डितो विवेकी किं विषमवधीरिता गुरवः Jain Education International मार्ग का भोजन क्या हैं ? धर्म । पवित्र कौन है ? जिसका मन शुद्ध है पण्डित कौन है ? जो विवेकी है (अपने हित-अहित को पहचानता 1 है) । विष क्या है ? गुरुओं का अपमान करना । भगवान करे आप भी इस रोग से ग्रसित हों इसलिये मेरा आपको एक बार फिर नमस्कार ! प्लाट ७ / ५६-ए, मोतीलाल नेहरूनगर (पश्चिम) भिलाई- ४९००२० (दुर्ग) म.प्र. किं संसारे सारं बहुशोपि विचिन्तयमानमिदमेव । मनुजेषु दृष्टतत्त्वं स्वपरहितायोद्यतं जन्म || संसार में सार क्या है ? मनुष्यपर्याय में जन्मलेकर तत्त्वों को जानना और स्वपरहित में संलग्न रहना। For Private & Personal Use Only अप्रैल 2001 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org.
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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