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________________ अङ्क १२] पुस्तक परिचय। नहीं की कि उस दृष्टि तथा अपेक्षाको खोलकर है कि उन्होंने कुंदकुंदाचार्यके निदोष सिद्धान्तोंको दिखलाये. कि जिसको लेकरमल गंथकारने दर्शन- टीकामें किस तरह पर विकत अथवा दृषित किया हीनको अवंदनीय ठहराया है और जिसको खोल है और किस तरह पर श्री कुंदकुंदके उस माध्य. कर दिखलाना टीकाकारका मुख्य कर्तव्य था। स्थ भाव (औदासीन्य) का अपहरण किया है इससे पाठक समझ सकते हैं कि टीकाकारके जो कि उन सैद्धान्तिक विवादोंके सम्बन्धमें था उक्त उदार मूल ग्रंथसे कितने असम्बद्ध हैं। इस जो उनके समयमें उत्पन्न नहीं हुए थे-वादको प्रकारके सम्बद्ध और अशिष्ट व्यवहार-सचक उत्पन्न हुए है । अस्तु। बीसियों उदाहरण टीकामें से दिये जा सकते हैं। अब हम ग्रंथके सम्पादन सम्बन्धमें भी एक कहीं कहीं टीकाकारने अपने प्रयोजनके लिये मलको बात निवेदन कर देना चाहते हैं और वह यह है कुछ परिवर्तित भी किया मालूम होता है। जैसा कि कि यद्यपि ग्रंथका संपादन आम तौरसे बुरा नहीं दर्शन प्राभृतकी १२वीं गाथामें 'पाए पाडंति' की हुआ, अच्छा जान पड़ता है, परंतु उसमें कहीं जगह ‘पाए ण पडंति' बनाया है और फिर टीका- कहीं कुछ मोटी अक्षम्य भूलें पाई जाती हैं जिनका में उसपर एक उद्गार प्रकट किया है। इस परि- कि एक उदाहरण नीचे दिया जाता हैवर्तनके बाद अगली गाथा 'जेवि पडति का फिर सूत्र प्राभृतकी २१वीं गाथाकी टीकामें वह अर्थ नहीं रहता जो कि किया गया है। इसपर 'उक्तंच समन्तभद्रेण महाकविना' इस वाक्यके साथ टीकाकारने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। चार पद्य उद्धृत किये गये हैं। ये चारों पब हमारी रायमें यह टीका जैन साहित्यका स्वामिसमन्तभद्राचार्यके बनाये हुए नहीं हैंएक कलंक है। इसकी रोशनीमें पढ़नेसे मल ग्रंथ, टीकाकार आदिकी किसी भूलसे ऐसा उल्लेख जो कि स्वतः निर्दोष है, बहुत कुछ विकृत, संकीर्ण हुआ है, यह समझकर सम्पादक महाशय और सदोष मालूम होने लगता है। ऐसी कृतियों- पं० पन्नालालजी सोनीने उक्त वाक्यके 'समन्तके अवलोकनसे प्रायः अशुभ प्रास्रवकी उत्पत्ति भद्रेण' पदपर एक फुट नोट दिया है जो इस होती है और साथ ही साम्प्रदायिक देष-भाव प्रकार हैबहता है और यह ऐसी ही कृतियोंका फल है "पुस्तकद्वयेऽपि ईगेव पाठः। जो समाजमें संकीर्ण-हृदयता फैली हुई है, धर्मके अस्यस्थाने सोमदेवेनेति युक्तं भाति।" नामपर अनेक झगड़े टंटे चल रहे हैं, शक्तिका इस फुट नोटके द्वारा यह सूचित किया गया दुरुपयोग हो रहा है और सद्भाव कायम होने में है कि टीकाके उक्त वाक्यमें 'समन्तभदेण' की नहीं आता। श्रुतसागर सूरि विद्वान् ज़रूर थे जगह 'सोमदेवेन' पाठ ठीक मालूम होता है। परंतु उनमें साधुजनोचित श्रात्म-बलकी बहुत बटि क्योंकि ये चारों पद्य सोमदेव सूरिके बनाये हुए थी, ऐसा इस टीकापरसे साफ़ तौरपर संलक्षित हैं। इनमेंसे 'एकादशके स्थाने' इत्यादि चोकको होता है। प्रोफेसर पिटसन साहबने भी अपनी तो उद्धृत श्लोकोंकी सूचीमें भी साफ तौरसे रिपोर्टमें, आपको 'क्रूर (Fierce) दिगम्बर' सोमदेव सूरिका बनाया हुआ लिखा है और उनके लिखा है और कुछ उदाहरण देकर यह बतलाया 'यशस्तिलक' ग्रंथका प्रकट किया है । इस उल्लेखके His (Kundkundacharya's) com कारण हमने समूचे यशस्तिलकको बहुत कुछ mentator is a fierce Digamber, and __टटोला और जब उसमें इन चारों पयोंमेंसे कोई amply fulfills the promise with which he starts that he will devote the grea भी पद्य हमारी नज़र नहीं पड़ा, बल्कि जिन ter part of his attention to crushing the rival sect. But his zeal in that disputes, which inay have arisen after matter throws wbat seeins to me Kund his own time. into strong relief. kunda's own indifference to coctrinal -Peterson.. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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