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हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः ।
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ARRAMAARRR पन्द्रहवाँ भाग।
अंक १२
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जैनहितैषी।
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आश्विन २४४७ मक्तूबर १६२१
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ॥ .
नहीं दिखाता भय या किसीको, नहीं जमाता अधिकार कोई ॥
जालमें मीन । [तुकहीन ]
[१] " क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तू ? देखे नहीं मृत्यु समीप आई ! बोला तभी दुःख प्रकाशता वो“सोचूँ यही, क्या अपराध मेरा !
विरोधकारी नहिं था किसीका, निःशास्त्र था, दीन, अनाथथामैं । स्वच्छन्द था केलि करूँ नदी में, रोका मुझे जाल लगा था ही!
न मानवोंको कुछ कष्ट देता, नहीं चुराता धन-धान्य कोई । असत्य बोला नहिं मैं कभी भी, कभी तकी ना बनिता पराई ॥
[३] संतुष्ट था स्वल्प विभूतिमें ही, ईर्षा-घृणा थी नहिं पास मेरे।
, खींचा, घसीटा, पटका यहाँ यों'मानो न मैं चेतन प्राणि कोई ! होता नहीं दुःख मुझे जरा भी ! हूँ काष्ठ पाषाण समान ऐसा !!
सुना करूँ था नर-धर्म ऐसा'हीनापराधी नहिं दंड पाते। न युद्ध होता भविरोधियों से, न योग्य हैं वे वध के कहाते ॥
•इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवजा और दोनोंके सम्मिश्रणसे बने हुए उपजाति छंदमें।
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