Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीवर्द्धमानाय नमः। भाग १५ जैनहितैषी अंक १२ ३६२ ६७० आश्विन सं० २४४७ । अक्तूबर सन् १९२१ विषय-सूची। १. जालमें मीन-बाबू जुगुलकिशोर मुख्तार ... ' २. पूज्यपाद उपासकाचारकी जाँच ... ... ३. जैन-हितैषी पर विद्वानोंके विचार ... ... १. सत्याग्रह करना पड़ेगा-श्री श्यामसुंदरलाल जैनी ५. वह सभा या महासभाकी भी हँसी कराता है ... ६. करुणे-श्री. भगवन्त गणपतिजी गोइलीय ... ७. वीरपुष्पांजलि पर लोकमत .... ... ८. स्त्री-शिक्षा और स्वाधीनता ... . ... ६. देशकी वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्तव्य १०. सामाजिक-संवाद-श्री० पं० नाथूरामजी प्रेमी ... ११. पुस्तक परिचय-संपादक १२. सम्पादकीय निवेदन ३७८ ३६० - सम्पादक, बाबू जुगुलकिशोर मुख्तार । श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशी ___For Personal & Private Use only. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार द्विजेन्द्रलाल राय। प्रत्येक कवि, • १ जैनहितैषीका वार्षिक मूल्य ३) साहित्यप्रेमी और संस्कृतज्ञोको यह ग्रन्थ 7 पढ़ना चाहिए। मूल्य १॥), सनिल्दकार) तीन रुपया पेशगी है। २ ग्राहक वर्षके प्रारम्भसे किये जाते साहित्य-मीमांसा । हैं और बीचमें ७वे. अंकसे । आधे वर्षका मल्य १॥ . पूर्वीय और पाश्चात्य साहित्यकी, ३ प्रत्येक अंक का मूल्य ।। चार आने। काव्यों और नाटकोंकी मार्मिक और ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ तुलनात्मक पद्धतिसे की हुई आलोचना। इसमें आर्यसाहित्यकी जो महत्ता, उपकापुस्तक आदि रिता और विशेषता दिखलाई गई है, 'बाबू जुगुलकिशोरजी मुख्तार उसे पढ़कर पाठक फड़क उठेगे। हिन्दीमें सरसावा (सहारनपुर )" के पास इस विषयका यह सबसे पहला प्रन्थ भेजना चाहिए। सिर्फ प्रबन्ध और मूल्य है। मूल्य १॥ आदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे किया जायः अरबी काव्यदर्शन । मैनेजर अरबी साहित्यका इतिहास, इसकी जैन ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, विशेषतायें और नामी नामी कवियोंकी हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई। चीज। लेखक, पं. महेशप्रसाद साधु, कविताओं के नमूने । हिन्दीमें बिलकुल नई मौलवी आलिम-फाजिल । मू० ११) . राणा प्रतापसिंह। मेवाड़ के प्रसिद्ध सुखदास-जार्ज ईलियटके सुप्रराणाके चरित्रके माधारपर लिखा हुआ सिद्ध उपन्यास 'साइलस मारनर' का अपूर्व नाटक । मूल. लेखक-स्वर्गीय हिन्दी रूपान्तर। इस पुस्तकको हिन्दीके द्विजेन्द्रलाल राय। वीरता, देशभक्ति और लब्धप्रतिष्ठ उपन्यास-लेखक श्रीयुत् अटल प्रतिक्षाकी जीती जागती तसवीरें। प्रेमचन्दजीने लिखा है। बढ़िया एण्टिक पढ़ कर तबियत फड़क उठती है । मू० १॥) पेपर पर बड़ी ही सुन्दरतासे छपाया सजिल्दका २) गया है। उपन्यास बहुत ही अच्छा और अन्तस्तल । हृदयके भीतरी भावों भावपूर्ण है। मूल्य ॥८) द्वेष, हिंसा, प्रेम, भय आदिके अपूर्व चित्र लेखक, सुकवि पं० चतुरसेन शास्त्री।।- स्वाधीनता-जान स्टुअर्ट मिलकी 'लिबर्टी'का अनुवाद । यह ग्रन्थ बहुत दिनोंसे मिलता नहीं था, इसलिये फिरसे नये नये ग्रन्थ । छपाया गया है। 'स्वाधीनताकी इतनी कालिदास और भवभूति। . अच्छी तात्विक पालोचना आपको कहीं न मिलेगी। प्रत्येक विचारशीलको यह ग्रन्थ महाकवि कालिदासके अभिज्ञान शा. पढना चाहिए । मूल्य २)सजिल्दका २॥) कुन्तलकी और भवभूतिके उत्तरराम. चरितकी अपूर्व, अद्भुत और मर्मस्पर्शी समालोचना। मृल लेखक, स्वर्गीय नाटक- . For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । @ RARAM Romammamta • NMARRORSmnamastimmsmaewane Rem ARRAMAARRR पन्द्रहवाँ भाग। अंक १२ ARRIES RRITORNAR weeसाले जैनहितैषी। Smastolender ReAMADNC REAnmomdan आश्विन २४४७ मक्तूबर १६२१ Mamtamnaamsiaenamesta wrao-racaaopanR scam-. न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥ . नहीं दिखाता भय या किसीको, नहीं जमाता अधिकार कोई ॥ जालमें मीन । [तुकहीन ] [१] " क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तू ? देखे नहीं मृत्यु समीप आई ! बोला तभी दुःख प्रकाशता वो“सोचूँ यही, क्या अपराध मेरा ! विरोधकारी नहिं था किसीका, निःशास्त्र था, दीन, अनाथथामैं । स्वच्छन्द था केलि करूँ नदी में, रोका मुझे जाल लगा था ही! न मानवोंको कुछ कष्ट देता, नहीं चुराता धन-धान्य कोई । असत्य बोला नहिं मैं कभी भी, कभी तकी ना बनिता पराई ॥ [३] संतुष्ट था स्वल्प विभूतिमें ही, ईर्षा-घृणा थी नहिं पास मेरे। , खींचा, घसीटा, पटका यहाँ यों'मानो न मैं चेतन प्राणि कोई ! होता नहीं दुःख मुझे जरा भी ! हूँ काष्ठ पाषाण समान ऐसा !! सुना करूँ था नर-धर्म ऐसा'हीनापराधी नहिं दंड पाते। न युद्ध होता भविरोधियों से, न योग्य हैं वे वध के कहाते ॥ •इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवजा और दोनोंके सम्मिश्रणसे बने हुए उपजाति छंदमें। For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [0] रक्षा करें वीर सुदुर्बलों की, "निःशल पे शत्र नहीं उठाते।" बातें सभी झूठ लगें मुझे वो, विरुद्ध दे दृश्य यहाँ दिखाई ॥ [=] 1 • या तो विडाल त ज्यों कथा है, या यों कहो धर्म नहीं रहा है पृथ्वी हुई वीर- विहीन सारी, स्वाधाता फैल रही यहाँ वा ॥ [ 8 ] बेगार को निंद्य प्रथा कहें जो वे भी करें कार्यं जघन्य ऐसे ! श्रभयं होता यह देख भारी, 'अन्याय - शोकी निश्रायकारी !! [१०] "कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे ? स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी ? करें पराधीन, सता रहे जो, हिंसावती होकर दूसरोंको !! [११] भेला न होगा जगमें उन्होंका बुरा विचारा जिनने किसीका ! दुष्कृतों से कुछ भीत हैं जो, सदा करें निर्दय कर्म ऐसे !! [१२] मैं क्या कहूँ और कहा न जाता ! हैं कंठमें प्राण, न बोल श्राता !! छुरी चलेगी कुछ देर ही में ! स्वार्थी जनों को कब तर्सं श्राता !!" [१३] य दिव्य भाषा सुन मीनकी मैं, धिक्कारने खूब लगा स्वसत्ता । हुआ सशोकाकुल और चाहा, देऊँ छुड़ा बंध किसी प्रकार ॥ जैनहितैषी । 6 [ १४ ] पै मीनने अन्तिम श्वास खींचा ! [भाग १५ मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !!' गूँजी ध्वनी अम्बर - लोकमें यों'हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है !!" For Personal & Private Use Only जुगलकिशोर मुख्तार सरसावा ता० ६-११-१६२१ ――――― पूज्यपाद - उपासकाचारकी जाँच | करीब १७ वर्ष हुए, सन् १९०४ में, पूज्यपाद ' श्राचार्यका बनाया हुआ " उपासकाचार " नामक एक संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था । उसे कोल्हापुरके पण्डित श्रीयुत कलापाभरमापाजी निटवेने, मराठी पद्यानुवाद और मराठी अर्थ सहित, अपने 'जैनेन्द्र' छापेखानेमें छापकर प्रकाशित किया था । जिस समय ग्रंथकी यह छुपी हुई प्रति हमारे देखने में आई, तो हमें इसके कितने ही पद्योंपर संदेह हुआ और यह इच्छा पैदा हुई कि इसके पद्योंकी जाँच की जाय, और यह मालूम किया जाय कि यह ग्रंथ कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है। तभी से हमारी इस विषयकी खोज जारी है । और उस बोजसे अबतक जो कुछ नतीजा निकला है उसे प्रगट करनेके लिये हो यह लेख लिखा जाता है । लबसे पहले हमें देहली के नये मन्दिरके भण्डार में इस ग्रंथकी हस्तलिखित प्रतिका पता चला। इस प्रतिके साथ छपी हुई प्रतिका जो मिलान किया गया तो उससे मालूम हुआ कि, उसमें छपी हुई प्रतिके निम्नलिखित छह श्लोक नहीं हैं www.jalnelibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- अंक १२ ] पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच । पूर्वापरविरोधादिदूरं हिंसाद्यपासनम् । श्लोकोंकी इस न्यूनाधिकताके अतिप्रमाणद्वयसंवादि शास्त्रं सर्वज्ञ भावितम्॥७॥ रिक्त दोनों प्रतियों में कहीं कहीं पोंका गोपुच्छिकश्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः। कुछ क्रमभेद भी पाया गया और वह निष्पिच्छश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः१० इस प्रकार हैनास्त्यर्हतः परो देवो धर्मो नास्ति दयां विना। देहलीवाली प्रतिमें, छपी हुई प्रतिके तपः परञ्च नैग्रन्थ्य मेतत्सम्यक्त्वलक्षणं ११ ५५ वे पद्यसे ठीक पहले उसी प्रतिका मांसाशिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु। ५७ वाँ पद्य, नम्बर ७० के श्लोकसे ठीक धर्मभावो न जीवेषु मधूदुम्बर सेविषु ॥१५॥ पहले नं०६८ का श्लोक, नं० ७३ वाले चित्ते भ्रान्तिर्जायते मद्यपानात् । . पद्यके अनन्तर । का पद्य, नं. ७ भ्रान्तं चित्तं पापचर्यामुपैति । वाले पद्यसे पहले नं. ७ का पद्य और पापंकृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढा नं.३२ के श्लोकके अनन्तर उसी प्रतिका स्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयं ।।१६।।। अन्तिम श्लोक नं. १६ दिया है। इसी अणुव्रतानि पंचैव त्रिःप्रकारं गुणवतम् । तरह ६० नम्बरके पद्यके अनन्तर उसी शिक्षाव्रतादि चत्वारि इत्येतद्वादशात्मकम् २२ प्रतिके ६४ और ५ नम्बरवाले पद्य ___साथ ही यह भी मालूम हुआ कि क्रमशः दिये हैं। देहलीवाली प्रतिमें नीचे लिखे हुए दस । इस क्रमभेदके सिवाय दोनों प्रतियों श्लोक छपी हुई प्रतिसे अधिक हैं- के किसी किसी श्लोकमें परस्पर कुछ क्षेत्र वास्त धनं धान्यं द्विपदश्च चतुःपदम। पाठ-भेद भी उपलब्ध हुआ; परन्तु वह आसनं शयनं कुप्यं भांडं चेति बहिर्दश ॥७॥ कुछ विशेष महत्व नहीं रखता, इसलिये मृद्वी च द्रवसंपन्ना मातृयोनिसमानिका। उसे यहाँपर छोड़ा जाता है। सुखानां सुखिनःप्रोक्ता तत्पुण्यप्रेरितास्फुटम् । देहलीकी इस प्रतिसे संदेहकी कोई सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेन्द्रता। विशेष निवृत्ति न हो सकी, बल्कि कितने साम्राज्यं परमाईन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ५६ ही अंशोंमें उसे और भी ज्यादा पुष्टि मिली खजूरं पिंडखर्जूरं कादल्यं शर्करोपमान। और इसलिये ग्रन्थकी दूसरी हस्तलिखित मृदिक्ष्वादिके भोगांश्च मुंजते नात्रसंशयः ६० प्रतियोंके देखने की इच्छा बनी ही रही । ततः कुत्सित देवेषु जायन्ते पापपाकतः कितने ही भंडारोंको देखने का अवसर तुतः संसारगर्तासु पञ्चधा भ्रमणं सदा ॥६१॥ मिला और कितने ही भंडारोंकी सूचियाँ प्रतिग्रहोन्नतस्थानं पादक्षालनमर्चेनम् । भी नज़रसे गुजरी, परंतु उनमें हमें इस नमस्त्रिविधयुक्तेन एषणा नव पुण्ययुक् ॥६४॥ ग्रंथका दर्शन नहीं हुआ। अन्तको पिछले श्रुतिस्मृतिप्रसादेन तत्वज्ञानं प्रजायते । साल जब हम 'जैन सिद्धान्त भवन' ततो ध्यानं ततो ज्ञानं बंधमोक्षो भवेत्तत:७० का निरीक्षण करनेके लिये प्रारा गये और नामादिभिश्चतुर्भेदैर्जिनं संहितया पुनः। वहाँ करीब दो महीनेके ठहरना हुमा, यंत्रमणक्रमेणेव स्थापयित्वा जिनाकृतिम् ७६ तो उस वक्त भवनसे हम इस प्रथ थकी दो उपवासो विधातव्योगरूणां स्वस्य साक्षिकः। परानी प्रतियाँ कानडी अक्षरोंमें लिखी सोपवासो जिनरुक्तो न च देहस्यदंडनम् ८१ हुई उपलब्ध हुई-एक ताडपत्रोंपर और दिवसस्याष्टमेभागे मन्दीभूते दिवाकरे। दूसरी कागज़पर। इन प्रतियोंके साथ तं नक्तं प्राहुराचार्या न नक्तं रात्रिभोजनम् ९२ छपी हुई प्रतिका जो मिलान किया गया For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ तो उससे मालूम हुआ कि इन दोनों प्रतियों में छपी हुई प्रतिके वे छः श्लोक नहीं हैं ओ देहलीवाली प्रतिमें भी नहीं है, और न वे दस श्लोक ही हैं जो देहली की प्रतिमें छुपी हुई प्रतिले अधिक पाये गये हैं और जिन सबका ऊपर उल्लेख किया गया है। इसके सिवाय इन प्रतियों में छुपी हुई प्रतिके नीचे लिखे हुए पन्द्रह श्लोक भी नहीं हैं जैनहितैषी । क्षुधा तृष्णा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनाम् । ज़रारुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदोर तिः ||४ | विस्मयो जननं निंद्रा विषादोऽष्टादशध्रुवः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ||५|| एतैर्दोषैर्निर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरंजनः । विद्यन्ते येषु ते नित्यं तेऽत्र संसारिणः स्मृताः ६ स्वतत्वपरतत्वेषु हेयोपादेय निश्चयः । संशयादिविनिर्मुक्तः ससम्य दृष्टिरुच्यते ||९|| रक्तमात्रप्रवाहेण स्त्री निन्द्या जायतेस्फुटम् । द्विधातुर्ज पुनर्मासं पवित्रं जायते कथम् ॥१९॥ अक्षरैर्नविना शब्दस्तेऽपि ज्ञानप्रकाशकाः । तद्रक्षार्थ च षट् स्थाने मौनं श्रीजिनभाषितम् ४१ दिव्यदेहप्रभावर्ताः सप्तधातुविवर्जिताः । गर्भोत्पत्तिर्न तत्रास्ति दिव्यदेहास्ततोमताः । ५७ । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽमयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद्भवेत् ६९ येनाकारेण मुक्तात्मा शुक्लत्वध्यान प्रभावतः । तेनायं श्रीजिनोदेवो बिम्बाकारेण पूज्यते ७२ आप्तस्यासन्निधानोऽपि पुण्यायाकृति पूजनम् । तार्त्तमुद्रा न किं कुर्युर्विषसामर्थ्य सूदनम् ७३ जन्मजन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः । तेनैवाभ्यासयोगेन तत्रैवाभ्यस्यते पुनः ॥७४॥ अष्टमी चाष्टकर्माणि सिद्धिलाभाचतुर्दशी । पंचमी केवलज्ञानं तस्मात्तत्रयमाचरेत् ॥७९॥ कालक्षेपो नकर्तव्य आयु क्षीणं दिने दिने । यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्य त्वरिता गतिः ९४ अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शास्खतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ९५ [ भाग १५ जीवंतं मृतकं मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् । मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी भविष्यति ९६ छुपी हुई प्रतिसे इन प्रतियोंमें अधिक पद्य कोई नहीं है; क्रम-भेदका उदाहरण सिर्फ़ एक ही पाया जाता है और वह यह है कि छपी हुई प्रतिमें जो पद्य ५० और ५२ नम्बरों पर दिये हैं, वे पद्य इन प्रतियों में क्रमशः ३६ और ३८ नम्बरों पर - अर्थात् आगे पीछे - पाये जाते हैं । रही पाठभेद की बात, वह कुछ उपलब्ध ज़रूर होता है और कहीं कहीं इन दोनों प्रतियों में परस्पर भी पाया जाता है । परंतु वह भी कुछ विशेष महत्व नहीं रखता और उसमें ज्यादातर छापे तथा लेखकों की भूलें शामिल हैं। तो भी दो एक खास खास पाठभेदोंका यहाँ परिचय करा देना मुनासिब मालूम होता है; और वह इस प्रकार है (१) तीसरेपद्य में 'निर्ग्रन्थः स्यात्तपस्वी च' ( तपखी निग्रंथ होता है) के स्थान में भाराकी प्रतियों में 'निर्मन्थेन भवेन्मोक्षः" (निग्रंथ होने से मोक्ष होता है) ऐसा पाठ दिया है। देहलीवाली प्रतिमें भी यही पाठ 'निर्ग्रन्थः न भवेन्मोक्षः' ऐसे अशुद्ध रूपसे पाया जाता है । (२) छपी हुई प्रतिके ३०वे पद्य में 'न पापं च अमीदेयाः ऐसा जो एक चरण है वह ताड़पत्रवाली प्रतिमें भी वैसा ही है । परंतु धाराकी दूसरी प्रतिमें उसका रूप 'न परेषाममीदेयाः' ऐसा दिया है और देहलीवाली प्रतिमें वह 'न दातव्या इमे नित्यं' इस रूप में उपलब्ध होता है । " (i) छपी हुई प्रतिमें एक पद्य * इल प्रकार दिया हुआ है * देइलीको प्रतिमें भी यह पद्य प्रायः इसी प्रकार से है, सिर्फ इतना भेद है कि उसमें पूर्वार्धको उत्तरार्ध और उत्तरार्धको पूर्वार्ध बनाया गया है। