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जनहितैषी।
[भाग १५ जाता है कि वे कौन कौनसे ग्रंथके पद्य हैं। छपी हुई प्रतिमेसे, ऊपर दिये हुए, २१ गोपुच्छिक श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः। श्लोक और देहलीवाली प्रतिमेंसे २५ श्लोक निपिच्छति पंचैते जैनाभासः प्रकीर्तिताः१० कम कर देने पर वह पूज्यपादका उपास
यह पद्य इन्द्रनन्दिके 'नीतिसार काचार रहता है, और उसका रूप प्रायः ग्रंथका पद्य है और उसमें भी नं. १० वही है जो पाराकी प्रतियों में पाया जाता पर दिया हुआ है।
है। संभव है कि ग्रन्थके अन्तमें कुछ सज्जातिः सद्ग्रहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेंद्रता। पद्यों की प्रशस्ति और हो और वह किसी साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निकाणं चेति सप्तधा ५६ । जगहकी दूसरी प्रतिमें पाई जाती हो ।
यह पद्य, जो देहलीवाली प्रतिमें उसके लिये विद्वानों को अन्य स्थानोंकी पाया जाता है, श्रीजिनसेनाचार्य के प्रादि प्रतियाँ भी खोजनी चाहिएँ। पुराणका पध है और इसका यहाँ पूर्वापर अब देखना यह है कि यह ग्रंथ कौनसे पद्यों के साथ कुछ भी मेल मालूम नहीं “पूज्यपाद” आचार्यका बनाया हुआ है। होता।
'पूज्यपाद' नामके प्राचार्य एकसे अधिक आप्तस्या सन्निधानेऽपि पुण्ययाकृतिपूजनम् । हो चुके हैं। उनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध तार्थमुद्रानकिं कृयुर्विषसामर्थ्यसूदनम् ।।७३॥ और बहुमाननीय आचार्य जैनेन्द्र व्या.यह श्री सोमदेव सूरिके यशस्तिलक
करण तथा सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थोंके ग्रंथका पद्य है और उसके आठवे आश्वाकता हुए है। उनका दूसरा नाम 'देवसमें पाया जाता है।
नन्दी' भी था; परन्तु देवनन्दी नामके भी अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शास्वतः ।
कितने ही प्राचार्योका पता चलता है * । नित्यं सन्निहितोमृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ९५
इससे पर्याय नामकी वजहसे यदि यह चाणक्यनीतिका श्लोक है।
उनसे ही किसीका ग्रहण किया जाय तो ., टीका टिप्पणियों के श्लोक किस प्रका
किसका ग्रहण किया जाय, यह कुछ रसे मृल ग्रन्थमे शामिल हो जाते हैं, इसका
समझमें नहीं पाता । ग्रन्थके अन्तमें अभी विशेष परिचय पाठकोंको 'रत्न करंडक
तक कोई प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हुई और
न ग्रंथके शुरूमें किसी प्राचार्यका स्मरण श्रावकाचारकी जाँच' नामके लेख द्वारा
किया गया है। श्राराकी एक प्रतिके अन्तमें कराया जायगा।
समाप्तिसूचक जो वाक्य दिया है वह यहाँ तकके इस सब कथनसे यह
इस प्रकार हैबात बिलकुल साफ हो जाती है कि छपी । हुई प्रतिको देखकर उसके पद्योंपर जो
"इति श्रीवासुपूज्यपादाचार्थविरचित कुछ संदेह उत्पन्न हुआ था, वह अनुचित उपासकाचारः समाप्तः।" नहीं था बल्कि यथार्थ हीथा, और उसका इसमें पूज्यपादसे पहले 'वासु' शब्द निरसन प्राराकी प्रतियों परसे बहुत ---- कुछ हो जाता है। साथ ही, यह बात एक देवनंदी विनयचंद्रके शिष्य और " दिसंधान " ध्यानमें आ जाती है कि यह ग्रन्थ जिस की 'पदकौमुदी' टीकाके कर्ता नेमिचंद्रके गुरु थे, और एक--
देवनंदी आचार्य ब्रह्मलाज्यकके गुरु थे जिसके पढ़नेके लिये। रूपसे छपी हुई प्रतिमें तथा देहलीवाली
संवत् १६२७ में 'जिनयज्ञकल्प' की वह प्रति लिखी गई प्रतिमें पाया जाता है, उस रूपमेवह पूज्य. थी जिसका उल्लेख सेठ माणिकचंद्रके 'प्रशस्ति संग्रह' पादका "उपासकाचार” नहीं है, बल्कि रजिष्टरमें पाया जाता है।
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