SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनहितैषी। [भाग १५ लगे हुए हैं। लेकिन हमारी समाजके लोग करुणे । । ज़रा ज़रासी बातों पर आपसमें एक __(ले०-श्रीयुत भगवन्त गणपतिजी, गोयलीय।) दूसरेसे लड़ते और गालीगलौज करते हमने जवसे तुम्हें भुलाया, • रहते हैं, जिससे समाज में एक जबरदस्त अथवा तुमने हमें भुलाया; नाइत्तफ़ाकी (प्रबल अनैक्य ) फैली हुई तबसे सच कहते हैं, देवी ! पल भर मिलीन शान्ति। है और दिन प्रति दिन फैलती जाती है, बड़ी बड़ी भी की चेष्टाएँ, कि जो समाज और धर्मकी उन्नतिमें शान्ति-हेतु भोगी विपदाएँ; बाधक हो रही है। अगर हम जैनधर्मको तो भी होती रही हृदयमें, अशान्तिकारी क्रान्ति ॥ सच्चा और हितकारी धर्म समझते हैं तो - कहाँ हृदयका सरस भाव है ? इससे हम जितने जीवों को भी और जिस कहाँ सुकोमल वह स्वभाव है ? कदर भी लाभ पहुँचा सके, पहुँचाना स्वतंत्रता है कहाँ, कहाँ है निर्भयताका कोट ? चाहिए। यह नहीं कि, यदि कोई शख्स अब तो सपने सभी हो गये। जैनधर्मकी कुछ बातोंको मानता है और धैर्य शांति-सुख सभी खो गये; ,.. कुछको नहीं मानता है या कुछका विरोध खोएँ क्यों न हो रही अदया जव कि धर्मकी श्रोट ! करता है तो उसको बुरा भला कहकर तब था मूल्य न तनिक तुम्हारा, या गालीगलौज देकर बिलकुल ही अजैन . अब तुमही बस एक सहारा; बना। हमको तो अपने धर्मके बढ़ानेकी देख लिया हमने अदयाका तत्व अंतमें नाश । कोशिश करनी चाहिए न कि कम करनेको। देवी इस हिंसालु हृदयको, अगर वह कुछ भी इस वक्त जैनधर्मको द्वेष आदिके दोष-निचयको; मानता रहेगा तो यह मुमकिन हो सकता कर सकती हो चरण-धूल से पूत करो श्रावास ॥ है कि वह आगेको इस जन्ममें या अगले बड़े विकल हैं शानो श्रानो, जन्ममें पूरे पूरे तौरसे जैनधर्मको ग्रहण करुणा हो मत घृणा दिखाओ कर ले। लेकिन अगर हम इस वक्त उसको क्षमा करो अपराध पुराने कर करुणाकी कोर । गालीगलौज देकर,अधर्मी और श्रद्धानी मेरी ही छाया डरवानी, कहकर अपने धर्मसे निकालते हैं तो पवन भयानक.संदेश लानी; इसके ये अर्थ है कि हम उसको अपनी प्रकृति मृत्युके साज सजाती दौड़ो मेरी ओर ॥ अशुभ परिणतिको काममें लाकर जैनधर्मसे हटाते हैं। अतः जैन समाजमें हर एक व्यक्तिका यह कर्तव्य होना चाहिए कि वीरपुष्पांजलि पर लोकमत। वह अशुभ परिणतिसे बचे और लमा- 'वीर पुष्पांजलि' नामकी जो पुस्तक जमें ऐसे कारणों तथा साधनों को पैदा न अभी हाल में प्रकाशित हुई है उसपर लोकहोने दे कि जिनसे अपनी और दूसरोकी मत क्या है, यह जानने के लिये जनताके अशुभ परिणति होती हो।" कुछ विचार नीचे प्रकाशित किये जाते हैं -श्रीयुत पं० भगवन्त गणपति जी गोइलीय (कवि) बम्बई। ..."थोड़े शब्दोंमें सुन्दरतापूर्वक इतने ऊँचे भावोंको गँथनेवाली और साथ ही छन्द तथा काव्यशास्त्र की रक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy