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________________ अङ्क १२ ] शुद्धियाँ तथा भूलें पाई जाती हैं, जिनका एक उदाहरण नीचे दिया जाता है पुस्तक-परिचय | पाँचवें नम्बर के पद्य में 'श्रोतुः' एक पद श्राया है जिसकी जगह पर टीकामें दो स्थानों पर ' स्तोतुः' छापा गया है जो साफ़ तौर से ग़लत जान पड़ता है; क्योंकि श्रोतुः का स्तोतुः श्रर्थ नहीं होता और न स्तोताका (स्तुति करनेवालेका) वहाँ कोई सम्बन्ध है बल्कि वक्त के साथमें श्रोताका ही उल्लेख पाया जाता है । यह पूरा पद्य सनातन जैन ग्रंथमाला में प्रकाशित मूलके अनुसार इस प्रकार है कालः कलिर्वा कलुषाशयोवा भोतुः प्रवक्तुर्वचनानयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥ ५ ॥ इस ग्रंथ में भी यह पद्य इसी प्रकारसे दिया हुआ सिर्फ़ 'वचनानयः' की जगह यहाँ 'वचनाशयः' पद बनाया गया है, अर्थात, 'श्रनय' शब्दको 'आशय' से बदला है; और यह सब संशोधनका ही परि• णाम मालूम होता है । हमारी रायमें यहाँ 'वचनानयः" पद ही ठीक जान पड़ता है, 'वचनाशयः' में कोई विशेषता नहीं पाई जाती। इस श्लोक़में भगवानकी अनेकान्तात्मक शासनकी जो एकाविपतित्वरूपी लक्ष्मी है, उसकी प्रभुत्वशक्तिके अपवादका कारण बतलाया गया है और वह कलिकाल, श्रोताका कलुषाय (दर्शनमोहाक्रान्त चित्त) और वक्ताका वचनानय (वचनका श्रप्रशस्त-निरपेक्ष-नयके साथ व्यवहार) ही है, ऐसा निर्देश किया है। वक्ताका मात्रवचनाशय उस शक्तिके अपवादका कारण नहीं हो सकता। इसलिये यह संशोधन ठीक नहीं हुआ बल्कि इससे उस पदका महान् गंभीराशय ही बदल गया है। जहाँ तक हम सम ते हैं, जिन हस्तलिखित प्रतियों परसे इस ग्रंथकी " प्रेसकापी तय्यार की गई है उनमें यह पद 'वचना यः ही होगा । परंतु यदि किसीमें 'वचनाशयः' पाठ भी था तो भी जब एक सुप्रसिद्ध मुद्रित प्रतिमें दूसरा सुसंगत पाठ पाया जाता था तो कमसे कम Jain Education International ३६१ उसका उल्लेख एक फुट नोट द्वारा ज़रूर कर देना चाहिए था, जिससे पाठकों को यथार्थं वस्तुस्थितिके समझने में काफ़ी सहायता मिलती । परंतु ऐसा नहीं किया गया। इससे यह कहना शायद कुछ अनुचित न होगा कि ऐसे महान ग्रंथके संपादन श्रौर संशोधनमें जैसा कुछ परिश्रम होना चाहिए था वह नहीं हुआ । अस्तु; यह ग्रंथ अच्छे प्रौढ़ विद्वानोंके पढ़ने, दूसरे विद्वानोंको दिखलाने और पुस्तकालयों तथा मंदिरोंमें संग्रह किये जानेके योग्य है। २ षट् प्राभृतादि संग्रह - उक्त ग्रंथमाला का १७वाँ पुष्प । पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ४६० मूल्य तीन रुपये । इसमें भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के षट्प्राभृत, लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, रयणसार और द्वादशानुप्रेक्षा, ऐसे पाँच ग्रंथोंका अथवा पट्प्राभृतमें चूंकि छह ग्रंथ - दर्शनप्रा०, चरित्र प्रा० सूत्र मा०, बोधप्रा०, भावप्रा०, मोक्षप्राभृत- शामिल हैं, इसलिये दस ग्रथोंका संग्रह किया गया है। ये सब ग्रंथ प्राकृत भाषा में हैं और प्राकृतमें प्राभृतको 'पाहुड़' कहते हैं। इनमेंसे षट्प्राभृत पर श्रुतसागर सूरिकी, जो कि एक भट्टारकके शिष्य थे, संस्कृत टीका है और शेष ग्रंथों के साथ में संस्कृत छाया लगी हुई है । ग्रांथके शुरू में ग्रंथमाला के मंत्री श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीकी लिखी हुई एक ११ पेजकी भूमिका हिन्दीमें है, जिसमें भववत्कुंदकुंद और श्रुतसागर सूरिका वह परिचय दिया हुआ है जिसे पाठक हितैषीके पिछले कुछ अंकोंमें पढ़ चुके हैं । इसके सिवाय मूल ग्रंथोंकी दो गाथासूचियाँ, षट्प्राभृतकी टीकामें आये हुए उद्धृत पयोंकी सूची और प्रकीर्णक सूत्र वाक्योंकी सूची, ऐसी चार सूचियाँ देकर ग्रंथके इस संस्करणको उपयोगी बनाया गया है। 1 इस संग्रहमें द्वादशानुप्रेक्षा ( वारस श्रणु वेक्खा) नामका जो ग्रंथ है, उसके अन्तिम पयमें, 'इदिणिच्छय ववहारं जं भणियं कुंदकुंद मुणिगाहें' इस वाक्यके द्वारा, ग्रंथकर्ताका नाम भी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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