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रक्षा करें वीर सुदुर्बलों की, "निःशल पे शत्र नहीं उठाते।" बातें सभी झूठ लगें मुझे वो, विरुद्ध दे दृश्य यहाँ दिखाई ॥ [=]
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• या तो विडाल त ज्यों कथा है, या यों कहो धर्म नहीं रहा है पृथ्वी हुई वीर- विहीन सारी, स्वाधाता फैल रही यहाँ वा ॥
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बेगार को निंद्य प्रथा कहें जो वे भी करें कार्यं जघन्य ऐसे ! श्रभयं होता यह देख भारी, 'अन्याय - शोकी निश्रायकारी !! [१०]
"कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे ? स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी ? करें पराधीन, सता रहे जो, हिंसावती होकर दूसरोंको !! [११]
भेला न होगा जगमें उन्होंका बुरा विचारा जिनने किसीका ! दुष्कृतों से कुछ भीत हैं जो, सदा करें निर्दय कर्म ऐसे !!
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मैं क्या कहूँ और कहा न जाता ! हैं कंठमें प्राण, न बोल श्राता !! छुरी चलेगी कुछ देर ही में ! स्वार्थी जनों को कब तर्सं श्राता !!"
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य दिव्य भाषा सुन मीनकी मैं, धिक्कारने खूब लगा स्वसत्ता । हुआ सशोकाकुल और चाहा, देऊँ छुड़ा बंध किसी प्रकार ॥
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जैनहितैषी ।
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पै मीनने अन्तिम श्वास खींचा !
[भाग १५
मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !!' गूँजी ध्वनी अम्बर - लोकमें यों'हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है !!"
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जुगलकिशोर मुख्तार
सरसावा ता० ६-११-१६२१
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पूज्यपाद - उपासकाचारकी जाँच |
करीब १७ वर्ष हुए, सन् १९०४ में, पूज्यपाद ' श्राचार्यका बनाया हुआ " उपासकाचार " नामक एक संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था । उसे कोल्हापुरके पण्डित श्रीयुत कलापाभरमापाजी निटवेने, मराठी पद्यानुवाद और मराठी अर्थ सहित, अपने 'जैनेन्द्र' छापेखानेमें छापकर प्रकाशित किया था । जिस समय ग्रंथकी यह छुपी हुई प्रति हमारे देखने में आई, तो हमें इसके कितने ही पद्योंपर संदेह हुआ और यह इच्छा पैदा हुई कि इसके पद्योंकी जाँच की जाय, और यह मालूम किया जाय कि यह ग्रंथ कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है। तभी से हमारी इस विषयकी खोज जारी है । और उस बोजसे अबतक जो कुछ नतीजा निकला है उसे प्रगट करनेके लिये हो यह लेख लिखा जाता है ।
लबसे पहले हमें देहली के नये मन्दिरके भण्डार में इस ग्रंथकी हस्तलिखित प्रतिका पता चला। इस प्रतिके साथ छपी हुई प्रतिका जो मिलान किया गया तो उससे मालूम हुआ कि, उसमें छपी हुई प्रतिके निम्नलिखित छह श्लोक नहीं हैं
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