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रङ्क १२ ] पूज्यपाद वृक्षा दावाग्निनालग्नास्तत्सख्यं कुर्वते वने । आत्मारूढ तरोरग्निमागच्छन्तं न वेत्यसौ ९१ पालकाचार की जाँच । इस पद्यका पूर्वार्ध कुछ अशुद्ध जान पड़ता है और इसीसे मराठीमें इस पद्यका जो यह अर्थ किया गया है, कि "वनमें दावाग्निसे ग्रसे हुए वृक्ष उल दावाग्निले मित्रता करते हैं, परंतु जीव स्वयं जिल देहरूपी वृक्षपर चढ़ा हुआ है उसके पास आती हुई अग्निको नहीं जानता है," वह ठीक नहीं मालूम होता । श्राराकी प्रतियों में उक्त पूर्वार्धका शुद्ध रूप 'वृक्षा दावाग्निलग्ना ये तत्संख्यां कुरुते वने' इस प्रकार दिया है और इससे अर्थकी संगति भी ठीक बैठ जाती है - यह आशय निकल आता है कि, एक मनुष्य वनमें, जहाँ दावाग्नि फैली हुई है, वृक्षपर चढ़ा हुआ, उन दूसरे वृक्षोंकी गिनती कर रहा है जो दावाग्निसे ग्रस्त होते जाते हैं ( यह कह रहा है कि अमुक वृक्षको श्राग लगी, वह जला और वह गिरा ! ) परंतु स्वयं जिस वृक्षपर चढ़ा हुआ है, उसके पास श्राती हुई भागको नहीं देखता है । इस अलंकृत प्राशयका स्पष्टीकरण भी ग्रंथ अगले पद्य द्वारा किया गया है और इससे दोनों पद्योंका सम्बंध भी ठीक बैठ जाता है। आराकी इन दोनों प्रतियों में ग्रंथकी श्लोकसंख्या कुल ७५दी है, यद्यपि अंतके पद्यों पर जो नंबर पड़े हुए हैं उनसे वह ७६ मालूम होती है । परन्तु 'न वेत्तिमद्यपानतः ' इस एक पद्यपर लेखकोंकी गलती से दो नम्बर 13 और & पड़ गये हैं जिससे आगे के संख्यांकोंमें बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होती चली गई है। देहलीवाली प्रतिमें भी इस पद्यपर भूल से दो नम्बर १३ और १४ डाले गये हैं और इसी लिये उसकी श्लोक ३६५ संख्या १०० होने पर भी वह १०१ मालूम होती है। छपी हुई प्रतिकी लोकसंख्या ६६ है । इस तरह भाराकी प्रतियों से छुपी हुई प्रतिमें २१ और देहलीवाली प्रतिमें २५ श्लोक बढ़े हुए हैं। ये सब बढ़े हुए श्लोक 'क्षेपक' हैं जो मूल ग्रंथकी भिन्न भिन्न प्रतियों में किसी तरह पर शामिल हो गये हैं और मूल ग्रंथके अंगभूत नहीं हैं। इन श्लोकोको निकालकर ग्रंथको पढ़नेसे उसका सिलसिला ठीक बैठ जाता है और वह बहुत कुछ सुसम्बद्ध मालूम होने लगता है। प्रत्युत् इसके इन श्लोकोको शामिल करके पढ़नेसे उसमें बहुत कुछ बेढंगापन आ जाता है और वह अनेक प्रकारकी गड़बड़ी तथा आपत्तियों से पूर्ण जँचने लगता है । इस बातका अनुभव सहृदय पाठक स्वयं ग्रंथ परसे कर सकते हैं । इन सब अनुसंधानोंके साथ ग्रंथको पढ़ने से ऐसा मालूम होता है कि छपी हुई प्रति जिस हस्तलिखित प्रति परसे तय्यार की गई है, उसमें तथा देहलीकी प्रतिमें जो पद्य बढ़े हुए हैं, उन्हें या तो किसी विद्वान्ने व्याख्या आदिके लिये अपनी प्रतिमें टिप्पणीके तौरपर लिख रक्खा था या ग्रंथकी किसी कानडी आदि टीकामें वे विषय समर्थनादिके लिये 'उक्तंच' आदि रूपसे दिये हुए थे; और ऐसी किसी प्रतिसे नकल करते हुए लेखकोने उन्हें मूल ग्रंथका ही एक अंग समझकर नकल कर डाला है । ऐसे ही किसी कारणले ये सब श्लोक अनेक प्रतियों में प्रक्षिप्त हुए जान पड़ते हैं। और इसलिये यह कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि ये बढ़े हुए पद्य दूसरे अनेक ग्रंथोंके पद्य हैं। नमूने के तौर पर यहाँ दो एक पद्योंको उद्धृत करके बतलाया For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनहितैषी। [भाग १५ जाता है कि वे कौन कौनसे ग्रंथके पद्य हैं। छपी हुई प्रतिमेसे, ऊपर दिये हुए, २१ गोपुच्छिक श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः। श्लोक और देहलीवाली प्रतिमेंसे २५ श्लोक निपिच्छति पंचैते जैनाभासः प्रकीर्तिताः१० कम कर देने पर वह पूज्यपादका उपास यह पद्य इन्द्रनन्दिके 'नीतिसार काचार रहता है, और उसका रूप प्रायः ग्रंथका पद्य है और उसमें भी नं. १० वही है जो पाराकी प्रतियों में पाया जाता पर दिया हुआ है। है। संभव है कि ग्रन्थके अन्तमें कुछ सज्जातिः सद्ग्रहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेंद्रता। पद्यों की प्रशस्ति और हो और वह किसी साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निकाणं चेति सप्तधा ५६ । जगहकी दूसरी प्रतिमें पाई जाती हो । यह पद्य, जो देहलीवाली प्रतिमें उसके लिये विद्वानों को अन्य स्थानोंकी पाया जाता है, श्रीजिनसेनाचार्य के प्रादि प्रतियाँ भी खोजनी चाहिएँ। पुराणका पध है और इसका यहाँ पूर्वापर अब देखना यह है कि यह ग्रंथ कौनसे पद्यों के साथ कुछ भी मेल मालूम नहीं “पूज्यपाद” आचार्यका बनाया हुआ है। होता। 'पूज्यपाद' नामके प्राचार्य एकसे अधिक आप्तस्या सन्निधानेऽपि पुण्ययाकृतिपूजनम् । हो चुके हैं। उनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध तार्थमुद्रानकिं कृयुर्विषसामर्थ्यसूदनम् ।।७३॥ और बहुमाननीय आचार्य जैनेन्द्र व्या.यह श्री सोमदेव सूरिके यशस्तिलक करण तथा सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थोंके ग्रंथका पद्य है और उसके आठवे आश्वाकता हुए है। उनका दूसरा नाम 'देवसमें पाया जाता है। नन्दी' भी था; परन्तु देवनन्दी नामके भी अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शास्वतः । कितने ही प्राचार्योका पता चलता है * । नित्यं सन्निहितोमृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ९५ इससे पर्याय नामकी वजहसे यदि यह चाणक्यनीतिका श्लोक है। उनसे ही किसीका ग्रहण किया जाय तो ., टीका टिप्पणियों के श्लोक किस प्रका किसका ग्रहण किया जाय, यह कुछ रसे मृल ग्रन्थमे शामिल हो जाते हैं, इसका समझमें नहीं पाता । ग्रन्थके अन्तमें अभी विशेष परिचय पाठकोंको 'रत्न करंडक तक कोई प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हुई और न ग्रंथके शुरूमें किसी प्राचार्यका स्मरण श्रावकाचारकी जाँच' नामके लेख द्वारा किया गया है। श्राराकी एक प्रतिके अन्तमें कराया जायगा। समाप्तिसूचक जो वाक्य दिया है वह यहाँ तकके इस सब कथनसे यह इस प्रकार हैबात बिलकुल साफ हो जाती है कि छपी । हुई प्रतिको देखकर उसके पद्योंपर जो "इति श्रीवासुपूज्यपादाचार्थविरचित कुछ संदेह उत्पन्न हुआ था, वह अनुचित उपासकाचारः समाप्तः।" नहीं था बल्कि यथार्थ हीथा, और उसका इसमें पूज्यपादसे पहले 'वासु' शब्द निरसन प्राराकी प्रतियों परसे बहुत ---- कुछ हो जाता है। साथ ही, यह बात एक देवनंदी विनयचंद्रके शिष्य और " दिसंधान " ध्यानमें आ जाती है कि यह ग्रन्थ जिस की 'पदकौमुदी' टीकाके कर्ता नेमिचंद्रके गुरु थे, और एक-- देवनंदी आचार्य ब्रह्मलाज्यकके गुरु थे जिसके पढ़नेके लिये। रूपसे छपी हुई प्रतिमें तथा देहलीवाली संवत् १६२७ में 'जिनयज्ञकल्प' की वह प्रति लिखी गई प्रतिमें पाया जाता है, उस रूपमेवह पूज्य. थी जिसका उल्लेख सेठ माणिकचंद्रके 'प्रशस्ति संग्रह' पादका "उपासकाचार” नहीं है, बल्कि रजिष्टरमें पाया जाता है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक १२] पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच । ३६७ और जुड़ा हुआहै और उससे दो विकल्प सिद्धि, समाधितन्त्र और इष्टोपदेश उत्पन्न हो सकते हैं । एक तो यह कि वह नामक ग्रन्थोंके साहित्यके साथ मिलान प्रन्थ 'वासुपूज्य' नामके भाचार्यका करने पर इतना ज़रूर कह सकते हैं कि बनाया हुमा है और लेखकके किसी यह ग्रन्थ उक्त अन्धोके कर्ता श्रीपूज्यपादाअभ्यासकी वजहसे पूज्यपादका नाम चार्यका बनाया हुमा नहीं है। इन ग्रंथोंकी चित्त पर ज्यादा चढ़ा हुआतथा अभ्यास- लेखनी जिस प्रौढ़ताका लिये हुए है, में अधिक आया हुमा होने के कारण- विषय प्रतिपादनका इनमें जैसा कुछ ढंग 'पाद' शब्द उसके साथमें गलतीसे और है और जैसा कुछ इनका शब्दविन्यास पाया अधिक लिखा गया है। क्योंकि 'वासुपूज्य: जाता है, उसका इस ग्रन्थके साथ कोई नामके भी प्राचार्य हुए हैं-एक 'वासु. मेल नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में श्रावकधर्म पूज्य' श्रीधर प्राचार्य के शिष्य थे, जिनका काभी वर्णन है, परंतु वहाँ लक्षणादि रूपसे उल्लेख माघनन्दिश्रावकाचारकी प्रशस्ति. विषयके प्रतिपादनमें जैसी कुछ विशेषता में पाया जाता है। दूसरा विकल्प यह पाई जाती है, वह यहाँ दृष्टिगोचर नहीं हो सकता है कि यह प्रन्थ 'पूज्यपाद' होती। यदि यह ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धिके प्राचार्यका ही बनाया इभा है और कर्ताका ही बनाया हमा होता तो. कि उसके साथ में 'वास' शब्द. लेखकके वैसे यह श्रावक धर्मका एक स्वतंत्र ग्रन्थ था ही किसी अभ्यास के कारण, गलतीसे इसलिये, इसमें श्रावक धर्म सम्बन्धी जुड़ गया है। ज्यादातर ख़याल यही अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त उन सब वि. होता है कि यह पिछला विकल्प ही ठीक शेषताओका भी उल्लेख ज़रूर होना चाहिए है, क्योंकि पाराकी दूसरी प्रतिके अन्तमें था जो सर्वार्थसिद्धि में पाई जाती हैं। भी यही वाक्य दिया हुआ है और उसमें परंतु ऐसा नहीं है, बल्कि कितनी ही 'वासु' शब्द नहीं है। इसके सिवाय जगह कुछ कथन परस्पर विभिन्न भी छपी हुई प्रति और देहलीकी प्रतिमें भी पाया जाता है, जिसका एक नमूना नीचे बह ग्रंथ पूज्यपाद का ही बनाया हुआ दिया जाता हैलिखा है। साथ ही, 'दिगम्बर जैन ग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ' नामकी सूची में भी सर्वार्थसिद्धि में 'अनर्थ. दंडविरतिः पूज्यपादके नामके साथ एक श्रावकाचार नामके तीसरे गुणवतका स्वरूप इस ग्रंथका उल्लेख मिलता है। इन सब प्रकार दिया हैबातोसे यह तो पाया जाता है कि यह पूज्यपादाचार्यका बनाया हुआ है; परन्तु "असत्युपकारे पापादान हेतुरनर्थ दण्डः । . कौनसे 'पूज्यपाद' प्राचार्य का बनाया ततो विरतिरनर्थ दण्डविरतिः ॥ अनर्थ हुआ है, यह कुछ मालूम नहीं होता। दण्डः पंचविधः। अपध्यानं पापोपदेशः, प्रमा__ ऊपर जिस परिस्थितिका उल्लेख दचरितम् , हिंसाप्रदानम् , अशुभश्रुतिरिति । किया गया है, उसपरसे यद्यपि यह तत्र परेषां जयपराजयवध बन्धनाङ्गच्छेदकहना आसान नहीं है कि यह ग्रंथ अमुक परस्वहरणादिकथं स्यादिति मनसा चिन्तनपूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है, मपध्यानम् । तिर्यकक्लेशवाणिज्य प्राणिवधपरन्तु इस ग्रंथके साहित्यको सर्वार्थ- कारंभादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः । For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदन भूमिकुट्टन सलिलसेचनाद्यवद्यकार्य प्रमादाचरितं । विषकण्टकशास्त्राग्निरज्जुकशा दण्डादिहिंसोप करणप्रदानं हिंसाप्रदानंम् । हिंसा रागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवण शिक्षण व्यापृतिरशु भश्रुतिः ॥” जैनहितैषी । इस स्वरूपकथनमें अनर्थदंडविरतिका लक्षण, उसके पांच भेदोका नामनिर्देश और फिर प्रत्येक भेदका स्वरूप बहुत ही जँचे तुले शब्दों में बतलाया है । और यह सब कथन तत्वार्थ सूत्र के उस मूल सूत्र में नहीं है जिसकी व्याख्या में श्राचार्य महोदने यह सब कुछ लिखा है । इसलिये यह भी नहीं कहा जा सकता कि मूल ग्रन्थके अनुरोधसे उन्हें वहाँ पर ऐसा लिखना पड़ा है। वास्तवमें, उनके मतानुसार, और जैन सिद्धान्तका भी इस विषय में ऐसा ही आशय जान पड़ता है और उसको उन्होंने प्रदर्शित किया है। अब उपासकाचार में दिये हुए इस व्रत के स्वरूपको देखियेपाशमण्डलमार्जारविषयशस्त्रकृशानवः । पापं च मी देयास्तृतीयंस्याद्गुणव्रतम् १९ इसमें श्रनर्थदंडविरतिका सर्वार्थसिद्धिवाला लक्षण नहीं है और न उसके पाँच भेदोंका कोई उल्लेख है। बल्कि यहाँ इस व्रतका जो कुछ लक्षण अथवा स्वरूप बतलाया गया है वह अनर्थदंडके पाँच भेदों में से 'हिंसाप्रदान' नामके चौथे भेद की विरति से ही सम्बन्ध रखता है । इसलिये, सर्वार्थसिद्धिकी दृष्टिसे, यह लक्षण लक्ष्य के एक देशमें व्यापनेके कारण श्र व्याप्ति दोष से दूषित है, और कदापि सर्वार्थसिद्धि के कर्ताका नहीं हो सकता । इस प्रकार के विभिन्न कथनों से भी यह ग्रंथ सर्वार्थसिद्धिके कर्ता श्रीपूज्य पाद स्वामीका बनाया हुआ मालूम नहीं [ भाग १५ होता । तब यह ग्रंथ दूसरे कौन से पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है और कब बना है, यह बात अवश्य जानने के योग्य है, और इसके लिये विद्वानोंको कुछ विशेष अनुसंधान करना होगा । हमारे खयाल में यह ग्रंथ पं० श्राशाधर के बादका - १३वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ मालूम होता है। परंतु अभी हम इस बातको पूर्ण निश्चयके साथ कहने के लिये तय्यार नहीं हैं। विद्वानोंको चाहिए कि वे स्वयं इस विषयकी खोज करें, और इस बातको मालूम करें कि किन किन प्राचीन ग्रंथों में इस ग्रंथ के पद्योंका उल्लेख पाया जाता है | साथ ही उन्हें इस ग्रंथकी दूसरी प्राचीन प्रतिबोंकी भी खोज लगानी चाहिए। संभव है कि उनमें से किसी प्रतिमें इस ग्रंथकी प्रशस्ति उपलब्ध हो जाय । इस लेखपरसे पाठकोंको यह बतलाने की ज़रूरत नहीं है कि भंडारोंमें कितने ही ग्रंथ कैसी संदिग्धावस्था में मौजूद हैं, उनमें कितने अधिक क्षेपक शामिल हो गये हैं और वे मूल ग्रंथकर्ता - की कृतिको समझने में क्या कुछ भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसी हालत में, प्राचीन प्रतियों पर से ग्रंथोंकी जाँच करके उनका यथार्थ स्वरूप प्रगट करने की और उसके लिये एक जुदा ही विभाग स्थापित करने की कितनी अधिक ज़रूरत है, इसका अनुभव सहृदय पाठक स्वयं कर सकते हैं। प्राचीन प्रतियाँ दिनपर दिन नष्ट होती जाती हैं । उनसे शीघ्र स्थायी काम ले लेना चाहिए । नहीं तो उनके नष्ट हो जानेपर यथार्थ वस्तुस्थिति मालूम करनेमें फिर बड़ी कठिनता होगी और अनेक प्रकारकी दिक्कतें पैदा हो जायँगी । कमसे कम उन ख़ास ख़ास ग्रंथोंकी जाँच ज़रूर हो जानी For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] जैन-हितैषीपर विद्वानों के विचार। जैनहितैषी पर विद्वानों के चाहिए जो बड़े बड़े प्राचीन आचार्योंके legal practitioner has taken up बनाये हुए हैं अथवा ऐसे प्राचार्योंके the editorial responsibility, नामसे नामांकित हैं और इसलिये उनमें we are glad to say that the उसी नामके प्राचीन प्राचार्योके बनाये excellent style and solid worth हुए होनेका भ्रम उत्पन्न होता है। आशा है, of the journal has ever been हमारे दूरदर्शी भाई इस विषयकी उप- progressing onwards. It supplies योगितको समझकर उसपर ज़रूर ध्यान its. readers with 32 pages of देनेकी कृपा करेंगे। closely printed matter, containing good readable. stuff, and cause for further study and re flection on the subjects, dealt विचार । with, (गतांकले आगे) It is the only Jaip vernacular journal which deserves to be, १५-श्रीयुत बाबू अजितप्रसादजी and is, permanently preserved, एम० ए० एल० एल० बी० वकील, and contains valuable articles लखनऊ। [हालके अंगरेजी जैनगजटमें, दिग- . of perennial interest and subsम्बर जैन समाजके प्रायः १५ सामयिक _tantial worth. पत्रों पर आपने अपने जो विचार प्रगट अर्थात्-जैनहितैषी इस समय अपने किये हैं, उनमेंसे जैनहितैषीके सम्बन्धमें १५ वें वर्ष में है। यह हिन्दी में प्रत्युत्तम आपके विचार इस प्रकार हैं-] मासिक पत्र है, और जैन जाति इसका ____ THE JAIN HITAISHI.-This भले प्रकार अभिमान कर सकती है। इसे is in its 15th year. It is the पंडित नाथूरामजी प्रेमीने, जो कि शुद्ध best monthly conducted in धार्मिक ज्ञान और उदार विचारोंके धारक Hindi, and the Jain Community एक जैन विद्वान् हैं, इस उद्देश्यसे जारी may well be proud of it. It was किया था कि जैन धर्म, जैन सिद्धान्त started by Pandit Nathu Ram तथा जैन साहित्यके गुण-दोष-विवेचना. Premi, a Jain Scholar of sound त्मक और ऐतिहासिक दृष्टिको लिये हुए religious learning and wide अध्ययनको उत्तेजन दिया जाय; और views, with the object of promot- गत १५ वर्षों में यह अपनी उस नीतिका ing a critical and historical पालन करनेमें कृतार्थ हुआ है। पिछले study of Jain Religion, Philoso- कुछ वर्षोंसे पंडित जुगलकिशोरजीने, phy and literature, and during जो कि एक रिटायर्ड कानूनपेशा हैं, इस the last 15 years it has been पत्रके संपादनकाभार अपने ऊपर ले रक्खा • successful in maintaining its है, और हमें यह कहते हुए प्रसन्नता होती policy. For some years past, है कि इस पत्रकी अत्युत्तम लेखन-पद्धति Pandit Jugal Kishore, a retired और ठोस सारवत्ता [गरिमा ] दिनपर For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ दिन आगेकी ही ओर बढ़ती जा रही है। बड़ी योग्यतासे लिखा है।" इस वाक्य यह पत्र अपने पाठकोको घने छपे हुए पर विद्वान् सम्पादक महोदयोंने अपनी मैटरके ३२ पृष्ठ पहुँचाता है, जिनमें बहुत नीचे लिखी टिप्पणी प्रकाशित की हैकुछ पढ़ने योग्य मसाला होता है, और "प्रेमीजीके जैनहितैषीमें कई ऐतिहासिक विवेचित विषयोंके सम्बन्धमें आगेको लेख निरन्तर छपते रहते हैं जो जैन और अधिक अध्ययन तथा विचारको प्राचार्यों, इतिहास और साहित्य पर अवसर देता है। - सच्चा प्रकाश डालते हैं। धार्मिक दुरामातृभाषाका सिर्फ यही एक जैनपत्र ग्रहके कारण कुछ जैन उन लेखोंकी कद्र है जो स्थायी रूपसे सुरक्षित रक्खे जानेके भले ही न करें, किंतु वे सत्य ऐतिहासिक योग्य है और रक्खा जाता है, और जिसमें खोज और पक्षपात रहित विवेचनसे पूर्ण नित्य काममें आनेवाले तथा सारगर्भित होते हैं । हिन्दी साहित्यके लिये वे गौरव बहुमूल्य लेख रहते हैं। की वस्तु हैं।" १६-श्रीयुत रायबहादुर पं. गौरी- १७-श्रीयुत एन. श्रीवर्मा जैनी, शंकरजी मोझा और पं०चंद्रधर. अध्यापक 'दि. जैन वाणीविलास पाठशर्मा गुलेरी । शाला' निल्लीकारपेट-कारकल । नागरी प्रचारिणी पत्रिका नवीन ता० ३०-१०-१९२१ संस्करण भाग २ अंक २ । आजकल "..... जैनहितैषी जैन समाजका इस पत्रिकाके सम्पादक सुप्रसिद्ध इति- बहुत उपकार कर रहा है ।....."