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________________ महावीर-प्रणीत जीवनपद्धति की प्रासङ्गिकता प्रो. रतनचंद्र जैन वर्तमान मानव जीवन अतीत के 5. आज अधिकांश वैज्ञानिक आविष्कारों से भोगसामग्री में निरन्तर वृद्धि के फलस्वरूप जीवन से कई दृष्टियों से भिन्न है । | देशों में प्रजातंत्र शासन पद्धति संयम की संस्कृति का तेजी से विनाश और भोगवादी संस्कृति का बेतहाशा वैज्ञानिक प्रगति तथा आधुनिक सभ्यता प्रचलित है। इसकी सफलता विस्तार हो रहा है। परिणामतः मनुष्य सभी मानवीय संवेदनाओं और के कारण मानवजीवन में कुछ ऐसे संकट सार्वजनिक हित को महत्त्व सामाजिक न्याय को तिलाञ्जलि देकर अधिकाधिक भोगसामग्री एवं उसके उत्पन्न हो गये हैं जो पहले नहीं थे। देने वाली जागरूक जनता पर साधनभूत धन को झपट कर कब्जे में करने की होड़ में लगा हुआ है। इससे उदाहरणार्थ निर्भर है। जिस देश की जनता सम्पूर्ण मानवजाति विध्वंस के कगार पर आखड़ी हुई है। भगवान् महावीर | अपने अधिकारों से बेखबर 1. पहले भी युद्ध होते थे, एक द्वारा उपदिष्ट जीवनपद्धति ही इस विध्वंस से बचा सकती है। इस सत्य को और केवल निजी हितों को देश दूसरे पर अधिकार करने का प्रयत्न निर्वस्त्र करता हुआ यह आलेख भगवान् महावीर के 2600 वें महत्त्व देने वाली होती है वहाँ करता था, लेकिन उस समय सम्पूर्ण जन्मकल्याणक महोत्सव तथा अहिंसावर्ष के सन्दर्भ में प्रस्तुत है। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि मानवता को नष्ट करने के साधन नहीं भयंकर भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो थे। आज हो गये हैं। आज अणुबम जैसे सर्वसंहारक अस्त्रों के आविष्कार से | जाते हैं जिससे उस देश का आर्थिक ढाँचा तो चरमरा ही जाता है, उसकी सम्पूर्ण मानवजाति के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। आजादी भी खतरे में पड़ जाती है। वहाँ सैनिक तंत्र या तानाशाही स्थापित हो 2. अनादिकाल से मनुष्य ऐन्द्रिय सुखों के पीछे दौड़ता आ रहा है, जाती है और हिंसा के द्वारा तख्ता पलटने का क्रम शुरू हो जाता है जिससे किन्तु पहले इन्द्रियों को उद्दीप्त एवं मूर्च्छित करने वाली सामग्री इतनी अधिक देश अनिश्चितकाल के लिए स्थिरता, शान्ति और प्रगति से वंचित हो जाता नहीं थी। आज है, जिससे मनुष्य अनियंत्रित भोगवृत्ति से ग्रस्त होकर विक्षिप्त है। अथवा जहाँ तानाशाही के कारण स्थिरता आ जाती है वहाँ मनुष्य को हो रहा है। इंद्रियों को नये-नये विषयों के सेवन द्वारा उद्दीप्त कर क्षणिक मनुष्यता से हाथ धोने पड़ते हैं और मूक पशु बनने के लिए विवश होना मूर्छा का आनंद लेना ही उसका लक्ष्य बन गया है। धरती से दुःखदर्द दूर पड़ता है। आज अनेक प्रजातांत्रिक देशों की जनता तात्कालिक निजी हितों करने के लिए कोई कर्म करना उसका लक्ष्य नहीं रहा। फलस्वरूप विलासी, को महत्त्व देने वाली, सार्वजनिक हितों को कुचलने वाली तथा अपने अकर्मण्य, आत्मकेन्द्रित और सार्वजनिक हितों से विमुख लोगों की संख्या व्यापक अधिकारों से बेखबर है जिससे वहाँ के शासक प्रचण्ड भ्रष्टाचार से बढ़ रही है। इससे शोषण, लूटपाट, बेईमानी और हिंसा की परम्परा ने जन्म ग्रस्त हैं और जनता अन्याय, पक्षपात, आर्थिक विषमता आदि के रूप में लिया है जो मानव समाज के उत्पीड़न में वृद्धि कर रही है। उनके भ्रष्टाचार का परिणाम भुगत रही है। 3.आज मनुष्य को कामकाज के इतने अधिक यांत्रिक साधन उपलब्ध हो गये हैं और होते जा रहे हैं कि बहुत कम समय में उसके सारे कार्य हो जाते हैं। इससे उसे बहुत अधिक फुरसत मिलती जा रही है। इस फुरसत का उपयोग वह भोगविलास और व्यसनों में कर रहा है। उसकी यह विलासपरकता समाज में अशान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रही है। 6. आज जीवन के मूल्यों में भारी परिवर्तन हो गया है। नैतिकता, ईमानदारी, परिश्रम, ज्ञान और कला का कोई महत्त्व नहीं रहा। राजसत्ता तथा वैभव महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। फलस्वरूप लोगों के जीवन का लक्ष्य येन-केन प्रकारेण इन्हीं को प्राप्त करना हो गया है। इससे एक ओर समाज में नैतिकता आदि का लोप होता जा रहा है, दूसरी ओर अनैतिकता, धूर्तता, तिकड़मबाजी और चाटुकारिता का बोलबाला हो रहा है। इससे सरल और ईमानदार लोगों का जीवन दूभर हो गया है। संकटों का कारण 4. उत्पादन के क्षेत्र में आज मनुष्य का स्थान मशीनों ने ले लिया है जिससे उत्पादन के स्रोत कुछ ही लोगों के हाथ में केन्द्रित हो गये हैं। इससे समाज में घोर आर्थिक विषमता उत्पन्न हुई है। भारत जैसे देश में पचास प्रतिशत से अधिक लोग गरीबी की रेखा के नीचे पहुँच गये हैं। यह स्थिति पहले नहीं थी। यह आर्थिक विषमता विश्वभर में अशान्ति, क्रान्ति और युद्धों को जन्म दे रही है। ये संकट वैज्ञानिक प्रगति तथा आधुनिक सभ्यता के अनुरुप मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन न होने के कारण उत्पन्न हुए हैं। मनुष्य के बाह्य जगत और अन्तर्जगत में गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य का सुख केवल बाह्य जगत के 6 अप्रैल 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524251
Book TitleJinabhashita 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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