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________________ वह सभा या महासभाकी भो हँसी कराता है अङ्क १२ ] किसीने धर्मशास्त्र के विरुद्ध कही हो या लिखी हो, उनकी जात (व्यक्तित्व) से या उनकी और अच्छी तथा धर्मानुसार बाता से द्वेष न कीजिये । अगर श्राप धर्मके विरुद्ध कहनेवालेकी जात और उसकी अच्छी धर्मानुसार बातोंसे भी द्वेष करेंगे तो इसका नतीजा यह होगा कि न तो आप उसको ही सच्चे मार्ग पर ला सकेंगे और न आपके कहने तथा लिखने का दुनिया में ही कुछ महत्व प्रगट होगा । अगर कोई शख्स अपने आपको जैनी कहता है या जैनधर्म को सब धर्मोसे उत्तम मानता है, निहायत नेकचलन ( अत्यंत सदाचारी ), सादा मिजाज और सच्चा है, लेकिन जैनधर्मकी किसी किली बातमें वह शास्त्र के विरुद्ध भी कहता है, तो मैं नहीं समझता कि किसी को क्या हक है कि जो उसको यह कहने लगे कि 'तू जैनी नहीं है, अधर्मी है, अश्रद्धानी है और मिथ्याती है', या अपनी किसी सभा अथवा महासभासे यह बात पास कराये कि कोई शख्स अमुक व्यक्ति को दिगम्बर जैनी न समझे ? यदि कोई ऐसा करता है तो वह वास्तव में उस सभा या महासभाका भी सभ्य संसार में मज़ाक (हास्य) कराता है । क्योंकि सामाजिक कार्यों यथा विवाहशादी वगैरह के मामलोंमें तो पंचायत, सभा या महासभा को ऐसा अधिकार हो सकता है, लेकिन मत तथा धर्म या किलीको दिगम्बर जैन समझने या न समझनेका सम्बन्ध श्रान्तरिक श्रद्धानसे है । किसी व्यक्ति, पंचायत या सभा आदिके हुकुमसे आप किसीका 'श्रद्धान नहीं बदल सकते। यह दूसरी बात है कि जबरदस्ती और हुकूमत से कोई अपना धर्म तथा श्रद्धान जाहिरदारीमें बदल दे, परन्तु अंतरंग में कोई भी जबर Jain Education International ३७५ दस्तीके साथ नहीं बदल सकता। इसलिये धर्म और श्रद्धा के मामलोंमें हुकूमत व जबरदस्ती चलाना दूसरोंको मक्कारी (दाम्भिकता) और दगाबाज़ी (माबाचारी) सिखलाना है । 1 दूसरे मतवालोंको देखिये कि वे अपना मत बढ़ाने की हर तरहसे कोशिश करते हैं । यदि कोई जरा भी उनके मतकी ओर ध्यान देता है तो वे उसकी और हिम्मत बढ़ाते हैं । यदि उनके मतका कोई आदमी उनके मतकी किसी बातसे विरुद्ध सम्मति रखता है तो वे उसको अपने मतले निकालने की फ़िकर नहीं करते, उसको अधर्मी या मंश्रद्धानी नहीं कहते, बल्कि युक्तियुक्त हेतुओंसे उसका वह धार्मिक दोष दूर करने की कोशिश करते हैं । उसको बुरा भला कहकर वा गाली गलौज देकर अथवा उसका अपमान करके उसको उस दोषमें और अधिक दृढ़ नहीं करते, न अपनी किसी सभासोसायटीसे इस बातकी विशप्ति कराते हैं कि कोई उसको उस धर्मका माननेवाला न समझे; क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकारकी बातों से किसी सभा या सोसायटीका कोई सम्बंध नहीं है, और न कोई सोसायटी इस प्रकारकी विशप्ति कर सकती है। धर्म तथा श्रद्धान ऐसी चीजें हैं कि उनकी बाबत किसी प्रकारकी विशप्ति या ठहराव पंचायत और सभा तो क्या, कोई गवर्नमेंट या बादशाह भी नहीं कर सकता । धर्म या श्रद्धाकी बाबत विशप्ति तो युक्तियुक्त हेतुओंसे समझा हुआ सच्चा हृदय ही कर सकता है। अफसोस है कि जैनसमाज नहीं देखती कि इस वक्त संसार में क्या हो रहा है, जमाना किस रंग पर है। श्राजकल तमाम लोग देशोन्नति, समाजोन्नति और धर्मोन्नतिमें For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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