सभ्य हासा राय बहादुर पं० गौरी शंकर संसारमें 'जैनहितैषी' आदरणीय है और हीराचन्द मोझा और पं. चन्द्रधर शर्मा गौरव दृष्टिसे देखते हैं। गुलेरी, बी० ए० हैं । इस अंकमें कलकत्ते . मैंने हितैषीले कंछुका, मधुकरी और के बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर एम० ए०, बी० जैनोका अत्याचार इत्यादि लेखों (का) एल० का 'प्राचीन जैनहिन्दी साहित्यः कर्णाटक भाषाकू अनुवाद कर जिनविशीर्षक लेख प्रकाशित भा है। यह लेख जय, तिलकसंदेश और कंठोरव इत्यादि कलकत्तेके गत हिन्दी साहित्य सम्मेलनके पत्रों में प्रकट किया है। मेरा विश्वास अवसर पर पढ़ा गया था और उसमें है कि जैन हिन्दी पत्रों में उच्च कोटिका जैन साहित्य पर बहुत कुछ नया प्रकाश पत्र है तो वही जैनहितैषी एक है।" डाला गया है। लेख के दूसरे पैरेमें कहा गया है-"हिन्दी साहित्य सम्मेलनके सत्याग्रह करना पड़ेगा। सप्तम अधिवेशन पर 'जैनहितैषी' के मुयोग्य सम्पादक, सुप्रसिद्ध लेखक और भारतवर्षीय दि. जैन महासभा भारतऐतिहासिक विद्वान् पं० नाथूरामजी प्रेमी वर्षके सर्व दि. जैनियोंकी उसी प्रकार ने 'हिन्दी जैनसाहित्यका इतिहास' नामक उत्तरदायित्वपूर्ण सभा है जिस प्रकार एक गवेषणापूर्ण लेख लिखा है। उस भारतके निवासियोंकी अखिल भारतनिबन्धसे मुझे बहुत कुछ सहायता मिली वर्षीय जातीय कांग्रेस; और दूसरी जाहै। उन्होंने जैनभाषा साहित्यका प्राचीन तियों के सामने जैन जातिकी अवस्थाको कालसे वर्तमान समय तकका इतिहास प्रकाशित करने के लिये महासभा एक For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] सत्याग्रह करना पड़ेगा। ३७१ दर्पण के समान है, जैसा कि एक जिम्मे- की जा सके, दूसरे शक्तियोंका तिरत वार सभाको होना ही चाहिए ! परन्तु , बितर हो जाना इतना अच्छा नहीं जितना मुझे अत्यन्त शोकके साथ प्रगट करना सब शक्तियों का मिलकर काम करना पडता है कि उसके वर्तमान अधिकारियों-' अच्छा होता है। यदि आज समाजकी ने अपनी इस जिम्मेवारीको नहीं समझा सवे संस्थाएँ जैसे महाविद्यालय काशी और महासभाकी अवस्था प्रान्तिक व मथुरा, · ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर, सभा जैसी भी नहीं रहने दी, किन्तु स्याद्वाद पाठशाला मोरेना, अनाथाश्रम समाजकी दृष्टिमें वह केवल कुछ बड़े देहली व बड़नगर, जैन औषधालय बड़मनुष्यों की प्रदर्शनी मात्र रह गई है, नगर व अन्य सब छोटी छोटी संस्थाएँ, और जिसका परिणाम भी वही निकला महालभाको इस योग्य बनाकर कि वह जोकि निकलना चाहिए था। अर्थात स. सबको अपनी संरक्षतरमें रख सके, संरमाजने उससे इस कदर उदासीनता ग्रहण क्षतामे होती तो समाजको निम्नलिखित कर ली है मानों उसके प्रति कोई महासभा चार बातोंका लाभ होताहै ही नहीं, और इसी कारण महासभाके १-थोड़े नेताभोसे सबका काम जितने छोटे बड़े प्रस्ताव होते हैं वे सब चलता रहता बल्कि दो चार आवश्यकीय, हास्यकारक, भहे और एक दूसरेके वि. संस्थाएँ और बढ़ सकती। रोधी होते हैं। महासभाके प्रचार कार्यमें २-समाजको बहुत थोड़ा रुपमा समाजका किराना लम्बा हाथ है, इसका देना पड़ता और कार्यकर्ताओको रुपये. अनुमान इसीसे हो सकता है कि एक का- की चिन्तामें अपना सारा अमूल्य समब, र्यको महासभा अपने हाथमे लेती है और जो संस्थाकी दूसरी आवश्यकतामोको समाज उसपर ध्यान भी नहीं देता । सहा- पूरा करने में व्यय करना चाहिए था,यय यताका तो प्रश्न ही क्या? उसी कामको न करना पड़ता। एक व्यक्ति अपने हाथमे लेता है; समाज ३-महासभाकी योग्यता और प्रबंध. चिल्ला उठता है-यह अत्यावश्यक कार्य है, को देखकर समाज अपने ऊपर एकप्रकारशीघ्र करो, मैं तुम्हारे साथ हूँ, चाहिए सो का कर लगाने देती जो वार्षिक रूपमें सहायता लो। उदाहरण के लिये जीती पञ्चों द्वारा महासभामें पहुँचता रहता जागती मिसाल उपस्थित है-महासभा- और जिससे तमाम संस्थाएँ चलती के जीवदया विभागके बेचारे मंत्री महो- रहतीं और जो समाजके लिये उस रुपयेदय सदा अधिवेशनों में चिल्लाया करते हैं, से कम होता जो आये दिन चन्दोंकी किन्तु एक पाई चन्दानहीं मिलता। उसी सूरत में उसे देना पड़ रहा है और सं. कामको ब. झानानंदजीने अपने हाथमें स्थाओंके लिये उससे विशेष जो रुपया लिया, घरका प्रेस खोल लिया, एक जमा करनेका अधिक व्यय काटकर उसे समाचार पत्र जारी कर दिया और बच रहता है। जनताने खूब कदर की। किन्तु यह एक ४-आज कल जोज़रा जरासे धक्केसे निश्चित विषय है कि प्रथम तो समाज- संस्थाएँ पट हो जाती हैं, इस प्रकार समामें अभी इस कदर नेता नहीं कि जका रुपवा और कार्यकर्तामोका परिश्रम ऋोक भाषश्यकता व्यक्तिगत २ पूर्ण बर्थ न जाता। For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैनहितैषी। [भाग १५ अतएव ऐसी हालतमें जब कि महा- उतना ही अधिकार होना चाहिए जितना सभा समाजके लिये कोई लाभदायक सभा अनुमोदकको। सिद्ध नहीं हुई,दो ही सूरतें हो सकती हैं। २-विषय निर्धारिणी सभाके सभाप्रथम उसकाबायकाट कर दिया जाय और 'सद चुने जायँ नकि नामजद किये जायें। एक दूसरी महासभा या किसी दूसरे अतएव मैं घोषणा कर देना चाहता नामसे कोई सभा स्थापित की जाय जो हूँ कि यदि महालभाने इस साल लखसमाजके लिये लाभदायक सिद्ध हो। नऊमें या आगामी कभी भी अपनी पुरानी किन्तु इस सूरतमें थोकबन्दी होगी और चाल, जो जाति और स्वयं महासभाके एक दूसरेको एक दूसरेकी बुराईसे ही लिये हानिकर सिद्ध हुई है, न छोड़ी और • अवकाश न मिलेगा, और रुपया भी खर्च समाजके रुपये और उसकी इज्जतको होगा। एक समाचार पत्र निकालना ठुकरानेका उद्योग किया तो मैं अपनी पड़ेगा। इस तरहपर समाजको लाभ पहुँ. शक्तिभर समाजको तैयार करूँगा कि चानेकी जगह उसके सिरपर एक नई वह सत्याग्रह करे और कार्यकर्ताओको बला उपस्थित हो जावगी। दूसरी सूरत अपने बेहूदा उद्देश्यमें सफल न होने दे। . यह है कि महासभाको ही उसकी अनु सत्याग्रहकी सूरत । चित कार्यवाहीसे रोका जाय और उसके इस सत्याग्रहकी ये सूरतें होंगीःलिये सत्याग्रहकी नीति ही सर्वथा भय -यदि सभापतिका चुनाव समाजतथा हानिले रहित और पूर्ण सफलताका । की कसरत रायके विपरीत किया गया, कारण सिद्ध हो सकती है। जैसा कि काग़ज़ात देखनेसे जान पड़ेगा, - प्रत्येक सभाको समाजके सन्मुख तो सभापति चाहे जितने प्रतिष्ठित और विासपात्र बनने के लिये निम्नलिखित मान्य क्यों न हो, सत्याग्रहियोंमेंसे एक बातोंका भ्यान रखना आवश्यक है- केवल इस बिना (आधार ). पर उनका १-सभापति वही चुना जाय जिसे विरोध करेगा कि यह महोदय जातिसे समाजने अपनी कसरत रायसे चुना हो। चुने हुए नहीं हैं और सर्व सत्याग्रही ___ (क) प्रस्तावोंकी एक सूची बनाकर इसका अनुमोदन करेंगे। समाचार पत्रों में प्रकाशित करा दी जाय २-यदि प्रस्तावोंकी सूची समाचारऔर उसपर नोट दे दिया जाय कि अमुक पत्रों द्वारा या कमसे कम जैनगज़ट द्वारा २ प्रस्ताव पेश किये जायँगे और पेश न प्रकाशित न की गई या विरोधीको बोलने किये जानेवालों पर अस्वीकृतिके कारण न दिया गया तो सत्याग्रहियों में से एक का नोट दे दिया जाय। प्रत्येक प्रस्तावका विरोध इस आधार (ख) प्रस्तावको पढ़ने (यदि प्रस्तावक पर करेगा कि यह बिल्कुल असम्भव है ने किसी अन्यको अधिकार न दिया हो), कि ऐसे महत्त्वके विषय पर बिना रचित वापिस लेने या न लेने, कोई तरमीम विचारके कोई सम्मति तुरन्त दी जा सके अपनी मोरसे करने या न करनेका अधि. और सर्व सत्याग्रही इसकी अनुमोदना कार प्रस्तावकको होना चाहिए । '(ग) विरोधीको विषय निर्धारिणी ३-यदि विषय निर्धारिणी सभाके सभा और जनरल सभामें बोलनेका सभासद नामजद किये गये तो सर्व For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ अङ्क १२] . वह सभा या महासभाकी भी हँसी कराता है। कार्यवाहीको अनियमित कहकर उसका वह सभा या महासभाकी विरोध किया जायगा और सर्व सत्याग्रही इसकी अनुमोदना करेंगे। भी हँसी कराता है। प्रार्थना। . महासभाके कानपुरी अधिवेशनमें अब मैं जातिले प्रार्थना करना चाहता जिन लोगोंकी अंधाधुंधी अधिक न चल हूँ कि यदि उसे पहिली सूरतसे दूसरी यह सकनेकी वजहसे उनके मनकी मुरादें सत्याग्रहकी सूरत पसन्द है तो उसे पूरी नहीं हो सकी थीं उन्होंने उसके चंद सत्याग्रह करने के लिये तरन्त तैयार हो रोज बाद ही उडेसरमें, बिना किसी माकल जाना चाहिए । इसमें न खर्चका प्रश्न न वजहके, नैमित्तिक अधिवेशन करके, डरका, केवल जबान हिला देनेका प्रश्न है। अपने दिली फफीलोको फोड़ने और चित्तको ठंडा करने के लिये कुछ खास परिणाम क्या होगा। प्रस्ताव पास किये थे, जिनमेंसे एक प्रस्ताव सत्याग्रह करने के दो ही परिणाम हो इस प्रकार है-... सकते हैं। प्रथम-अधिकारीवर्गका दिमाग "बाबू सूरजभानुजी वकील देवबंद, ठिकाने आ जायगा और कार्यवाही उचित पं० अर्जुनलालजी सेठी जयपुर और बाबू होगी जो जाति और स्वयं महासभाके भगवानदीनजी ये तीनों महाशय जैनियोंलिये लाभदायक सिद्ध होगी। में दिगम्बर जैनग्रन्थों पर उनको बिना दूसरा-अधिकारी भी अपने हठ समझे झूठा आक्षेप करते हैं और दि. पर डटा रहे और उसके प्रस्ताव फेल आचार्योको अपशब्द कहने में भी नहीं हो रहे हैं, इसकी वह परवाह न करें और चूकते और धर्म-विरुद्ध बातोंका प्रचार ऐसा करके वह लखनऊवाले अधिवेशन- करनेमें रात्रि दिन दत्तवित्त रहते हैं, को असफल बनावें। समाजको भ्रष्ट करनेका पूर्ण उद्योग कर ___ यदि परिणाम पहिला निकला तो यह रहे हैं। यदि उनसे जवाब मांगा जाता जाति और महासभाके लिये अहोभाग्य है तो जवाब न देकर और शास्त्रार्थ न होगा और यदि परिणाम दसरा निकला करके अपनी मनमानी लेखनी द्वारा मठा तो सत्याग्रही लोग समाजसे चन्दान देने कलंक जैनधर्म व शास्त्रों पर तथा प्राचाके लिये कहेंगे। उल हालतमें भी सत्या यौपर लगाते हैं। अतएव महासभा प्रस्ताव. प्रहियोंकी जीत होगी क्योंकि अधिकारि. करती है कि ऐसे व्यक्तियोंको दिगम्बर वर्ग कबतक ऐसा करेंगे। अन्तमें एक दिन जैन धर्मावलम्बी न समझ जाय ?" * वह होगा कि इन लोगों को बुरी तरहसे यह प्रस्ताव कितना बेहूदा, निःसार, जातिके भागे सिर झुकाना होगा। आपत्तिजनक और नासमझीका परिणाम ___समाजसेवक है, इसपर एक लम्बा चौड़ा लेख लिखा श्यामसुन्दर लाल जैनी बजाज, जा सकता है। परन्तु उसके लिखनेका मेरठ सदर। इस समय अवसर न होनेसे हम यहाँ पर, अपने पाठकोंके सामने, बाबू ऋषभदास देखो खं० जैन हितेचा अंकः । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३७४ - जैनहितैषी। [ भाग १५ जी वकील मेरठके उन विचारोंको रखते मैं नहीं समझता कि समाजमें एक हाय हैं जो उन्होंने, संभवतः इली प्रस्ताव और हुल्ला मचा देनेसे, 'धर्म चला,धर्म चला' की उसकी जन्मदात्री तथा पोषक चित्त- मावाज़ लगा देने से, किसीको अधर्मी, वृत्तियोंको लक्ष्यमें रखते हुए, एक उर्दू अश्रद्धानी और मिथ्याती कह देनेसे क्या लेखमें प्रगट किये हैं और यह दिखलाया फायदा हो सकता है। अगर कोई शख्स है कि जो मनुष्य किसी सभा या महा- धर्म शास्त्रके विरुद्ध कोई बात का सभासे ऐसा प्रस्ताव पास कराता है वह तो मेरे खयाल में उस शख्सपर वास्तवमें उस सभा या महासभाकी भी किसी किसमका जाती हमला (व्यक्तिगत सभ्य संसारमें हँसी कराता है, क्योंकि आक्षेप किये, बिना उसको गाली गलौज इस प्रकार की बातोसे किसी सभा या दिये, और बिना अपने दिल में उसकी सोसायटीका कोई सम्बन्ध नहीं है और तरफसे द्वेष लाये शांतिके साथ सिर्फ न ऐसा ठहराव करने तथा विज्ञप्ति निका- उस बातका पूरे तौर पर जवाब दे लनेका उसे कोई अधिकार ही हो सकता देनेसे जो अच्छा असर होता है, वह है। वे विचार इस प्रकार हैं-"आजकल व्यक्तिगत आक्षेप करने और गाली यानी पाँच चार सालसे केवल दिगम्बरा- गलौज देनेसे कदापि नहीं होता। नायमें कुछ ऐसी हलचल मची है और कहा जाता है कि हमको ऐसे लोगोंसे द्वेषकी भाग फैली है कि जिसका बयान कोई जाती (निजी या व्यक्तिगत) द्वेष नहीं; नहीं हो सकता। अब अक्सर जैन अस्त्रबार मगर चूँकि वे धर्मशास्त्रके विरुद्ध लिखते एक दूसरेके खंडन, एक दूसरेकी बुराई हैं, बस यही हमारी उनसे लड़ाई है। परंतु भलाई और गाली गलौजसे ही भरे रहते जब कभी उन्होंने कोई बात धर्मके विरुद्ध हैं। कुछ अर्सा हुश्रा, चन्द भाइयोंने बाज लिखी और फिर कभी कोई बात बहुत बाज़ जैन शास्त्रों और खासकर कथा प्रच्छी धर्मके अनुकूल लिखी और आप ग्रन्थों पर नुक्ताचीनी ( आलोचना) की उनकी इस दूसरी बातको भी कदरन करें, थी। जिन शब्दों में और जिस ढङ्गसे और यह सिर्फ इस स्त्रयालसे कि यह उन्होंने वह नुक्ताचीनी की थी वह बात उनके कलमसे निकली है, उस बातनिःसन्देह अनुचित, अयोग्य, अलाभकारी को भी बुरा कहे बल्कि इस दूसरी बातकी और आपत्तिजनक है। उन लोगोंका अपने प्रशंसा करनेवालोको भो बुरा कहने लगे कुछ लेखों में स्वर्ग और नरक वगैरह तो क्या आपका उनसे द्वेष जाहिर नहीं होता पदार्थोके अस्तित्वको (जो इन्द्रियवानले है ? * जरूर होता है और फिर होता है। बाहर हैं ) न मानना भी गलत है । मैं भी आप द्वेष कीजिये सिर्फ उस बातसे जो इस किसमके लेखोंको हर्गिज़ पसंद नहीं •पाबू सूरजभानजीका एक लेख 'जैनधर्मका महत्व' करता। परन्तु साथ ही इसके जिस ढङ्गसे नामका जैनहितैषीमें प्रकाशित हुआ था। यह लेख इन लेखोका विरोध किया गया या किया ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीको बहुत पसंद आया और इसकोभी पसन्द नहीं करता। उन्होंने इसकी प्रशंसा करते हुए उसे अपने पत्र 'जैनमित्र' में उद्धृत किया था। इस पर कितने ही पंडित लोग • यह लेख जैन प्रदीपके गतांक नं. ६-१० में ब्रह्मचारी जीसे भी बिगड़ गये थे और उन्हें बुरा भला 'इन्सानी फरायज' (मानवी कर्तव्य) के नामसे प्रकाशित कहने लगे थे। ऐसे कितने ही उदाहरण दिये जा सकते संपादक। जा For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह सभा या महासभाकी भो हँसी कराता है अङ्क १२ ] किसीने धर्मशास्त्र के विरुद्ध कही हो या लिखी हो, उनकी जात (व्यक्तित्व) से या उनकी और अच्छी तथा धर्मानुसार बाता से द्वेष न कीजिये । अगर श्राप धर्मके विरुद्ध कहनेवालेकी जात और उसकी अच्छी धर्मानुसार बातोंसे भी द्वेष करेंगे तो इसका नतीजा यह होगा कि न तो आप उसको ही सच्चे मार्ग पर ला सकेंगे और न आपके कहने तथा लिखने का दुनिया में ही कुछ महत्व प्रगट होगा । अगर कोई शख्स अपने आपको जैनी कहता है या जैनधर्म को सब धर्मोसे उत्तम मानता है, निहायत नेकचलन ( अत्यंत सदाचारी ), सादा मिजाज और सच्चा है, लेकिन जैनधर्मकी किसी किली बातमें वह शास्त्र के विरुद्ध भी कहता है, तो मैं नहीं समझता कि किसी को क्या हक है कि जो उसको यह कहने लगे कि 'तू जैनी नहीं है, अधर्मी है, अश्रद्धानी है और मिथ्याती है', या अपनी किसी सभा अथवा महासभासे यह बात पास कराये कि कोई शख्स अमुक व्यक्ति को दिगम्बर जैनी न समझे ? यदि कोई ऐसा करता है तो वह वास्तव में उस सभा या महासभाका भी सभ्य संसार में मज़ाक (हास्य) कराता है । क्योंकि सामाजिक कार्यों यथा विवाहशादी वगैरह के मामलोंमें तो पंचायत, सभा या महासभा को ऐसा अधिकार हो सकता है, लेकिन मत तथा धर्म या किलीको दिगम्बर जैन समझने या न समझनेका सम्बन्ध श्रान्तरिक श्रद्धानसे है । किसी व्यक्ति, पंचायत या सभा आदिके हुकुमसे आप किसीका 'श्रद्धान नहीं बदल सकते। यह दूसरी बात है कि जबरदस्ती और हुकूमत से कोई अपना धर्म तथा श्रद्धान जाहिरदारीमें बदल दे, परन्तु अंतरंग में कोई भी जबर ३७५ दस्तीके साथ नहीं बदल सकता। इसलिये धर्म और श्रद्धा के मामलोंमें हुकूमत व जबरदस्ती चलाना दूसरोंको मक्कारी (दाम्भिकता) और दगाबाज़ी (माबाचारी) सिखलाना है । 1 दूसरे मतवालोंको देखिये कि वे अपना मत बढ़ाने की हर तरहसे कोशिश करते हैं । यदि कोई जरा भी उनके मतकी ओर ध्यान देता है तो वे उसकी और हिम्मत बढ़ाते हैं । यदि उनके मतका कोई आदमी उनके मतकी किसी बातसे विरुद्ध सम्मति रखता है तो वे उसको अपने मतले निकालने की फ़िकर नहीं करते, उसको अधर्मी या मंश्रद्धानी नहीं कहते, बल्कि युक्तियुक्त हेतुओंसे उसका वह धार्मिक दोष दूर करने की कोशिश करते हैं । उसको बुरा भला कहकर वा गाली गलौज देकर अथवा उसका अपमान करके उसको उस दोषमें और अधिक दृढ़ नहीं करते, न अपनी किसी सभासोसायटीसे इस बातकी विशप्ति कराते हैं कि कोई उसको उस धर्मका माननेवाला न समझे; क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकारकी बातों से किसी सभा या सोसायटीका कोई सम्बंध नहीं है, और न कोई सोसायटी इस प्रकारकी विशप्ति कर सकती है। धर्म तथा श्रद्धान ऐसी चीजें हैं कि उनकी बाबत किसी प्रकारकी विशप्ति या ठहराव पंचायत और सभा तो क्या, कोई गवर्नमेंट या बादशाह भी नहीं कर सकता । धर्म या श्रद्धाकी बाबत विशप्ति तो युक्तियुक्त हेतुओंसे समझा हुआ सच्चा हृदय ही कर सकता है। अफसोस है कि जैनसमाज नहीं देखती कि इस वक्त संसार में क्या हो रहा है, जमाना किस रंग पर है। श्राजकल तमाम लोग देशोन्नति, समाजोन्नति और धर्मोन्नतिमें For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ लगे हुए हैं। लेकिन हमारी समाजके लोग करुणे । । ज़रा ज़रासी बातों पर आपसमें एक __(ले०-श्रीयुत भगवन्त गणपतिजी, गोयलीय।) दूसरेसे लड़ते और गालीगलौज करते हमने जवसे तुम्हें भुलाया, • रहते हैं, जिससे समाज में एक जबरदस्त अथवा तुमने हमें भुलाया; नाइत्तफ़ाकी (प्रबल अनैक्य ) फैली हुई तबसे सच कहते हैं, देवी ! पल भर मिलीन शान्ति। है और दिन प्रति दिन फैलती जाती है, बड़ी बड़ी भी की चेष्टाएँ, कि जो समाज और धर्मकी उन्नतिमें शान्ति-हेतु भोगी विपदाएँ; बाधक हो रही है। अगर हम जैनधर्मको तो भी होती रही हृदयमें, अशान्तिकारी क्रान्ति ॥ सच्चा और हितकारी धर्म समझते हैं तो - कहाँ हृदयका सरस भाव है ? इससे हम जितने जीवों को भी और जिस कहाँ सुकोमल वह स्वभाव है ? कदर भी लाभ पहुँचा सके, पहुँचाना स्वतंत्रता है कहाँ, कहाँ है निर्भयताका कोट ? चाहिए। यह नहीं कि, यदि कोई शख्स अब तो सपने सभी हो गये। जैनधर्मकी कुछ बातोंको मानता है और धैर्य शांति-सुख सभी खो गये; ,.. कुछको नहीं मानता है या कुछका विरोध खोएँ क्यों न हो रही अदया जव कि धर्मकी श्रोट ! करता है तो उसको बुरा भला कहकर तब था मूल्य न तनिक तुम्हारा, या गालीगलौज देकर बिलकुल ही अजैन . अब तुमही बस एक सहारा; बना। हमको तो अपने धर्मके बढ़ानेकी देख लिया हमने अदयाका तत्व अंतमें नाश । कोशिश करनी चाहिए न कि कम करनेको। देवी इस हिंसालु हृदयको, अगर वह कुछ भी इस वक्त जैनधर्मको द्वेष आदिके दोष-निचयको; मानता रहेगा तो यह मुमकिन हो सकता कर सकती हो चरण-धूल से पूत करो श्रावास ॥ है कि वह आगेको इस जन्ममें या अगले बड़े विकल हैं शानो श्रानो, जन्ममें पूरे पूरे तौरसे जैनधर्मको ग्रहण करुणा हो मत घृणा दिखाओ कर ले। लेकिन अगर हम इस वक्त उसको क्षमा करो अपराध पुराने कर करुणाकी कोर । गालीगलौज देकर,अधर्मी और श्रद्धानी मेरी ही छाया डरवानी, कहकर अपने धर्मसे निकालते हैं तो पवन भयानक.संदेश लानी; इसके ये अर्थ है कि हम उसको अपनी प्रकृति मृत्युके साज सजाती दौड़ो मेरी ओर ॥ अशुभ परिणतिको काममें लाकर जैनधर्मसे हटाते हैं। अतः जैन समाजमें हर एक व्यक्तिका यह कर्तव्य होना चाहिए कि वीरपुष्पांजलि पर लोकमत। वह अशुभ परिणतिसे बचे और लमा- 'वीर पुष्पांजलि' नामकी जो पुस्तक जमें ऐसे कारणों तथा साधनों को पैदा न अभी हाल में प्रकाशित हुई है उसपर लोकहोने दे कि जिनसे अपनी और दूसरोकी मत क्या है, यह जानने के लिये जनताके अशुभ परिणति होती हो।" कुछ विचार नीचे प्रकाशित किये जाते हैं -श्रीयुत पं० भगवन्त गणपति जी गोइलीय (कवि) बम्बई। ..."थोड़े शब्दोंमें सुन्दरतापूर्वक इतने ऊँचे भावोंको गँथनेवाली और साथ ही छन्द तथा काव्यशास्त्र की रक्षा For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आपका कविता चितोडा अङ्क १२ ] . वीरपुष्पांजलि पर लोकमत। .. ३७७ करनेवाली आपकी कविताएँ मुझे तो बड़ी ही पसंद. ७-श्रीयुत डाकृर चम्पतरायजी जैन, आई। मेरी रायसे तो उसकी (वीर पुष्पांजलिकी) अधिकांश डेण्टल सर्जन, चांदनी चौक देहली। कविताएँ न केवल विद्यार्थियोंके किन्तु प्रौढ़ और वृद्ध , सभीके कण्ठ करने योग्य हैं।" ___ "किताब निहायत ही उमदा (प्रत्युत्तम ) है। इससे पहले आपकी बनाई हुई पुस्तक 'मेरी भावना' भी मेरे पास - २-श्रीयत सरदार भंवरलालजी, मौजद है। मैं करीब करीब रोज ही उसका पाठ करता यदुवंशी भाटी, इंद्राश्रम-रतालम। . . रहता हूँ। मैं जिस वक्त उसका पाठ करता हूँ, मेरा तो "...पठन कर चित्त अति प्रसन्न हुआ। छपाई सफाई रोम रोम खड़ा हो जाता है, और श्री जीसे प्रार्थना है कि भी मनमोहक है। पुस्तकके १४ हो पुष्प उत्तम भाव आप एक बड़ी उम्र पाएँ ताकि हम भी अपनी जिन्दगीमें सुगंधिसे भरे हुए हैं। इनमें खासकर विधवा सम्बोधन. आपकी कुछ और कविताएँ देख सके।" अजसम्बोधन और मेरो भावना यह तीन तो हमको -श्रीयुत बाबू अजित प्रसादजी इतने अच्छे मालूम हुए कि इनकी प्रशंसामें जो कुछ वकी लिखा जाय, थोड़ा है। आपकी इस उपकारक रचनाके लिये आपको हृदयसे धन्यवाद देता हूँ।" (पुस्तकको पढ़ते समय पुस्तकके प्रका३-श्रीयुत राजवैद्य शीतलप्रसाद से आपका चित्त भर आया और आप उसी शक कुमारदेवेन्द्र प्रसादजीकी स्मृति हो आनेजी, चाँदनी चौकदेहली। अवस्थामें लिखते हैं-) . ___ "पुस्तकके नाम ( वीर पुष्पांजलि ) और उसके ".."महाबीरकी वाणी' पढ़कर चित्त कुछ ठिकाने सुन्दर स्वरूपको देखकर बड़ा आनंद आया। पुस्तकके सब लगा। 'समाज सम्बोधन' और 'विधवा सम्बोधन' सच्चे । विषय बड़े चित्तग्राही और मनोरम्य हैं। आपकी कविता चित्तोद्गारसे भरे हुए वचनोंकी लड़ियाँ हैं। निस्संदेह यह बड़ी रसवती है-ऐसी ललित . और अर्थ गौरवपूर्ण - सहानुभूतिके मनसे निकले हुए वाक्य अपना असर किये कविताको पढ़कर चित्तको जो प्रसन्नता हुई, उसे प्रकाश बिना नहीं रहेंगे। आवश्यकता यह है कि यह पुष्पांजलि करनेकी मेरेमें योग्यता नहीं है। आपका गद्य तो भोजस्वी प्रत्येक जैन प्रजैन स्त्री पुरुष सबकी भेट की जाय। होता ही है-कविता उससे भी कहीं अधिक प्रशंसनीय और सब लोग मिलकर, वा एकान्तमें, इसका पाठ करें, है। इसके लिये आपको धन्यवाद देता हूँ। मनन करें और फिर देखें कि इन मंत्रोंसे कितनी सामागतम जिक और धार्मिक ऋद्धियाँ सिद्ध होती है ।.."इसकी पूर्व संपादक: कालिन्दी पत्रिका, राम सूरत और सीरत, रूप और गुणकी प्रशंसा जितनी करें, नगर, बनारस स्टेट। थोड़ी है।......, ___ "इस छोटीसी पुस्तिकामें अलौकिक प्रतिभाका प्रकाश -श्रीयुत बाबू चेदनदासजी बी०ए०, है। निस्सन्देह पुष्पाञ्जलिसे शान्ति मिलती है। आपकी हेडमास्टर, मथुरा। श्रीकविताने 'श्रीवीर पुष्पाञ्जलि' के द्वारा अपना जन्म "पापकी कविताएँ पहुँची। वे बहुत ही अच्छी हैं। सार्थक किया । इस परिश्रम के लिये धन्यवाद है।" अन्तको (मेरी भावना) अत्यन्त लाभदायक है। यदि ऐसी ही कवितामें छहटाला और दोचार बीनती दर्शन लिख ५-श्रीयुत साहु जुगमन्दर दासजी दिये जायँ तो बड़ा उपकार हो।" जैन र्रास व आनरेरी मजिस्ट्रेट, द्र, १०-श्रीयुत ला० दलीपसिंहजी नजीबाबाद । कागजी, देहली। "पुस्तक बहुत अच्छी है और सुन्दर छपी है।" - "वीर पुष्पांजलिमें आपकी कविताएँ पढ़कर बहुत ही ६-श्रीयुत मुनि पुण्य विजयजी, आनंद हुआ । वकै ( वास्तव) में आपकी कविता भावः । भावनगर। पूर्ण और ओजस्विनी होती है। मैं आपको हृदयसे धन्य"आपकी भेजी दिव्य कवितामय उपहार पुस्तिका मिली । कुछ पढ़ी है, अवशिष्ट पढूंगा। पढ़कर जो आनंद ११-श्रीयुत महेन्द्रजी, सम्पादक मिला है उसके लिये आपका कृतज्ञ हूँ।" गरा। बड़ी रसवती है For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहब की रचनाएँ कितनी उत्कृष्ट और हृदयस्पर्शी होती हैं-यह बात वे सब लोग जानते होंगे जिन्होंने आपकी बनाई 'मेरी भावना' को एक बार भी पढ़ा होगा । इसके अबतक संभवतः १५-२० संस्करण हो चुके होंगे। उन्हीं की संपूर्ण कविताओं का संग्रह-सो भी, प्रेम मन्दिर द्वारा प्रकाशित सब प्रकार से सहृदय पाठकों द्वारा ग्राह्य है। - जैसवाल जैन ४-७ । १२ - भीयुत ब्रह्मचारी ज्ञानानंदजी, सम्पादक "अहिंसा" बनारस । जैनहितैषी । ..... प्रत्येक कविता बहुत ही मनोरंजक और हृदयग्राही है। कविताएँ नाना छन्दोंमें संकलित की गई हैं ।" अहिंसा १३२ । लालजी, १३- श्रीयुत वैद्य शंकर संपादक 'वैद्य' मुरादाबाद । “यह कविताओंकी एक छोटीसी पुस्तक है। इसमें कई महत्वपूर्ण विषयों पर अच्छी २ कविताएँ लिखो गई । श्रजसम्बोधन ( वध्यभूमिको जाता हुआ बकरा ), मेरी भावना, विधवा सम्बोधन आदि कविताएँ बहुत ही भावपूर्ण और हृदयग्राहिणी हुई हैं। इसके लेखक जैनसमाजके उज्वल रन श्रीयुत पं० जुगल किशोरजी मुख्तार हैं। छपाई सफाई, अत्युत्तम ।' - वैद्य ६-८ । १४ - श्रीयुत स्व० कुमार देवेन्द्रप्रसाद जी जैन, धारा । [ आपकी 'प्रेमोपहार' नामकी जो प्रस्तावना पुस्तक के शुरू में लगी हुई है उसका एक अंश इस प्रकार है -] ? " हमारे हृदय में इस संग्रहकी कविताओंसे बढ़े ही शुद्ध तथा पुष्ट भाव संचित हुए हैं और हमारा यह दृढ़ विश्वास के अध्ययन तथा मनन से सभी प्रेमी जन संतुष्ट होंगे और लाभ उठाएँगे ।" स्त्री-शिक्षा और स्वाधीनंता । पुरुष स्त्रियों के रूप पर कविता रचना करने में तो व्यस्त हैं, परन्तु उन्हें यह नहीं सूझता कि उनके हृदयकी वेदना, उनकी संपूर्ण नहीं, किन्तु खास खास कविताओंका यह संग्रह है - संपादक । [ भाग १५ दीनता और उनके अपमानको वास्तविक रूपमें समझने की चेष्टा की जाब । स्त्रियोंके प्राण हैं। वे केवल रूपकी प्रशंसा सुनकर नहीं जी सकतीं । वे इस बातकी स्वीकारना चाहती हैं कि वे भी 'मनुष्य' हैं । स्त्रियाँ यदि शिक्षिता हो तो वे भी पुरुषोंके समान जीवन की कठिनाइयोंके साथ संग्राम कर सकेंगी, विपत्ति में रोएँगी नहीं, और पुरुष उन्हें कुमार्गगामी न बना सकेंगे। कन्याओंको पुत्रके समान शिक्षित बनाओ, उन्हें श्रात्मबोध कराओ, उनके हृदयमें शक्ति, मुखमें भाषा और भुजाओ तथा छाती में बल दो । गहनों की अपेक्षा यही उनके लिए उत्तम दान होगा । मनुष्यको सबसे बड़ा अधिकार यह मिला हुआ है कि यदि उसके ऊपर कोई अन्याय किया जाता है तो वह विद्रोही होता है—उस अन्यायके विरुद्ध छाती खोलकर खड़ा हो जाता है । तब समझमें नहीं आता कि स्त्रियोंको इस अधिकार से वंचित करके समाजका अकल्याण क्यों किया जाता है। स्त्रियोंका जीवन व्यर्थ क्यों नष्ट किया जाता है ? यदि किसी कारण से स्त्री अपने पति · के घर नहीं रह सकती तो उसे अपने पिता के घर परानुगृहीताके समान रहना पड़ता है और भाई भौजाइयों से डरते हुए जीवन व्यतीत करना पड़ता है । इसपर कहीं एक दो बालबच्चे भी साथ हुए तब तो फिर पूछना ही क्या है; उसे एक अपराधिनी के समान दिन काटने पड़ते हैं । यदि तुम यह जानना चाहते हो कि मनुष्यका जीवन किस तरहसे व्यर्थ नष्ट होता है, तो स्त्रियोंके जीवनकी भोर नजर डालो । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक १२ ] देशको वर्तमान परिस्थिति। परदे और शिक्षा-हीनताने स्त्री जाति- सच्चे मनुष्यत्वके सामने सभी मनुष्यों को पशुओंसे भी अधम बना दिया है; . को सिर झुकाना पड़ता है। इस मनुष्य उनके ललाट पर सैकड़ों दीनताओं और त्वकी साधनाके लिए स्त्रियों को अन्तःपुर कलंकोंकी छाप लगा दी है। स्त्रियोंको छोड़कर बाहर माना चाहिए । जनसाकैदी बनाकर उनके सतीत्वकी रक्षा धारणकी श्रद्धा उन्हें अवश्य प्राप्त होगी।* करना समझमें नहीं पाता कि लोगोंको क्यों पसन्द है । ऐसे सतीत्वका कोई मूल्य । नहीं है। हमारी स्त्रियाँ हाथ पैर होते हुए देशकी वर्तमान परिस्थिति भी लूली लँगड़ी और हृदय होते हुए भी अनुभूतिहीन हैं। इसके सिवाय पर और हमारा कर्तव्य । मुखापेक्षी या पराश्रित होकर रहनेकी आजकल देशकी हालत बहुत ही अपेक्षा बड़ा कष्ट इस मानव जीवनमें और नाजुक हो रही है। वह चारों ओर अनेक कौनसा है ? प्रकारकी आपत्तियोंसे घिरा हुआ है। जहाँ स्त्री-स्वाधीनता नहीं है, वहाँ जिधर देखो उधरसे ही बड़े बड़े नेताओं यदि कोई स्त्री घरसे बाहर निकलती है. और राष्ट्र के सच्चे शुभचिन्तकोंकी गिरितो लोग उस पर चरित्रहीन होनेका फ्तारी तथा जेल यात्राके समाचारमा सन्देह करते हैं और उसकी भोर बरी रहे है । एक विकट संग्राम उपस्थित है। नजर डालते हैं। पुण्यवती स्त्रियों को अपनी सरकार (नौकरशाही) पूरे तौरसे कठिन वज्र दृष्टिले उक्त बुरी नजरकी दमन पर उतर आई है और लक्षणोसे उपेक्षा करनी चाहिए। ऐसा पाया जाता है कि वह भारतीयोंकी . यदि किसी रेलवे स्टेशन पर कोई ही इस बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा (स्वराज्य. बहू-बेटी सोजाती है, तो जानते हो उसको प्राप्तिकी इच्छा) को दबाने और उनके कहाँ जगह मिलती है ? कलकत्ते में मार्ग संपूर्ण न्याय्य विचारोको कुचल डालनेके लिये सब प्रकारके अत्याचारोंको करने भूली हुई बहूबेटीका उद्धार हो जाने पर भी कोई उसे ग्रहण नहीं करता, खोई कराने पर तुली हुई है। वह देशके इस हुई लड़कीका पता लग जाने पर भी कोई महावत (अहिंसा-शांति) को भंग करा. कर उसे और भी ज्यादा पददलित करना उसके साथ विवाह करके समाजसे पतित नहीं होना चाहता । यह बात बिल्कुल और गुलामीकी जंजीरोंसे जकड़ना चाहती है और इसके लिये बुरी तरहसे झूठ है कि शिक्षित और स्वाधीन होनेसे स्त्रियाँ चरित्रहीन हो जाती हैं। स्त्रियोंको उन्मत्त जान पड़ती है। इस समय सरस्वाधीनता और शिक्षा नहीं दी गई है। कारका असली 'नग्न' रूप बहुत कुछ स्पष्ट दिखलाई देने लगा है और वह इसीलिए उन्हें अपनी मर्यादाका-अपनी मालूम होने लगा है कि वह भारतकी नची प्रतिष्ठाका शान नहीं है। स्त्रियों की - कहाँतक भलाई चाहनेवाली है। जो मुक्ति और मंगल कामनाके लिए पुरुष र लोग पहले ऊपरके मायामय सपको समाज चिन्तित होगा न हो, भव स्त्रियोंको स्वयं अपने कष्टोंका विचार करके प्रवासीके अग्रहायणके अंकके एक लेखका प्राशय । जागृत हो जाना चाहिए। नाथूराम प्रेमी। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनहितैषी।। [ भाग १५ देखकर. या बुरकेके भीतर रूपराशिकी लिये संयुक्त बलके सिर्फ एक ही धक्केकी कल्पना करके ही उसपर मोहित थे, वे प्रतीक्षा कर रही है। ऐसी हालतमें वह भी अब पर्दा (नकाब) उठ जाने तथा भँवरमें क्यों फँसी, गहरे जलमें क्यों उतारी आच्छादनोंके दूर हो जानेले नग्न रूपके गई और क्यो भँवरकी मोर खेई गई, इस दर्शन करके, अपनी भूलको समझने लगे प्रकारके तर्कवितर्कका या किसीके शिकवेहैं, और यह देशके लिये बड़ा ही शुभ शिकायत सुननेका अवसर नहीं है। पार चिह्न है। होने के लिये उसे गहरे जलमें उतरना ही - यह देशकी अग्नि-परीक्षाका अथवा था, दूसरा मार्ग न होनेसे भँवरकी भोर उससे भी अधिक किसी दूसरी उसका स्नेया जाना अनिवार्य था और कठिन परीक्षाका समय है। और इसी इसलिये मॅवरमें फंसना भी उसका प्रवअन्तिम परीक्षापर भारतका भविष्य श्यम्भावी था, यही सब सोच समझकर निर्भर है। यदि हम इस परीक्षा उत्तीर्ण अब हमें अपने संयुक्त बलके द्वारा उसे हो गये-सब कुछ कष्ट सहन करके भी भवरसे निकालकर पार लँघाना चाहिए। हमने शांति बनाये रक्खी और किसी भौर इसलिये प्रत्येक भारतवासीका इस प्रकारका कोई उपद्रव या उत्पात न किया समय यह मुख्य कर्तव्य है कि वह देशकी तो स्वराज्य फिर हाथमें ही समझिये, वर्तमान परिस्थितिको समझकर उससे उसके लिये एक कदम भी आगे बढानेकी देशको उबारने और ऊँचा उठानेका जी ज़रूरत न होगी। और यदि दुर्भाग्यसे जानसे यत्न करे। उसे अपने क्षणिक हम इस परीक्षा पास न हो सके - सुखोपर लात मारकर भारत माताकी हमने हिम्मत हार दी-तो फिर हमारी वह सेवामें लग जाना चाहिए और माताको दुर्गति बनेगी और हमारे साथ वह बुरा पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करानेके लिए उस सलूक किया जायगा कि जिसकी कल्पना महामंत्रका आराधन करना चाहिए जिसे मात्रसे शरीरके रोंगटे खड़े होते हैं। महात्मा गांधीजीने अपने दिव्य ज्ञानके उस समय हम गुलामोसे भी बदतर द्वारा मालूम करके एक अमोघ शस्त्रके गुलाम ही नहीं होंगे बल्कि 'जिन्दा* . रूपमे प्रगट किया है और जिसे भारतकी दरगोर, होंगे और पशुओसे भी बरा जातीय महासभा (कांग्रेस) ने अपनाया जीवन व्यतीत करने के लिये बाध्य किये ही नहीं बल्कि भारतके उद्धारका एकजायँगे। और इस आपत्तिके स्थायी मात्र उपाय स्वीकृत किया है। और वह पहाड़का संपूर्ण बोझ उन लोगोंकी महामंत्र है 'असहयोग'। गर्दन पर होगा और वे देशके द्रोही समझे हम अनेक तरीको अथवा मार्गौसे जायँगे जो इस समय देशका साथ न सरकारको उसके शासन कार्यमें जो देकर ऐसी परिस्थितिको लाने में किसी न मदद पहुँचा रहे हैं, उस मददसे हाथ किसी प्रकारसे सहायक बनेंगे। खींच लेना और उसे बंद कर देना ही देशकी किश्ती (नौका) इस समय असहयोग है। और यह ऐसा गुरुमंत्र है - भंवरमें फँसी हुई है और पार होनेके कि इसपर पूरे तौरसे अमल होते ही कोई भी अन्यायी सरकार एक दिनके * जीते ही कामें दफ़न जैसी अवस्थामें । लिये भी नहीं टिक सकती । प्रजाहित For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रङ्क १२ ] विरोधी सरकारको ठीक मार्ग पर लाने के लिये इससे अच्छा दूसरा उपाय नहीं हो सकता । परन्तु इस पर अमल करने वालोंको स्वयं अहिंसक, अत्याचार रहित निष्पाप और प्रेमकी मूर्ति बन जाना होगा; तभी उन्हें सफलता मिल सकेगी । यह नहीं हो सकता कि हम स्वयं तो अन्याय, अत्याचार और पापकी मूर्ति बने रहें और दूसरोंके इन दोषों को छुड़ानेका दावा करें। यदि हम खुद दूसरोंपर अन्याय और अत्याचार करते हैं तो हमें इस बातकी शिकायत करनेका कोई अधि कार नहीं है कि हमारे ऊपर क्यों अन्याय और अत्याचार किये जाते हैं । यदि हमारा आत्मा स्वयं पापोंसे मलिन है तो हम दूसरोंके पाप-मलको दूर करानेके पात्र नहीं हो सकते । इसीसे असहयोगका यह संग्राम श्रात्मशुद्धिका एक यज्ञ माना गया है, जिसमें हमें अपने उन संपूर्ण दोष, त्रुटियों और कमजोरियां की आहु तियाँ देनी होगी जिनसे लाभ उठाकर ही सरकार हम पर शासन कर रही है और हमें काकी पुतलियोंकी तरहसे नचा रही है । और यही वजह है कि कांग्रेसने इस महामंत्रकी साधनांके लिये, साधनोपायके तौर पर, चार मुख्य शर्ते रक्खी हैं, जिन्हें चार प्रकारके व्रत अथवा तप कहना चाहिए और जिनका पालन करना प्रत्येक सहयोगी तथा देशप्रेमीका प्रथम कर्तव्य है । वे चार शर्तें हैं १ अहिंसाशांति, २ स्वदेशी, ३ हिन्दू-मुसलिम एकता और ४ अछूतोद्धार। इनमें भी अहिंसा तथा शांति सबसे प्रधान हैं और वही इस समय सूलियत के साथ कसौटी पर चढ़ी हुई है। देशको वर्त्तमान परिस्थिति । + हमें कसौटी पर सच्चा उतरने और वर्तमान परीक्षा में पास होनेके लिये इस * ३८१ वक्त देशके सर्वप्रधान नेता महात्मा गाँधीकी उन उदार और महत्वपूर्ण शिक्षाओंपर पूरी तौर से ध्यान देनेकी खास जरूरत है जो बराबर उनके पत्रों-यंग इंडिया, नवजीवन और हिन्दी नवजीवनमें प्रकाशित हो रही हैं। हमारा इस समय यही खास एक व्रत हो जाना चाहिए कि हम जैसे भी बनेगा, सब कुछ सहन करके शांति की रक्षा करेंगे, सरकारकी श्रोरसे शांति भंग करानेकी चाहे जितनी भी उत्तेजना क्यों न दी जाय और चेष्टाएँ क्यों न की जायें, परन्तु हम शांतिको जरा. भी भंग न होने देंगे-अपनी तरफसे कोई भो ऐसा कार्य न करेंगे जिसका लाजिमी नतीजा शांति भंग होता हो और बराबर अपने निर्दिष्ट मार्ग में आगेकी ओर कदम बढ़ाते हुए अमन कायम रक्खेंगे। इसी में सफलताका सारा रहस्य छिपा हुआ है । संकटकी जो घटाएँ इस समय देशपर छाई हुई हैं वे सब क्षणिक हैं और हमारी जाँचके लिये ही एकत्र हुई जान पड़ती हैं। उनले हमें जरा भी घबराना और विचलित होना नहीं चाहिए । हमारे दृढ़प्रतिश और कर्मनिष्ठ होते ही वे सब तितर बितर हो जायँगी, इस बातका पूरा विश्वास रखना चाहिए । मंत्रों तथा विद्यार्थीके सिद्ध करने में उपसर्ग आते ही हैं। जो लोग उन्हें धैर्य और शांतिके साथ झेल लेते हैं वे ही सिद्धि-सुखका अनुभव करते हैं। असहयोग मंत्र और स्वराज्य-निधिकी सिद्धिके लिये हमें भी कुछ उपसर्गो तथा संकटोको धैर्य और शांति के साथ सहन करना होगा, तभी हम स्वराज्य- सिद्धिके द्वारा होनेवाले अगणित लाभोंसे अपनेको भूषित कर सकेंगे। बिना कष्टसहन के कभी कोई सिद्धि नहीं होती । