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________________ ३६८ प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदन भूमिकुट्टन सलिलसेचनाद्यवद्यकार्य प्रमादाचरितं । विषकण्टकशास्त्राग्निरज्जुकशा दण्डादिहिंसोप करणप्रदानं हिंसाप्रदानंम् । हिंसा रागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवण शिक्षण व्यापृतिरशु भश्रुतिः ॥” जैनहितैषी । इस स्वरूपकथनमें अनर्थदंडविरतिका लक्षण, उसके पांच भेदोका नामनिर्देश और फिर प्रत्येक भेदका स्वरूप बहुत ही जँचे तुले शब्दों में बतलाया है । और यह सब कथन तत्वार्थ सूत्र के उस मूल सूत्र में नहीं है जिसकी व्याख्या में श्राचार्य महोदने यह सब कुछ लिखा है । इसलिये यह भी नहीं कहा जा सकता कि मूल ग्रन्थके अनुरोधसे उन्हें वहाँ पर ऐसा लिखना पड़ा है। वास्तवमें, उनके मतानुसार, और जैन सिद्धान्तका भी इस विषय में ऐसा ही आशय जान पड़ता है और उसको उन्होंने प्रदर्शित किया है। अब उपासकाचार में दिये हुए इस व्रत के स्वरूपको देखियेपाशमण्डलमार्जारविषयशस्त्रकृशानवः । पापं च मी देयास्तृतीयंस्याद्गुणव्रतम् १९ इसमें श्रनर्थदंडविरतिका सर्वार्थसिद्धिवाला लक्षण नहीं है और न उसके पाँच भेदोंका कोई उल्लेख है। बल्कि यहाँ इस व्रतका जो कुछ लक्षण अथवा स्वरूप बतलाया गया है वह अनर्थदंडके पाँच भेदों में से 'हिंसाप्रदान' नामके चौथे भेद की विरति से ही सम्बन्ध रखता है । इसलिये, सर्वार्थसिद्धिकी दृष्टिसे, यह लक्षण लक्ष्य के एक देशमें व्यापनेके कारण श्र व्याप्ति दोष से दूषित है, और कदापि सर्वार्थसिद्धि के कर्ताका नहीं हो सकता । इस प्रकार के विभिन्न कथनों से भी यह ग्रंथ सर्वार्थसिद्धिके कर्ता श्रीपूज्य पाद स्वामीका बनाया हुआ मालूम नहीं Jain Education International [ भाग १५ होता । तब यह ग्रंथ दूसरे कौन से पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है और कब बना है, यह बात अवश्य जानने के योग्य है, और इसके लिये विद्वानोंको कुछ विशेष अनुसंधान करना होगा । हमारे खयाल में यह ग्रंथ पं० श्राशाधर के बादका - १३वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ मालूम होता है। परंतु अभी हम इस बातको पूर्ण निश्चयके साथ कहने के लिये तय्यार नहीं हैं। विद्वानोंको चाहिए कि वे स्वयं इस विषयकी खोज करें, और इस बातको मालूम करें कि किन किन प्राचीन ग्रंथों में इस ग्रंथ के पद्योंका उल्लेख पाया जाता है | साथ ही उन्हें इस ग्रंथकी दूसरी प्राचीन प्रतिबोंकी भी खोज लगानी चाहिए। संभव है कि उनमें से किसी प्रतिमें इस ग्रंथकी प्रशस्ति उपलब्ध हो जाय । इस लेखपरसे पाठकोंको यह बतलाने की ज़रूरत नहीं है कि भंडारोंमें कितने ही ग्रंथ कैसी संदिग्धावस्था में मौजूद हैं, उनमें कितने अधिक क्षेपक शामिल हो गये हैं और वे मूल ग्रंथकर्ता - की कृतिको समझने में क्या कुछ भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसी हालत में, प्राचीन प्रतियों पर से ग्रंथोंकी जाँच करके उनका यथार्थ स्वरूप प्रगट करने की और उसके लिये एक जुदा ही विभाग स्थापित करने की कितनी अधिक ज़रूरत है, इसका अनुभव सहृदय पाठक स्वयं कर सकते हैं। प्राचीन प्रतियाँ दिनपर दिन नष्ट होती जाती हैं । उनसे शीघ्र स्थायी काम ले लेना चाहिए । नहीं तो उनके नष्ट हो जानेपर यथार्थ वस्तुस्थिति मालूम करनेमें फिर बड़ी कठिनता होगी और अनेक प्रकारकी दिक्कतें पैदा हो जायँगी । कमसे कम उन ख़ास ख़ास ग्रंथोंकी जाँच ज़रूर हो जानी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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