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________________ '३७४ - जैनहितैषी। [ भाग १५ जी वकील मेरठके उन विचारोंको रखते मैं नहीं समझता कि समाजमें एक हाय हैं जो उन्होंने, संभवतः इली प्रस्ताव और हुल्ला मचा देनेसे, 'धर्म चला,धर्म चला' की उसकी जन्मदात्री तथा पोषक चित्त- मावाज़ लगा देने से, किसीको अधर्मी, वृत्तियोंको लक्ष्यमें रखते हुए, एक उर्दू अश्रद्धानी और मिथ्याती कह देनेसे क्या लेखमें प्रगट किये हैं और यह दिखलाया फायदा हो सकता है। अगर कोई शख्स है कि जो मनुष्य किसी सभा या महा- धर्म शास्त्रके विरुद्ध कोई बात का सभासे ऐसा प्रस्ताव पास कराता है वह तो मेरे खयाल में उस शख्सपर वास्तवमें उस सभा या महासभाकी भी किसी किसमका जाती हमला (व्यक्तिगत सभ्य संसारमें हँसी कराता है, क्योंकि आक्षेप किये, बिना उसको गाली गलौज इस प्रकार की बातोसे किसी सभा या दिये, और बिना अपने दिल में उसकी सोसायटीका कोई सम्बन्ध नहीं है और तरफसे द्वेष लाये शांतिके साथ सिर्फ न ऐसा ठहराव करने तथा विज्ञप्ति निका- उस बातका पूरे तौर पर जवाब दे लनेका उसे कोई अधिकार ही हो सकता देनेसे जो अच्छा असर होता है, वह है। वे विचार इस प्रकार हैं-"आजकल व्यक्तिगत आक्षेप करने और गाली यानी पाँच चार सालसे केवल दिगम्बरा- गलौज देनेसे कदापि नहीं होता। नायमें कुछ ऐसी हलचल मची है और कहा जाता है कि हमको ऐसे लोगोंसे द्वेषकी भाग फैली है कि जिसका बयान कोई जाती (निजी या व्यक्तिगत) द्वेष नहीं; नहीं हो सकता। अब अक्सर जैन अस्त्रबार मगर चूँकि वे धर्मशास्त्रके विरुद्ध लिखते एक दूसरेके खंडन, एक दूसरेकी बुराई हैं, बस यही हमारी उनसे लड़ाई है। परंतु भलाई और गाली गलौजसे ही भरे रहते जब कभी उन्होंने कोई बात धर्मके विरुद्ध हैं। कुछ अर्सा हुश्रा, चन्द भाइयोंने बाज लिखी और फिर कभी कोई बात बहुत बाज़ जैन शास्त्रों और खासकर कथा प्रच्छी धर्मके अनुकूल लिखी और आप ग्रन्थों पर नुक्ताचीनी ( आलोचना) की उनकी इस दूसरी बातको भी कदरन करें, थी। जिन शब्दों में और जिस ढङ्गसे और यह सिर्फ इस स्त्रयालसे कि यह उन्होंने वह नुक्ताचीनी की थी वह बात उनके कलमसे निकली है, उस बातनिःसन्देह अनुचित, अयोग्य, अलाभकारी को भी बुरा कहे बल्कि इस दूसरी बातकी और आपत्तिजनक है। उन लोगोंका अपने प्रशंसा करनेवालोको भो बुरा कहने लगे कुछ लेखों में स्वर्ग और नरक वगैरह तो क्या आपका उनसे द्वेष जाहिर नहीं होता पदार्थोके अस्तित्वको (जो इन्द्रियवानले है ? * जरूर होता है और फिर होता है। बाहर हैं ) न मानना भी गलत है । मैं भी आप द्वेष कीजिये सिर्फ उस बातसे जो इस किसमके लेखोंको हर्गिज़ पसंद नहीं •पाबू सूरजभानजीका एक लेख 'जैनधर्मका महत्व' करता। परन्तु साथ ही इसके जिस ढङ्गसे नामका जैनहितैषीमें प्रकाशित हुआ था। यह लेख इन लेखोका विरोध किया गया या किया ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीको बहुत पसंद आया और इसकोभी पसन्द नहीं करता। उन्होंने इसकी प्रशंसा करते हुए उसे अपने पत्र 'जैनमित्र' में उद्धृत किया था। इस पर कितने ही पंडित लोग • यह लेख जैन प्रदीपके गतांक नं. ६-१० में ब्रह्मचारी जीसे भी बिगड़ गये थे और उन्हें बुरा भला 'इन्सानी फरायज' (मानवी कर्तव्य) के नामसे प्रकाशित कहने लगे थे। ऐसे कितने ही उदाहरण दिये जा सकते संपादक। जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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