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैनहितैषी । सरकारको पहले असहयोगकी साध नामे विश्वास नहीं था। वह उसकी चर्चाको महज एक प्रकारकी बकवाद और बच्चोंकासा खेल समझती थी । परन्तु अबतक इस दिशा में जो कुछ काम हुआ है, उससे जान पड़ता है कि सरकारका श्रासन डोल गया है और वह उसे थाम"नेके लिये बिलकुल ही आपसे बाहर हो गई है। उसने इस बातको भुला दिया है कि प्रजापर ही राज्यका सारा दारोमदार (आधार) है । प्रजाको असंतुष्ट रखकर उसपर शासन नहीं किया जा सकता और न डरा धमकाकर किसीको सत्यकी सेवासे बाज रक्खा जा सकता है। उसकी हालत बहुत ही घबराई हुई पाई जाती है और ऐसा मालूम होता कि वह इस समय 'मरता क्या न करता' की नीतिका अनुसरण कर रही है। यही वजह है कि उसने अपनी उस घबराहटको हालतमें, मनमाने कानून बनाकर, कानूनका मनमाना अर्थ लगाकर और मनमानी आशाएँ जारी करके, देशके प्रायः सभी सेवकों, शुभचिन्तकों, सहायकों और बड़े बड़े पूज्य नेताओं तकको बड़ी तेजीके साथ गिरफ़ार करना, और मनमानी सजा देकर जेल में भेज देना प्रारंभ कर दिया है। इल कार्रवाई से सरकार को बड़ी ही कमजोरी पाई जाती है और इससे उसने अपनी रही सही श्रद्धाको भी प्रजाके हृदयों से चलायमान कर दिया है। शायद सरकारने यह समझा था और अब भी समझ रक्खा है कि इस प्रकारकी पकड़ धकड़के द्वारा वह प्रजाको भयकम्पित बनाकर और उसपर अपना अनुचित रोब जमा * लार्ड रीडिंगने स्वयं अपनी घबराहटको स्वीकार किया है। देखो 'वन्देमातरम' ता० १६-१२-२१ [ भाग १५ कर उसे अपने पथसे भ्रष्ट कर देगी, और इस तरह पर देश में स्वराज्य तथा स्वाधीनताकी जो श्राग सुलग रही है, वह या तो एक दम बुझ जायगी और या जनता उत्तेजित होकर अशांति धारण करेगी, कुछ उपद्रव तथा उत्पात मचावेगी और तब उसे पशु बलके द्वारा कुचल डाला जायगा । परन्तु परिणाम इन दोनोंमेंसे एक भी निकलता हुआ मालूम नहीं होता । सरकार के निष्ठुर व्यवहार और निरपराधियोंकी इस पकड़ धकड़ने उन लोगों के वज्र हृदयको भी द्रवीभूत कर दिया है। और वे भी सरकार की इस घातक पालिसीकी निन्दा करने लगे हैं, जो अभी तक इस आन्दोलन में शरीक नहीं थे और बिलकुल ही तटस्थ रहते थे अथवा सरकारके सहायक बने हुए थे । स्वराज्यकी आग बुझने अथवा दबने के बजाय (स्थानमें) और अधिकाधिक प्रज्वलित हो रही है और सरकार के इस दमनने उसपर मिट्टीका तेल छिड़कने का काम किया है । लोगों का उत्साह बराबर बढ़ रहा है और वे स्वराज्य सेनामें भरती होकर खुशी खुशी हजारोंकी संख्या में कुंडके कुंड जेल जा रहे हैं और ऐसी जेल यात्राको अपना अहोभाग्य समझ रहे हैं, जो देश के उद्धार और उसे गुलामीसे छुड़ाने के उद्देश्य से की जाती है । यह सब कुछ होते हुए भी प्रशांतिका कहीं पता नहीं। ला० लाजपतराय, पं० मोतीलाल नेहरू मौ० अबुलकलाम आजाद और देशबन्धु सी. श्रार० दास जैसे बड़े बड़े नेताओं तथा कुछ प्रतिष्ठित महिलाओंके पकड़े जाने और जेल भेजे जाने पर भी लोग शांत रहे । लार्ड रीडिंगने, शांतिके इस यशके समय, तलवार से स्वराज्य मिलना बतलाया ! और इस तरह पर, प्रकारांतर से हिंलाको उत्तेजना दी। परन्तु फिर भी For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३३ अंक १२] देशकी वर्तमान परिस्थिति। किसीने तलवार उठाकर हिंसा करना. परंतु सरकारके इस चक्करमें पड़कर नहीं चाहा और न शांतिको भंग करना कहीं हमें भी भूल न कर बैठना चाहिए। पसन्द किया। यह सब, अधिकांशमै, हमें समझना चाहिए कि जिसका आसन महात्मा गांधीजीके उस महान् उपवास. डोलता है, वह उसके थामनेकी सभी कुछ का फल है जो उन्होंने बम्बईकी प्रशांतिके चेष्टाएँ किया करता है । घबराया दुमा समय धारण किया था। इस उपवास- मनुष्य क्या कुछ नहीं कर बैठता और ने देशवासियोंके हृदयमें शांति और यही सब सोच समझकर हमें अपने कर्त. अहिंसाकी उस ज्योतिको, जो पहले कुछ व्यके पालन में बहुत ही सतर्क और सावदुर्बल और कम्पित अवस्थामें थी, बहुत धान रहने की ज़रूरत है। ऐसा न हो कि कुछ दृढ़ और बलाढ्य बना दिया है। सरकारके किसी घृणितसे घृणित कार्यपर ऐसी हालतमें यदि यह कहा जाय कि . उत्तेजित होकर,' कष्टोंको सहन करने में सरकारने इस कृत्यके द्वारा, अपने पैरमें कातर बनकर और इष्ट-मित्रादिकोंके वि. माप ही कुल्हाडी मारी है,तो शायद कुछ योगमें पागल होकर, हम अशांति कर बैठे अनुचित न होगा । यह इस अनुचित और हिंसापर उतर आवे। यदि ऐसा दमनका अथवा इन बेजा और बे मौका हमा तो सर्वनाश हो जायगा। सारी करी सख्तियोंका ही नतीजा है जो भारतमे कराई पर पानी फिर जायगा और सर. प्रिन्स आफ वेल्सका उतना भी स्वागत कारका काम बन जायगा; क्योंकि सरकार नहीं हो रहा है जो कि दूसरी हालतमे इस प्रान्दोलनको बन्द करके हमारे चुप जरूर होता । उच्चाधिकारियोने शायद न बैठनेकी होलतमें, ऐसा चाहती ही है यह सोचा था कि बड़े बड़े लीडरोको और इसी में अपना कल्याण समझती है। जेल में भेज देनेसे हम जनताके द्वारा शाह परंतु हमारे लिये यह बिलकुल ही भक. जादे साहबका अच्छा स्वागत करासकेगे। ल्याण की बात होगी । हम पशुबलके द्वारा परन्तु मामला उससे बिलकुल उलटा सरकारको जीत नहीं सकते-इस विषय निकला और वे पहली खट्टी छाछसे के साधन उसके पास हमसे बहुत भी गये। ही ज्यादा है-औरन इस प्रकारकी जीत हमारी रायमें यदि सरकार सचमुच हमें इष्ट ही है, क्योंकि वास्तवमें ऐसी जीत ही मारतका हित चाहनेवाली है, तो कोई जीत नहीं होसकती। उसमें हृदयउसका यह कार्य बहुत ही प्रदरदर्शिता का काँटा बराबर बना रहता है। हाँ,मात्म और नासमझीका हुआ है। इस समय बलके द्वारा हम उसपर ज़रूर विजय पा सरकार अधिकार मदसे उन्मत्त है। वह सकते है, और यही सच्ची तथा स्थायी किसीकी कुछ सुनती नहीं और न स्वयं जीत होगी। सरकार यदि पशुबलका उसे कुछ सूझ पड़ता है। तो भी प्रजाकी प्रयोग करती है तो उसे करने दीजिए। ओरसे बराबर शांति जल छिडका जाने- हमारी नीति उसके साथ 'शठं प्रति पर जब उसका नशा उतरकर उसे होश शाठ्यं की न होनी चाहिए-हमें पशुबलः । आवेगा तो वह जरूर अपनी भूल मालूम का उत्तर आत्मबलके द्वारा सहन-शीलता. करेगी और उसे अपनी वर्तमान कृति में देना होगा और इसीमें हमारी विजय ( कर्तृत) पर घोर पश्चात्ताप होगा। है। हमें क्रोधको क्षमासे, अन्यायको For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ न्यायसे, अशांतिको शांतिसे और द्वेषको किसी न किसी तौरपर (सेवामें रहकर प्रेमसे जीतना चाहिए, तभी स्वराज्य. या दूसरे तरीकोंसे) मदद दे रहा है तो, रसायन सिद्ध हो सकेगा। हमारा यह हमें उसको एक प्रकारसे पतित अथवा स्वतंत्रताका युद्ध एक धार्मिक युद्ध है अनभिज्ञ समझना चाहिए-मार्ग भूला और वह किसी खास व्यक्ति अथवा जाति- हुश्रा मानना चाहिए और उसके उद्धार के साथ नहीं बल्कि उस शासन-पद्धति- के लिये, उसे यथार्थ वस्तुस्थितिका ज्ञान के साथ है जिसे हम अपने लिये घातक कराने और ठीक मार्गपर लानेके वास्ते और अपमान-मूलक समझते हैं। हम इस हर एक जायज़ (समुचित) तरीकेसे शासन-पद्धतिको उलट देना अथवा उस- समझानेका यत्न करना चाहिए। और में उचित सुधार करना ज़रूर चाहते हैं, जबतक वह न समझे तब तक अपने भावों परंतु ऐसा करने में किसी जाति अथवा और आचरणों में त्रुटि समझकर-अपने शासन विभागके किसी व्यक्तिसे घृणा शानको उस काम के लिये अपर्याप्त मान (नफरत) करना या उसके साथ द्वेष कर-आत्मशुद्धि और स्वज्ञान-वृद्धि प्रादिरखना हमारा काम नहीं है। हमें के द्वारा अपनी त्रुटियोंको दूर करते हुए बुरे कामोसे ज़रूर नफ़रत होनी चाहिए बराबर उसको प्रेम के साथ समझाने परंतु बुरे कामोंके करनेवालोसे नहीं। और उसपर अपना असर डालनेकी उन्हें तो प्रेमपूर्वक हमें सन्मार्गपर कोशिश करते रहना चाहिए। एक दिन लाना है। नफ़रत करनेसे वह बात नहीं आवेगा जब वह ज़रूर समझ जायगा बन सकेगी। और सन्मार्गको ग्रहण करेगा। चुनांचे . यदि हम किसी व्यक्तिको प्रेमके साथ ऐसा बर ऐसा बराबर देखने में आ रहा है। जो समझा बुझाकर सन्मार्गपर नहीं ला भाई पहले विदेशी कपड़ेको नहीं छोड़ते . सकते हैं तो समझना चाहिए कि इसमें - थे वे आज खुशी खुशी उसका त्याग कर हमारा ही कुछ खोट है. अभी हम अयो- ६ ग्य हैं; और इसलिये हमें अपने उस खोट परंतु जो लोग अपनी बात न माननेतथा अयोग्यताको मालूम करके उसके वाले भाइयों पर कुपित होते हैं, नारादूर करनेका सबसे पहले यत्न करना ज़गी जाहिर करते हैं. उन्हें कठोर शब्द चाहिए। उसके दूर होते ही आप देखेंगे कहते हैं, धमकी देते हैं, उनके साथ बुरा कि वह कैसे सन्मार्गपर नहीं पाता है। सलूक करते हैं. उनका मजाक उड़ाते हैं, ज़रूर आवेगा। सच्चे भावों, सच्चे हृदयसे अपमान करते हैं. बायकाट करके अथवा निकले धरना देकर उनपर अनुचित दबाव डालते असर हुए बिना नहीं रह सकता। इसी हैं, अनेक प्रकारकी जबरदस्ती और जब बातको दुसरे शब्दों में यो समझना चाहिए से काम लेते हैं, और इस तरहपर दूसरों. कि यदि हम देखते हैं कि, हमारा एक की स्वतंत्रताको हरण करके उन्हें उनकी भाई विदेशी कपड़ा पहनना और विदेशी इच्छाके विरुद्ध कोई काम करने या न कपड़ोंका व्यापार करना नहीं छोड़तो- करनेके लिये मजबूर करते हैं. वे सख्त उसपर आग्रह रखता है -अथवा सर- गलतीमें हैं और बहुत बड़ी भूल करते हैं। कारको उसके अन्याय और अत्याचारोंमें उनका यह सब व्यवहार (तर्ज़-तरीका) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ देशकी वर्तमान परिस्थिति। ३८५ स्वतंत्रताके इस संग्रामकी नीति के बिल- में समझाकर साधारण जनता पर प्रगट कुल विरुद्ध है और हिंसाके रंगमें रँगा करना चाहिए, जिससे कोई भी शख्स दुआ है। जान पड़ता है, ऐसे लोगोंने किसी प्रकारके धोखे में न रह सके। और स्वतंत्रताके इस धर्म युद्ध का रहस्य नहीं अपने आचार-व्यवहारके द्वारा हमें समझा । वे अभी क्रोधादिक अन्तरंग पबलिकको इस बातका पूरा विश्वास शत्रुनोले पीड़ित हैं, उन्होंने अपने कषायों- दिलाना चाहिए कि उनकी वजहसे कोई को ( जज़बातको) दमन नहीं किया, भी भारतवासी-चाहे वह हिन्दू, मुसअपनी कमजोरियोपर काबू नहीं पाया. लमान, अंगरेज, पारसी, ईसाई और और इसलिये उन्हें निर्बल समझना यहूदी प्रादि कोई भी क्यों न हो-अपने चाहिए। ऐसे निर्बल और गुमराह (मार्ग जानमालको जरा भी खतरे (जोखों) में न भूले हुए ) सैनिकोंसे स्वतंत्रताको यह समझे। हमें गुंडों, बदमाशों तथा उपमैदान नहीं लिया जा सकता। ऐसे लोग द्रवी लोगोंसे नफरत करके उन्हें बिलकुल बहुधा कार्य-सिद्धि में उलटे विघ्नस्वरूप ही स्वतंत्र न छोड़ देना चाहिए बल्कि हो जाते हैं। बम्बईका हंगामा (दंगा) उनसे मिलकर उन्हें सेवा शुश्रूषा और और मोपलोंका उपद्रव ऐसे ही लोगोंकी सद्व्यवहारादिकके द्वारा अपने बनाकर कर्तृतोके फल हैं। इसलिये यदि हम काबूमें रखना चाहिए। और अपने असरसे स्वराज्य चाहते हैं तो हमें अपनी और उनके दुष्कर्मों तथा बुरी आदतोको छुड़ा अपने भाइयोंकी इन त्रुटियों और कम कर शांति स्थापनके कार्यको और भी जोरियोको भी दूर करना चाहिए । इनके ज्यादा दृढ़ बनाना चाहिए, प्रत्येक मगर • दूर हुए बिना हम बलवान नहीं हो सकते. और ग्राममें ऐसा सुप्रबंध करना चाहिए न साधारण जनताकी सहानभतिकां जिससे कहीं कोई चोरी, डकैती अथवा अपनी ओर खींच सकते हैं और न मागे लूटमार न हो सके, कोई बलवान किसी ही बढ़ सकते हैं। निर्बलको न सता सके, आपसके झगड़े ___ हमारा मुख्य कर्तव्य इस समय यही टंटे सब पंचायतों द्वारा तै (फैसल) हुआ होना चाहिए कि हम विश्वप्रेमको अप करें, सबका जान-माल सुरक्षित रहे और नाएँ, उसे अपना मूल मंत्र बनाएँ सी इस तरह पर लोगों को स्वराज्यके भानंद. प्रमकी ज्योति जगाएँ, जोकळ काम कर का कुछ अनुभव होने लगे और वे यह वह सच्चे हृदयसे प्रेमके साथ करें-उसमें समझने लगे कि, सरकारकी सहायताके ढोंग या पक्षपात न हो-और जो काम बिना भी हम अपनी रक्षा आदिका प्रबंध दूसरोंसे कराएँ वह भी उसी प्रेमके श्रा स्वयं कर सकते हैं और उससे अच्छा धार पर कराएँ-उसमें जरा भी जब्र, कर सकते हैं। सख्ती वा जबरदस्तीका नाम न हो। लोकमतके इतना शुद्ध और कर्तव्यसाथ ही, हमें स्वराज्यकी नीतिको, स्व. निष्ठ होने पर स्वतंत्रता देवी अवश्य ही राज्यसे होनेवाले लाभोंको, वर्तमान भारतके गले में वरमाला डालेगी, इसमें असहयोग आन्दोलनके असली मन्शा व जरा भी संदेह नहीं है। अतः हम सबको मानी (आशय तथा अर्थ) को और मिलकर सच्चे हृदयसे इसके लिये प्रयत्न महिलाके गहरे तत्वको बहुत खुले शब्दों करना चाहिए । इस समय प्रापसके झगड़े For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ . जैनहितैषी [ भाग १५ टंटों, मतभेदों और धार्मिक विसंवादोंका कुछ दिनों तक और इसी तरह शांतिअवसर नहीं है। उन्हें भुलाकर प्रत्येक के साथ कष्टोको सहन करते हुए निर्भय भारतवासीको देशके मामले में एक हो जाना होकर अपने कार्यक्रमको बराबर मागे चाहिए और देशके उद्धार-विषयक कामों- बढ़ाते रहे तो सरकारको निःसन्देह देशके में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए । जो लोग सामने शीघ्र ही नतमस्तक होना पड़ेगा। अपनी किसी कमजोरीकी वजहसे ऐसे प्यारे वीरो! और भारत माताके सचे कामों में कुछ हिस्सा नहीं ले सकते और सपूतो!! घबरानेकी कोई बात नहीं है। न अपनी कोई खास सेवा देशको अर्पण महात्मा गांधी जैसे सातिशय योगोका कर सकते हैं, उन्हें कमसे कम इस ओर हाथ आपके सिर पर है। हिम्मत न हारना, अपनी सहानुभूति हीरखनी चाहिए और कदम बराबर मागेको बढ़ता रहे; समझ बिगाड़का तो ऐसा कोई भी काम उनकी लो यह शरीर नश्वर है, हमारी इच्छासे तरफसे न होना चाहिए जिससे देशके यह हमें प्राप्त नहीं हुआ और न हमारे चलते हुए काममें रोड़ा अटक जाय । रक्खे रह सकेगा। कुटुम्ब, परिवार और यदि उनका कोई इष्ट मित्रादिक अथवा धनादिककी भी ऐसी ही हालत है, उनका देशका प्यारा नेता देशके लिये, बिना कोई संयोग हमारे इच्छानुसार बना नहीं अपराध, किये, जेल जाता है तो उसे रहेगा । इसलिये इन सबके मोहमें पड़ खुशीसे जाने दिया जाय । हाँ, यदि वे कर आपको अपने कर्तव्यसे जरा भी उससे सच्चा प्रेम रखते हैं तो उसके उस विचलित न होना चाहिए । इस समय शुभ कामको संभाले और खुद उसको स्वराज्यका योग पा रहा है, स्वतंत्रता देवा करना प्रारंभ करें जिसको करते हुए वह घरमाला हाथमें लिये हुए खड़ी है, सिर्फ - महामना जेल गया है। और यदि ऐसा आपकी कुछ कठिन परीक्षा और बाकी करनेके लिये असमर्थ हैं तो कृपया उसके है. उसके पूरा उतरते ही भारतके गलेमे नाम पर हुल्लड़ मचाकर अथवा दंगा वर माला पड़ जायगी। आशा है, भाप फिसाद करके व्यर्थ ही संसारकी शांति- सब इस परीक्षामें जरूर पूरे उतरंगे को भंग न करें। उनकी इतनी भी सेवा और अब भारतको पूर्ण स्वाधीन बनाकर स्वराज्य प्राप्तिके इस महायज्ञके लिये काफी ही कोडेंगे। इसमें सब कुछ श्रेय और होगी। इसीमें देशका सारा कल्याण है। । हालके समाचारोंसे हमें यह मालूम करके बहुत ही आनंद होता है कि देशने सामाजिक संवाद । इस वक्त, जब कि गरिफ्तारयों और जेल यात्रामोका समुद्र चारों ओरसे बेहद - (ले० श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी ।) मौजे मारता हुआ उमड़ रहा है, बहुत ही १-विजातीय विवाह । जैनमित्रके धैर्य और शांतिसे काम लेकर अपनी उत्साही प्रकाशक सेठ मूलचन्दजी काप.. सावितकदमीका परिचय दिया है । डियाको पाठक अवश्य जानते होंगे। और यह उसके लिये बहुत बड़े गौरवकी आप बीसा हुमड़ जातिके हैं। मापकी बात है और उसकी कामयाबीका एक जातिमें जहाँ एक ओर लड़कोका विवाह अच्छा खासा सबूत है। यदि हमारे भाई कठिनाईसे होता है, वहाँ दूसरी ओर For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अङ्क १२ ] सामाजिक संवाद । लड़कियोंको भी सुयोग्य वरोकी प्राप्ति धर्म, भाषा आदि सब एक हैं । फिर नहीं होती है। कापडियाके सहोदर भाई. समझमें नहीं आता कि इन दोनों जातिसेठ जीवनलालजी नये खयालोके और योंको पारस्परिक सम्बन्ध करने में क्यों साहसी मादमी हैं। आपको यह पसन्द आपत्ति होनी चाहिए । जहाँ तक सुना नहीं कि जिस तिसके गले अपनी बहिन गया है, हूमड़ भाइयोंको यह बात तो बेटियोंको बाँध देना; और इस कारण पसन्द है कि हमारी जातिमें दूसरी जातिकोई ८-१० वर्ष हुए अपने अपनी एक योंकी कन्यायें आ जायँ और यही कारण कन्याका विवाह, अपनी जातिमें सुयोग्य है जो सेठीजीकी कन्याको उन्होंने बिना घरके प्राप्त न होनेके कारण, मेवाड़ा जा. किसी बाधा विरोधके स्वीकार कर तिके स्वर्गीय शाह लल्लू भाई प्रेमानन्द लिया। मेवाड़ा भाइयोंकी भी शायद यही एल० सी०ई० के साथ-जो अनेक वर्षों नीति है । परन्तु यह नीति अधिक समय तक बम्बई प्रान्तिक सभाके महामंत्री रहे तक नहीं टिक सकती। हमारी समझमें हैं-कर दिया था ! मेवाड़ा जाति भी दोनों ही जातियोंको इस प्रश्नपर अब जानकीपक निगम्बर जैन जाति कुछ और अधिक उदार होकर विचार इस जातिके पंचोंने अपनी जातिमें कन्या- करना चाहिए। ओंकी कमी देखकर दूसरी जातिकी कन्याये २-विजातीय विवाहका प्रस्ताव । लानेकी छुट्टी दे रक्खी है और इसके फल बरार मध्य प्रान्तिक जैन सभाके मराठी स्वरूप सुनते हैं कि अब तक मेवाड़ा मुखपत्र राजहंसके तीसरे अंकके एक आतिमें लगभग १५० कन्याएँ दूसरी लेखसे मालूम हुआ कि गत जून महीने में आतियोंको ब्याही जा चुकी हैं । ऐसी अंजनगाँवमें बघेरवाल जातिकी एक सभा दशामें उक्त ब्याहका विरोध मेवाड़ाई थी और उसमें यह निश्चय हुआ था भाइयोंकी ओरसे तो होने ही क्यों लगा कि "दिगम्बर जैन सम्प्रदायकी जिन हमड़ भाइयोंने भी इसकी कोई खास जातियों में पुनर्विवाहकी प्रथा नहीं है, चर्चा नहीं की थी। सेठीजीकी लड़कीके उन जातियोंके लड़के अथवा लड़कियोंके ब्याहके समान यह विवाह भी उन्हें विशेष साथ यदि बघेरवाल लोग विवाह सम्ब. आवश्यक नहीं जान पड़ा था। बल्कि ध करेंगे तो जातिकी ओरसे कोई बाधा बहुतसे लोगोंने तो इस साहसके लिए उपस्थित न की जायगी। इस प्रस्तावकी सेठ जीवनलालकी पीठ तक ठोंकी थी। चर्चा भातकोलीके मेले के समय की जावे।" अब खबर आई है कि उन्होंने अपनी दूसरी इस प्रस्तावको उठानेवालोंमें श्रीयुत युवती लड़कीका व्याह भी एक मेवाड़ा में वाड़ा जयकुमार देवीदास चवरे वकील तथा जातिक वरकसाथ कर दिया ह ार इस सेठ नाथसा पासूसा प्रादि गण्यमान्य विवाहमें जीवनलालजीके कुटुम्बी तथा व्यक्ति थे । इसके बाद कारंजामें इल दूसरे गएबमान्य सजन भी शामिल हुए विषय पर चर्चा हुई और वहाँ भी यह थे। विवाह खूब ठाठके साथ हुआ। प्रस्ताव पास हो गया। दस बारह वर्ष हूमड़ और मेवाड़ा ये दोनों जातियाँ पहले बरार और मध्य प्रान्तकी दिगम्बर बहुत करीब करीबकी रहनेवाली हैं। जैन जातियों में परस्पर रोटी बवहार भी दोनोंके रीति-रिवाज, पहराव ओढ़ाव, नहीं था। पीछे इस विषयकी चर्चा हुई For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैनहितैषी। [भाग १५ और रोटी व्यवहार होने लगा। उसके हैं, उनसे हमारी एक प्रार्थना और है कि वाद अब यह बेटी-व्यवहारकी चर्चा उठी वे अपनी इस होनहार महासभामें गोला है, जो उसके आगेकी सीढ़ी है। प्राशा पूरब, गोलालारे, पचबिसे, सभैया आदि है कि कुछ समयमें बेटी-व्यवहार होने अपनी पड़ोसी जातियोंके बिनकैयोंको भी लग जायगा। उक्त प्रान्तमें छोटी छोटी सादर सम्मिलित करे-उन्हें जुदा न संख्यावाली जातियोंकी संख्या सबसे छोड़ देवें। क्योंकि उनको परिस्थितियाँ अधिक है और इस कारण वहाँवालो- भी करीब करीब आप ही जैसी हैं। आप को माज नहीं तो कल, अपना अस्तित्व के सहारेसे वे भी अपना कल्याण करने में बनाये रखने के लिए यह प्रस्ताव अमलमें समर्थ हो सकेंगी। लाना ही पड़ेगा। ४-हिन्दू धर्म परिषद्के निर्णय । ३-बिनैकया-जैन-महासभा । सागर, गत ४, ५ और ६ दिसम्बरको नागपुरमें बीना आदि स्थानोंके कुछ बिनैकया महाराष्ट्रीय हिन्दू धर्म परिषद्का दूसरा सजन अपनी जातिकी एक सभा स्थापित अधिवेशन करवीरमठके शंकराचार्यकी करनेका उद्योग कर रहे हैं, जो बहुत अध्यक्षतामें बड़ी धूमधामसे हुआ । महाही प्रशंसनीय है। परवार जातिके नये राष्ट्रके बड़े बड़े महामहोपाध्याय, शास्त्री और पुराने बिनैकया भाइयों की संख्या और अन्यान्य विद्वान् इस अधिवे. थोड़ी नहीं है। परवार भाइयोंका व्यव शनमें उपस्थित हुए थे। अधिवेशनकी हार इनके साथ बहुत ही बुरा है और रिपोर्ट पढ़नेसे यह स्पष्ट प्रतीत होता कहीं कहीं तो वह सहनशीलताकी भी है कि अब पुराण-मतवादी हिन्दू भी सीमाको उल्लंघन कर जाता है। ऐसे इस बातको समझने लगे हैं कि देश सैकडो स्थान है जहाँ परवार भाई इन्हें और कालकी परिस्थितियोंके अनुसार सीनियर अपने मन्दिरोंमें दर्शन करनेके लिए भी हमें अपने प्राचारों और व्यवहारों में नहीं जाने देते हैं । भोजन आदिका संशोधन और परिवर्तन अवश्य करना सम्बन्ध तो बहुत बड़ी बात है। इस व्यव- होगा। परिषद ने अपने कई निर्णय बड़े द्वारसे यह जाति इतनी दब गई है कि ही महत्वके प्रकाशित किये हैं। एक तो स्वयं भी अपनेको बहुत ही छोटा समझने यह कि कलियुगमें भी क्षत्रियों और लगी है और किसी जातिके उत्थानमें यह सबसे बड़ा विघ्न है कि वह दूसरोक कर वैश्योंका अस्तिख है। बंगाल और दक्षि. नेसे अपने आपको छोटा समझने लगी एके ब्राह्मण ग्रन्थकारोंने यह विश्वास हो। यदि इस जातिके उद्योगी पुरुष प्रयत्न दिला रक्खा है कि कलियुगमें ब्राह्मण करके अपनी एक सभा बना सके और शुद्र ये दो ही वर्ण रहेंगे और इसी वि. उसकी छत्र छायामें एकत्र होकर अपनी श्वासका यह फल है कि अन्य प्रान्तोंके उन्नतिके लिए उद्योग करें और अन्य जाति- ब्राह्मण अपने सिवाय अन्य सब जातियोंयोके समान अपनी जातिमें शानवृद्धिकी, को शुद्र गिनते हैं। धर्म परिषदने यह कुरीतियोंके संशोधनकी और सदाचारके निर्णय उक्त विश्वासको बदल डालनेके प्रचारकी चेष्टा करें तो बहुत लाभ हो। लिए दिया है। दूसरा निर्णय यह किया जो सजन इस विषयमें उद्योग कर रहे है कि जो लोग जबर्दस्ती या अत्या For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] समाजिक संवाद । ३8 चारके डरसे अन्य धर्मी हो गये हों वे कालाबाधित नहीं है। समाज ही स्वतः प्रायश्चित्त करके फिर अपने धर्म में लाये धर्म बनाता है। बहुतों का ख्याल है कि जा सकते हैं। इस निर्णयसे जो हिन्दू - मनुस्मृति त्रिकालाबाधित है, परन्तु यह भ्रम है। उसमें यदि कुछ बातें नित्य हैं मुसलमान, ईसाई आदि बन गये हैं वे फिर तो कुछ अनित्य भी हैं। जब प्राचार बराहिन्दू बनाये जा सकेंगे। अस्पृश्यताके बर बदलता जा रहा है तो स्मृति भी सम्बन्धमें पूरा निर्णय तो परिषद् के प्रा. बदलनी चाहिए, ऐसा कहना धर्मके . गामी अधिवेशनमें प्रकट किया जायगा; परन्तु अभी यह कहा गया है कि कुछ ठीक है कि हिन्दू धर्म चातुर्वण्ये विरुद्ध बलवा करना नहीं है। यह खास खास मौकोपर अस्पृश्यता नहीं माननेके प्रमाण मिलते हैं । यथा पर अधिष्ठित है। एक समाजके नष्ट हो जाने पर दूसरा भी नष्ट न हो जाय, देवयात्राविवाहेषु यज्ञप्रकरणेषु च। इसके लिए यह रचना की गई है। उत्सवेषु च सर्वेषु स्पृष्टास्पृष्टिर्न विद्यते॥ परन्तु जिस तरह जहाजमें मुसाफिरोंके ' अर्थात् देवयात्रामें, विवाहों में, यज्ञ लिए जुदा जुदा कमरे होते हैं, फिर भी वे प्रकरणों में और सारे उत्सवोंमें छुआछूत डेक पर एक जगह जमा हो सकते हैं, उसी नहीं मानी जाती। परन्तु अभी तक अस्पृ. तरह ऐसा सुभीता होना चाहिए कि चारों श्यताको सर्वथा न मानने के सम्बन्ध वों के लोग एक जगह इकट्ठे हो सके। कोई प्रमास नहीं मिला है। हिन्दू राष्ट्रकी दृष्टिसे मनुष्य संख्या बढ़ाना श्रीयत दिवेकर शास्त्रीने अपनी एक इष्ट है । ऐसी दशामें जो पतित हो गये हैं महत्वपूर्ण योजना परिषद में उपस्थित की उन्हें अपने में फिर मिला लेना चाहिए। बल्कि दूसरे धर्मवालोको भी अपने धर्मथी जिसे तीन चार शास्त्रियोंने पुष्ट भी ___ में लानेका द्वार खुला रखना चाहिए । किया था। इस योजनामें पतित पराव ऐसी व्यवस्थाके बिना हिन्दुओका ह्रास तन कराना, समुद्रयात्रा और परदेशगमन निषिद्ध न मानना, विधवाओंके शिरो- बन्द नहीं हो सकता। जो लोग इसरोके M जुल्मसे, मोहसे या अज्ञान मादिसे मुण्डनका आग्रह न करना, अस्पृश्य परधर्मी हो गये हैं, यदि उन्हें पीछे जातियोंकी सार्वजनिक अस्पृश्यता मिटा देना और उनमें शिक्षाका प्रचार करना, पश्चात्ताप हो, तो क्या अपने धर्मका द्वार उनके लिए सर्वदाको बन्द कर स्त्रीपुनर्विवाहके प्रश्नको एक ओर रखकर देना चाहिए ?" श्रीपाद शास्त्रीने पुरुष पुनर्विवाह त्याज्य ठहराना, स्त्रियों कहा कि "छुटपनके कपड़े जिस तरह को भी वेद पढ़ने का अधिकार देना, प्रत्येक बड़े होने पर नहीं पहने जा सकते ,उसी गाँवमें कमसे कम एक ऐसा सार्वजनिक मन्दिर बनवाना जिसमें सब लोगोको रही है तब प्राचीन कालके नियम इस तरह जब समाजकी दिनों दिन प्रगति हो दर्शन करने की आज्ञा हो, आदि बाते बहुत समय काममें नहीं पा सकते। इस दृष्टि विचारपूर्वक रक्खी गई थीं। केसरी और से ही पतित परावर्तन और अस्पृश्यता मराठाके सम्पादक श्रीयुक्त नरसिंह चिः मादि प्रश्नोंका निर्णय करना चाहिए।" न्तामणि केलकर भी उक्त परिषदमें उपस्थित थे। मापने कहा कि "धर्म त्रि. For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० पुस्तक- परिचय | १ युक्त्यनुशासन सटीक - माणिक चंद्र दि० जैनग्रंथमालाका १५. वाँ 'पुष्प। पृष्ठ संख्या, २०० के करीब । मूल्य, लिखा नहीं, पर है तेरह धाने । मिलनेका पता, जैन ग्रन्थरस्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । जैनहितैषी । यह मूल ग्रंथ 'स्वामिसमन्तभद्राचार्यका बनाया हुआ एक बड़ा ही महत्वपूर्ण और अपूर्व ग्रंथ है और इसका प्रत्येक पद बहुत ही अर्थ गौरवको लिये हुए है। इसमें, स्तोत्रप्रणालीसे, कुल ६४* पयों द्वारा, स्वमत और परमतोंके गुण-दोषोंका, सूत्र रूपसे, बड़ा ही मार्मिक वर्णन दिया है और प्रत्येक विषयका निरूपण बड़ी ही खूबीके साथ प्रबल युक्तियों द्वारा किया गया । यह ग्रंथ जिज्ञासुओंके लिये हितान्वेषणके उपायस्वरूप है और इसी मुख्य उद्देश्यको लेकर लिखा गया है; जैसा कि इसके निम्न पद्यसे प्रकट हैन रागान्नः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनौ न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमु न्यायान्यायप्रकृतगुणदोषशमनसां, हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ॥ ६३ ग्रंथके साथ में विद्यानंदस्वामी जैसे प्रखर तार्किक विद्वानकी बनाई हुई एक मनोहर संस्कृत टीका लगी हुई है और इससे ग्रंथकी उपयोगिता और भी ज्यादा बढ़ गई है। मूल ग्रंथ पहले एक बार 'सनातन जैनग्रंथमाला' के प्रथम गुच्छुक में भी प्रकाशित हो चुका है; परंतु यह टीका अभी तक प्रकाशित नहीं हुई थी । कितने ही प्रयत्नोंके बाद अब यह प्रकाशित हुई है और इससे विद्यानंद स्वामीकी एक ऐसी नई कृतिका उद्धार हुआ है जो प्रायः अनुपलब्ध थी । यह कृति उनके श्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और तत्वार्था • इस ग्रंथ में ४२ वें पद्यके बाद ४३वें पद्य पर ४४ नंबर डाला गया है और इस तरह पर आगे आगे के पद्यों पर बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होकर अन्तिम पद्यसे ग्रंथसंख्या ६५ मालूम होती है, जो गलत है। [ भाग -१५ लंकार ( श्लोकवार्तिक ) नामक ग्रंथोंके बादकी बनी हुई है, ऐसा इसके भीतरके उल्लेखवाक्योंसे पाया जाता है। इसके उद्धार कार्यमें नजीबाबाद के साहु गणेशीलालजीकी धर्मपत्नीने सौ रुपयेकी सहायता प्रदान की है और उनकी इस सहायतासे यह ग्रंथ ख़ास ख़ास विद्वानों तथा संस्थाओंको बिना मूल्य भेट भी किया जाता है 1 हमें इस ग्रंथके प्रकाशित होने पर जितनी खुशी हुई उतना ही यह देखकर दुःख भी हुआ ग्रंथ में कागज बहुत घटिया तथा कमजोर लगाया गया है और छपाई भी कुछ अच्छी नहीं हुई । ऐसे महान ग्रंथको, जिसे जैन शासनकी एक प्रकार से जान कहना चाहिए और जिसे श्रीजिनसेनाचार्यने, हरिवंश पुराणमें, महावीर भगवानके वचनोंके तुल्य उनकी जोड़का- बतलाया है, ऐसे घटिया तथा रद्दी कागजपर छापना निःसन्देह बड़ा ही खेदजनक है, और इससे यह मालूम होता है कि ग्रन्थका उचित श्रादर नहीं किया गया । ऐसे महान् ग्रंथ, श्वेताम्बरोंकी आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित होनेवाले उनके श्रागम ग्रंथोंकी तरह, उत्तम और अच्छे पुष्ट काग़ज़ पर छपने चाहिएँ । यदि ऐसे कागज पर छापनेकी श्रद्धा श्रथवा सामर्थ्य न हो तो कमसे कम ऐसे पतले, रद्दी और कमज़ोर काग़ज़ पर तो वे नहीं छपने चाहिएँ । माणिकचंद ग्रंथमालाका कार्यं किसी व्यापारिक दृष्टि से नहीं होता है और इसलिये हमारी रायमें उसका कोई भी ग्रंथ ऐसे घटिया काग़ज़ पर प्रकाशित न होना चाहिएँ । आशा है, ग्रंथमालाके प्रबंधक महाशय श्रागेको इस पर ज़रूर ध्यान रक्खेंगे । ग्रंथके टाइटिल पेजसे ऐसा मालूम होता है। कि ग्रंथका संपादन और संशोधन दो विद्वानों के द्वारा हुआ है। परंतु फिर भी इसमें कितनी ही ग्रंथमालाका यह ग्रंथ बम्बई में न छपकर कलकत्तेके जैन सिद्धान्त प्रकाशक प्रेसमें पं० श्रीलालजी काव्यतीर्थ के प्रबंधसे, जो कि इस ग्रंथके संपादक तथा संशोधनकर्ता भी हैं, मुद्रित हुआ है । ** For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] शुद्धियाँ तथा भूलें पाई जाती हैं, जिनका एक उदाहरण नीचे दिया जाता है पुस्तक-परिचय | पाँचवें नम्बर के पद्य में 'श्रोतुः' एक पद श्राया है जिसकी जगह पर टीकामें दो स्थानों पर ' स्तोतुः' छापा गया है जो साफ़ तौर से ग़लत जान पड़ता है; क्योंकि श्रोतुः का स्तोतुः श्रर्थ नहीं होता और न स्तोताका (स्तुति करनेवालेका) वहाँ कोई सम्बन्ध है बल्कि वक्त के साथमें श्रोताका ही उल्लेख पाया जाता है । यह पूरा पद्य सनातन जैन ग्रंथमाला में प्रकाशित मूलके अनुसार इस प्रकार है कालः कलिर्वा कलुषाशयोवा भोतुः प्रवक्तुर्वचनानयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥ ५ ॥ इस ग्रंथ में भी यह पद्य इसी प्रकारसे दिया हुआ सिर्फ़ 'वचनानयः' की जगह यहाँ 'वचनाशयः' पद बनाया गया है, अर्थात, 'श्रनय' शब्दको 'आशय' से बदला है; और यह सब संशोधनका ही परि• णाम मालूम होता है । हमारी रायमें यहाँ 'वचनानयः" पद ही ठीक जान पड़ता है, 'वचनाशयः' में कोई विशेषता नहीं पाई जाती। इस श्लोक़में भगवानकी अनेकान्तात्मक शासनकी जो एकाविपतित्वरूपी लक्ष्मी है, उसकी प्रभुत्वशक्तिके अपवादका कारण बतलाया गया है और वह कलिकाल, श्रोताका कलुषाय (दर्शनमोहाक्रान्त चित्त) और वक्ताका वचनानय (वचनका श्रप्रशस्त-निरपेक्ष-नयके साथ व्यवहार) ही है, ऐसा निर्देश किया है। वक्ताका मात्रवचनाशय उस शक्तिके अपवादका कारण नहीं हो सकता। इसलिये यह संशोधन ठीक नहीं हुआ बल्कि इससे उस पदका महान् गंभीराशय ही बदल गया है। जहाँ तक हम सम ते हैं, जिन हस्तलिखित प्रतियों परसे इस ग्रंथकी " प्रेसकापी तय्यार की गई है उनमें यह पद 'वचना यः ही होगा । परंतु यदि किसीमें 'वचनाशयः' पाठ भी था तो भी जब एक सुप्रसिद्ध मुद्रित प्रतिमें दूसरा सुसंगत पाठ पाया जाता था तो कमसे कम ३६१ उसका उल्लेख एक फुट नोट द्वारा ज़रूर कर देना चाहिए था, जिससे पाठकों को यथार्थं वस्तुस्थितिके समझने में काफ़ी सहायता मिलती । परंतु ऐसा नहीं किया गया। इससे यह कहना शायद कुछ अनुचित न होगा कि ऐसे महान ग्रंथके संपादन श्रौर संशोधनमें जैसा कुछ परिश्रम होना चाहिए था वह नहीं हुआ । अस्तु; यह ग्रंथ अच्छे प्रौढ़ विद्वानोंके पढ़ने, दूसरे विद्वानोंको दिखलाने और पुस्तकालयों तथा मंदिरोंमें संग्रह किये जानेके योग्य है। २ षट् प्राभृतादि संग्रह - उक्त ग्रंथमाला का १७वाँ पुष्प । पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ४६० मूल्य तीन रुपये । इसमें भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के षट्प्राभृत, लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, रयणसार और द्वादशानुप्रेक्षा, ऐसे पाँच ग्रंथोंका अथवा पट्प्राभृतमें चूंकि छह ग्रंथ - दर्शनप्रा०, चरित्र प्रा० सूत्र मा०, बोधप्रा०, भावप्रा०, मोक्षप्राभृत- शामिल हैं, इसलिये दस ग्रथोंका संग्रह किया गया है। ये सब ग्रंथ प्राकृत भाषा में हैं और प्राकृतमें प्राभृतको 'पाहुड़' कहते हैं। इनमेंसे षट्प्राभृत पर श्रुतसागर सूरिकी, जो कि एक भट्टारकके शिष्य थे, संस्कृत टीका है और शेष ग्रंथों के साथ में संस्कृत छाया लगी हुई है । ग्रांथके शुरू में ग्रंथमाला के मंत्री श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीकी लिखी हुई एक ११ पेजकी भूमिका हिन्दीमें है, जिसमें भववत्कुंदकुंद और श्रुतसागर सूरिका वह परिचय दिया हुआ है जिसे पाठक हितैषीके पिछले कुछ अंकोंमें पढ़ चुके हैं । इसके सिवाय मूल ग्रंथोंकी दो गाथासूचियाँ, षट्प्राभृतकी टीकामें आये हुए उद्धृत पयोंकी सूची और प्रकीर्णक सूत्र वाक्योंकी सूची, ऐसी चार सूचियाँ देकर ग्रंथके इस संस्करणको उपयोगी बनाया गया है। 1 इस संग्रहमें द्वादशानुप्रेक्षा ( वारस श्रणु वेक्खा) नामका जो ग्रंथ है, उसके अन्तिम पयमें, 'इदिणिच्छय ववहारं जं भणियं कुंदकुंद मुणिगाहें' इस वाक्यके द्वारा, ग्रंथकर्ताका नाम भी For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैनहितैषी। [भाग १५ दिया हुआ है, और यह पाठकोंको शायद एक नई खो दिया है। जो लोग शासन देवताओंकी पूजाबात मालुम होगी कि भगवत्कुंदकुंदके अब तक का निषेध करते हैं और ऐसे कितने ही आचार्य जितने ग्रंथ (दस ये और चार दूसरे) उपलब्ध तथा विद्वान हो गये हैं-उन्हें भी मिथ्यादृष्टि, नास्तिक हुए हैं उनमें यही पहला ग्रंथ है जिसमें उनका और उत्सूत्री ठहराया है ! और वे यदि युक्ति-वचनों नाम एक पद्य में पाया जाता है। यह ग्रंथ पहले से अपने प्राग्रहको न छोड़ें तो उनके मुंह पर छप चुका है। रयणसार और षट्पाहुड (भाषा विष्ठामें लपेटकर जते मारने चाहिएँ, उसमें कोई टीका सहित) भी छप चुके हैं। इसलिये षट् पाप नहीं है, ऐसा विधान किया है !! इस घृणित पाहुड (प्राभृत) की यह टीका, लिंग पाहुड और लेखनी और द्वेषभावका भी कहीं कुछ सील पाहुड ये तीन ग्रंथ ही इस संग्रह में नये ठिकाना है !!! पाठक नीचे टीकाकारके उन खास छपे हैं। छपे हुए रयणसार ग्रंथ में १५५ शब्दों को देखेंगाथाएँ थी और अब एक दूसरी प्रतिके आधार "शासन देवता न पूजनीयाः, प्रात्मैव पर १६७ गाथाएँ छापी गई हैं। साथ ही कुछ क्रम- देवोवर्तते अपरः कोपि देवोनास्ति, वीराभेद भी किया गया है। परंतु यह नहीं बतलाया दनन्तर किल केवलिनोऽष्टजाता न तु त्रयः गया कि ये बढ़ी हुई गाथाएँ मूल ग्रंथकी हैं अथवा महापुराणादिकं किलविक्रथा इत्यादि क्षेपक । इस रयणसार ग्रंथ और द्वादशानुप्रेक्षामें ये उत्सूत्रं मन्वते ते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका कितनी ही गाथाएँ साफ तौरसे क्षेपक मालूम नास्तिका स्ते यदि जिनसूत्रमुल्लघते तदा होती हैं। अच्छा होता यदि इस विषयके निर्णयका आस्तिकैर्युक्तिवचनेन निषेधनीयाः। तथा. ग्रंथमें कोई खास प्रयल किया जाता, जिससे मूल पि यदि कदाग्रहनमुंचंति तदा *समस्तैग्रंथ अपने असली रूपमें पाठकोंको देखनेको रास्तिकैरूपानद्भिः गूथलिप्ताभिर्मुखे ताड. मिलते और किसीको किसी वाक्यके समझने या नीयाः; तत्र पापं नास्ति" उल्लेख करनेमें भ्रम न होता। हमें यह देखकर अफसोस होता है कि ग्रंथके ___ भगवत्कुंदकुदके मूल ग्रंथोंके सम्बन्धमें हमें यहाँ संपादक और संशोधक पं० पन्नालालजी सोनीने कुछ बतलानेकी ज़रूरत नहीं है। वे कैसे अच्छे होते एक फुटनोटके द्वारा टीकाकारके इस भावको हैं इससे प्रायः सभी पाठक परिचित है। हाँ, षट्- पुष्ट करनेकी कुछ चेष्टा की है ! अस्तु; अब हम प्राभृतकी इस टीकाके सम्बन्धमें हमें इतना जरूर पाठकोंके सामने वह मूल गाथा रखते हैं जिसकी कहना होगा कि, यह टीका एक बहुत ही आपत्ति- टीकामें यह अंश दिया हश्रा जनक टीका है, जिसपर एक जुदा विस्तृत लेख लिखे दसणमूलो घम्मो उवइट्रो जिणवरेहिं सिस्साणं जानेकी ज़रूरत है। इसमें टीकाकार, कितनी ही तं सोऊण सकरणे दसण हीणोण वंदिव्वो २ जगह, मलके भावोंसे बहुत ही इधर उधर निकल इस गाथामें दर्शनहीन ( सम्यक्त्व रहित ) गया है। उसने अपनी कषाय-परिणति, द्वेष भरी वंदना किये जानेके योग्य नहीं है, ऐसा जो कहा दृष्टि और असंयत भाषाके द्वारा मूल ग्रंथकी गया है उसीकी व्याख्यामें टीकाकारने उपर्युक्त शांति और उसके माध्यस्थ भावको बहुत कुछ उदार निकाले हैं और इस बातकी जरा कोशिश भंग कर दिया है। वह श्वेताम्बरों, स्थानकवासियों (लौकागच्छानुयायियों) तथा अपनेसे विभिन्न . * पिटसन साहबकी रिपाट वाली हरतलिखित प्र ऐसा ही पाठ है। छपी हुई प्रतिमें इसकी जगह समर्थैः। विचार रखनेवाले दूसरे दिगम्बर सम्प्रदायों और ___ पद दिया है जो संभवतः टिप्पणी में पाए हुए 'शक्त' शब्द इतर व्यक्तियों पर बुरी तरहसे टूटा है और उसमें का सादृश्य स्थापित करनेके लिये संशोधित मालूम उसने सभ्यता तथा शिष्टताको बिलकुल ही हाथसे होता है। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] पुस्तक परिचय। नहीं की कि उस दृष्टि तथा अपेक्षाको खोलकर है कि उन्होंने कुंदकुंदाचार्यके निदोष सिद्धान्तोंको दिखलाये. कि जिसको लेकरमल गंथकारने दर्शन- टीकामें किस तरह पर विकत अथवा दृषित किया हीनको अवंदनीय ठहराया है और जिसको खोल है और किस तरह पर श्री कुंदकुंदके उस माध्य. कर दिखलाना टीकाकारका मुख्य कर्तव्य था। स्थ भाव (औदासीन्य) का अपहरण किया है इससे पाठक समझ सकते हैं कि टीकाकारके जो कि उन सैद्धान्तिक विवादोंके सम्बन्धमें था उक्त उदार मूल ग्रंथसे कितने असम्बद्ध हैं। इस जो उनके समयमें उत्पन्न नहीं हुए थे-वादको प्रकारके सम्बद्ध और अशिष्ट व्यवहार-सचक उत्पन्न हुए है । अस्तु। बीसियों उदाहरण टीकामें से दिये जा सकते हैं। अब हम ग्रंथके सम्पादन सम्बन्धमें भी एक कहीं कहीं टीकाकारने अपने प्रयोजनके लिये मलको बात निवेदन कर देना चाहते हैं और वह यह है कुछ परिवर्तित भी किया मालूम होता है। जैसा कि कि यद्यपि ग्रंथका संपादन आम तौरसे बुरा नहीं दर्शन प्राभृतकी १२वीं गाथामें 'पाए पाडंति' की हुआ, अच्छा जान पड़ता है, परंतु उसमें कहीं जगह ‘पाए ण पडंति' बनाया है और फिर टीका- कहीं कुछ मोटी अक्षम्य भूलें पाई जाती हैं जिनका में उसपर एक उद्गार प्रकट किया है। इस परि- कि एक उदाहरण नीचे दिया जाता हैवर्तनके बाद अगली गाथा 'जेवि पडति का फिर सूत्र प्राभृतकी २१वीं गाथाकी टीकामें वह अर्थ नहीं रहता जो कि किया गया है। इसपर 'उक्तंच समन्तभद्रेण महाकविना' इस वाक्यके साथ टीकाकारने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। चार पद्य उद्धृत किये गये हैं। ये चारों पब हमारी रायमें यह टीका जैन साहित्यका स्वामिसमन्तभद्राचार्यके बनाये हुए नहीं हैंएक कलंक है। इसकी रोशनीमें पढ़नेसे मल ग्रंथ, टीकाकार आदिकी किसी भूलसे ऐसा उल्लेख जो कि स्वतः निर्दोष है, बहुत कुछ विकृत, संकीर्ण हुआ है, यह समझकर सम्पादक महाशय और सदोष मालूम होने लगता है। ऐसी कृतियों- पं० पन्नालालजी सोनीने उक्त वाक्यके 'समन्तके अवलोकनसे प्रायः अशुभ प्रास्रवकी उत्पत्ति भद्रेण' पदपर एक फुट नोट दिया है जो इस होती है और साथ ही साम्प्रदायिक देष-भाव प्रकार हैबहता है और यह ऐसी ही कृतियोंका फल है "पुस्तकद्वयेऽपि ईगेव पाठः। जो समाजमें संकीर्ण-हृदयता फैली हुई है, धर्मके अस्यस्थाने सोमदेवेनेति युक्तं भाति।" नामपर अनेक झगड़े टंटे चल रहे हैं, शक्तिका इस फुट नोटके द्वारा यह सूचित किया गया दुरुपयोग हो रहा है और सद्भाव कायम होने में है कि टीकाके उक्त वाक्यमें 'समन्तभदेण' की नहीं आता। श्रुतसागर सूरि विद्वान् ज़रूर थे जगह 'सोमदेवेन' पाठ ठीक मालूम होता है। परंतु उनमें साधुजनोचित श्रात्म-बलकी बहुत बटि क्योंकि ये चारों पद्य सोमदेव सूरिके बनाये हुए थी, ऐसा इस टीकापरसे साफ़ तौरपर संलक्षित हैं। इनमेंसे 'एकादशके स्थाने' इत्यादि चोकको होता है। प्रोफेसर पिटसन साहबने भी अपनी तो उद्धृत श्लोकोंकी सूचीमें भी साफ तौरसे रिपोर्टमें, आपको 'क्रूर (Fierce) दिगम्बर' सोमदेव सूरिका बनाया हुआ लिखा है और उनके लिखा है और कुछ उदाहरण देकर यह बतलाया 'यशस्तिलक' ग्रंथका प्रकट किया है । इस उल्लेखके His (Kundkundacharya's) com कारण हमने समूचे यशस्तिलकको बहुत कुछ mentator is a fierce Digamber, and __टटोला और जब उसमें इन चारों पयोंमेंसे कोई amply fulfills the promise with which he starts that he will devote the grea भी पद्य हमारी नज़र नहीं पड़ा, बल्कि जिन ter part of his attention to crushing the rival sect. But his zeal in that disputes, which inay have arisen after matter throws wbat seeins to me Kund his own time. into strong relief. kunda's own indifference to coctrinal -Peterson.. For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैनहितैषी। [भाग १५ । ग्यारह प्रतिमाओंसे इन पोंका सम्बन्ध है उनका करते हैं कि कर्तव्यानुरोधसे लिखे हुए हमारे इस नाम और क्रम-निर्देश भी यशस्तिलकमें कुछ नोटपर सोनीजी ज़रा भी असन्तुष्ट म होकर विलक्षण और विभिन्न ही पाया गया, तब हमने बहुत ही अँचे तुले होने चाहिए। ग्रंथमालाके मंत्री श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीको प्रायश्चित्तसंग्रह-उक्त ग्रन्थमालाका लिखा कि ने कृपाकर इस ग्रंथके संपादक पं० १८ वाँ पुष्प । पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर २०० । पन्नालालजी सोनीसे यह दर्याफ्त करके सूचित मूल्य, एक रुपया दो आने । करें कि ये सब पद्य अथवा इनमेंसे कोई पद्य यश यह अपने विषयका एक नया ही संग्रह प्रकास्तिलकमें कहाँपर पाये जाते हैं, और यदि यश शित हुआ है। इसमें १ छेदपिण्ड, २ छेदशास्त्र स्तिलकके नहीं तो सोमदेव सूरिके दूसरे कौनसे (छेदनवति), ३ प्रायश्रित्त समुच्चय चूलिका और ४ ग्रन्थके ये पद्य हैं। इसके उत्तरमें प्रेमीजीने सोनी प्रायश्चित्त (श्रावक-प्रायश्चित्त) ऐसे चार ग्रथोंका जीसे दर्याफ्त करके हमें जो सूचित किया है वह संग्रह किया गया है, जिनमेंसे पहले दो प्राकृत इस प्रकार है हैं और उनके साथ संस्कृत छाया नई तैयार ... "षट्माभृतमें जो श्लोक सोमदेवके कराकर लगाई गई है। दूसरे ग्रन्थके साथमें एक बतलाये गये हैं वे भूलसे बतलाये गये छोटीसी संस्कृत वृत्ति भी है परन्तु वह वृत्ति हैं। सोनीजीको ऐसा ही ख़याल था। तथा मूल ग्रन्थ दोनों किसके द्वारा निर्मित हुए हैं, उनसे मैंने पूछ लिया। 'एकादशके स्थाने यह कुछ मालूम नहीं होता । पहला ग्रन्थ इन्दुनन्दी भी यशस्तिलकका नहीं है। वह भीभूलहै" आचार्यका बनाया हुआ है, परन्तु कौनसे इन्दुइस उत्तरको पाकर हमें सोनीजीकी इस नन्दीका, यह अभी तक निश्चय नहीं हो सका। लापरवाही, असावधानी और निराधार लेखनी शेष दो ग्रन्थ संस्कृत हैं जिनमेंसे प्रायश्चित्त समुच्चय चलानेके साहसपर बहुत ही ज्यादा अफ़सोस चूलिका नामका ग्रन्थ श्रीगुरुदासाचार्यका बनाया हुआ ! पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि महज़ हुआ है और उसके साथ श्रीनन्दिगुरुकी अपने कोरे ख़यालके आधार पर, जिसका कहीं संस्कृत टीका भी है। चौथा ग्रन्थ 'अकलंक' से भी कछ समर्थन न होता हो और न जिसके नामके किसी भट्टारकका-संभवतः अकलंक सत्यकी पहले कोई जाँच की गई हो, इस प्रकार प्रतिष्ठापाठके कर्ताका-अथवा भट्टाकलंकदेवके का काम कर बैठना कितने बड़े दुःसाहस और नामसे किसी दूसरे ही व्यक्तिका बनाया हुआ हिमाकतकी बात है। हमारी रायमें यदि सोनीजी है और पहले तीनों ग्रन्थोंके कथनोंसे बहुत कुछ टीकाके इस समन्तभद्रवाले उल्लेखको ज्योंका विलक्षण तथा विभिन्न पाया जाता है। अपने त्यों अशुद्ध ही रहने देते और उसपर कोई नोट न साहित्य परसे यह ग्रन्थ भट्टारकी छापसे छपा देते तो वह इतना बुरा नहीं था जितना कि इस हुआ और बहुत कुछ अाधुनिक तथा असमीनोट देनेसे हो गया है। अब जब तक इस ग्रन्थकी चीन जान पड़ता है। इसमें प्रायश्चित्तके तौर पर ये मुद्रित प्रतियाँ रहेंगी और उनमें उक्त नोट तथा गौदान आदिका भी विधान किया गया है। पहले सूचीका वह उल्लेख कलमजद न किया जायगा तब तीन ग्रन्थोंका कथन आपसमें बहुत कुछ मिलता तक इन पद्योंके लिये बहुतसे विद्वानोंको बराबर जुलता है और कहीं कहीं पर किसी ग्रन्थमें कुछ यशस्तिलकके पत्र उलटने पड़ा करेंगे, और इस विशेष कथन भी पाया जाता है। दूसरे ग्रन्थका तरह पर कितने लोगोंका कितना समय एक कथन तीसरेके साथ अधिक सादृश्य रखता है। ख्वाहमख्वाहकी भूलके पीछे नष्ट होगा, इसका ये तीनों ही ग्रन्थ बहुत अच्छे और उपयोगी है अनुभव विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं । हम आशा और इनमें मुनि तथा श्रावक दोनोंके लिये प्राय For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस्तक-परिचय। अंक १२ ] . श्चित्तका-शुद्धिका-विधान किया गया है। इनमें है। कई वर्ष हुए जब हमने इस ग्रन्थको पूरा पढ़ा भी 'प्रायश्चित्त-समुच्चय' नामका ग्रन्थ एक था और उस वक्त इस समचे ग्रन्थपर जो विचार बड़ा ही महत्वपूर्ण और प्रौढ़ साहित्यको लिये उत्पन्न हुआ था उसे एक कागजके टुकड़े पर लिख हुए उच्च कोटिका ग्रन्थ है, जिसमें सूत्ररूपसे थोड़े छोड़ा था। उचित मालूम होता है कि इस समाशब्दोंमें प्रायश्चित्त विषयका बहुत कुछ कथन लोचनाके साथ उसे भी प्रकाशित कर दिया जाय। किया गया है । 'प्रतिसेवा' आदि कितने ही खास वह निन्न प्रकार हैअधिकार ऐसे दिये हैं जो छेदपिंडादिक दूसरे 'यह रहस्य ग्रंथ (प्रायश्चित्त समुशय) ग्रन्थों में नहीं पाये जाते। परंतु हमें यह देखकर जैन धर्मपर और खासकर उसके चरणाखेद होता है कि यह पूरा ग्रन्थ इस संग्रहमें नहीं नुयोग पर एक बड़ा भारी प्रकाश डालने छापा गया। उसका केवल उत्तर भाग ही छापा वाला है। इस ग्रंथके पढ़नेसे बहुतसी गया है जो कि उसकी चूलिका कहलाता है। इस ऐसी बातोका अनुभव होता है, जो वर्त. भागके अन्तमें एक पद्य इस प्रकारसे दिया हुआ है मान आचार-विचारकी दृष्टिले, बद्यपि, चूलिकासहितो लेशात् प्रायश्चित्तसमुच्चयः कुछ नई सी मालूम होती हैं परन्तु वास्तव. नानाचार्यमतान्यैक्याद् बोद्धुकामेनवर्णितः में वे सब सत्य, स्वाभाविक और मार्मिक इसमें साफ तौरसे चूलिका सहित प्रायश्चित्त हैं और उनसे जैनियोंके धर्माचरणका ढाँचा अच्छी तरहसे समझमें आ जाता समुच्चय ग्रन्धकी समाप्तिको सूचित किया है और ग्रन्थके निर्माणका यह हेतु बतलाया है कि वह ह है। यह पूरा ग्रंथ भात्महितैषी विद्वान् नाना पाचायोंके मतोंका एकत्र अथवा एक मखसे सुधारकांक मनन करने योग्य है. साधाबोध करानेके लिये लिखा गया है। इस पद्यके रण गृहस्थोके पढ़ने योग्य नहीं है। मौजूद होते हुए, ग्रन्थका प्रधान भाग ( पूर्व खंड) इस संग्रहके ग्रन्थ-सम्बंधमें एक बात और साथमें न होनेसे ग्रन्थका अधूरा और लंडुरापन भी प्रकट कर देनेके योग्य है और वह यह है कि बहुत ही खटकता है । जान पड़ता है, ग्रन्थमालाके छेदपिण्डके अन्तमें उसके कर्ताने ग्रन्धकी गाथाकाम करनेवालोंको इस परसे यह मालूम ही नहीं संख्या ३३३ बतलाई है और लोक दृष्टिसे ग्रन्धका हो सका कि यह ग्रन्थ अधूरा है और इसी लिये परिमाण ४२० श्लोक परिमाण दिया है। परंतु उन्होंने कहींसे उसकी प्राप्तिकी कोशिश नहीं की। इस मुद्रित ग्रन्थमें गाथाओंकी संख्या ३६२ पाई की होती तो वे कमसे कम उसकी और ग्रन्थके जाती है और जिस गाथामें उक्त परिमाण अधूरेपनकी कोई सूचना साथमें ज़रूर देते, जो दिया हुआ है उसका नम्बर ३६० है अर्थात नहीं दी गई। अस्तु, इस चूलिकासे पहले मल इस गाथा तक उक्त परिमाणसे २७ गाथाएँ ग्रन्थके २५६ पद्य और हैं और उनके साथमें भी श्री बढ़ी हुई हैं। इसपर ग्रन्थमालाके मंत्री श्रीयुत पं० नन्दिगुरुकी 'प्रायश्चित्त विनिश्चयत्ति' नामकी नाथूरामजी प्रेमीने, अपनी 'ग्रन्थ-परिचय' नामकी टीका लगी हुई है। यह पूरा सटीक ग्रन्थ महा- भूमिकामें, ऐसा अनुमान प्रकट किया है कि, ३६० सभाके सरस्वती भंडारमें मौजूद है, जहाँसे सहज नम्बरकी गाथाका पाठ लेखकोंकी कृपासे कुछ हीमें प्राप्त हो सकता है। इस ग्रन्थका गहरा __ अशुद्ध हो गया जान पड़ता है और वह 'वासद्वित्तर। अध्ययन और मनन करनेसे बहुत कुछ अनुभवकी या उससे मिलता जुलता कोई और पाठ होना प्राप्ति होती है और यह मालूम होने लगता है कि चाहिए। साथ ही आपने इस अनुमानका यह कारण किस प्रकारकी परिणति द्वारा आत्मासे कर्म मल बतलाया है कि ३२ अक्षरोंके श्लोकके हिसाबसे दूर करके उसे शुद्ध और साफ बनाया जा सकता इस ग्रन्थ की श्लोक संख्या तो अब भी ४२० केही For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनहितैषी। [ भाग ५५ लगभग है; परंतु ३३३ गाथाओंके ४२० श्लोक पहली और पिछली गाथाके साथ जिन दोनोंका हो नहीं सकते। इसलिये उक्त गाथाका 'तेतीसुतर परस्पर सम्बंध है-असम्बह मालम होती है और पाठ अशुद्ध है। परंतु हमारी समझमें यह बात इसलिये हमारी रायमें प्रक्षिप्त जान पड़ती है। नहीं आई कि ३३३ गाथाओंके ४२० श्लोक क्यों ' पदं पायच्छित्तंबर नहीं हो सकते हैं। गाथा छंदमें मात्राओंका परि- मायरि भोवदेसमवगम्म । माण होता है, अक्षरोंका नहीं, और गाथाएँ भी जीदादिगाई सत्थाई बड़ी छोटी कई प्रकारकी होती हैं। इस ग्रन्थमें सम्ममवधारिऊणं च ॥३५६॥ भी वे कई प्रकारकी पाई जाती हैं और उनमें अणुकंपा कहणेण य कितनी ही गाथाएँ हमारे देखनेमें ऐसी भी आई विराम वयगहणसहतिसुखीए । हैं जिनमें ४२, ४२ अक्षर हैं। आम तौरपर सवा पादद्धत सव्वं णासह श्लोक (४० अक्षर) के करीबकी गाथा होती पावं ण संदेहो ॥३५७॥ है। ऐसी हालतमें ३३३ गाथाओंके सहजहीमें चाउव्वरणपराधविमुदि १२० श्लोक हो जाते हैं। इसलिये, हमारी रायमें णिमित्तं मए समुहिडं। ३६० नम्बरको गाथाका पाठ अशुद्ध नहीं है। णामेण छेदपिंडं साहुजगो उसके अनुसार ग्रन्थकी मूल गाथाएँ ३३३ ही हैं, प्रायरं कुण्ड ॥ ३५॥ बाकी २७ या २६ गाथाएँ 'क्षेपक' (प्रक्षिप्त) इसी तरह पर 'छेद-शास्त्र में भी तीन चार जान पड़ती हैं | गाथाओंके क्षेपक होनेका समर्थन गाथाएँ बढ़ी हुई हैं; क्योंकि उसके ६३ नम्बरके इससे भी होता है कि ग्रन्थकी'ख' प्रतिमें ११,८८, पद्यमें ग्रन्थकी गाथा-संख्या ६० दी है और इसी8८,१०२,१४६,१४७,१७०,२१४,२१५,२५६ से इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'छेदनवति' भी है। और ३०७ नम्बरवाली ११ गाथाएँ नहीं हैं और टीका-टिप्पणियोंवाली प्रतियोंसे मूल ग्रन्थोंकी इनमेंसे कई 'गा प्रतिमें भी नहीं हैं। कई गाथाएँ नक़ल उतारते हुए, लेखकोंकी नासमझीसे अक्सर - ग्रन्थमें ऐसी भी हैं जो दो दो जगह पाई जाती हैं.. एक ग्रन्थके पद्य दूसरेमें शामिल हो जाया करते जैसे ३६ नम्बरकी गाथा १६० नम्बर पर भी पाई हैं। परंतु उन्हें मालूम करके मूल ग्रन्थको उसके जाती है परंतु वहाँ वह अधिक जान पड़ती है। असली रूपमें पलिकके सामने पेश करना यह 'ख' प्रतिमें कुछ गाथाएँ ऐसी भी मिलती हैं जो ग्रंथ-संपादकोंका खास कर्तव्य है। अस्तु । इस 'क' प्रतिसे अधिक हैं और इसलिये यह नहीं कहा सग्रह ग्रन्थका सपादन आर म जा सकता कि उसका ही मूल पाठ शुद्ध है। ग्रंथ में पन्नालालजी सोनी द्वारा हुआ है जो कि ग्रंथमालाकई गाथाएँ और ऐसी होनी चाहिएँ जो दोनों का काम करते हैं। . तीनों प्रतियोंमें ही बढ़ी हुई हैं और क्षेपक हैं। मुलाचार, सटीक (प्रथम भाग)प्राचीन प्रतियोंपरसे खोज करने अथवा सो उक्त ग्रन्थमालाका १६वाँ पुष्प । पृष्ठ संख्या, तौरपर ग्रन्थके साहित्यकी जाँचका परिश्रम करने ५१६ । मूल्य, अढ़ाई रुपये।। पर वे मालम हो सकती हैं। उदाहरणके तौरपर यह श्रीव केराचार्यका सुप्रसिद्ध प्राचीन हम यहाँ ३५७ नम्बरकी गाथा को रखते हैं जो ग्रंथ है, जिसमें मुनियोंके प्राचार-विषयका अत्यु त्तम कथन है। इसके साथमें वसुनन्दी आचार्यकी * यह गाथा (११) छेदनवति में नं०५ पर पाई संकीका है. जो विक्रमकी १२वीं शताब्दीके जाती है और संभवतः उसीकी मालूम होती है। +देखो ग्रंथके फुटनोट्स। करीब हो गये हैं, और इसलिये यह टीका भी प्रायः यह गाथा कुछ पाठ भेदके साथ 'छेद शास्त्र में भी पाठ सौ वर्षकी पुरानी है। ग्रन्थ विद्वानोंके पढ़ने, पाई जाती है। मनन करने और संग्रह करनेके योग्य है। . For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक परिचय। अंक १२] इस ग्रंथके शुरूमें एक सूचना छापी गई है जयदयाल शर्मा, संस्कृत प्रधानाध्यापक इंगर जिससे मालूम होता है कि ग्रंथका परिमाण कालिज, बीकानेर । पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर अधिक होनेसे यह ग्रंथ दो खंडोंमें छापा गया है, २६० । और मूल्य, साढ़े तीन रुपये । पुस्तकके परंतु यह वजह कुछ भी मालूल नहीं होती। अन- साथमें १४ पेजका शुद्धिपत्र बहुत खटकता है। गार धर्मामृतका परिमाण इससे कम नहीं था। ६ रत्नेन्दु या पुनर्जीवन-इसमें रत्नेंदु वह प्रायः ७०० पृष्ठका पूरा ग्रंथ एक ही जिल्दमें नामके एक राजाका चरित्र है। लेखक, मुनि श्री छापा गया है और बहुत अच्छा मालूम होता है। तिलक विजयजी पंजाबी। प्रकाशक, श्रीआत्मयदि यह पूरा ग्रंथ भी बम्बईके उसी सुन्दर और तिलक ग्रन्थ सोसायटी, रतनपोल-अहमदाबाद । बारीक टाइपमें छापा जाता तो उसमे भी कम प्रष्ठ संख्या २८ । मल्य, चार आने । छपाई पृष्ठोंमें आ जाता और बहुत खूबसूरत मालूम देता। उत्तम । परंतु हमें यह देखकर अफसोस होता है कि यह ७ पंचमी माहात्म्य-(प्रथम भाग) श्री यंथ कलकत्तेमें मोटे मोटे साधारण टाइप द्वारा महेश्वर सूरिके बनाये हुए मूल प्राकृत ग्रन्थका गुजछपाया गया है। कलकत्तेमें छपवानेसे छपाईके राती अनुवाद । अनुवादक,पं०लालचंद्र भगवानदास। नर्चका जो कुछ फायदा सोचा गया होगा उससे प्रकाशक, अभयचंद भगवानदास गांधी। मिलने अधिकका नुकसान, हम समझते हैं, मोटे टाइपमें का पता. श्रीजैनधर्माभ्युदय ग्रन्थमाला, अहमदाछपनेसे फार्मोंकी वृद्धिके द्वारा हो गया होगा। बादी पोल, बडोदा । पृष्ठ संख्या, ५२ । मूल्य, और ग्रंथ भद्दा छपा तथा उसके दो खंड हो गये, पाठ श्राने। यह बात रही अलग। इस ग्रंथमें भी कागज़ घटिया त्रिभवनदीपक प्रबंध-यह श्रीजय और कमज़ोर लगाया गया है और इतने पर भी शेखर सुरिका नाना छंदोंमें रचा हुआ गुजराती इस आधे ग्रन्थमें ही तीन तरहका कागज काममें भाषाका एक अलंकृत आध्यात्मिक ग्रन्थ है। पं० । लाया गया है जो बहुत ही खटकता है और भद्दा लालचंदजीने इसका संपादन कियाहै और उन्हींकी मालूम होता है। ऐसे महान् ग्रन्थको ऐसी साधा- लिखी हुई एक १४ पेजकी उपयोगी ऐतिहासिक . रण हालतमें छपा हुआ देखकर हमें वह खुशी प्रस्तावना साथमें लगी हुई है । पृष्ठ संख्या, ८० । नहीं हुई जो कि दूसरी हालतमें ज़रूर होती।। मूल्य, आठ आने । मिलनेका पता, वही जो पंचमी (नीचे लिखी पुस्तकोंका परिचय बहत संक्षिप्त माहात्म्यका । रूपसे दिया जाता है । यद्यपि इनमेंसे कुछका मजैन विद्वानोंकी सम्मतियाँविशेष परिचय देनेकी भी हमारी इच्छा थी, परन्तु इसमें जैन धर्म और जैन समाजके सम्बन्धमें दो विसमयाभावके कारण वैसा नहीं कर सके । प्रेषक द्वानों ( श्रीयुत वरदाकान्त मुखोपाध्याय और महाशय हमें इसके लिये क्षमा करें।) रा. रा. वासुदेव गोविन्द प्राप्टे) के कुछ विचारों ५ श्रीमंत्रराज गुण कल्पमहोदधि- का संग्रह किया गया है। संग्रहकर्ता, पं० बिहारी इसमें जिनकीर्ति सरिके पंच परमेष्ठिनमस्कार लालजी असिस्टेंट मास्टर गवर्नमेंट हाई स्कूल, बारास्तोत्रकी व्याख्या हिन्दी अर्थ सहित, णमो अरिहं- बंकी। पृष्ठ, ३० । मूल्य, सवा दो आने। अजैनोंको ताणं पदके गुणरत्न मुनिकृत ११० अर्थ बिना मूल्य। भाषानुवाद सहित, योगशास्त्र और नमस्कार कल्पसे १०शालोपयोगी जैन प्रश्नोत्तरउद्धृत अनेक विषय, नवकार मंत्रसंबंधी प्राव- इस नामकी गुजराती पुस्तकका हिन्दी अनुवाद । श्यक विचार और मंत्रराजमें सत्रिविष्ट सिद्धियोंका अनुवादक, डा० धारशी गुलाबचंद संघाणी । प्रयोवर्णन, इतने विषय हैं । लेखक और प्रकाशक, पं० जक व प्रकाशक, कामदार झवेरचंद जादवजी, For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३६ जैनहितैषी। अजमेर । पृष्ठ, ६६ । मूल्य, साढ़े तीन पाने। वर्णन । बाला भाई छगन लालजी अहमदाबादकी १२ श्रीजम्बगुण रत्नमाला-इसमें श्री गुजराती पुस्तक परसे अनुवादित । पृष्ठ, १६ । जम्बुस्वामीके चरित्रका अनेक छंदोंमें वर्णन है। मूल्य, एक आना। लेखत, जेठमलजी चौरडिया, जयपुर । प्रकाशक, १८ जैनदर्शन और जैनधर्म-मिस्टर कुँवर मोतीलालची रांका, ब्यावर । पृष्ठ, ८५। हर्बर्ट वारनके अंगरेजी लेखका अनुवाद जो मि० मूल्य, छह श्राने। लालनके गुजराती अनुवाद परसे किया गया है। १२ श्रावक धर्म दर्पण-श्रावकोंके जानने पृष्ठ १६ । मूल्य, श्राध श्राना। योग्य अनेक बातोंका संग्रह। संग्रहकर्ता और शतक-यह श्रीगुणविजयजी प्रकाशक कुँवर मोतीलालजी राँका, ब्यावर, मूल्य, आचार्यके मूल ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद है जो मि० साढे तीन आने । वाडीलाल मोतीलालजी शाहके गुजराती अनुवाद १३ शीलरक्षा-इसके प्रथम भागमें शील- परसे तय्यार किया गया है। पृष्ठ, २४ । मूल्य, के १६ कड़े और द्वितीय भागमें 'दीप' कविका एक आना। रचा हुआ सुदर्शन सेठका चरित्र है। मूल्य दोनों उपर्युक्त दसों पुस्तके कुँवर मोतीभागोंका क्रमशः आघ आना और दो पाने। लालजी राँका, प्रबंधकर्ता 'जैन पुस्तक : १४ श्राविका धर्म दर्पण-यह श्रीमती प्रकाशक कार्यालयः ब्यावरके पाससे सौ० रंभावहेन रामजी, भावनगरकी लिखी हुई मिलती हैं। 'नारी दपण मां नीति वाक्य' नामक गुजराती - २० श्री आनंद काव्य महोदधि ( छठा पुस्तकका हिन्दी अनुवाद है। पुस्तक अच्छी और मौक्तिक )-इसमें वाचक श्रीनयसुन्दरके बनाये उपयोगी है। पृष्ठ, ४४ मूल्य, डेढ श्राना। हर रूप चंदकंवर रास. नलदमयंती रास और १५ जैन शिक्षण पाठमाला-लींबडी __ श्रीशत्रुञ्जयउद्दार रास, ऐसे तीन गुजराती पद्य. सम्प्रदायके मुनि श्रीगुलाबचंद्र और वीरजीकी ग्रन्थोंका संग्रह किया गया है । संग्राहक हैं जीवनचंद बनाई हुई पुस्तकका हिन्दी अनुवाद । इसमें भी साकरचंदजी झवेरी। साथमें मोहनलाल दुलीचंद अनेक उपयोगी शिक्षाएँ हैं। पृष्ठ, ६० ।. मूल्य दो जी देशाईका लिखा हुआ ६२ पृष्ठका एक सुन्दर आने । निबंध है जिसमें कविवर नयसुंदर और उनके ग्रंथों १६ उपदेशरत्नकोष—यह श्रीपद्म जिनेश्वर आदिका परिचय दिया गया है। पृष्ठ संख्या, सरिका २६ गाथा परिमाण मूल प्राकृत ग्रन्थ है सब मिलाकर ६०० के करीब । मूल्य इतने बड़े जो संस्कृत छाया तथा हिन्दी अर्थ और विवेचन सजिल्द ग्रन्थका, सिर्फ बाहर आने । यह सेठ सहित छापा गया है । हिन्दीका यह अर्थ और देवचंद लाल भाई जैन पुस्तकोदार फंड द्वारा विवेचन ग्रंथके उस गुजराती संस्करण परसे प्रकाशित हुआ है और इसीसे लागतसे भी बहुत अनुवाद किया गया है जिसको जैनहितेच्छुके सुप्र- , कम मूल्य रक्खा गया है। सिद्ध संपादक मिस्टर वाडीलाल मोतीलालजी २१ सुबोध पद्य रत्नावली-इसमें अनेक शाहने प्रकाशित किया था। पुस्तक बड़ी उपयोगी विषयोंपर जैन अजैन विद्वानोंके अच्छे अच्छे १५२ है और इसमें अच्छा व्यावहारिक उपदेश दिया गया संस्कृत पद्योंका संग्रह किया गया है और साथमें है। पृष्ठ संख्या, ५० । मूल्य, अढ़ाई आने । उनका गुजराती अनुवाद भी दिया है। छपाई १७ मार्गानुसारीके ३५ गुण-जैन धर्म- सफाई उत्तम । लेखक, सरस्वती श्रीचरण। प्रकाको अंगीकार करने अथवा श्रावक धर्मको धारण शक, पं० वाड़ीलाल डाह्याभाई, जैन सरस्वती करनेसे पहले जिन गुणोंकी आवश्यकता है उनका भवन अहमदाबाद । पृष्ठ, ६४ । मूल्य, छह पाने । For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक १२] सम्पादकीय निवेदन। ____ २२ सूरीश्वर भने सम्राट-इसमें श्रीहरि ग्वालियर । पृष्ठ, ४४ । मूल्य, दो आने । विजयसूरि और सम्राट अकबरका वृत्तान्त है जो २६ विकट जाल-समाजके पैशाचिक गुजराती, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजीके कांडका एक दृश्य । ले०, उक्त फूलचंदजी। पृष्ठ, अनेक ग्रन्थोंकी सहायतासे मुनि विद्याजयजीके ३२ । मूल्य, सवा पाना। द्वारा गुजरातीमें तय्यार किया गया है और गुज- २७ एक आदर्श जीवन-श्री हीरविजयराती लिपिमें ही अनेक चित्रों सहित छापा गया सरिका जीवन-वृत्तान्त पद्यमें । लेखक, कन्हैयालाल है। ग्रन्थ परिश्रमके साथ तय्यार किया गया है जी जैन, कस्तला । पृष्ठ, ३० । मूल्य, एक आना। और संग्रह करनेके योग्य है। प्रकाशक श्रीयशो- २-वीर हनुमान-लेखक, बाबू कृष्णविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर । पृष्ठ संख्या लाल वर्मा । पृष्ठ, ४८ । मूल्य दो पाने । ४४० । मूल्य, अढ़ाई रु० । __ . २६ अनाथी मुनि-लेखक, पं० राम२३ अध्यात्म तत्वालोक-यह मूल चरित उपाध्याय। गद्य और पद्य दोनोंमें उक्त मुनिका संस्कृत ग्रन्थ न्यायविशारद-न्यायतीर्थ मुनि श्री चरित्र है । पृष्ठ, २० । मूल्य, एक पाना । न्याय विजयजीका बनाया हुआ है और उन्हींके ३० सम्मा बलिदान-इसमें एक कथा स्वोपज्ञ गुजराती भाषानुवाद तथा विवरणसे अलं- द्वारा पशु बलिदानका निषेध करके प्राणियोंकी कृत है। साथमें अंग्रेजी अनुवाद और विवरण भी रक्षा करना ही सच्चा बलिदान बतलाया गया है । है जिसको मोतीचंद झवेरचंदजी मेहता, फर्स्ट लेखक, बाबू कृष्ण लालवर्मा। पृष्ठ, ५४ । मूल्य, असिटेंट मास्टर हाई स्कूल भावनगरने तय्यार दो भाने । किया है । अंग्रेजी, ५२ पृष्ठकी एक प्रस्तावना भी ३१ महासती सीताजी-लेखक, बा० . साथमें लगी हुई है। ग्रन्थ अनेक दृष्टियोंसे अच्छा कृष्णलाल वर्मा । पृष्ठ, ६४ । मूल्य, तीन आने । और पयोगी मालूम होता है और अच्छे ढंग ३२ द्रौपदी-ले०, मास्टर भागमल शर्मा। तथा परिश्रमके साथ तय्यार किया गया है । प्रका- पृष्ठ, २४ । मूल्य, सवा आना। शक, अभयचंद्र भगवानदास गांधी, भावनगर । ३३ चन्दनबाला-एक गुजराती लेख परपृष्ठ संख्या, सब मिलाकर एक हजारसे कुछ कम। से अनुवादित । अनुवादक, मास्टर भागमल शर्मा। मूल्य, लिखा नहीं। __पृष्ठ, २४ । मूल्य, एक आना। ____२४ वीरचंद राघवजी गांधी-जिन ३४ दयादर्पण-द्य पद्यमें, बात चीतके मिस्टर वीरचंदजी गांधीने अमरीकामें जाकर जैन तौरपर । लेखक, पं० खैरातीराम शास्त्री, जालधर्मका प्रचार किया था, उन्हींका यह दो फोटो न्धर सिटी। पृष्ठ, १६ । मूल्य, पौन आना। सहित संक्षिप्त जीवन चरित्र है जो एक गुजराती ३५ खुलासा मजाहिब-अनेक धर्मोंका लेखपरसे अनुवाद किया गया है। अनुवादक श्याम संक्षेप उर्दू भाषामें । लेखक, बाबू सुमेरचंदजो लालजी वैश्य, मुरार। पृष्ठ, ४० । मूल्य, चार एकाउण्टेन्ट पबलिक वसं पंजाब । पृष्ठ, २४ । आने । प्रकाशक, श्रीअात्मानंद जैन सभा ट्रैक्ट मूल्य, एक आना। सोसायटी अम्बाला शहर। नीचे लिखी पुस्तकें भी इसी श्री आत्मानंद जैन ट्रैक सोसायटी अम्बाला . सम्पादकीय निवेदन । शहर द्वारा प्रकाशित हुई हैं- . इल अंकके साथ जैन हितैषीका १५वाँ -२५ समाजके अधःपतनके कारण और वर्ष समाप्त होता है। हमें इस पत्रका उन्नतिके उपाय-ले०, फूलचंद अग्रवाल, मुरार संपादन भार अपने ऊपर लिये हुए पूरे For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. जैनहितैषी। [भाग 15 दो वर्ष हो चुके हैं। इस अर्से में हम हमारी इच्छा है। ये सब काम करते हुए समाजको और विशेषकर अपने पाठको- हम जैनहितैषीका संपादन यथेष्ट रीतिसे की सेवा करने में कहाँ तक समर्थ हो सके नहीं कर सकते हैं। इसलिये अब हम हैं और कहाँतक हमने इस पत्रको रीति- प्रागेसे जैनहितैषीका संपादन छोड़ते हैं नीति तथा कीर्ति को सुरक्षित रक्खा है, . और इसका भार उन्हीं अपने मित्रवर इस विषयमें एक शब्द भी कहने की ज़रू. पंडित नाथूरामजी प्रेमीको सौंपते हैं रत नहीं है। सहृदय पाठक उससे स्वयं जिनके पाग्रहसे हमने इस भारको उस परिचित हैं और साधारण जनता जैन- वक्त अपने ऊपर लिया था जब कि प्रेमी हितैषी पर लिखे हुए विद्वानोंके उन जीकी अस्वस्थताके कारण यह पत्र प्रायः विचारों परसे मालम कर सकती है जो दो साल तक बंद रहा था और लोगों कई अंकोंसे हितैषीमें प्रकाशित हो रहे इसका और अधिक बंद रहना असह्य हैं। हाँ, इतना ज़रूर कहना होगा कि हो उठा था। अस्तु; अब जनवरीसे यह शारीरिक अस्वस्थता तथा प्रेसकी गड़बड़ी पत्र अपने पुराने लब्धप्रतिष्ठ संपादक आदि कई कारणों से हम पत्रको प्रायः प्रेमीजीके संपादकत्वमें ही प्रकाशित समय पर नहीं निकाल सके हैं। यद्यपि होगा / और हम, यथावकाश, लेखों द्वारा जैन-हितैषी समाचारोंका कोई पत्र नहीं पाठकोंकी सेवा उसी तरहसे करते रहेंगे है, जिसके देरसे निकलने पर उसकी जैसे कि पहले किया करते थे। उपयोगिता नष्ट हो जाय, बल्कि एक हमारे इस संपादन कालमें जिन इतिहास प्रधान पत्र है जिसके अधिकांश विद्वानों तथा महानुभावोंने लेखों द्वारा * लेखोंके बारबार पढ़ने, मनन करने तथा इस पत्रको सहायता प्रदान की है, उनका पास रखने की ज़रूरत होती है। और हृदयसे आभार मानते हैं। साथ ही, उन इतिहासका कोई भी ऐसा पत्र नज़र लोगोंके भी आभारी हैं जिन्होंने इस नहीं माता जो ठीक समय पर निकलता पत्र पर क्रूर दृष्टि रक्खो, जिनकी दृष्टिमें हो-जैनहितैषी पहले भी इसी चालसे इसका सुमधुर और हितकर तेज भी नहीं चला पाता था-फिर भी हम अपनी समाया और इसलिये जिन्होंने इसके बंद इस त्रुटिको स्वीकार करते हैं और उसके करनेकी कोशिश की अथवा इसका शाकारण पाठकोंको जो अक्सर प्रतीक्षा- ब्दिक बहिष्कार किया; क्योंकिऐसे लोगों के जन्य कष्ट उठाना पड़ा है उसके लिये क्षमा इस व्यवहारसे हमारे सामाजिक मनुचाहते हैं। साथ ही, पाठकोसे यह भी भवमें बहुत कुछ वृद्धि हुई है, हमने कितने 'निवेदन कर देना उचित समझते हैं कि ही खास खास व्यक्तियों को पहचाना है जैनहितैषीका संपादन करते हुए हमारा और हमें यह अच्छी तरहसे मालूम हो बहुतला इतिहासका काम बकायामें पड़ गया है कि जैनसमाज कितना गुणगया है-हम एक प्रामाणिक और क्रम- ग्राहक है, ऊंचे साहित्य और ऊंचे विचाबर जैन इतिहास तय्यार करना चाहते रोको पढ़ने सुननेकी उसमें कितनी क्षमता हैं जिसके लिये हमें अभी बहुत कुछ काम तथा योग्यता है, जैन धर्मके मर्म रहस्य करना बाकी है। इधर देशसेवाके दूसरे और उसकी उदार नीतिसे वह कहाँ तक कामोंमें भी कुछ विशेष हिस्सा लेनेको परिचित है, इतिहाससे उसका कितना For Personal & Private Use Only